: इंटरव्यू : कवि और पत्रकार विमल कुमार : एसपी ने कम विवेकवान और भक्त शिष्यों की फौज खड़ी की, जिनमें से कई आज चैनल हेड हैं : मैं तब यह नहीं जानता था कि मीडिया का इतना पतन हो जाएगा और वह भी सत्ता-विमर्श का एक हिस्सा बन जाएगा : उर्मिलेश और नीलाभ मिश्र, दोनों मुझसे आज भी योग्य हैं : अज्ञेय जी ने शब्दों की गरिमा को, रघुवीर सहाय ने जनता की संवेदना को और राजेंद्र माथुर ने संपादक पद की गरिमा को बचाए रखा :
9 दिसंबर 1960 को बिहार की राजधानी पटना में जन्में और पिछले 25 वर्षों से पत्रकारिता में सक्रिय विमल कुमार के चार कविता संग्रह- ”सपने में एक औरत से बातचीत”, ”यह मुखौटा किसका है”, ”पानी का दुखड़ा” और ”बेचैनी का सबब” छप चुके हैं. उनका एक कहानी संग्रह ‘कॉल गर्ल’ भी छपा है. उनकी पुस्तक ‘चोर पुराण’ काफी चर्चित रही. पत्रकारिता लेखन की पुस्तक ‘सत्ता, बाजार और संस्कृति’ ने भी लोगों का ध्यान खींचा. फिलहाल वे यूएनआई, दिल्ली की हिंदी सेवा में विशेष संवाददाता हैं. उन्हें कई पुरस्कार और सम्मान मिल चुके हैं. विमल कुमार से भड़ास4मीडिया के एडिटर यशवंत सिंह ने विस्तार से बातचीत की. पेश है इंटरव्यू के कुछ अंश. यहां इंटरव्यू को सवाल-जवाब के तौर पर नहीं दिया जा रहा है. विमल कुमार जो कुछ बोलते गए, उसे उसी क्रम में दिया जा रहा है, बिना सवाल के, ताकि पढ़ने में फ्लो बना रहे और कोई अवरोध या औपचारिकता न उपजे…
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मैं बिहार की राजधानी पटना से 1982 में ही दिल्ली आया था। उस समय पटना का इतना विस्तार नहीं हुआ था और तब लालू यादव, नीतीश कुमार और रामविलास पासवान का उतना बड़ा व्यक्तित्व नहीं बना था, जितना आज दिखाई देता है। हम लोग मूलतः बक्सर जिले के गंगाढ़ी गांव के रहने वाले थे, पर मेरा परिवार, जो संयुक्त परिवार था, पटना में ही रहता था। मेरे पिता जी गुलजार बाग प्रेस में काम करते थे। बाद में वह बिहार राज्य विद्युत बोर्ड में क्लर्क के रूप में काम करने लगे और वहीं से क्लर्क के रूप में ही रिटायर भी हुए। मां तो मुश्किल से आठवीं पास होगी। घर में बुनियादी चीजों का भी अभाव था, मसलन कुर्सी, पंखा आदि का भी। मेरी एक बहन और एक छोटा भाई है। दोनों चाचा का परिवार साथ था लेकिन धीरे-धीरे वक्त के दबाव में संयुक्त परिवार टूटता चला गया। पत्रकारिता की नौकरी में आने के बाद पटना में ही मेरी शादी हुई। पत्नी बिहार के सम्मानित परिवार की पुत्री हैं। उनके पिता और दादा अत्यंत संस्कारवान और विद्वान थे, जिन्हें आज हिंदी का हर लेखक जानता है, जिसे साहित्य और पत्रकारिता का थोड़ा इतिहास मालूम है। बहरहाल, सातवीं आठवीं कक्षा से ही मेरी साहित्य में रुचि थी। जेपी आंदोलन शुरू हुआ तो मैंने जेपी पर एक कविता लिखी और डाक से उन्हें भेज दी। जेपी का पत्र आया और उन्होंने मेरे जैसे स्कूली छात्र से मिलने की इच्छा व्यक्त की। उस पत्र की प्रेरणा से मेरे भीतर सामाजिक परिवर्तन की बेचैनी ओर कुलबुलाहट पैदा हुई जिसे मैंने अपने लेखन में व्यक्त करने की कोशिश की। मैं नहीं जानता कि मैं कितना व्यक्त कर पाया हूं। हालांकि यह अजीब विडंबना है कि मैं खुद अपने को भी बदल नहीं सका, सामाजिक परिवर्तन की बात तो दूर और मेरे लिखे से मुझे ही आज तक संतोष नहीं हुआ।
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शुरू से ही पत्र-पत्रिकाएं और पुस्तकें पढ़ने का शौक था, बचपन से ही। धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, दिनमान और रविवार पढ़ता था। सारिका और पराग भी प्रिय पत्रिकाएं थीं, तब लघु पत्रिकाओं के संपर्क में नहीं था। पर अज्ञेय, धर्मवीर भारती, रघुवीर सहाय का मन-मस्तिष्क पर असर था। गणेश शंकर विद्यार्थी, निराला, प्रेमचंद, प्रसाद, जैनेंद्र, माखनलाल चतुर्वेदी, मैथिलीशरण गुप्त, शिवपूजन सहाय, रामवृक्ष बेनीपुरी का प्रभाव कहीं मन पर था। यूं तो माता-पिता ने अच्छी नौकरी करने के लिए, आई.ए.एस आदि की परीक्षा की तैयारियों के लिए ही दिल्ली भेजा। दिल्ली आकर राजनीति विज्ञान का छात्र बन गया। चाहता था कि जे.एन.यू से हिंदी में एम.ए. करूं, पर वहां दाखिला नहीं हो सका। मैनेजर पांडेय जी ने मुझे इंटरव्यू में छांट दिया जबकि बाद में उन्होंने मेरी पुस्तक ‘चोर पुराण’ का लोकार्पण भी किया। लेकिन मेरा मन
कविता-कहानी में अधिक रमता था। दो वर्ष के भीतर ही मैं हरियाणा की एक पत्रिका ‘पींग’ में काम करने लगा। 1984 के दिसंबर से मैंने पत्रकारिता को अपना कैरियर बना लिया। दरअसल मैं तब पांच सौ रुपये पिता से मंगवाता था और उनकी तब तनख्वाह 1200 सौ के आसपास थी। मुझे लगता था कि पैसे मांगकर मैं उनके साथ ज्यादती कर रहा हूं। अतः मैंने 800 रुपये की नौकरी ‘पींग’ में शुरू कर ली और उन्हें बताया भी नहीं क्योंकि मेरे पिता नाराज हो जाते। वह चाहते थे कि मैं कोई अफसर बनूं, जैसा हर पिता चाहता है। दरअसल राजनीति विभाग के छात्र के रूप में प्रो. रणधीर सिंह के मार्क्सवादी विचारों ने मुझे प्रभावित किया। मुझे लगा कि नौकरशाही में नहीं जाना चाहिए।
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टाइम्स ऑफ इंडिया का तब स्तर था। शामलाल जैसे पत्रकार का स्तंभ उसमें छपता था। बाद में जाना कि उनकी पुत्री नीना व्यास हिंदू में संवाददाता हैं। हालांकि मैं तब यह नहीं जानता था कि मीडिया का इतना पतन हो जाएगा और वह भी सत्ता-विमर्श का एक हिस्सा बन जाएगा। तब कारपोरेट मीडिया इतना ताकतवर नहीं था और चैनलों का आगमन नहीं हुआ था। टाइम्स आफ इंडिया और अन्य अखबारों का चरित्र नहीं बदला था। इंडियन एक्सप्रेस ने जेपी आंदोलन के दौरान साहसिक भूमिका निभाई थी, पर बाद में उसका चरित्र भी बदल गया। उस समय अरुण शौरी नए जर्नलिस्ट हीरो के रूप में उभर रहे थे, पर बाद में उनका पतन भी भाजपा के मंत्री के रूप में देखने को मिला। रघुवीर सहाय के 60 वर्ष पूरे होने पर दिनमान टाइम्स में मैंने एक लेख भी लिखा था। स्टेट्समैन में एम. सहाय आदर्श थे। दिनमान में रघुवीर सहाय, सर्वेश्वर जी थे और नवभारत टाइम्स में अज्ञेय जी थे। रघुवीर सहाय, सर्वेश्वर जी और अज्ञेय जी से दो बार मिलना भी हुआ। मेरे कवि-मित्र राजेंद्र उपाध्याय एक बार अज्ञेय जी के घर मुझे ले गए। वे कुछ नए कवियों से मिलना चाहते थे। अजंता देव भी साथ में थीं, जो कृष्ण कल्पित की पत्नी बनीं बाद में। एक बार श्रीराम वर्मा जी के साथ भी अज्ञेय जी के घर गया था। वहां अज्ञेय जी ने दोपहर का भोजन करवाया था। उन्होंने अपने हाथों से व्यंजन परोसे। वह एक सुखद स्मृति मेरे मन में है। तब हमलोग अज्ञेय जी के फैन थे। शेखर एक जीवनी जादू की तरह था। कितनी नावों में कितनी बार, हरी घास पर क्षण भर, इत्यलम्, नदी की बांक पर छाया पुस्तकें पढ़ चुका था। रघुवीर सहाय की सीढ़ियों पर धूप में, आत्महत्या के विरुद्ध और सर्वेश्वर जी की कुआनो नदी ने प्रभावित किया। 1986 से मैं यूएनआई की हिंदी सेवा में आ गया। मैंने नवभारत टाइम्स में भी आवेदन दिया था और जनसत्ता में भी, पर मेरा चयन वहां नहीं हुआ। नवभारत में उर्मिलेश और नीलाभ मिश्र ने भी आवेदन किया था, दोनों का चयन हुआ। आज उर्मिलेश राज्यसभा टीवी में संपादक हैं, नीलाभ मिश्र आउटलुक हिंदी के संपादक हैं- दोनों मुझसे आज भी योग्य हैं।
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मैं मूलतः कवि था। विष्णु नागर से मेरा परिचय मेरे पत्रकार‘-कवि मित्र अमिताभ ने कराया और तभी इब्बार रब्बी, मंगलेश डबराल, मधुसूदन आनंद, असद जैदी से परिचय हुआ। मेरी आरंभिक कविताओं के छपने में उन्होंने मेरी मदद की। एसपी सिंह उन दिनों नवभारत टाइम्स आ गए थे, पर मैं उनकी प्रतिभा से कभी आकृष्ट नहीं हुआ, सो मैं कभी उनसे मिला ही नहीं। एक-दो बार उनके चैंबर में भी गया पर मिला नहीं। मेरा सहपाठी मुकुल शर्मा उन दिनों नवभारत टाइम्स में काम करता था। यूनीवार्ता में वर्षों तक मेरे भीतर आत्मविश्वास की कमी थी। मैं डेस्क पर ही था, पर कभी कहीं रिपोर्टिंग करने जाता तो घबरा जाता था। समझ में नहीं आता कि कैसे खबर लिखूं, पर धीरे-धीरे यह कला भी आ गई और आत्मविश्वास भी। कस्बे में रहने वाला आदमी कभी यह नहीं सोचता कि वह किसी दिन कैबिनेट मंत्री को फोन कर बात भी कर सकता है। लेकिन किसी भी प्रकार की सत्ता का कोई आकर्षण शुरू से नहीं था, अगर था तो बस साहित्य की सत्ता के प्रति आकर्षण था, पर बाद में वह भी बेमानी और व्यर्थ ही लगा। मुझे फूको का वह कथन अक्सर याद आता है जिसमें वह हर चीज को पावर डिस्कोर्स के दृष्टिकोण से देखने की बात करता है। मुझे लगता है कि आज संसार में हर चीज एक सत्ता विमर्श में शामिल है, चाहे वह यौनिकता की, सौंदर्य की सत्ता क्यों न हो, पर लोकसत्ता का क्षरण पूरी दुनिया में होता गया। अन्ना आंदोलन, जेपी आंदोलन, गांधी जी के आंदोलन ने इसी लोकसत्ता को प्रतिष्ठित किया।
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मीडिया का भी यही काम है, हाशिए को मुख्यधारा में लाना और उसकी सत्ता को पहचानना, पर बाजार और भूमंडलीकरण के बाद मीडिया सत्ता विमर्श का हिस्सा बन गयी। उसमें शब्दों की गरिमा जाती रही और अर्थ खोता गया। अज्ञेय जी ने शब्दों की गरिमा को बचाए रखा। रघुवीर सहाय ने जनता की संवेदना को बचाए रखा। राजेंद्र माथुर ने संपादक पद की गरिमा को बचाए रखा, पर बाद में यह सब ध्वस्त हो गया। एस.पी. ने तो रविवार की पत्रकारिता के माध्यम से सत्ता गलियारा का रास्ता दिखाया। वह संतोष भारतीय और उदयन शर्मा की तरह चुनाव तो नहीं लड़े, पर अपनी शादी के रिसेप्शन में आठ राज्यों के मुख्यमंत्री को बुलाकर अपना शक्ति प्रदर्शन किया। यहां तक कि धर्मवीर भारती ने भी यह काम नहीं किया। वे संतोष भारतीय की तरह विश्वनाथ प्रताप सिंह के आगे पीछे नहीं करते थे, पर उस वक्त वी.पी. सिंह ने मंडल की राजनीति कर भारतीय राजनीति के सवर्ण चेहरे को बदल दिया। एस.पी. समाजवादी मूल्यों और सामाजिक न्याय के पक्षधर थे, इसलिए मैं उन्हें संघी पत्रकारों से बेहतर मानता हूं, पर उनमें वह प्रतिभा नहीं थी जो राजकिशोर में है। उनका साहित्य और संस्कृति ज्ञान भी सीमित था। इसलिए नवभारत टाइम्स के लेखक-पत्रकारों से
उनकी कभी नहीं बनी। उन्होंने कम विवेकवान और भक्त शिष्यों की फौज खड़ी की, जिनमें से कई आज चैनलों के हेड बन गए हैं। एस.पी. एक सफल पत्रकार थे। सफल इस मायने में कि नेताओं के सीधे संपर्क में थे। जबकि कई लेखक-पत्रकार नेताओं से दूरी बनाकर रखते थे। एस.पी. की फौज में विचारवान पत्रकार कम थे। एस.पी. सूट, टाई और पालिश्ड शू पहनने वाले पत्रकार थे जो सिगार भी पीते थे। वह अंग्रेजी के पत्रकारों की तरह नजर आते थे, इसलिए नए पत्रकारों में उनके प्रति विशेष आकर्षण था।
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राजेंद्र माथुर में यह सब बात नहीं थी। वह एक धीर-गंभीर पत्रकार थे जो इतिहास और राजनीति में गहरी अकादमिक रुचि रखते थे। उनकी भाषा भी बहुत अच्छी थी। वह एक रुपक बनाते थे अपने लेखों में। दरअसल वह नेहरूवादी थे, उनका प्रभाष जोशी की तरह हिंदूवादी रूझान नहीं था। प्रभाष जोशी की भाषा में एक अजीब ऊर्जा, साहस और बेबाकी थी, पर वह माथुर साहब में नहीं थी, लेकिन प्रभाष जी कई बार अनावश्यक आक्रामक भी लिखते थे। उनमें कहीं कहीं फासीवादी आक्रामकता भी थी, पर बाबरी मस्जिद के बाद उनके लेखन में बदलाव आया। वह संघ परिवार के एक आलोचक बन गए। उन्होंने जितना प्रहार संघ पर किया वैसा अंग्रेजी में भी किसी ने नहीं किया और प्रभाष जी की तरह बेबाक, बेधड़क लेखन तो किसी अंग्रेजी पत्रिका ने नहीं किया। उनका कद किसी भी अंग्रेजी पत्रकार-संपादक से कम नहीं था। उन्होंने हिंदी गद्य को एक नया आयाम दिया। अंग्रेजी में भी उनके जैसा कोई पत्रकार नहीं हुआ। राजकिशोर, विष्णु नागर, सुधीश पचौरी, रमेश दवे आदि ने भी हिंदी पत्रकारिता को नया विमर्श दिया। उसके बाद कुछ अन्य पत्रकारों ने मसलन, रामशरण जोशी, भरत डोगरा, अभय कुमार दूबे, आनंद प्रधान, अनिल चमड़िया, रामसुजान अमर, सुभाष गताड़े, राजेंद्र शर्मा, अरविंद मोहन, दिलीप मंडल, प्रियदर्शन, सत्येंद्र रंजन, आलोक पुराणिक, अरुण कुमार त्रिपाठी ने भी धार दी। इसके अलावा कई अन्य लेखकों ने भी हिंदी में अच्छी टिप्पणियां लिखीं, पर वे लिखते कम हैं, उनमें गिरधर राठी, विष्णु खरे, प्रयाग शुक्ल, अपूर्वानंद, प्रेमपाल शर्मा, अजेय कुमार, अजय तिवारी जैसे अनेक लोग हैं जो बीच-बीच में हस्तक्षेप करते रहे।
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दरअसल, हिंदी के पत्रकारों की ब्रांडिंग नहीं होती। अंग्रेजी के पत्रकारों में चमक-दमक और प्रदर्शन अधिक होते हैं। उसे राजनेता तथा नौकरशाह पढ़ते हैं, कारपोरेटों के लोग पढ़ते हैं। पर उसमें अधिक दम-खम नहीं होता है। प्रभु चावला, शेखर गुप्ता, राजदीप सरदेसाई, अर्णव गोस्वामी, सागरिका घोष, बरखा दत्त धीरे-धीरे ब्रांड बन गए। पर आज उषा राय जैसे पत्रकारों की पूछ नहीं है। टी.वी. पत्रकारों में भी दीपक चौरसिया, आशुतोष जैसे पत्रकार रोल माडॅल बने, पर रवीश और पुण्य प्रसून वाजपेयी जैसी उनकी दृष्टि नहीं है। टी.वी. पत्रकारों में ज्ञान और पढ़ाई कम है। उन्हें अपने इतिहास, संस्कृति, समाजशास्त्र और सभ्यता की कोई जानकारी नहीं है। उनके पास कोई दृष्टि भी नहीं है। वे सफल होना और दिखना चाहते हैं। उनमें कोई इतिहासबोध ही नहीं है। वे मिहनती हैं, उनके पास सूचनाएं भी होती हैं, पर वे ‘आत्ममुग्ध’ अधिक हैं। वे खबरों को बेचते हैं और खुद को भी बेचते हैं। मैंने उन पत्रकारों को संसद के भीतर और बाहर करीब से देखा है। वे नेताओं को ‘सर-सर’ कहते हैं। हमारे यहां भी एक पत्रकार एक अपराधी नेता को कहते थे- सर, मेरे लिए कोई सेवा। बाद में वह एक राज्य में कांग्रेस के प्रवक्ता बन गए । कई पत्रकार तो मुख्यमंत्री के पी.आर.ओ. बन गए। कई पीए और स्टाफ में शामिल हो गए। किसी ने नेताओं के साथ विमान यात्रा की तो लगा कि वे कुछ और ऊपर हो गए। जर्नादन द्विवेदी पर किसी पत्रकार ने जूता फेंका तो कांग्रेस कवर करने वाले पत्रकारों ने उसकी जमकर धुनाई की। पत्रकार का काम कानून हाथ में लेना नहीं है। उसे लिखकर विरोध करना चाहिए, पर यह तो सरासर चाटुकारिता है। मुझे यह सब देखकर बहुत निराशा हुई। विदेश यात्रा की लिए मारामारी। संपादकों की चाटुकारिता या संपादक का ब्रांड मैनेजर हो जाना और मालिकों की चरणवंदना में लगे रहना आज की पत्रकारिता की पहचान बन गई है। क्या अंग्रेजी और क्या हिंदी! अब तो पेड न्यूज और राडिया प्रसंग भी सामने आ चुका है।
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शायद यही कारण है कि देरिदा, एडवर्ड सईद और अहमद नदीम कासमी, अख्तर उल ईमान के मरने की खबर भी वो नहीं देते, या कोने में एक फिलर भी नहीं देते। वे रामशरण शर्मा और रोमिला थापर के महत्व को ही नहीं जानते। आंद्रे वेते, ए आर. देसाई, श्रीवासन, शाहीद अमीन, पार्थ चटर्जी को नहीं जानते। हिंदी और अंग्रेजी पत्रकारिता मुख्य रूप से राजनीति, फिल्म और खेल में फंसी है। किसान आत्महत्या की खबरें भी प्रमुखता से नहीं देतीं। पी. साईनाथ ने दस महीने बाद हिंदू में डेढ़ लाख किसानों के मरने की खबर दी, एजेंसी ने जब खबर दी तो किसी ने नहीं छापी। जिस दिन राज्य सभा में शरद पवार ने डेढ़ लाख किसानों के मरने की खबर सुनाई तो प्रेस गैलरी में मैं भी था। समय 7 बजे का था पूरा प्रेस गैलरी खाली! आमतौर पर पत्रकार शाम होते ही चले जाते हैं, बशर्तें कोई महत्वपूर्ण सनसनीखेज मुद्दा न हो।
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संसद की खबरें भी अब कम छपती हैं। प्रश्नोत्तर की खबरें छपनी लगभग कम हो गई हैं। केवल हंगामा, विवाद और बॉयकाट ही खबर है। कई महत्वपूर्ण बिल के पास होने की खबर नहीं छपती। अब पत्रकारिता का नारा है- जो बिके वही खबर। टी.आर.पी यानी मध्यवर्ग का खेल। अन्ना आंदोलन मध्यवर्ग से जुड़ा था, इसलिए टी.वी. ने दिखाया, अन्यथा किसानों की आत्महत्या वे नहीं दिखाते और अगर दिखाते तो पिपली लाइव की तरह। चैनल को नाटकीयता रोमांच और जिज्ञासा अधिक पसंद है। विचार गायब है। वह मुकाबले और प्रतिद्वंद्विता में अधिक यकीन करता है। पत्रकारिता की भाषा और शब्दावली भी बदल गई है, पर कई बार चैनल अच्छा भी करते हैं, लेकिन आज वो अन्ना को दिखाएंगे तो कल राखी सांवत और मल्लिका सेहरावत या मलाइका अरोड़ा को भी। उनके लिए सब बेचने और खरीदने का व्यापार है। अन्ना के आंदोलन में उनकी भूमिका सही थी। दरअसल जनता का इतना दबाव था कि वे उसे नकार नहीं सकते थे। वे नहीं दिखाते तो बुरी तरह पीट जाते। उनकी विश्वसनीयता का काफी संकट था। पर यह भी सच है कि अगर आज मीडिया नहीं होता तो इतने घोटाले सामने नहीं आते, सत्ता की पोल नहीं खुलती, राजनेताओं का पर्दाफाश नहीं होता, पर दूसरी ओर कारपोरेट का पर्दाफाश नहीं होता क्येंकि मीडिया में कारपोरेट की पूंजी लगी है।
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मुझे मीडिया में खुशी तब हुई जब मैंने किसी कमजोर आदमी की खबर दी और वह छपी तो बहुत अधिक प्रसन्नता हुई। राहुल, सोनिया, पीएम, लालू, सचिन, अमिताभ की खबर के छपने से क्या खुशी! लेकिन हाशिए के लोग मीडिया में पूछे नहीं जाते। एक भेड़चाल भी है मीडिया। उसके पास अपना विवेक नहीं है। वह रुढ़िवादी और परंपरावादी अधिक है। एक ओर सैकड़ों महत्वपूर्ण खबरें नहीं छपीं तो दूसरी ओर सैकड़ों फालतू खबरें मुखपृष्ठ पर जगह पा गईं। एक असंतुलन सभी अखबारों में दिखाई देता है। बाजार का दबाव अधिक काम कर रहा है। हिंदू अपेक्षाकृत श्रेष्ठ अखबार है। इंडियन एक्सप्रेस की स्टोरी आम अंग्रेजी अखबारों से अच्छी होती है। टाइम्स और हिंदुस्तान टाइम्स का पतन अधिक हुआ है। हिंदी में जनसत्ता और भास्कर अपेक्षाकृत ठीक है, पर उनकी कई सीमाएं हैं। पत्रकारिता में जो नए लोग आते हैं, वे दोषी नहीं होते। दोष तो इस व्यवस्था का है। कई पत्रकारों ने कई लोगों का नाम तक नहीं सुन रखा है। पढ़ानेवाले भी अब फील्ड के पत्रकार नहीं हैं। दिल्ली में मधुबाला इंस्ट्टीयूट ऑफ जनर्लिज्म भी है, वहां की कुछ लड़कियां हमारे दफ्तर में आईं तो मैंने उनसे पूछा- तुमलोग बाद में क्या करोगी, तो उसने कहा- मैं भी देवानंद इंस्ट्टीयूट ऑफ जर्नलिज्म खोल दूंगी। मैंने उनसे जाना कि मधुबाला नाम तो उस संस्थान की प्रमुख का नाम है। मधुबाला हिरोइन से कोई लेना देना नहीं। निजी संस्थानों के नाम पर इसी तरह की रद्दी संस्थाएं सामने आई हैं। हर कोई पत्रकार-एंकर बनना चाहता है। दरअसल बेरोजगारी भी अधिक है। युवा क्या करें! सरकारी नौकरियां कम हैं, और वे पत्रकार पीस रहे हैं। लेबर कानून का पालन नहीं। वेज बोर्ड लागू नहीं। सेवा शर्तें मनमानी हैं। भीतरी शोषण काफी है। कोई यूनियन नहीं। अराजक माहौल है। इसके लिए भी सरकार दोषी है। वह मालिकों तथा एडीटरों को पटा कर रखती है। उन्हें पद या पुरस्कार दे देती है, राज्यसभा में भेज देती है। पत्रकारिता के भीतर चराग तले अंधेरा है। छोटे पत्रकार खुद ही शोषित हैं। पर सरकार औ राजनीतिक दल चुप बैठे हैं। उनकी दोस्ती और साठगांठ सीधे मालिक और संपादक से है, फिर भी ये मीडिया की स्वतंत्रता के हिमायती हैं। चौथा स्तंभ भले ही जर्जर हो गया है पर वह चेक एंड बैलेंस का काम कर रहा है। जनता की आवाज का एक मंच तो है।
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अखबारों में किस तरह के संपादक हैं, हम अच्छी तरह जानते हैं। कोई राजकिशोर, विष्णु खरे, पंकज बिष्ट, उदय प्रकाश, आनंद स्वरूप वर्मा, पंकज सिंह, मंगलेश डबराल, नीलाभ अश्क आदि को संपादक नहीं बनाना चाहता, चैनल का हेड नहीं बनाना चाहता, क्योंकि वे बाजार के आलोचक हैं। इसलिए मालिकों को ऐसे संपादक चाहिए जो बाजार के मनमाफिक काम करे। शायद इसलिए सभी संपादक बौने हैं। कोई कांग्रेसी है तो कोई भाजपाई तो कोई अवसरवादी। संपादक पद की गरिमा अब नहीं। अखबारों को ब्रांड एंबेसडर चला रहे हैं। पर यह भी सच है कि कागज, छपाई, प्रस्तुति और समाचार संकलन में हिंदी के अखबारों में वृद्धि हुई है। यह भी कहा जाता है कि हिंदी में विभिन्न विषयों में लिखनेवाले लोग नहीं हैं। दरअसल हमारे संपादक लेखक पैदा नहीं करते। अब तो वे ब्रांड के पीछे भाग रहे हैं। सेलेब्रेटी को छाप रहे हैं। चेतन भगत भी
हिंदी के अखबार में छप रहे हैं, राजदीप सरदेसाई भी- यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है। जो अच्छा लिखते हैं, वे रेखांकित नहीं किए जाते। कई पत्रकार तो पर्दे के पीछे रह जाते हैं। एजेंसी में काम करनेवाले पत्रकारों को कोई नहीं जानता, जबकि कई पत्रकार उनकी खबरें रोज उड़ाते हैं और अपने बाईलाइन से खबरें देते हैं, यह तो हम वर्षों से देख रहे हैं। लखटकिया पुरस्कार और फैलोशिप भी उन्हें ही मिलती है। मैं ऐसे कई अच्छे स्वाभिमानी पत्रकारों को जानता हूं जो कभी फैलोशिप के लिए आवेदन नहीं करते, किसी पुरस्कार के लिए जुगाड़ नहीं करते। अंग्रेजी में हिंदू अखबार है, तो आप पी. साईनाथ बन सकते हैं, पर हिंदी के संपादकों को पी. साईनाथ की जरूरत नहीं है। हिंदी में छपो तो 500 रुपये, अंग्रेजी में दो हजार! अंग्रेजी में स्तंभकार का फोटो, हिंदी में नाम भी ठीक से नहीं! भाषाई गुलामी की मानसिकता अभी भी। मराठी, तमिल, तेलगु और उर्दू के पत्रकारों को तो कोई जानता ही नहीं। हिंदी कविता-कहानी और उपन्यास में काफी विकास हुआ है, पर हिंदी और अंग्रेजी मीडिया को अभी जानकारी ही नहीं।
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आज हिदी में उदय प्रकाश, पंकज बिष्ट, स्वयं प्रकाश, असगर वजाहत, संजीव, अखिलेश, गीत चतुर्वेदी जैसे लेखक हैं, तो कविता में विष्णु खरे, मंगलेश डबराल, आलोकधन्वा, अरुण कमल, ज्ञानेंद्रपति, इब्बार रब्बी, असद जैदी, कुमार अंबुज, देवी प्रसाद मिश्र, एकांत श्रीवास्तव जैसे कवि हैं, तो अनामिका, गगन गिल, सविता सिंह, कात्यायनी जैसी कवयित्रियां हैं। बद्रीनारायण और पंकज राग जैसे युवा इतिहासकार भी हैं। मनीषा कुलश्रेष्ठ, वंदना राग, प्रत्यक्षा, नीलाक्षी सिंह जैसी युवा कहानीकार हैं तो मैत्रेयी पुष्पा, मृदुला गर्ग, राजी सेठ जैसी लेखिकाएं भी हैं, पर मीडिया के लोग इनका महत्व नहीं जानते। वे केवल नामवर सिंह, राजेंद्र यादव और अशोक वाजपेयी को जानते हैं। अंग्रेजी के पत्रकार तो ये भी नहीं जानते। हिंदी का लेखक भी विक्रम सेठ, अनिता देसाई, के. की.दारुवाला, अमिताभ घोष, हरिश त्रिवेदी, माला श्री लाल, सुकृता पॉल आदि को जानता है, पर अंग्रेजी के पत्रकारों को तो रामविलास शर्मा, नागार्जुन, त्रिलोचन आदि की भी जानकारी नहीं। इसलिए यह कहना कि अंग्रेजी के पत्रकार श्रेष्ठ हैं, गलत हैं। वे प्रोफेशनल हैं, क्योंकि उनके संस्थान प्रोफेशनल हैं, पर कई बार उनकी भी कलई खुलती है, उनकी गहराई हमें भी मालूम है। फ्रंटलाइन को छोड़ दें, तो इंडिया टुडे, आउटलुक में कुछ भी खास नहीं होता। ईपीडब्ल्यू और मेनस्ट्रीम, सेमीनार जैसी पत्रिकाओं में काफी महत्वपूर्ण सामग्री रहती है। अंग्रेजी में पैकेजिंग और डिस्प्ले तथा पब्लिसिटी पर जोर अधिक है, फिर भी कुछ एंकर अच्छे हैं। अर्णव गोस्वामी और करन थापर बेहतर हैं। उनका बैकग्राउंड काम करता है। हिंदी का पत्रकार कस्बे से आता है, वह कैंब्रिज और ऑक्सफोर्ड से नहीं आता, पर उसके पास दृष्टि है, उसने यथार्थ को देखा है, पर बरखा दत्त के पास कोई दृष्टि नहीं है। या अगर है तो वही रुलिंग क्लास के पक्ष में है।
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मुझे फिल्मों का भी शौक रहा। कुछ अंग्रेजी फिल्में देखी। बंदिनी, मदर इंडिया, तीसरी कसम, साहब बीबी और गुलाम, दो बीघा जमीन जैसी फिल्में मन-मस्तिष्क पर अब भी हैं, पर इनके साथ कुछ बाक्स ऑफिस पर हिट फिल्में भी मैं पसंद करता रहा- चाहे दीवार हो या डॉन या संगम हो या रब ने बना दी जोड़ी। सत्यजित रे का जलसाघर और मृणाल सेन का खंडहर मुझे पसंद है। विदेशी फिल्म निर्देशकों की कई फिल्में देखी हैं- कुरोसावा से लेकर वर्गमैन, फेलिनी, डीसीका, पर उनका मैं विशेषज्ञ या अधिकारी नहीं। उसके बारे में विष्णु खरे और विजयमोहन सिंह, विनोद भारद्वाज ज्यादा सही व्यक्ति हैं।
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संगीत में सहगल, रफी, किशोर, तलत मेहमूद प्रिय हैं। रफी को सबसे बड़ा गायक मानता हूं। किशोर की रूमानियत पसंद है। शास्त्रीय संगीत ज्यादा नहीं, पर मास्टर मदन, अमीर खान, बड़े गुलाम अली खान, मल्लिकार्जुन मंसूर और भीमसेन जोशी प्रिय हैं। पंडित जसराज मुझे नहीं अच्छे लगे। राजन मिश्रा, साजन मिश्रा प्रिय हैं। ध्रुपद सुनना भी अच्छा लगता है, पर संगीत की तकनीकी जानकारी नहीं है। गौहर जान में मेरी दिलचस्पी है। समय मिला तो एक नॉवेल लिखना चाहूंगा। मुकेश गर्ग, मुकुंद लाठ, अशोक वाजपेयी, कुलदीप कुमार, ओम थानवी, गोविंद प्रसाद, मंगलेश डबराल को संगीत की ज्यादा जानकारी हैं, उन्हें लिखना चाहिए हमेशा। वे अंग्रेजी के समीक्षकों से अधिक अच्छा लिखते हैं। जनसत्ता को छोड़कर किसी हिंदी अखबार को संगीत, नृत्य समीक्षा में दिलचस्पी नहीं, अंग्रेजी में एकमात्र अखबार हिंदू है। एनएसडी की पत्रिका ‘रंग प्रसंग’ और ‘संगना’ ने कला की दुनिया में बेहतर अंक निकाले पर चैनलों, अखबारों नेे इस दिशा में कोई पहलकदमी नहीं ली। यह मानसिक दिवालियापन है मीडिया का। लेकिन यह भी सच है कि आम पाठक बहुत कुछ इस मीडिया से ही जान रहा है और उसी के आधार पर सही-गलत का फैसला कर रहा है तथा अपनी राय बना रहा है, पर जो लोग मीडिया की मुख्यधारा में दिखाई देते हैं, उनसे अलग दूसरी परंपरा भी मीडिया की है जो कहीं अधिक पढ़े-लिखे, संवेदनशील तथा ईमानदार एवं योग्य लोगों के बारे में बताता है, पर यह दुर्भाग्य है कि सो काल्ड मीडिया उनके बारे में नहीं जानता।
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समाज और वक्त काफी बदला है। नरसिंह राव की नई आर्थिक नीति, जिसे आर्थिक सुधार कहते हैं, के बाद काफी बदलाव आया है। सूचना क्रांति ने भी समाज को पूरी तरह ऊपर से बदल दिया है, लेकिन भारत के गांव और दूरदराज आदिवासी इलाकों में बदलाव कम हुए हुए हैं। एक बार मैं छत्तीसगढ़ के एक आदिवासी गांव में गया तो स्कूल के गरीब बच्चों ने सचिन और अमिताभ का नाम तक नहीं सुना था, पर महानगरों, राजधानियों और कस्बों में समृद्धि आई हुई है। भारतीय मध्यवर्ग काफी समृद्ध हुआ है। सबसे ज्यादा क्षरण संवेदना का हुआ है, ईमानदारी और सत्यनिष्ठा का हुआ है। भावुक और संवेदनशील व्यक्ति असफल है। सफल वो है, जो ज्यादा धूर्त, चालाक और व्यावहारिक है। यह जीवन में हर रोज दिखाई देता है। इसलिए ईमानदार आदमी या तो बेवकूफ माना जाता है या पागल- यह हर क्षेत्र की कहानी है। साहित्य और पत्रकारिता में भी ऐसा ही है। जो अपने ज्ञान और उपलब्धियों को प्रदर्शित करता है, जो शामियाना लगाता है, नजर उसकी तरफ जाती है। जरूरत है, हाशिए पर पड़े लोगों को मुख्यधारा में लाया जाए और उन्हें न्याय दिलाया जाए। आदिवासी, दलित और पिछड़े काफी धकेल दिए गए हैं। हालांकि लोगों के जीवन स्तर में कुछ सुधार हुआ है। कागजों पर सरकार की योजनाएं काफी अच्छी हैं। सर्वशिक्षा अभियान, साक्षरता मिशन, मनरेगा, प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना, सेल्फ हेल्प ग्रुप और बैंकों के विस्तार से भी कुछ बदलाव आया है, पर आज भारत का निर्माण कम इंडिया का निर्माण अधिक हुआ है, राष्ट्रनिर्माण तो खैर कम ही हुआ है। भाषा और संस्कृति के संबंधों के सवालों पर कोई राष्ट्रीय बहस नहीं है। संसद में मैंने कभी संस्कृति नीति या भाषा नीति, फिल्म या नृत्य या संगीत पर कोई बहस नहीं देखी। प्रेस क्लब ऑफ इंडिया भी दारू क्लब ऑफ इंडिया है।
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मैं 25 साल की कैरियर में कभी प्रेस क्लब का सदस्य नहीं बना, क्योंकि वहां कोई गंभीर, सृजनात्मक विचार-विमर्श नहीं है। वहां कभी इतिहासकार, समाजशास्त्रियों, राजनीति विज्ञानियों, लेखकों, रंगकर्मियों को नहीं बुलाया जाता है। हबीब तनवीर, अल्काजी का क्या योगदान है? रामशरण शर्मा, इरफान हबीब ने क्या काम किया अपने जीवन में, रजनी कोठारी या अचिन विनायक या मनोरंजन मोहंती क्या सोचते हैं? कुरतलैन हैदर क्या सोचती थीं या निर्मल वर्मा- कहीं कोई जिज्ञासा नहीं, प्रेस क्लब के लोगों में- इसमें अंग्रेजी के भी स्वयंभू पत्रकार हैं जो इंडिया टुडे, इंडियन एक्सप्रेस या बिजनेस टुडे में काम करके अपने को महान पत्रकार मानते हैं, पर उनमें इतिहासबोध, मानवीय संवेदना की जगह केवल प्रोफेशनलिज्म है जो अंततः एक तरह का अवसरवाद है, उसमें जनपक्षधरता या प्रतिबद्धता नहीं है।
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महानगरों में अवसाद के क्षण काफी आए। दो-तीन वर्ष से अधिक। इसलिए ‘प्रेम’ और ‘मित्रता’ की उत्कंठा हुई पर बाजार और भूमंडलीकरण के युग में इन चीजों का महत्व नहीं रह गया है, कोई सच्चा मित्र नहीं मिलता, चाहे पुरुष हो या स्त्री। स्त्री से मित्रता में भी काफी पेंचोखम है। इगो और देह वहां एक दीवार की तरह है। विनम्रता, सरलता और निश्छलता का अभाव है। कभी किसी कविता, उपन्यास या कहानी पढ़ने से या किसी से मिलने से भी अवसाद के क्षण दूर हुए पर शाश्वत ऊर्जा नहीं मिली, फिर भी कुछ मित्रों ने समय-समय पर ऊर्जा दी, उनका शुक्रगुजार हूं, पर उनमें से कइयों से संबंध कटु हो गए। यह सब एक वक्त के दबाव का ही नतीजा है। व्यक्ति रूप में सभी अच्छे हैं, कुछ की सीमाएं हैं, कुछ का स्वभाव और कुछ की पसंद अलग है।
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एक बात शेयर करना चाहूंगा- प्रेम के अभाव ने ही मुझे लिखने को प्रेरित किया। घर और दफ्तर सभी जगह प्रेम का अभाव। कटुताएं और आलोचना या विरोध इतना अधिक है कि क्या कहा जाए! यह भी संभव है कि मैं भी लोगों से प्यार नहीं कर सका। दो-तीन पुरुष लेखकों से जाने-अनजाने संबंध कटु हो गए, जिन्होंने मेरी कभी मदद की और दो महिला मित्रों से भी संबंध खराब हुए, जिनके कारण मैंने कई कविताएं, उपन्यास और कहानियां लिखीं। ये मेरे पीड़ादायक अनुभव हैं। इसके जख्म काफी गहरे हैं। मैं आज भी उन लोगों का सम्मान करता हूं और उन्हें स्नेह तथा प्यार देता हूं। किसी को आत्मीय बनाना चाहता हूं, पर नहीं बना पाता, तो अब मौन मौन प्रेम में ही यकीन करने लगा हूं। मैं एक सरल, सहज, पारदर्शी, निश्छल और ईमानदार व्यक्ति के रूप में ही याद रखा जाना चाहूंगा, जिसके भीतर गहरा प्रेम छिपा था। वह कई लोगों से मन में प्रेम करता था और उनका शुभचिंतक बना रहा जीवन भर। मेरे ख्याल से किसी का आजीवन शुभचिंतक बने रहना बड़ी बात है। मैं अपनी घृणा, क्रोध, काम, वासना, लालच, नफरत आदि भी लड़ता रहा। मेरा मानना है कि मनुष्य को पहले अपने आप से लड़ना चाहिए, फिर समाज से। जो व्यक्ति आत्मसंघर्ष नहीं कर सकता, वह सामाजिक संघर्ष नहीं कर सकता। इस दृष्टि से मुझे निराला, मुक्तिबोध और शमशेर पसंद हैं, अज्ञेय भी, जिनकी एक तरह की मुठभेड़ अपने आप से भी है।
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मुझे कई कविताएं प्रिय हैं। निराला की बांधो न नाव इस ठांव बंधु, त्रिलोचन की चंपा काले-काले अच्छर नहीं पहचानती, नगई मेहरा, नागार्जुन की मंत्र, दिनकर की जेपी पर लिखी कविता, अज्ञेय की कई कविताएं, धूमिल की पटकथा, आलोकधन्वा की ब्रूनो की बेटियां, राजेश जोशी की मैं एक सिगरेट जलाता हूं, मंगलेश डबराल की कई कविताएं, वीरेन डंगवाल की राम सिंह, समोसा और जलेबी, विष्णु खरे की लालटेन, जो मार खाके रोई नहीं, विष्णु नागर का बाजा, असद जैदी की बहनें, देवीप्रसाद मिश्र की कई कविताएं, कुमार अंबुज की क्रूरता, रब्बी की अरहर की दाल, उदय प्रकाश की सुनो कारीगर, गिरधर राठी की लौटती किताब का बयान और रामदास का शेष जीवन, प्रयाग जी की कई कविताएं, अनामिका और सविता की कुछ कविताएं- मेरे पास एक लंबी सूची है। हां, गोरख पांडेय इस पूरे दौर के ऐसे कवि हैं, जिनकी कविताएं मुझे बेहद पसंद हैं, लेकिन विडंबना है कि उनके ही समकालीन स्वनामधन्य प्रगतिशील जनवादी कवियों ने उनकी उपेक्षा की। उनकी दसेक कविताएं तो हमेशा मेरे जेहन में रहती हैं। स्वर्ग से विदाई, समझदारों का गीत, अमीरों का कोरस, तुम्हारी आंखें, कैथरकलां की औरतें बेहद महत्वपूर्ण कविताएं हैं।
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मुझमें कई बुराइयां हैं- गुस्सैल हूं, आलसी हूं, आत्मविश्वास की कमी है, धैर्य का अभाव है, हठी भी हूं, और सबसे बड़ी बुराई है- प्रेम की तीव्र आकांक्षा। पारदर्शी, निष्ठावान, व्यक्तिगत संबंधों में ईमानदारी, किसी भी तरह की सत्ता से दूरी और धन का कोई मोह नहीं होना अगर अच्छाई है, तो वह मुझमें है। एक अत्यंत साधारण मनुष्य हूं और मृत्यु तक साधारण ही बना रहना चाहता हूं। मनुष्य की साधारणता को ही असाधारणता मानता हूं। अहम् और अहंकार को सबसे बुरी चीज मानता हूं।
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राजनीति में मैं कांग्रेस और भाजपा की नीतियों का विरोधी हूं। मेरा मानना है कि दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं और दोनों कारपोरेट तथा मध्यवर्ग के हितों की ही रक्षा करते हैं। दोनों की विदेश नीति तथा आर्थिक नीति एक है। सामाजिक न्याय की राजनीति का पक्षधर हूं, पर उसके नेतृत्व में मेरी आस्था नहीं है। लालू, मायावती, पासवान और नीतीश में भी मेरी आस्था नहीं है। उनकी सीमाएं हैं। वामपंथी पार्टियां आत्ममुग्ध अधिक हैं, वे दिग्भ्रमित भी हैं, फिर भी वे जनता के हितों का ख्याल रखती हैं, लेकिन वे कागजी तथा किताबी अधिक हैं। भाकपा (माले) का उतना जनाधार ही नहीं है।
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उनकी शक्ति कम है। नेतृत्व का संकट वहां भी है। कोई राष्ट्रीय नेता नहीं है। जेपी, लोहिया और नरेंद्रदेव का समर्थक रहा हूं, पर उनमें भी एक तरह का वामपंथ विरोध रहा है, पर उनका चरित्र बड़ा था। उनके पास ज्ञान था और जनता में उनके लिए सम्मान था। वे जनता के ही नेता थे। नेहरु जी मध्यवर्ग के ही नेता थे। उनका अभिजात्य मुझे पसंद नहीं है। राजेंद्र बाबू और शास्त्री जी की सहजता, सादगी और ईमानदारी पसंद है, पर इनमें कोई बड़ा नेता नहीं, जो संपूर्ण हो। मधु लिमये, मधु दंडवते और सुरेंद्र मोहन जैसे सहज सरल और ईमानदार नेताओं में मेरी आस्था रही, पर जनता के नेता वे भी नहीं थे। यह एक अजीब विडंबना है। भारतीय राजनीति में बहुत बड़ा संकट है। अन्ना में गांधीवादी आदर्श तो है, पर वह दृष्टि नहीं, जो गांधी, जेपी और लोहिया में थी, वो ज्ञान भी नहीं, पर ईमानदारी और सरलता है। उनकी टीम के लोगों का मुद्दा सही है, पर वे मुझे अधिक प्रभावित नहीं करते। मैं अन्ना के आंदोलन का समर्थक हूं। दरअसल मैं उस जनता का समर्थक हूं जो राज्यसत्ता को चुनौती देती है। हमारा स्टेट हिंसक और क्रूर होता जा रहा है। विनायक सेन और मेधा पाटकर हमारे नायक हैं। पर कोई महानायक नहीं है, पूरी दुनिया में। कभी मंडेला, फिदेल कास्त्रो थे, पर अब उनका भी पराभव हो चुका है। इसलिए अंतरार्ष्ट्रीय स्तर पर अंधेरा है। भारत के बुद्धिजीवियों में भी एक तरह का कैरियरवाद है। वे किताबी अधिक हैं। सरलता, सहजता और जीवन के रंग उनमें नहीं हैं। वे विद्वान तो हैं, पर पाखंड तथा ज्ञान का अहंकार उनमें अधिक है। वे भारतीय जनता से कटे हुए हैं। कुल मिलाकर स्थिति संतोषजनक नहीं है। हताशा और निराशा अधिक है। पर उम्मीद है…
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मुझे अफसोस है कि मैं चाहकर भी राजनीतिक रूप से सक्रिय नहीं हो पाया, कुछ नौकरी तो कुछ स्वास्थ्य के कारणों से, पर बेचैनी अधिक है। मेरा एक उपन्यास चांद/आसमान. डॉटकाम और एक प्रेम कविताओं का संग्रह ‘बेचैनी का सबब’ हाल में आया है। एक व्यंग्य संग्रह राजनीति का सर्कस भी आने वाला है। ‘आर यू ऑन फेसबुक’ नामक एक उपन्यास लिख रहा हूं। दो वर्षों में एक और कविता संग्र्रह निकालूंगा। कई योजनाएं पाइपलाइन में है। लिखना ही मुक्ति है। लिखने की बेचैनी बनी रहती है क्योंकि प्रेम की भी बेचैनी है- सबसे प्रेम- मनुष्यता को बचाने का प्रेम।
विमल कुमार से संपर्क 09968400416 या vimalchorpuran@gmail.com के जरिए किया जा सकता है. विमल कुमार की कविताओं को पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें- विमल की कुछ कविताएं
Comments on “जो बाजार के आलोचक हैं, उन्हें कोई संपादक नहीं बनाना चाहता”
bahut badhiya.
Vimal kr ek bahut acha kavi kathakar hai. vimalji na babiki sa apni bat rakhi hai. badhai yaswant aur vimal dono ko.
राजनीति नहीं कर पाने की कसक रह ही गई
इसमें विमल जी का व्यक्तित्व खुलकर सामने आ गया है |
इन विचारों से सहमत न होने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता ||
kuntha se bhare aise vaktiyon ko na to bazaar ki samajh hoti hai …aur na hi ve akhabaar ki samajh rakhate hain..krapaya aise logon ke saath sthan aur apana aur doosaron ka samay barbaad karane ka kya fayada…?
Umesh.Singh
PTI Bhasha
09013448695
kuntha se bhare aise vaktiyon ko na to bazaar ki samajh hoti hai …aur na hi ve akhabaar ki samajh rakhate hain..krapaya aise logon ke saath sthan aur apana aur doosaron ka samay barbaad karane ka kya fayada…?
Umesh.Singh
PTI Bhasha
09013448695
भाई उमेश जी,पढ़ने से आपका समय बरबाद होता है तो क्यों पढ़ते हैं भड़ास. पढ़ने की भूख आपको है इसलिए मजबूरी आपकी है . भड़ास का नैतिक कर्तव्य है हर आम-खास के बारे में छापना .
badhiya hai sir lekin aapki baat kuch jyada lambi nahi ho gayi……:)
Vimal sahab, aur logo kee bat nahi kahna hai, lekin urmilesh jee ko satta ke karib rahna khub bhata hai. jugar se rajyasabha tv join karne ke bad wah satve aasman me uran bhar rage hai…media jagat samudra ke laher ke tarah hai. dekhe unke liye kab’bhata’ aata hai. neelabh mishra jee sahi aadmi hai. cahe jyan ho ya insaniyat, unka jor nahi. wah urmilesh kee tarah lalunama nahi likhte. 9896594794
thanks for the interview
ये कविता भी
क्या चीज़ है
कुछ भी
लिख दो
हग दो
मूत दो
कविता
नाम दे दो
और कवि बन जाओ
chatukaarita nahi kiye.. isilie yashwant ji jaise abhi tak yahi pad ehain. haha. yashwant jee ne bhadas ko madhyam bana lia usi ke dam par apni awaj mukhar kiye hue hain.. waise aapke baare me itna sabkuch jaankar achha laga.. abhi wakt hai..rajiv shukla jaise kuch ariye.. warna sham ke time retirement ke baad daru bhi nahi ilegi..
काफी नपा-तुला साक्षात्कार है…
यशवंत जी को बधाई…
विमल जी हर्दिक बधाई. वर्तमान मीडिया का कच्चा चिट्ठा खोल दिया। वाकई ये वो मीडिया नहीं है, जिसमें काम करने के लिए एक-डेढ़ दशक पहले के पत्रकार आते थे। ये तो बिल्कुल बदला सा अनजाना या उद्योग है, जिसमें समाज के लिए, गरीब आदमी के लिए और तो और अपने पेशे और साथियों के लिए भी कोई संवेदनशीलता नहीं है। बड़े बड़े चैनलों और अखबारों के संपादक पद पर बैठे लोग या तो तिकड़म से आए हैं या फिर उथले ज्ञान और मार्केटिंग स्ट्रैटैजी की वजह से। 90 फीसदी चैनलों में वही लोग संपादक बने हैं, जिनका वास्ता रिपोर्टिंग से होता है और जो अपना पीआर करने में माहिर होते हैं। उनके पास गंभीर लेखन पढ़ने का समय ही नहीं होता। वो डेस्क पर काम करने वालों को भौंदू या क्लर्क समझते हैं, क्योंकि उनको बड़े बड़े लोग जान जाते हैं। इसीलिए नए पत्रकार भी रिपोर्टर और एंकर ही बनना पसंद करते हैं।
और सबसे दुखद बात ये है कि जब भी इस तरह की गंभीर चर्चा होती है और आप जैसा कोई वरिष्ठ पत्रकार सच्ची तस्वीर पेश करना चाहता है कुछ कमअक्ल ( पीटीआई भाषा के कथित उमेश सिंह जैसे) लोग सामने आ जाते हैं। ये वे लोग जो केवल कामयाबी को सलाम करते हैं, चाहे वो किसी की तरह आए, चाहे अपना स्वाभिमान बेचकर ही आए। लेकिन जिन कई अच्छे पत्रकारों के आपने नाम लिए हैं, उनमें से कई लोग बेहद अहंकारी स्वभाव के भी है, इसलिए भी उनकी दुर्दशा होती है। प्रिन्ट मीडिया में अगर नए लोग पैर न छुएं तो अपने ज्ञान को बांटना तो दूर उसकी योग्यता का भी तिरस्कार करने में जरा सा देर नहीं लगाते कई स्वनामधन्य। इसी तरह टेलीविजन के कई संपादक अपनी कोटरी के लोगों को गर्व से इस बात को बताते हैं कि किस लड़की को एंकर बनाने के लिए उन्होंने क्या कीमत वसूली। सत्ता और सियासत को नैतिकता का पाठ पढ़ाने वाले पत्रकार कितने खोखले, कितने संवेदनहीन, कितने दुष्चरित्र,
किचने चाटुकार, कितने उथले हैं, ये आज आसानी से देखा जा सकता है। इससे भी दुखद बात है इनको कोई रोकने वाला नहीं। आपस में ये एक दूसरे की आलोचना नहीं करते राडिया कांड में कितने स्वनामधन्य पत्रकारों ने बरखा और वीर संघवी को आड़े हाथ लिया? सरकार और सियासत इनसे समझौता वाला भाव रखती है। साथी पत्रकार भविष्य में संबंध खराब होने के डर और नौकरी की जरूरत पड़ जाने की संभावना में चुप्पी साधते हैं। जब कानून कुछ बिगाड़ नहीं सकता और समाज उनके आगे बौना हो गया है तो तय है कि ऐसे पत्रकारों का
पतन बढ़ता हा जाएगा। उनका देखादेखी जो नई पीढ़ी आएगी वो भी उसी नक्शेकदम पर चलेगी। कौन रोकेगा इसका पतन?कोई तो आगे आए।
विमल जी ने खुद को जिस तरह से बरता है वह अनुकरणीय है. मुझे यह साक्षात्कार किसी उम्दा साहित्यिक लेख जैसा लगा.
vimal ji aap mahan hai,aap es bhrasht media men akele enshan hai ,jinke hatho men media ki bachi khuchi samman ki kaman hai ,aapne achha likha desh ke samane rakha esake liye thanks……………….
aadrneey vimal ji ka yeh lekh bahut jaankari poorn laga.. us samay ke unke anubhav padhkar unki is manzil tak pahunchne ki yatra ka bodh hua. yeh ek imandaari se likha gya lekh hai. sahity sanskriti aur rajneeti ke kai pahluon ko chhoota hua.. abhaar vimal ji
vimal sir ki khanai har yuwa patrakar ki kahani hai aur …prerna ka source hai
vimalji, excellent thoughts and u seem to be so transparent about yourself and the time we live.
yashwantji aap in interviews kee ek shrinkhala prakashit karen. koshish karen angrezi ke patrakaron se bhi sakshatkar ho. phir antar samne hoga.
me aapse mila nahi lekin aapke baare suna he People tell that ur quite bold and courageous journalist.. Koshish karen aur mumkin he aapke liye kee un patrakaron ko khulkar expose karen jo channel heads/editors ban kar iss peshe ko kalankit kar rahe he.
kahin koi imaandaari ki koshish to kar raha hai. jankar santosh hua.
”हर कोई पत्रकार-एंकर बनना चाहता है। दरअसल बेरोजगारी भी अधिक है। युवा क्या करें! सरकारी नौकरियां कम हैं, और वे पत्रकार पीस रहे हैं। लेबर कानून का पालन नहीं। वेज बोर्ड लागू नहीं। सेवा शर्तें मनमानी हैं। भीतरी शोषण काफी है। कोई यूनियन नहीं। अराजक माहौल है।”
विमल कुमार जी ने सच कहा है…गजब की बेबाकी है…ऐसी बेबाकी पुण्य प्रसून बाजपाई और रविश कुमार मे. दिखती है…मार्कण्डेय काटजू द्वारा पत्रकारों को आईना दिखाने के बाद की बेचैनी में आशुतोष जी ने ‘एजेंडा’ में पुण्य प्रसून बाजपाई जी और एन के सिह जी को बुलाया था. क्या बहस थी! पुण्य प्रसून बाजपाई जी का स्टॅंड देख कर मज़ा आ गया था. माननीय एन के सिह जी की को कुछ भी कहते नहीं बन रहा था. सचमुच जब तक पत्रकारिता में आंतरिक लोकतंत्र नहीं आता और प्रतिभा को चाटुकरिता पर तववजो नहीं दी जाती कोई बदलाव नहीं आने वाला. पर विमल कुमार, प्रसून बाजपाई और रविश कुमार जैसों की मौजूदगी से आशा नहीं टूटती.
विमल जी, एक चलता फिरता मीडिया संस्थान हैं, उनके इस इंटरव्यू से वे और खुलकर सामने आये है, यशवंत जी को बधाई शानदार प्रस्तुति के लिए
शानदार प्रस्तुति यशवंत जी, एकदम दिल खोलकर कहा है विमल जी ने
बहरहाल इंटरव्यू में विमल जी की ये लाइन हमलोगों के लिए काबिलेगौर है –
स्त्री से मित्रता में भी काफी पेंचोखम है। इगो और देह वहां एक दीवार की तरह है। विनम्रता, सरलता और निश्छलता का अभाव है।
शानदार प्रस्तुति यशवंत जी, एकदम दिल खोलकर कहा है विमल जी ने
बहरहाल इंटरव्यू में विमल जी की ये लाइन हमलोगों के लिए काबिलेगौर है –
स्त्री से मित्रता में भी काफी पेंचोखम है। इगो और देह वहां एक दीवार की तरह है। विनम्रता, सरलता और निश्छलता का अभाव है।
Sir ab wo senior nahi rahe jo apane junior ko dant dant k sikhate the aur unko protsahit karate the na ab wo khabaro ka daur raha na wo mahaul
ladakiyo k liye to ye field bahut hi partial hai khas ker hindi media ….
must read
must read this interview
विमल जी से वार्ता का यह नेट अंक जिसको श्रद्धेय पद्मसंभव जी ने शेयर किया है को पढने को मिला ।विमल जी से वार्ता के क्रम अतीत के मानस पटल पर उन सभी स्वनामधन्य संपादकों,लेखक चिन्तक का नाम पढने को मिला जो पत्रकारिता को समर्पित थे।आज का वर्तमान अब उपयोगिता और ह्रास के अर्थशात्रिय नियम के आधार पर मूल्यांकित होता हुआ तमाम पश्नों की पायी पर खड़ा है।जीवन मूल्य स्वयम की तलाश करता दीखता है।बहुत दिनों बाद आज कुछ वैचारिकता को समर्पित लोंगों की श्रृंखला के नाम मिले।लोकतंत्र के लिए पत्रकारिता एक शशक्त विपक्ष की भूमिका में होना चाहिए। जिससे व्यवस्था की त्रुटियों का रेखांकन किया जा सके, किन्तु यह हम सब का दुर्भाग्य है की हमने स्वयम को खेमों में बाँट लिया है, और यही वैचारिक खेमेवाजी ही कभी सत्ता की वकालत करती हुयी गोचर होती है। जब वह सत्ता से वाहर होती है तो वह उसकी प्रवक्ता बन वैठ्ती है बस हमसे यह जानी समझी प्रायोजित चूक हो जाती है।
यशवंत जी,जब कभी भडास को पढता हू मजा आ जाता है और आपके मेरठ के दिन ये आलेख पढ कर मन अशान्त हो गया कि हम कहा है
प० राजेश कुमार शर्मा भृगु ज्योतिष अनुसन्धान एवं शिक्षा केन्द्र सदर गजं बाजार मेरठ कैन्ट 09359109683
जो दिखा, वही लिखा यहाँ । कभी कभी अपने विरोधाभासों को दोस्तों के कंधों पर भी मढ़ा । पर इमानदार, मेहनतकश आैर विवेकशील ज़िंदगी जी । तुमपर फ़क्र है विमल ।
जो दिखा तुममें, वही लिखा तुमनें । लेखन में अपने विरोधाभासों को दोस्तों के मत्थे भी मढ़ा यदा कदा । पर एक मेहनतकश, इमानदार, अौर जीजिविषापूर्ण ज़िंदगी जी अबतक । फ़क्र है तुमपर विमल ।