: देह त्यागने के बाद के जीवन को न जानने की अज्ञानता से उपजे दुख! :
कोई इस दुनिया के जाने के बाद कैसे बयान दे सकता है. पर आलोक तोमर दे सकते हैं. क्योंकि आलोक तोमर देह के गुलाम नहीं, वे आम मनुष्य नहीं. वे देह से इतर हैं. वे मनुष्येतर हैं. वे थाली भर खा-खाकर सोते, उंघते, हगते-मूतते और जमाने भर की शिकायतें करते और अपने जीवन पर अफसोस जताते रहने वालों में से नहीं हैं. इसी कारण उन्होंने जीवन के हर पल को भरपूर जिया. कभी फक्कड़ों की तरह, कभी योद्धा की तरह, कभी विजेता की तरह, कभी प्रशिक्षु की तरह, कभी प्रेमी की तरह, कभी सपूत की तरह. कभी सेनापति की तरह, कभी संत की तरह, कभी औघड़ की तरह, कभी अभिभावक की तरह.
उन्होंने आखिर दम तक मोर्चेबंदी की. कैंसर और यमराज से भी पंगा लिया. बहुत साफ साफ शब्दों में और ऐलानिया लिया.
शब्दों की जलेबी छानने वालों से, जो ”ये भी सही, वो भी सही”, लिखते कहते रहते हैं, आलोक की कभी नहीं बन सकती थी क्योंकि वे बेहद खरा, बेहद साफ और बेहद आतंकित करने वाले सच को बयान कर दिया करते थे, बेहद कम शब्दों में. सपाट बोल देना और सपाट लिख देना बहुत मुश्किल है आज के दौर में. तो, आलोक का बयान, जो सदेह होने के आखिरी दिनों में था, लगता है उन्होंने दुहरा दिया है, ये कह के कि- मैंने पहले कहा था न, जब मरघट भी जाऊंगा तो पैदल ही. इस बयान को विदेह होने के बाद का आलोक तोमर का बयान मैं समझ रहा हूं.
और आलोक तोमर, लगता था कि पूरे सिस्टम को अपनी एक उंगली पर घुमाते रहते थे और जब चाहे उसे ‘स्टाप’ कहके रोक देते और उसके किसी एक हिस्से पर नजर गड़ाते तो अंदर का सारा कचरा देख लेते, बीन लेते और सबके सामने परोस देते, फिर सबसे कह देते- ये देखो बुजुर्गों-बालकों-समकालीनों… ये देखो… देखो ये खेल तमाशा, क्या-क्या पक रहा है अंदर, जो सिस्टम के बजबजाने का कारण बन रहा है, और आप लोग हो कि भजन गा रहे हो, हरिकीर्तन कर रहे हो…
उन खबरों को जो खबरें नहीं हुआ करतीं, सिर्फ कानाफूसी हुआ करतीं क्योंकि उसके कोई पत्रकारीय प्रमाण नहीं होते पर वे बिलकुल सौ फीसदी सच हुआ करतीं, आलोक लिख डालते, बिना डरे, बिना परवाह किए. और, जमाना दम साधे पढ़ता, कहता कि गजब हिम्मती है ये शख्स. नियम-कानूनों का जो जंजाल है, वो चाहे पत्रकारिता में हो या सिस्टम में, उसके नाम पर दरअसल हर वक्त इन दिनों सच का ही गला बांधा-रेता जाता है, सो, इसी कारण वे नियम-कानूनों के जंजालों से परे जाकर अपने बनाए स्वयंभू नियम-कानूनों के तहत लिखते बोलते और जीते थे. सुपरमैन शायद ऐसा ही होता है.
जब जब दुनिया सिर के बल खड़ी हो जाती है, आलोक जैसे सुपरमैन ही उसे फिर सहजावस्था में, पैर के बल खड़े कर पाते हैं. और यकीनन आलोक तोमर पत्रकारिता के सुपरमैन हैं. बात कर रहा था उनके उस बयान की जो उन्होंने भड़ास आफिस में आकर दर्ज कराया, जनता के लिए, अपने जानने-चाहने वालों के लिए. उस बयान को आज जब मैं दुबारा पढ़ रहा था और उस दिन की कुछ तस्वीरों को देख रहा था तो सब कुछ देखते पढ़ते अचानक लगा कि नहीं, ये शख्स मर ही नहीं सकता. ये हमारी अज्ञानता है कि हम अब तक देह के मृत हो जाने के बाद के जीवन की तलाश नहीं कर पाए हैं. शायद अगर तलाश लिए होते तो हम पाते कि आलोक सच कह रहे थे, वे अपनी देह को खुद लेकर मरघट तक गए क्योंकि उनके रिदम, उनकी थिरकन, उनकी जवान त्वरा को देह शायद ढो नहीं पा रहा था.
उन्होंने अपनी तरफ से भरपूर कोशिश की, काया को जिलाने-जिताने के लिए. और, वे अक्सर ऐसे ही मोर्चे लिया करते थे जिसमें पीड़ित के जीतने की संभावना कम हुआ करती थी लेकिन वे उसे सपोर्ट देते रहते थे, जीत जाने तक, या हार जाने के बाद भी. उसी रचनात्मक दर्प और औघड़ किस्म के आध्यात्मिक प्रताप में अक्सर ऐसे मुश्किल जिद ठान लिया करते थे और जीत-हार लिया करते थे. जब हार जाते तो कहते कि जब भी मौका मिलेगा उसे हराने का, हराऊंगा, दुश्मन को हराऊंगा. और, शायद आज भी वे विदेह होकर यमराज को चुनौती दे रहे होंगे कि तुमने बिना मेरी अनुमति के कैसे मेरी काया मुझसे अलग कर दी. और, कर भी दी तो देखना, जब मौका मिलेगा धारण कर लूंगा खुद को, तुम्हारी सत्ता की औकात बताते हुए.
इसी कारण कह रहा हूं कि तात्कालिक हार स्वीकार की है आलोक जी ने. जब भी काया अलग करने का फाइनल फरमान आया होगा, उन्होंने न मानते हुए मजबूर लादा होगा अपने पर, और देह को वे खुद लेकर मरघट तक गए और स्वाहा करा आए होंगे.
जी, ”आए होंगे”, यानि- वे आए हैं, यानि- वे हैं.
कहां हैं, कैसे हैं, किस रूप में हैं… ये हम आप और हमारा आपका विज्ञान विकास अब तक खोज नहीं पाया है, सो हम नहीं जान बूझ पाते.
महसूस करिए, आलोक द्वारा बोल-बोलकर लिखवाए उनके इस लेख को पढकर कि क्या वे जा सकते हैं हमारे आपके बीच से? जिसके आगे यमराज कांपते हो और जिंदगी उत्सव मनाती हो, वो भला कैसे सबको गमगीन कर सकता है. ना, बस समझ और सोच में फेर है, हमारे-आपके. उनकी हुंकार महसूस हो रही है- क्यों रोते हो बे, फिर लड़ेंगे और फिर फिर लड़ेंगे, जीतेंगे तो हम्हीं ही.
शाश्वत तो यही है कि कायानगरी से रुखसत होने के बाद के जीवन को न जान पाने की मजबूरी के चलते हम रोते हैं, कलपते हैं, हाहाकार करते हैं किसी के जाने पर, उसी तरह जैसे आदि मानव जंगलों में आग लग जाने के कारण रोता-कलपता भागता था और इसे दैवीय कोप मानकर पूजा-पाठ करता था. जब जब मनुष्य ने अज्ञान को जीता है, वो संवेदना और सोच-समझ की नई दुनिया में दाखिल हुआ है.
उपरोक्त तस्वीर आलोक की है, जो भड़ास आफिस में आकर कंटेंट एडिटर अनिल को बोल-बोलकर लिखवाने की गवाह है. कुछ और तस्वीरें नीचे दे रहे हैं जो उनके सदेह जीवन के आखिरी दौर की हैं. लीजिए पढ़िए, आलोक द्वारा बोल-बोल कर लिखवाया गया हम सबके लिए थैंक्यू आलेख, कि न रोएं न कलपें, बस, उत्सव मनाएं, क्योंकि जिंदगी वहीं खत्म हो जाती है जहां हम परेशान और गमगीन हो जाते हैं. टेंशन नहीं लेने का ब्रदर. आलोक तोमर आसपास हैं. बस, हम उनके सदेह होने के दिनों में जैसे इंस्पायर्ड होते रहे हैं, उसी तरह उनके विदेह होने के इन दिनों में भी उनसे जान-सीख कर इंस्पायर्ड होते रहें और अपने-अपने भीतर के आलोक तोमर को जगाते रहें, महसूस करते रहें, जीते रहें. ऐसा ही है. तभी तो वे यह सब लिखवा गए… दोस्ती के असली मतलब. –यशवंत, एडिटर, भड़ास4मीडिया
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बत्रा हास्पिटल में कीमियो और रेडियो की प्रक्रिया के दौरान भी न बदले आलोक तोमर जी. उनके बेड पर पड़े लैपटाप और सामने दिख रहीं किताबें सबूत हैं जीवन के प्रति आलोक के अनुराग की.
अबे, फोटो खिंचाना है तो ढंग से खिंचा, इधर आ यशवंत!
कैमरा रोक ले भाई, थोड़ा काम निपटा लेने दे. डेटलाइन इंडिया का काम थोड़ा बाकी है.
मिलने आने वालों से भरपूर हंसते-बतियाते आलोक जी. इस तस्वीर में मुखातिब हैं आचार्य रामगोपाल शुक्ला.
आलोक जी जहां भी जाते, पत्नी सुप्रिया को जरूर साथ ले जाते. ये तस्वीर मणिपुर विवि के बोर्ड आफ मैनेजमेंट की दसवीं मीटिंग के बाद की है जो पिछले साल अक्टूबर में हुई. इस ग्रुप फोटो में आलोक जी और सुप्रिया जी हंसते-मुस्कराते दिख रहे हैं.
ये किताबें आखिरी दिनों में पढ़ते थे आलोक तोमर. चितरंजन पार्क स्थित उनके कमरे में, जो मिनी अस्पताल में तब्दील हो चुका था, आलोक जी अकेले होने पर इन्हें बांचा करते थे.
उसी कमरे की बालकनी में बैठकर दवा पीते आलोक तोमर. जब तक मां खड़ी रहीं, दवा पी, और जाते ही आधी दवा हवा में बहा दी.
और एक दिन अचानक विदेह हो गए आलोक जी. ….नइहरवा हमका ना भावे…..
Comments on “मरघट भी जाऊंगा तो पैदल ही : आलोक तोमर”
दुख और अफसोस, यह उम्र जाने की नहीं थी… ऐसा वीर-ऐसा शहीद कब आयेगा, पता नहीं…
anybody we love ,we feel ,we find,can be with us if we try to adopt as per our ability/capacity,and a group adoption of so many things of one man/personality might be a resembalance of the original originally scattered,but even the lasting massage consolidating in mass will help us more to find him so many where with continuous presence,the love for such always could only be million of particles scattered of one at least having either body to express again in part if not in totality,,……..
Unke jaane ka dukh jindgi bhar bana rahega kyo ese alok har baar janam nahi leta hai .. Vah haamre sath hai ye hi bahut hai ..
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