: जनसत्ता के लोग दोतरफा आलोचनाओं के शिकार होते रहे हैं पर ऐसे किसी आयोजन में उन्हें पूछा भी नहीं जाता जिसकी वजह जनसत्ता अखबार और प्रभाष जोशी हों : इस बार प्रभाष जोशी के जन्मदिन पर जनसत्ता से शुरू से जुड़े रहे वरिष्ठ पत्रकार सतीश पेडणेकर को विदाई दी गई। प्रभाष जोशी को याद किया गया और एक ऐसे साथी को विदा किया गया जो शुरू से प्रभाष जी की टीम का हिस्सा रहे।
सतीश पेडणेकर जनसत्ता के स्तम्भ रहे हैं, भले ही उनकी यह पहचान सार्वजनिक न रही हो। दिल्ली, मुंबई और फिर दिल्ली, हर बार वे उसी उत्साह से काम करते नज़र आए। दरबारी किस्म के पत्रकार नहीं रहे हैं इसलिए वे सार्वजनिक मंच पर भी नहीं दिखते रहे। न ही वे जनसत्ता में चंद्रशेखर और वीपी सिंह का महिमामंडन वाला पुराण लिखकर आगे बढ़े और न ही कोई वैचारिक गिरोह बनाया। पर प्रतिभा और परिश्रम में किसी से कम नहीं रहे। जनसत्ता से उनकी विदाई काफी खली हालांकि अपना कोई बहुत करीब का संबंध नहीं रहा। पर प्रभाष जोशी इस मौके पर जनसत्ता में याद किए गए। जनसत्ता डेस्क और रिपोर्टिंग ब्यूरो के लोग मौजूद थे। ये वे लोग थे जो किसी मंच पर नजर नहीं आते पर जनसत्ता की रीढ़ हैं। यह टीम भी प्रभाष जोशी की ही बनाई हुई है। आज प्रभाष जी को जब लोग याद करते हैं तब वे जनसत्ता को भूल जाते हैं, उनकी टीम को भूल जाते हैं।
जनसत्ता के लोग दोतरफा आलोचनाओं के शिकार होते रहे हैं पर ऐसे किसी आयोजन में उन्हें पूछा भी नहीं जाता जिसकी वजह जनसत्ता अखबार और प्रभाष जोशी हों। प्रभाष जोशी ने जनसत्ता को बनाया और उसी जनसत्ता ने प्रभाष जोशी को देश का सबसे बड़ा कद्दावर पत्रकार बनाया। जनसत्ता और प्रभाष जोशी एक दूसरे के पूरक भी बन गए। रामनाथ गोयनका के जाने के बाद जनसत्ता एक्सप्रेस समूह की प्राथमिकता से हटा तो दुर्दिन भी आए। बाहर वाले तो आलोचना करते और प्रबंधन भाषाई भेदभाव पर आमादा रहता जिसके खिलाफ एक्सप्रेस यूनियन में रहते हुए एक लड़ाई मैंने लड़ी तो आज अरविन्द उप्रेती भी लड़ रहे हैं। बहुत बातें कहने की नहीं होती। पर कुछ तो जरूर जानना चाहिए। जनसत्ता से लोग जाते गए पर नए लोगों का रास्ता बंद हो गया।
किसी भी नए प्रयोग के लिए जो संसाधन चाहिए वे भी बंद होते गए जिसके लिए बाद के वे संपादक भी जिम्मेदार हैं जो प्रभाष जोशी की पीठ पीछे जमकर आलोचना करते रहे हैं और प्रभाष जोशी के जाने के बाद उनके नाम से बने मंचों पर पत्रकारिता की दशा और दिशा पर ज्ञान देते हैं। इतना प्रयास यदि उन्होंने जनसत्ता में रहते हुए प्रभाष जोशी को उखाड़ने की बजाय अखबार पर लगाया होता तो आज इतनी बुरी दशा भी नहीं होती। कुछ लोग जो जनसत्ता से बाहर किए गए महान पत्रकारों के चेले चपाटी हैं, अक्सर फ़तवा दे देते हैं कि जनसत्ता वाले काम नही करते, भाषा की खबरें भरी रहती हैं। पर जिस संसाधन में दूसरे बड़े अखबार निकल रहे है, उसके एक चौथाई संसाधन में जनसत्ता निकलता है और स्टाफ की भी यही हालत है।
जिस तरह की दिक्कतें आए दिन लोग झेलते हैं वह बाकी जगह नहीं है। इसमे भी एक एक कर पुराने साथी जा रहे हैं। ऐसे हालत में भी जनसत्ता के लोग इस अखबार की मशाल जलाए हुए हैं तो इसका श्रेय प्रभाष जोशी के नेतृत्व को जाता है, जो आज भी हम सबको हिम्मत और ताकत देता है, कभी किसी पत्रकार को राज्य सत्ता के आगे झुकने भी नहीं देता। ऐसे में प्रभाष जोशी बार बार याद आते है।
जनसत्ता में जो है और जो बाहर चले गए, उसमें से ज्यादातर प्रभाष जोशी की पत्रकारिता की परम्परा को आगे बढ़ाने का प्रयास कर रहे हैं। अपवाद तो हर जगह होते हैं। जनसत्ता के बहुत से ऐसे लोग होंगे जिन्हें बाहर कोई नहीं जानता और न ही किसी मंच पर उन्हें बुलाने की जरूरत समझी जाती है। हमें याद है कि कोई भी आयोजन हो, प्रभाष जोशी कार्ड लेकर बहादुर शाह जफ़र स्थित जनसत्ता के सम्पादकीय विभाग में पहले आते और चपरासी से कार्ड देने की शुरुआत करते और उसके कंधे पर हाथ रखकर कार्यक्रम में आने का अनुरोध करते। फिर डेस्क के वरिष्ठ साथी से मिलते। जनसत्ता की डेस्क ने बहुत से पत्रकार बनाए जो मीडिया की दुनिया में ब्रांड बन गए। आलोक तोमर, कुमार आनंद, सुरेंद्र किशोर, जयप्रकाश शाही, हरिशंकर व्यास आदि उदाहरण हैं।
पर डेस्क के लोग आज भी परदे के पीछे वैसे ही काम कर रहे हैं। श्रीश चन्द्र मिश्र, अमित प्रकाश सिंह, अरविंद उप्रेती, पारुल शर्मा, सुरेश कौशिक, नीलम गुप्ता, संजय स्वतंत्र, ईश्वर, मृणाल वल्लरी, राजेश जैसे कई साथी आज भी प्रभाष जोशी की इस मशाल को जलाए रखने के लिए रोज कई घंटे नोयडा में देते हैं। हमें लगता है सत्ता प्रतिष्ठानों और मीडिया की चमक धमक से दूर रहने वाले ऐसे लोगों को भी मंच मिलना चाहिए और उनकी बात सुनी जानी चाहिए। प्रभाष जोशी के साथ अगर जनसत्ता को लेकर बहस हो तो ज्यादा सार्थक होगी।
आज प्रभाष जोशी को तो सार्वजनिक मंचों पर याद किया जाता है पर जनसत्ता को छोड़ दिया जाता है। ऐसे में चाहे बहस क्षेत्रीय पत्रकारिता की हो या राष्ट्रीय पत्रकारिता की, क्या इस अखबार को छोड़कर होने वाली कोई बहस सार्थक कहलाएगी जिसने हिंदी पत्रकारिता की भाषा बदली, तेवर बदला और हिंदी पत्रकारों को अंग्रेजी वाले पत्रकारों के बराबर खड़ा कर दिया। यह काम प्रभाष जोशी और उनकी टीम ने ही किया था। उस टीम के योगदान को भी याद किया जाना चाहिए।
पिछली बार इसी दौरान आलोक तोमर बीमार पड़े और हम सब चिंतित हो उठे थे। प्रभाष जोशी की याद में हम सब कुछ करने के इच्छुक थे और शुरुआत भी हुई पर पहला कार्यक्रम जो सीतापुर में रखा गया, वह भी नहीं हो पाया क्योकि आलोक तोमर को डाक्टरों ने जाने की इजाजत नहीं दी और तबसे पहली चिंता आलोक को लेकर रही। पर वे भी अंततः सभी को छोड़ गए और जो कुछ कार्यक्रम तय थे, सभी अधूरे रह गए।
करीब दो हफ्ते पहले जब अहमदाबाद से जयपुर पहुंचा तो पर्यटन विभाग के जिस होटल गनगौर में रुका तो संयोग से वह वही 102 नंबर का कमरा था जिसमें प्रभाष जी रुका करते थे। राजीव जैन ने जब यह बताया तो फिर प्रभाष जी याद आए। यह जरूर खला कि अभी तक कुछ ठोस नही हो पाया पर यह संतोष जरूर है कि ऐसा भी कुछ नहीं हुआ जिससे प्रभाष जी का मान सम्मान कम हो। बहुत से काम प्रभाष जोशी भी करना चाहते थे पर नहीं कर पाए। उम्मीद है कुछ न कुछ जरूर हो पाएगा।
लेखक अंबरीश कुमार वरिष्ठ पत्रकार हैं. जनसत्ता अखबार के उत्तर प्रदेश ब्यूरो चीफ हैं. खरी-खरी बात कहने और लिखने के लिए जाने जाते हैं.