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दुख-दर्द

मेरे दुखी पत्रकार साथी, न बनिए सर्कस का हाथी

सर, आजकल मैं बहुत परेशान हूं। नौकरी तो कर रहा हूं लेकिन सही सेलरी और सही पद से दूर हूं। अन्य जगहों पर कोशिश की पर सभी मंदी की बात कह रहे। आईबीएन7 और जी, यूपी में सेलेक्शन हुआ, पर हाथ में कुछ न आया। सिर्फ निराशा मिल रही है। सात साल से एक ही जगह काम करने से मेरी इमेज भी डाउन हो गई है। साथ ही, मेरी किस्मत भी कुछ अच्छी नहीं है। मेरे जूनियर अच्छे जगहों पर, बड़े पदों काम कर रहे हैं। समझ में नहीं आता है किधर जाऊं?एक पत्रकार, दिल्ली।

सर, आजकल मैं बहुत परेशान हूं। नौकरी तो कर रहा हूं लेकिन सही सेलरी और सही पद से दूर हूं। अन्य जगहों पर कोशिश की पर सभी मंदी की बात कह रहे। आईबीएन7 और जी, यूपी में सेलेक्शन हुआ, पर हाथ में कुछ न आया। सिर्फ निराशा मिल रही है। सात साल से एक ही जगह काम करने से मेरी इमेज भी डाउन हो गई है। साथ ही, मेरी किस्मत भी कुछ अच्छी नहीं है। मेरे जूनियर अच्छे जगहों पर, बड़े पदों काम कर रहे हैं। समझ में नहीं आता है किधर जाऊं?एक पत्रकार, दिल्ली।

सर, मैं एक न्यूज चैनल का पत्रकार हूं। मैंने शुरू से तय कर लिया था कि पत्रकारिता को ही अपना भविष्य बनाऊंगा परंतु मुझे यहां बहुत निराशा मिली। मैं लगभग 18-19 वर्षों से पत्रकारिता से जुड़ा हूं। शुरुआत मैंने भारत दूत अखबार से किया था पर वहां मैं ठगा गया। अब तो घर वाले भी कहते हैं कि तुम बेकार हो। कृपया मार्गदर्शन करें। मैं बहुत दुखी हूं। -एक पत्रकार, वाराणसी।


आजकल ऐसे ढेरों पत्र मेरे पास आ रहे हैं। साथियों के दुख से दुखी होना स्वाभाविक है लेकिन सिर्फ दुखी होने से साथियों का दुख कम होने वाला नहीं है। इन्हें मैं क्या समझाऊं, मुझे खुद समझ में नहीं आ रहा। लेकिन अपनी सीमित देहाती बुद्धि से जो कुछ सोच पा रहा हूं, वह लिखने जा रहा हूं ताकि इस तरह की स्थितियों से दो-चार हो रहे पत्रकार साथियों को कोई रास्ता नजर आ जाए। इतना जरूर कहूंगा कि किसी के समझाने से कुछ नहीं होता। सिर्फ रास्ता समझ में आ सकता है। उस पर चलना और जूझना आपको ही है।

सबसे पहले दिल्ली के पत्रकार साथी की दिक्कत। एक जगह लगातार काम करने से जो असंतुष्टि और रुटीन सा जीवन हो जाता है, वो इन्हें झेलना पड़ रहा है। सेलरी और पद से संतुष्ट नहीं हैं। जूनियर लोग दूसरे जगहों पर सीनियर पदों पर चले गए हैं। नए जगहों पर प्रयास करने पर सफलता नहीं मिल रही है। क्या किया जाए?  भई, आपकी समस्या बहुत बड़ी नहीं है। दिक्कत केवल सोचने के तरीके में है। जरा इस तरह सोचिए, आप उन लाखों बेरोजगारों से अच्छे हैं जिन्हें कुछ हजार रुपये की नौकरी भी नहीं मिल रही है। गांधी जी के शब्दों में, जब भी अंदर कोई दिक्कत महसूस हो तो समाज के सबसे हाशिए पर बैठे मनुष्य के बारे में सोचो, जिसे दो जून की रोटी भी नसीब नहीं है। तब आपको लगेगा कि दुनिया में कितना गम है, मेरा गम कितना कम है। चलिए, मान लिया कि आप अपने से नीचे वालों को, और अपने से ज्यादा दुखी लोगों से कोई कंपटीशन नहीं रखना चाहते, आपका मकसद उपर वालों से और ज्यादा सुखी दिख रहे लोगों जैसा होना है। फिर तो आपको कुछ चीजें तय करनी होंगी।

पहली चीज तो ये कि आप मान लीजिए कि आप तिकड़मबाज टाइप के आदमी नहीं हैं वरना आप अब तक जिस संस्थान में हैं, उसी संस्थान में तरक्की की सीढ़ियों को चढ़ गए होते। कई संस्थानों में तो पुराने लोगों को विशेष तौर पर प्रमोट किया जाता है क्योंकि उन्हें निष्ठावान माना जाता है, उन्हें आज्ञाकारी माना जाता है, उन्हें विश्वसनीय माना जाता है। अगर आप प्रबंधन के प्रिय नहीं हो पाए हैं तो आपको सोचना पड़ेगा कि आप पत्रकारिता के इतर क्या कर सकते हैं। आप अभी तक घुमा फिराकर पत्रकारिता की दुनिया में ही जद्दोजहद कर रहे हैं। पत्रकारिता के जिस पेशे में आप हैं, वहां कितनी पत्रकारिता हो रही है, इसे आप खुद समझ रहे होंगे। किसी बैंक क्लर्क सी लाइफ जीने लगते हैं पत्रकार। किसी आदर्श की बजाय लाभ-हानि के गणित पर काम करने लगे हैं पत्रकार। तो आप एक तो पत्रकारिता को लेकर जो हवाई खयाल बना रखे हैं, उसे रीयलिस्टिक बनाइए और मान लीजिए कि आजकल पत्रकारिता करने, रामनामी बेचने और रंडियों की दलाली करने में कोई फर्क नहीं है क्योंकि तीनों ही तरह से पैसा आता है और तीनों ही कामों का मकसद पैसा कमाना है। जब आप यह मान लेते हैं तो आप अपने आगे एक बहुत बड़ी दुनिया खोल लेते हैं। आप सोचिए कि आप कम से कम पैसे का कौन सा काम शुरू कर सकते हैं जिससे आपको मुनाफा हो।

हम आप जिस पृष्ठभूमि से आते हैं, वहां हमने खुद को एक ग्राहक के रूप में ही पाया है। कभी विक्रेता नहीं बने हम लोग। विक्रेता बनने का संस्कार और स्वभाव नहीं है हम लोगों में। तो आप खुद में एक विक्रेता को देखिए। आप बेच सकते हैं, इसे मानिए। रही बात, बेचना क्या है, तो इस पर गंभीरता से सोचिए। आप सब बेच सकते हैं, विचार से लेकर अचार तक। अखबार और पत्रकारिता विचार बेचने का काम है। विचार बेचकर यहां पैसा कमाया जाता है। थोड़ा पत्रकार कमाता है, ज्यादा मालिक को कमवाता है। अचार बेचकर आप खुद कमाएंगे। तो आप कुछ दिनों के लिए एक नाटक कीजिए। मान लीजिए की आप किसी ड्रामा कंपनी में काम करते हैं और आपको अचार विक्रेता का रोल दिया गया है। आप अपने घर-गांव से, या अपनी पत्नी से या फिर किसी पड़ोसी घरेलू महिला से जो अचार बनाने में कुशल हो, किसी मौसमी सब्जी या फल का अचार बनवाइए और उसे कुछ जनरल स्टोरों पर रखवाइए। जनरल स्टोरों से कमीशन तय करिए, उन्हें बेचने पर ठीकठाक कमीशन दीजिए। वो न मानें तो रिक्वेस्ट करिए और कुछ दिन रखने को कहिए। छोटे-मोटे होटलों में ले जाइए।

अगर पचास जगह आप एप्रोच करेंगे तो दस जगह आपका अचार टेस्टिंग के बतौर रख लिया जाएगा। फिर आप कुछ दिनों बाद उनके यहां जाकर पता करिए। अगर थोड़ा बहुत माल बिकता है तो आप यह मानकर चलिए कि आपका काम बेहद सफल है। नहीं भी बिकता है तो आप मानकर चलिए कि आपने बेचने की दिशा में बहुत बड़ी सफलता हासिल कर ली है, दस जगहों पर अपना माल रखवाने की बात करके आपने अपने व्यक्तित्व के एक नए द्वार को खोल दिया है। अचार एक प्रतीक है जो बड़ी आसानी से हमारे आपके घरों में, बिना खर्चे में बनकर तैयार हो जाता है। ऐसे ही पचास काम हैं। ऐसा काम सोचिए जिसमें आप अब तक की अपनी प्रतिभा, ज्ञान, अनुभव का अच्छे से इस्तेमाल कर सकें। बिलकुल नया काम शुरू करने से बचिए। जब आप कोई एक काम शुरू करते हैं, तो आप हर रोज उस काम के बारे में कुछ न कुछ सीखते हैं। ढेरों असफलताएं ही किसी नए सफलता के रास्ते पर ले जाती है। यही सीखना ही आपको आगे ले जाएगा और वो सब दिलाएगा जो आप चाहते हैं। पता नहीं आपने वो किताब पढ़ी है कि नहीं, मेरा चीज किसने हटाया। डा. स्पेंसर जानसन लिखित इस किताब को हिंदी में मंजुल प्रकाशन ने प्रकाशित किया है। इसे पढ़िए तो आपको समझ में आएगा कि दुनिया को किस तरह समझा -बूझा और जीता जाता है।

दोस्त, दिक्कत अपनी किस्मत में नहीं है। अपनी सोच में है। इस सोच को बदल डालिए। अपने इगो को निकाल फेंकिए। सहज बुद्धि का इस्तेमाल करिए। भारी-भारी मान्यताओं और तर्कों से बाहर निकलिए। दुनिया क्या कहेगी, लोग क्या सोचेंगे जैसी निम्न मध्य वर्गीय और मध्य वर्गीय सोच से बाहर निकलिए। अमिताभ बच्चन हों या दिवंगत धीरूभाई अंबानी, कोई जन्मना अमीर या सफल नहीं था। सबने जूते घिसे हैं, भूखे सोए हैं, यहां-वहां भटके हैं, कई तरह के काम किए हैं, तब जाकर वो किसी एक फील्ड में सेटल हो पाए। उम्मीद करता हूं, मेरे इस जवाब में दूसरे साथी को भी अपना जवाब मिल गया होगा। अगर आप दोनों कुछ डिस्कस करना चाहते हैं तो मुझे फिर ई-मेल करिएगा, लेकिन मेरा अनुरोध है कि बात करने से ही बात नहीं बनती, आपको सड़क पर उतरना पड़ेगा। आपको खुद कुछ करना होगा। दुनिया में मेरे जैसे करोड़ों सलाहकार घूम रहे हैं। सबकी बात सुनना छोड़िए, अपनी धुन के पक्के बनिए। कुछ नया करने में किंतु परंतु अगर मगर लेकिन और…जैसे शब्द आड़े आ रहे हैं तो फिर आप घर-बार छोड़कर हिमालय की तरफ कूच कर जाइए जहां किसी झांय-झांय किच-किच का सामना नहीं करना होगा। नहीं, तो फिर इस जालिम दुनिया के दंद-फंद को समझना-बूझना और जीना सीखिए, मेरे भले साथी। थोड़ा बिगड़िए, थोड़ा होशियार बनिए, थोड़ा वाचाल बनिए और थोड़ा बनिया बनिए………नहीं तो फिर जिस ‘बनिया’ के रहमोकरम पर अभी तक जी रहे हैं, उसे कांटीन्यू रखिए। अंत में दो लाइनें, डंगवाल जी की कविता से साभार- इतने भले न बन जाना साथी, जैसे सर्कस का हाथी।

आभार के साथ

यशवंत सिंह

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एडिटर, भड़ास4मीडिया

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