इण्डिया टुडे के ताज़ा अंक में एमजे अकबर का जो संपादकीय छपा है, उसमें उन्होंने बड़ी बेशर्मी से कनिमोली को जेल से छोड़े जाने की वकालत की है. भड़ास4मीडिया के एक पाठक ने एमजे अकबर द्वारा लिखित संपादकीय को टाइप कराकर भडा़स के पास भेजा है. इसे यहां प्रकाशित किया जा रहा है. आप भी पढ़ें और बताएं कि क्या वाकई इस आलेख से यह मैसेज निकलता है कि एमजे कनिमोली को जेल से छोड़े जाने की बात कह रहे हैं. -एडिटर
ज़मानत गवांतेनामो में नहीं मिलती
-एमजे अकबर-
क्या खूब कहा है किसी ने कि अमीर आपसे और हमसे अलग हैं. उनके पास ज्यादा दौलत है. लेकिन बात हिन्दुस्तान की हो तो कुछ यूँ कहेंगे: उनके पास ज्यादा वकील हैं. तो क्या इसका मतलब ये कि वे ज्यादा बड़े अपराधी भी हैं? क़ानून तो अपनी राह चलेगा. इस बारे में कैसी बहस. लेकिन अगर क़ानून बहस का विषय बन जाय तो क्या होगा?
न्याय महज़ निर्णय भर नहीं है. न्याय एक समूची प्रक्रिया है. अगर प्रक्रिया में ही खामियां होगी तो निर्णय बेदाग़ कैसे हो सकता है? अदालतें भी इस बात को मानती हैं और ‘किसी को निशाना बनाए जाने’ और मीडिया के मुकदमों में अन्तर्निहित विषमता के खिलाफ चेताती भी हैं. सभ्य समाज में न्याय सबूतों और विधि पर टिका होता है, निजी और सामूहिक भावनाओं पर नहीं. न्याय का बुनियादी सिद्धांत है: जब तक अपराध साबित नहीं हो जाता, आप निर्दोष हैं. सही के न दिखने भर से तो कोई गलत सिद्ध नहीं होता. जनहित की अवधारणा का मूल आधार ही यह है कि जो कानूनी सहायता लेने में सक्षम नहीं हैं, उनकी मदद करना ताकि वे भी मुकदमें में अपना बचाव कर सकें. पुलिस की चार्जशीट तो सिर्फ मुकदमें की शुरुआत है, उसका नतीज़ा नहीं.
अगर द्रमुक नेता कनिमोली ज्योतिषियों से सलाह-मशविरा करती तो जान पातीं इस वक्त इनके सितारे गर्दिश में हैं. 2009 की गर्मियों में वे चेन्नई में रानी थी और दिल्ली में राजकुमारी. आज वे चेन्नई में पराजित हैं और दिल्ली में सबसे ज्यादा हाई प्रोफाइल कैदी. लेकिन जेल में वे बतौर आरोपी हैं, न कि बतौर दोषी. दोनों में ज़मीन आसमान का फर्क है. अगर न्याय प्रक्रिया पूरी होने के बाद उन्हें दोषी पाया जाता है तो न्यायाधीशों को उन्हें क़ानून के मुताबिक़ जेल का दरवाजा दिखा देना चाहिए. लेकिन जब तक यह फैसला नही हो जाता, वे निर्दोष हैं. इस दौरान कानूनी हिरासत किन्ही विशेष कारणों से और निश्चित व मामूली अवधि के लिए ही हो सकती है. लेकिन लग रहा है मानो सीबीआई इस हिरासत को बेमियादी बढाने की मांग कर रही है और उसकी मांग पूरी भी हो रही है. यह अन्याय है.
भारत संविधान से चलता है, संविधान, जो सबको जीवन और आज़ादी की गारंटी देता है.जमानत थोड़े समय (शुक्र है कि लोकतंत्र में सत्ता थोड़े समय के लिए होती है) के लिए सत्ता भोग रहे लोगों का दिया उपहार नहीं, हमारा हक है. वरना तो हम पुलिसिया तंत्र से एक ही कदम पीछे हैं, जहां ताकतवर की सनक और मर्जी से किसी भी नागरिक को पकड़ कर सलाखों के पीछे डाला जा सकता है. इसके पहले भी आपातकाल में यह हो चुका है. हमने सोचा था कि ऐसा दुबारा नहीं होगा.
सीबीआई चाहती है कि वह 2 जी घोटाले के सभी आरोपियों को अनंत काल के लिए जेल में बंद कर दे. यह जानते हुए भी कि उसकी पूछताछ का काम या तो खत्म हो चुका है या खत्म हो जाना चाहिए. अदालतें दो वज़ह गिनाते हुए इसे मान भी रही है. पहला है ‘मामले की गंभीरता.’ यह गलत है क्यूंकि यहाँ आरोप की गंभीरता है, अपराध की नहीं. अपराध तो अभी सिद्ध होना बाकी है. जो कुछ हुआ, उसके बारे में कई अधिक मत हैं. सरकार की आधिकारिक राय, जैसा कि टेलीकाम मंत्री कपिल सिब्बल ने संसद में कहा कि इससे सरकार को कोई नुकसान नहीं हुआ है. सभी चाहते हैं कि भ्रष्टाचार खत्म हो और होना भी चाहिए. लेकिन क्या इस कोशिश में हम न्याय व्यवस्था को तहस-नहस कर देंगे?
सीबीआई चुन-चुन कर निशाना बना रही है. इस बात के सबूत हैं कि कांग्रेस के मंत्रियों की 2 जी लाइसेंस जारी करने के फैसले में सहभागिता थी, लेकिन उनमें से किसी के खिलाफ कारवाई नहीं की गयी जबकि द्रमुक के खिलाफ न तो कोई प्रशाशनिक नियंत्रण है और न कोई वैधानिक रोक. लेकिन जनता के बेकाबू गुस्से को शांत करने के लिए उसे बलि का बकरा बना दिया गया. जमानत से इनकार की दूसरी आधिकारिक वज़ह यह बतायी गयी मुमकिन है, आरोपी सबूतों से छेड़-छाड करे या संभावित गवाहों पर दबाव डाले. जांच शुरू होने के काफी समय बाद तक ए. राजा और कनिमोली आज़ाद थे. अगर उन्होंने उस वक्त सबूतों से छेड़छाड नहीं की या गवाहों को धमकाया नहीं तो अब वे ऐसा कैसे कर सकते हैं? यह आरोप निहायत ही कमज़ोर है और बिना किसी टेके टिक नहीं सकता.
भारतीय अदालतें ज़मानत के अधिकार को मानती हैं. पाकिस्तान भेजी गयी गृह मंत्री पी. चिदंबरम की वांछित ‘आतंकवादियों’ की ‘मशहूर 50’ सूची में दर्ज वज्लुल कमर खान को भी महाराष्ट्र में ज़मानत मिली. आप चाहे जैसे न्यायिक गंभीरता और गहराई का आकलन कर लें, लेकिन आतंकवाद भ्रष्टाचार से भी कहीं ज्यादा चिंतनीय है. किसी ने भी राजा या कनिमोली को आतंकवादी नहीं कहा. तो फी क्या वज़ह है कि आतंकवाद के आरोपी को तो जमानत दे देनी चाहिए, लेकिन उन्हें नहीं? महत्वपूर्ण शख्सियतें भी हर जगह मुश्किलों में फसती हैं. पुलिस शायद ही कभी उनके साथ विनम्र होती है, उनकी किताब में ऐसा कोई शब्द ही नहीं. लेकिन क़ानून आरोपी के अधिकारों का सम्मान करता है.
अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के पूर्व निदेशक डोमिनिक स्ट्रास-कान को विमान से धरा गया, छोटी सी कोठरी में रखा गया, और बिना दाढी बनाए, मरियल सी हालत में केमरों के सामने लाया गया.उनके खिलाफ होटल की नौकरानी के साथ यौन छेड़छाड़ समेत सात आरोप लगाए गए. अब वे जमानत पर हैं. हाल में अमेरिकी अरबपति राज राजरत्नम को इनसाइडर ट्रेडिंग के लिए सज़ा दी गयी तो वे वित्तीय भ्रष्टाचार का प्रतीक बन गए. लेकिन न्यूयार्क की पुलिस ने फैसले से पहले उन्हें जेल में नहीं डाला.
इस आज़ाद दुनिया में एक ही जेल है, जहां जमानत नहीं मिलती: ग्वांतेनामो जो सभी संदिग्ध आतंकवादियों के लिए अमेरिका का कैदखाना है. शुक्र है, अभी हम ऐसी मनहूस हालत में नहीं पहुंचे. लेकिन बहुत सी मंजिलों की और जाने वाला रास्ता, यहाँ तक कि नरक को जाने वाला भी नेक इरादों से होकर गुजर सकता है.
Comments on “एमजे अकबर बेशर्मी से कर रहे हैं कनिमोली की वकालत!”
इस देश में चोरों की चलती है। अकबर साहब भी एक चोर का पक्ष ले रहे हैं। आरोपी, दोषी सब कोर्ट तय कर लेगी। इंडिया टुडे को घटिया टुडे मत बनाइए अन्यथा यह चापलूस टुडे होते हुए इंडिया यसटरडे बन जाएगी।
चोर-चोर मौसेरे भाई बहन …
There can be other media connection to spectrum scam too. somebody should find out how many projects has NDTV done for the Malaysian television company ASTRO, which is owned by MAXIS, which invested in AIRCEL, and quickly obtained 16 telecom licenses.
ये अकबर तो बरखा दत्त का भी बड़ा भाई निकला… खैर अरुण पुरी को ऐसे ही दलालों की जरूरत भी है। पाठक बिदकते हैं तो बिदकें.. उन्हे क्या पता कि मालिक लोग पत्र-पत्रिकाएं उनके लिए नहीं अपने लिए छापते हैं। ये वही लिविंग मीडीया है जिसने मोर्चा और भाजपा की सरकारों के दौरान प्रभु चावला को नौकर से मालिक बना दिया था.. अब अकबर की बारी है… डटे रहो मियां.. करोड़ों का मामला है।
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ऐसे पत्रकारों और संपादकों पर सिवाय अफसोस के और कुछ नहीं किया जा सकता, जिस तरह से सत्ता में आने के बाद नेता खुद को नियत समय के लिए ही सही, देश का भगवान समझ बैठते हैं, ठीक वैसे ही बड़े संपादकों और पत्रकारों को देश की अवाम की सोच का रुख़ बदल देने का गुमान हो जाता है। लेकिन ये भी सच है कि 21वीं सदी में पत्रकार कैसे पूंजीपतियों के आगे घुटने टेक देते हैं, ये संपादकीय इसका बेहतरीन नमूना है।
sarkar ka matlab kangres nahi hai; ye to kuch aise hai
sarkar = kangres+media+advocate+bussensman.
sab milke janta ko ullu banate hai.
truth+justice+duty+soul+god == VS ==AADMI
YE FIGHT NAHI TARGET HONA CHHIYE.