वे बृजलाल उत्तर प्रदेश के सर्वाधिक ताकतवर पुलिस अधिकारी माने जाते हैं. मौजूदा सरकार के नाक-कान के बाल माने जाते हैं. संभावित प्रदेश पुलिस महानिदेशक माने जाते हैं. लेकिन इन्ही बृजलाल को अपने खिलाफ मुक़दमा नहीं दर्ज होने देने तथा संभवत इसके बाद अपनी गिरफ़्तारी रुकवाने के लिए हाईकोर्ट जाना पड़ता है और हाईकोर्ट में उनकी याचिका खारिज हो जाती है.
इलाहाबाद हाईकोर्ट में क्रिमिनल मिसेलेनियस रिट पेटिशन संख्या 18446/ 2011 बृजलाल से ही संबंधित है. बृजलाल और एक अन्य बनाम उत्तर प्रदेश सरकार एवं अन्य का मामला है. याचिका खुद बृजलाल की तरफ से दायर कराई गई. इस मामले में आज माननीय न्यायाधीश एस सी अग्रवाल ने निर्णय सुना दिया. इस प्रकरण पर बृजलाल की तरफ से वरिष्ठ अधिवक्ता उमेश नारायण शर्मा एवं चन्दन शर्मा तथा प्रतिवादी संख्या दो, निलंबित आरक्षी ब्रिजेन्द्र यादव की तरफ से राम अवतार वर्मा ने न्यायालय में बहस की.
याचीगण द्वारा न्यायिक मैजिस्ट्रेट, गाजीपुर द्वारा मिसेलिनियस क्रिमिनल केस संख्या 533/ 2011 (ब्रिजेन्द्र सिंह यादव बनाम श्री बृज लाल एवं अन्य) में दिनांक 12.9.2011 को 156 (3) दंड प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत इन लोगों के विरुद्ध मुक़दमा पंजीकृत करने के आदेश को निरस्त करने हेतु यह रिट याचिका दायर की गयी थी. यानि जो व्यक्ति स्वयं प्रदेश के स्पेशल पुलिस महानिदेशक (क़ानून व्यवस्था और अपराध) हैं उनके द्वारा स्वयं के खिलाफ एक मजिस्ट्रेट द्वारा मुक़दमा दर्ज करने के आदेश देने पर उसका अनुपालन नहीं किया गया और उसे निरस्त कराने के लिए उच्च न्यायालय जाना पड़ा. शायद यह अपने आप में एक विचित्र स्थिति ही समझी जायेगी. हो सकता है इसका एक कारण यह हो कि बृज लाल को अपनी पुलिस बल पर यह भरोसा ना हो कि वह इस मामले में उनके मनोनुकूल विवेचना करेगी.
निर्णय के अनुसार बृज लाल के वकील ने यह दलील दी कि उनके मुवक्किल प्रदेश के स्पेशल पुलिस महानिदेशक (क़ानून व्यवस्था और अपराध) हैं तथा शेष याची भी उच्चपदस्थ पुलिस अधिकारी हैं. प्रतिवादी संख्या दो (अर्थात पुलिस बल के अधीनस्थ अधिकारियों के अधिकारों के लिए लड़ रहे ब्रिजेन्द्र सिंह यादव) के खिलाफ विभाग द्वारा अनुशासनात्मक कार्यवाही की गयी है और अतः वे जानबूझ कर बदले की भावना से इन लोगों के खिलाफ 156 (3) दंड प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत फर्जी मुक़दमा पंजीकृत करा रहे हैं. याची की तरफ से यह दलील दी गयी कि ब्रिजेन्द्र सिंह यादव द्वारा न्यायिक मजिस्ट्रेट के समक्ष जो वाद प्रस्तुत किया गया उसमें किसी प्रकार के संज्ञेय अपराध का जिक्र ही नहीं था और अतः उसमें पुलिस को विवेचना करने का अधिकार नहीं है. अर्थात बृज लाल स्वयं अपनी ही पुलिस के अधिकारों को चुनौती देने उच्च न्यायालय पहुँच गए थे.
ब्रिजेन्द्र यादव के अधिवक्ता राम अवतार वर्मा ने बहस में कहा कि चूँकि इस रिट के वादी सभी एक मुकदमे में अभियुक्त हैं अतः उन्हें मैजिस्ट्रेट द्वारा 156 (3) दंड प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत दिये गए आदेश को चुनौती देने का कोई अधिकार नहीं है. ब्रिजेन्द्र सिंह यादव के अधिवक्ता द्वारा कहा गया कि 156 (3) दंड प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत आवेदन पत्र इस आशय से दिया गया था कि उस आवेदन के प्रतिवादी गण, जिनमें बृज लाल तथा अन्य शामिल हैं, द्वारा अवैध रूप से साढे तीन लाख पुलिस कर्मियों से प्रति माह पचीस रुपये की वसूली की जाती है जिसका कोई हिसाब किताब नहीं रखा जाता. ब्रिजेन्द्र यादव ने इस अवैध कटौती को एक जनहित याचिका के जरिये चुनौती दी थी जिसमें इन आईपीएस अधिकारियों के खिलाफ निर्णय होने के बाद ये लोग उन्हें हर तरह से प्रताड़ित कर रहे हैं. अतः उन्हें जानबूझ कर ड्यूटी से गैरहाजिर दिखा कर निलंबित कर दिया गया.
उच्च न्यायलय ने अपने निर्णय में कहा कि इस वाद में मुख्य प्रश्न यह है कि क्या एक प्रस्तावित प्रतिवादी द्वारा 156 (3) दंड प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करने सम्बंधित मैजिस्ट्रेट द्वारा दिये गए आदेश को रिट याचिका में इस तरह चुनौती दिया जा सकता है. उच्च न्यायालय की फुल बेंच ने इस सम्बन्ध में फादर थोमस बनाम उत्तर प्रदेश सरकार (2011 (1) एडीजे 333) में यह आदेशित किया कि 156 (3) दंड प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत किये गए आदेश के विरुद्ध कोई रिट याचिका नहीं की जा सकती. इस सम्बन्ध में बादशाह बनाम ख्वाजा नजीर अहमद (एआईआर 1945 पीसी 18), हरियाणा सरकार बनाम भजन लाल (एआइआर 1992 एससी 604), अजित सिंह उर्फ मुरहा बनाम उत्तर प्रदेश शासन (2006 (56) एसीसी 433) आदि महत्वपूर्ण निर्णयों का भी उल्लेख उच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में किया.
उच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में यह कहा कि यद्यपि यह सही है कि ब्रिजेन्द्र सिंह यादव द्वारा न्यायिक मैजिस्ट्रेट को जो प्रार्थना पत्र प्रस्तुत किया गया था उसके अनुसार अभियुक्तगण 120-बी तथा 166 आईपीसी के मुलजिम बन रहे हैं जो असंज्ञेय अपराध हैं, पर उच्च न्यायालय की भी यह समस्या है कि चूँकि फादर थोमस के मामले में तीन सदस्यीय बेंच ने यह आदेशित कर दिया है कि प्रस्तावित अभियुक्त द्वारा 156 (3) दंड प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत किये गए आदेश के विरुद्ध कोई रिट याचिका नहीं की जा सकती अतः उच्च न्यायालय की यह एक सदस्यीय बेंच इसके विरुद्ध कोई निर्णय नहीं ले सकती और उसे तीन सदस्यीय बेंच के निर्णय का ही पालन करना पड़ेगा.
अंत में उच्च न्यायालय ने आदेशित किया कि उपरोक्त के सन्दर्भ में बृजलाल एवं अन्य की यह रिट याचिका खारिज की जाती है. हाँ, बृज लाल तथा अन्य वादी को यह अधिकार दिया गया कि जब उनके विरुद्ध नियमानुसार एफआईआर हो जाता है तो वे दो-सदस्यीय बेंच के सम्मुख इस एफआईआर को निरस्त कराने के लिए पुनः रिट याचिका दायर कर सकते हैं.
कुल मिला कर उत्तर प्रदेश में बड़ी अजीब स्थिति है. स्पेशल डीजी के खिलाफ न्यायिक मैजिस्ट्रेट मुक़दमा दर्ज करने के आदेश करते हैं तो क़ानून व्यवस्था और अपराध के स्पेशल डीजी मुक़दमा दर्ज नहीं कराते बल्कि उसे निरस्त कराने को कोर्ट लाते हैं. क्यों? क्या उन्हें लगता है कि उनकी पुलिस सही तफ्तीश नहीं करेगी या उन्हें भी इस मुकदमे में झूठा फंसा देगी? यह ठीक है कि ब्रिजेन्द्र यादव के आवेदन के अनुसार 120-बी तथा 166 आईपीसी के अपराध बन रहे हैं पर यदि प्रदेश के स्पेशल डीजी 120-बी तथा 166 आईपीसी के भी अभियुक्त हैं तो क्या यह बहुत गंभीर स्थिति नहीं है? 166 आईपीसी का अर्थ हुआ किसी लोक सेवक द्वारा जानबूझ कर किसी विधिसम्मत आदेश की अवहेलना करना अथवा एक जनसेवक के रूप में ऐसे कृत्य जानबूझ कर करना जो किसी व्यक्ति को हानि पहुंचा सकता है. इस अपराध के लिए एक साल की सजा मुक़र्रर है. तो क्या प्रदेश के स्पेशल डीजी ऐसे ही होने चाहिए जो विधि सम्मत आदेश की जानबूझ कर अवहेलना करने के लिए आरोपित किये गए हों?
यह सभी प्रश्न ऐसे हैं जिन पर उत्तर प्रदेश पुलिस को चिंतन करना पड़ेगा. मैं एक बार फिर बहादुरी भरे काम के लिए आरक्षी ब्रिजेन्द्र सिंह यादव की भूरी-भूरी प्रशंसा करती हूँ जो अपनी जान जोखिम में डालकर प्रदेश के बहुत ताकतवर अधिकारियों से सत्य की लड़ाई में मोर्चा लिए हुए हैं. क्या यह जघन्य कृत्य नहीं है कि पूरे उत्तर प्रदेश में उच्च न्यायालय के स्पष्ट आदेश के बावजूद अधीनस्थ पुलिस कर्मचारियों से जबरदस्ती आज भी कई स्थानों पर बिना किसी सक्षम आदेश के मनमाने तरीके से पैसे काटे जा रहे हैं और यदि कोई इसका विरोध करता है तो उसे दोषी ठहरा कर उसे सूली पर लटकाने की कोशिश की जाती है?
डॉ नूतन ठाकुर
कन्वेनर
नेशनल आरटीआई फोरम
लखनऊ स्थित गवर्नेंस के क्षेत्र में कार्यरत संस्था
प्रशान्त
September 21, 2011 at 6:53 pm
बहुत हिम्मत का काम किया है ब्रजेन्द्र यादव ने. बस किसी पार्टी से जुड़कर अपनी कार्य क्षमताओं को और दायरे को सीमित न कर लें.
Nandlal singh
September 22, 2011 at 3:59 am
congratulation to Brijendra singh yadav and nootan. keep it up
Abhimanyu TYagi
September 22, 2011 at 4:09 am
ब्रजलाल तोह वर्तमान मुख्यमंत्री के खास आदमी हैं और ऐसे में यह हो ही नहीं सकता की इस बात की जानकारी माननीय मुखिमंत्री जी को ना हो और ऐसा भी हो सकता हैं की इसमें उनकी भी बराबर की भागीदारी हो l चूँकि ब्रजलाल पहले से जन विरोधी कृत्य में रहे हैं तोह ऐसे में उनसे कोई ईमानदारी और नैतिकता की बात सोचनी भी बेईमान हैं l
बेईमान लोगो की जगह जेल हे हैं और ऐसे लोग कितने दिन जेल से बाहर रहकर घूमते हैं यह देखने की बात हैं l परंत ऐसे लोग जान ले की पकडे जाने पर वोह बच नहीं सकते क्युकी जुर्म और बेईमानी में वोह इतने डुबे हैं की उनका कोई अपना नहीं हैं और ना ही कोई खास और वक़्त पड़ने पर उनके साझीदार भी उनका साथ छोड़ देंगे l
इसलिए ऐसे लोगो के लिए प्राश्चित करने का मौका हैं क्युकी फिर दुबारा जनता मौका नहीं देगी l
Abhimanyu TYagi
September 22, 2011 at 4:11 am
ब्रजलाल तोह वर्तमान मुख्यमंत्री के खास आदमी हैं और ऐसे में यह हो ही नहीं सकता की इस बात की जानकारी माननीय मुखिमंत्री जी को ना हो और ऐसा भी हो सकता हैं की इसमें उनकी भी बराबर की भागीदारी हो चूँकि ब्रजलाल पहले से जन विरोधी कृत्य में रहे हैं तोह ऐसे में उनसे कोई ईमानदारी और नैतिकता की बात सोचनी भी बेईमान हैं ल
बेईमान लोगो की जगह जेल हे हैं और ऐसे लोग कितने दिन जेल से बाहर रहकर घूमते हैं यह देखने की बात हैं परंत ऐसे लोग जान ले की पकडे जाने पर वोह बच नहीं सकते क्युकी जुर्म और बेईमानी में वोह इतने डुबे हैं की उनका कोई अपना नहीं हैं और ना ही कोई खास और वक़्त पड़ने पर उनके साझीदार भी उनका साथ छोड़ देंगे
इसलिए ऐसे लोगो के लिए प्राश्चित करने का मौका हैं क्युकी फिर दुबारा जनता मौका नहीं देगी