सबको खबर देने और सबकी खबर लेने का दावा करने वाला, अपने को जनता का पक्षधर और सबसे तेज, निर्भीक व निष्पक्ष बताने वाला मीडिया राडिया टेपों के प्रकाश में आने के बाद जनता के बीच खुद सवालों के कठघरे में खड़ा है। देर से ही सही, तीन शीर्ष संस्थाओं ने हमपेशा लोगों के साथ इन सामयिक सवालों पर समवेत चर्चा की प्रशंसनीय पहल की। यह सही है कि गहरी स्पर्धा के युग में ताबड़तोड़ जटिल स्टोरी का पीछा करते हुए एक पत्रकार को हर तरह के लोगों से मिलना होता है। पर दलील दी जा रही है कि पत्रकार अगर दोस्ती का चरका देकर (स्ट्रिंगिंग एलॉन्ग) किसी ऐसे महत्वपूर्ण स्रोत से संपर्क साधे, जो कारपोरेटेड घरानों का ज्ञात और भरोसेमंद प्रवक्ता तथा राजनीतिक दलों से उनके हित साधन का जरिया भी हो, तो क्या उससे फोन पर बात करना पत्रकार के दागी होने का प्रमाण है?
यह सवाल लचर है। बड़े कारपोरेट घरानों की पीआर एजेंसियां, जो तगड़े पीआर बजट के साथ लगातार प्रभावशाली लोगों के संपर्क में रहती हैं, इतनी भोली नहीं होतीं कि वादा करवाने के बाद मुद्दे का पीछा न करें और वादाखिलाफी के बाद भी पत्रकार से संपर्क कायम रखें।
बजट से लेकर सार्वजनिक संसाधनों के आवंटन तक से जुड़ी अहम सरकारी फैसलों की धारा कंपनी के जजमानों के हित में मुड़वाने के लिए कौन नेता, अफसर या दिग्गज पत्रकार मदद देगा, इसकी उनको खूब परख होती है। किस हद तक पीआर वालों से बात की जाए, कहां दूरी बरती जाए, इसके अलिखित नियम भी हर अच्छा पत्रकार जानता है।
कार्यकुशलता तथा हिम्मती रिपोर्टिग के लिए बार-बार सम्मानित जो पत्रकार टेप के लपेटे में आए हैं, इन सच्चाइयों व धंधई लक्ष्मण रेखाओं से अनजान थे, यह असंभव है। बेहतर होता कि बचाव में अपने कॉलम या कार्यक्रमों में जिरह की बजाय वे विनम्रता से मान लेते कि उनसे गलती हुई है और उससे वे सबक लेंगे।
एक पत्रकार ने विवादित पीआर एजेंसी से दोस्ती का अनूठा तर्क दिया कि हर नागरिक अपने विचार साझा करने को स्वतंत्र है। फोन पर अपने संपर्क सूत्र से उन्होंने जो कहा, वह उनका जाती मामला है और उसकी जासूसी या उस पर बंदिश की मांग पत्रकारीय आजादी का हनन होगा।
हमारे संविधान का अनुच्छेद 19 मीडिया ही नहीं, सभी देशवासियों को अभिव्यक्ति की आजादी का हक देता है, पर वह यह नहीं कहता कि आप अमुक चैनल या अखबार के समूह संपादक और कई लाभकारी सूत्रों से संपर्क रखने वाले शख्स हैं तो आपको अभिव्यक्ति या निजता की रक्षा का दूसरों से ज्यादा हक प्राप्त है।
दिक्कत यह है कि आज भी बतौर प्रोफेशन पत्रकारिता का क्षेत्र सीमा-रेखा या परिधिविहीन है। अलबत्ता हम बात ऐसे करते हैं मानो डॉक्टरी या प्रोफेसरी की तरह उसकी प्रोफेशनल सीमाएं स्पष्ट हों और पत्रकार घोड़े पर सवार कल्किनुमा अवतार है जो राज-समाज की बुराइयों को मिटा सकता है।
इसी कारण वे तमाम उम्मीदें जो लोकतंत्र के तीन अन्य पायों (विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका) से करनी चाहिए थीं, जनता पत्रकारिता जगत के सितारों से पाल बैठी है। जनता की सराहना और उम्मीदभरी निगाहों और स्टूडियो में तालियों के नशे में खुद को विक्रमादित्य समझ बैठने वाले पत्रकार अक्सर अपनी छवि के चक्कर में पेशे की अलिखित मर्यादाएं भूल जाते हैं।
यूं भी नई तकनीकी, आक्रामक आत्मप्रचार तथा तिकड़मी क्षमता के बल पर कुछ महत्वाकांक्षी किंतु अनुभवहीन लोगों को आज कम उम्र में बहुत यश तथा ओहदा मिल जाए तो आत्मस्फीति और लालच बढ़ने का खतरा बनता है। आज भी मीडिया में क्वालिटी कंट्रोल का काम संविधान या सरकार नहीं, वरिष्ठ व अनुभवी पत्रकारों का निजी विवेक, चंद यशविमुख संपादक, संस्थान की साख और सभ्य समाज की मर्यादाएं करा रहे हैं।
हिंदी पत्रकार इन टेपों के दायरे में भले न हों, पर उनके लिए भी यह पीठ थपथपाने की बजाय तटस्थ आत्मपरीक्षण का विषय होना चाहिए। अंग्रेजी में लाभ लोभ की पत्रकारिता बढ़ने के साथ लगातार तकनीकी तथा आर्थिक तौर से समृद्ध बन रही हिंदी में भी चिंताजनक क्षरण आया है। हिंदी में भी अनेकों अनुभवहीन साइबर पत्रकार या अंशकालिक संवाददाता हैं, जो पत्रकारिता को ऊपरी कमाई का साधन बनाकर आरोपी का पक्ष जाने बिना सिर्फ अफवाहों, निजी खुंदक या न्यस्त स्वार्थो को उपकृत करते हुए बड़े-बड़ों की उम्रभर की साख पर सियाही पोतने का काम कर रहे हैं।
जितना ऊंचा शिकार, उतनी ही उनकी कमाई और उससे भी अधिक आत्मस्फीति कि देखो हमारी ताकत! दुखद यह कि ऐसे पत्रकार चूंकि कलेक्टर से लेकर काबीना मंत्रियों तक निजी संपर्को के बूते समय-समय पर तमाम लोगों को उपकृत कराते रहते हैं, उनके पकड़े जाने पर व्यवस्था के भीतर से उनके गुप्त समर्थकों की जमात रातों-रात उनकी ओट बन जाती है।
इस बार जो चंद जाने-माने पत्रकार यकायक घिरे हैं, उसका श्रेय भी अंग्रेजी-हिंदी मीडिया के किसी लोकपाल या निगरानी संस्था को नहीं जाता। ये टेप कारपोरेट तथा राजनीतिक क्षेत्र के प्रतिस्पर्धी हितों के टकराव के कारण लीक हुए हैं और पूरे कांड की जडें इस अकथित सचाई में हैं कि हिंदी समेत हर भाषा के मीडिया पर इस दशक में राजनीतिक दलों तथा कापरेरेट तत्वों का सीधा कब्जा लगातार बढ़ा है। बाजार की पूंजी से कारपोरेटाइज हो गए मीडिया में अधिक से अधिक पैसा कमाने की इच्छा सर्वोपरि है, पाठक का हित नहीं।
दर्शक या पाठक को बरगलाकर माल खरीदवाने को हर तरह के घालमेल आज स्वाभाविक हैं और अधिकतर मामलों में वरिष्ठ पत्रकार अपने संस्थानों की जानकारी के बिना नहीं, उनकी गुप्त या जाहिर सहमति से ही लक्ष्मण रेखाएं तोड़ रहे हैं।
प्रमाण कभी ‘पेड न्यूज’ के रूप में सामने आते हैं, तो कभी संपादकीय पन्नों या स्टूडियो बहसों में किसी व्यक्ति, दल या घराने के खिलाफ या समर्थन में चलाए गए योजनाबद्ध कैंपेन की शक्ल में। इससे चंद संपादक और पत्रकार ही महिमामंडित नहीं हो रहे, उनकी ग्लैमरस सुपर हीरो की छवि बनवाकर उससे बाजार में ब्रांड इमेज चमकाने वाले मीडिया संस्थान भी भरपूर लाभ उठा रहे हैं।
शायद इस बिंदु पर आकर मीडिया को अब अपने लिए खुद एक न्यूनतम आचार संहिता तय करने पर पुनर्विचार करना होगा। इमरजेंसी की कड़वी यादों के चलते मीडिया को ऐसा कोई भी अनुशासनपरक कदम नागवार लगता रहा है, लेकिन दूसरों के खिलाफ जिहादी तेवर दिखाने वाला मीडिया जान ले कि हमारा नया उपभोक्ता खुद भी नई तकनीकी से परिचित है।
मीडिया के घालमेल के खिलाफ यह उपभोक्ता या सिटीजन जर्नलिस्ट बनकर प्रेस काउंसिल, उपभोक्ता अदालत, लोकपाल या महिला आयोग में धड़धड़ाता चला जाएगा। वह सूचना अधिकार का उपयोग कर झूठ को सप्रमाण सूचना प्रसारण मंत्री या प्रतिस्पर्धी अखबार अथवा चैनल को खत या ई-मेल से भेजकर दर्ज कराएगा। गैरजिम्मेदारी और भ्रष्टाचार के सायों से घिरी पत्रकारिता की साख अब सिर्फ विज्ञापनी रंग-रोगन या दबंगई के बल पर कायम नहीं रखी जा सकती।
लेखिका मृणाल पांडे प्रसार भारती की अध्यक्ष तथा जानी मानी साहित्यकार एवं वरिष्ठ पत्रकार हैं. उनका यह लेख दैनिक भास्कर में प्रकाशित हो चुका है. वहीं से साभार लेकर प्रकाशित किया गया है.
Comments on “धंधई लक्ष्मण रेखा से अनजान नहीं थे पत्रकार : मृणाल”
Vidmbana hai jis Bhaskar me Mranal ka yah lekh chapa hai,paid news ke mamle me sabse pahle useeka naam aaya hai.Tata-Radia prakaran me bhee Bhaskar ka jikra huaa hai.Khojna hoga ki kitno ne kapde pahne hain.Hamam me to sab nange hain.
aaj ke jamane me jaha media dalalo,dabango, dandagiri karne wale gunda typ editoro se bhar gaya h waha par mp ka ye lekh sach se un logo ko bata raha h ki kam kitne gir gaye h kal tak media me rahne ka maylab hi mana jata tha ki samaj me ek samman aur jimmedari ka bodh hota tha magar lafango aiyasho londiabaj editoro se media me kya nahi ho raha h .मीडिया के घालमेल के खिलाफ यह उपभोक्ता या सिटीजन जर्नलिस्ट बनकर प्रेस काउंसिल, उपभोक्ता अदालत, लोकपाल या महिला आयोग में धड़धड़ाता चला जाएगा। वह सूचना अधिकार का उपयोग कर झूठ को सप्रमाण सूचना प्रसारण मंत्री या प्रतिस्पर्धी अखबार अथवा चैनल को खत या ई-मेल से भेजकर दर्ज कराएगा। गैरजिम्मेदारी और भ्रष्टाचार के सायों से घिरी पत्रकारिता की साख अब सिर्फ विज्ञापनी रंग-रोगन या दबंगई के बल पर कायम नहीं रखी जा सकती।
aapne sahi likha h ki गैरजिम्मेदारी और भ्रष्टाचार के सायों से घिरी पत्रकारिता की साख अब सिर्फ विज्ञापनी रंग-रोगन या दबंगई के बल पर कायम नहीं रखी जा सकती।
aapne sahi kaha ki sakh ko kayam nahi rakhi ja sakti but kya kare mp ji na aap kuchh kar sakti h na karna chahti h bas lekh likh kar aap apna dharan nibhaye aur hamlog lekh ki tarif kar aur badmash o ko gariya kar apna farz aada karte h sawal fir bhi h ki billi ke gale me ghanti kaun bandhe kamse kam ham jaise likhne walo tippani dene walo se to kuchh nahi hone wala fir bhi awazthane ka hausala b kam vandaniya nahi h
didi ji app bilkul sahi kahh rhi hi vakt ne ajj bhut sare [i]ROLL MODAL JURNL.[/i] ko shak ke ghere me la kr khada kr diya hi [u],ur yah bilkul sahi vakt hi ki[/u] [b]” शायद इस बिंदु पर आकर मीडिया को अब अपने लिए खुद एक न्यूनतम आचार संहिता तय करने पर पुनर्विचार करना होगा। ” [/b]