पर अशोक पाण्डेय जैसा वीर-बांकुरा इस तरह की बातों से घबराने वाला थोड़े ही है. “तू नहीं और सही, और नहीं तो कोई और सही” की तर्ज़ पर पाण्डेय जी इन हार और जीत को समभाव से स्वीकार करते हुए अपने अगले रिट में उतने ही समर्पण और तत्परता के साथ लग जाते हैं मानो कोई बात हुई ही ना हो. गुरुजी (जी हां, अशोक पाण्डेय को मैं गुरुजी ही कहता हूं) के बारे में विस्तार से चर्चा करने से पहले मैं एक छोटा सा नमूना वार्तालाप प्रस्तुत करता हूं. यह उस दिन का है जब उसने कॉमनवेल्थ गेम्स में चार्ल्स द्वितीय के उदघाटन करने के खिलाफ मेरी पत्नी नूतन ठाकुर ने हाईकोर्ट में रिट किया था. नूतन की तरफ से रिट के वकील थे अपने गुरुजी. बातचीत हो रही थी गुरुजी और उनके एक साथी वकील में-
साथी वकील- “पाण्डेय जी, इस बार तो गज़ब का हंगामा होगा. दिल्ली तक गूंज पहुंचेगी.”
गुरुजी- “यार तुम हमेशा छोटा ही सोचते हो. ये इंटरनेशनल न्यूज़ है और तुम दिल्ली पर ही अटके हुए हो.”
तीसरे मित्र- “बिलकुल सही, इस बार ये खबर न्यूयॉर्क टाइम्स और वाशिंगटन पोस्ट में छपेगी.”
गुरुजी-“ ये हुई ना बात, नूतन जी, देखिएगा शाम होते-होते आपके पास इंटरव्यू लेने वालों की लाइन लग जायेगी.”
मुझे ये कहने की जरूरत नहीं ऐसा कुछ नहीं हुआ, पर गुरुजी को इससे कोई मतलब नहीं. कई और काम हैं करने को दुनिया में. आजकल फिल्म इंडस्ट्री पर पिले पड़े हुए हैं और ‘वंस अपॉन ए टाइम इन मुंबई’ फिल्म पर हाल ही में नोटिस जारी कराया है. इसी प्रकार कई फिल्मों पर गाली-ग्लौज का इस्तेमाल करने के आरोप में उनके विरुद्ध रिट भी दायर किया है, जो अभी न्यायालय में विचाराधीन है.
गुरुजी यानी अशोक पाण्डेय लखनऊ में मेरे गोमतीनगर स्थित मोहल्ले में ही रहते हैं. हमारी दोस्ती अब काफी पुरानी हो गई है. फक्कड़, अक्खड़ और अलमस्त गुरु जी तेज वकील हैं लेकिन उनके लिए वकालत पेशे से बढ़ कर मौज मस्ती का जरिया ज्यादा दिखता है. गाने के शौक़ीन हैं. ना जाने कब अपनी मस्ती में आ कर गाने लगें, वो जगह चाहे ड्राइंग रूम हो या हाई कोर्ट कैंटीन या सड़क. देश भक्ति को सबसे बड़ी सेवा और अनिवार्यता समझते हैं और इस रूप में एक खास राजनैतिक व्यक्ति का विरोध करना अपने प्रमुख कर्तव्यों में समझते हैं. उस व्यक्ति विशेष के प्रति अपने भावों के चलते वे उसके राजनैतिक दल से आमने-सामने का भाव लिए रहते हैं. विदेशी मूल के कानूनी मुद्दे पर दसियों मुकदमे और रिट वे हाई कोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक में कर चुके हैं. यह अलग बात है कि उन्हें इनमे से किसी भी मामले में अभी तक सफलता नहीं मिली है, बहुधा उनका रिट पहली ही सुनवाई में खारिज कर दी गई और कईयों में तो जज साहब ने फाइन भी लगा दिया, पर इन छोटी-मोटी बातों से डर गए तो फिर अशोक पाण्डेय कैसे होंगे.
एक मुकदमा खत्म हुआ कि दूसरे पर लग गए इसलिए पिछली हार या जीत के बारे में सोचने का उनके पास समय कहां होता है. और फिर जब वे रिट बनाते हैं तो चलते-चलते उनकी रिट का दायरा कहां तक चला जाए, यह कोई नहीं कह सकता. मैं और गुरुजी एक रिट में याची और अधिवक्ता की भूमिका में भी रह चुके हैं. ऐसा तब हुआ जब मेरा अचानक पुलिस अधीक्षक महाराजगंज से भारत निर्वाचन आयोग द्वारा चुनावों के दौरान स्थानांतरण कर दिया गया था. कई कारणों से मैं इससे मन ही मन असहमत था पर शासकीय कार्यों में तो व्यक्ति का मन नहीं चलता, व्यवस्था के नियम चलते हैं. मैं लखनऊ पदस्थापित हो गया और अपने घर गोमती नगर में रहने लगा. गुरुजी को यह बात अखबारों से मालूम हुई होगी. सो जिस दिन लखनऊ पहुंचा उसके दूसरे ही दिन सुबह-सुबह घर पर दर्शन हो गए.
मुझे एसपी साहब कहते हैं और मूड के मुताबिक़ कभी आप और कभी तुम कह देते हैं. आते ही बोले- “यार एसपी साहब, इस ट्रांसफर को चैलेन्ज करना होगा.”
चाह तो मैं भी रहा था पर उस समय तक कोर्ट-कचहरी का रास्ता नहीं देखा था और किसी वकील को जानता नहीं था. किसी के पास जा कर रोने-गाने और फिर अपना ही पैसा खर्च करके उसके पीछे-पीछे घूमने का मन भी नहीं था. पर यहां जब गुरुजी खुद ही आ गए थे तो फिर क्या बात थी. तुरंत तैयार हो गया. गुरुजी भी खुश हो गए.
अगले दिन कुछ पन्नों का रिट बना कर ले आये. पढ़ना शुरू किया. रिट में कुछ पैरा तो मेरे सम्बन्ध में था फिर मुझसे छिटक के पूरे उत्तर प्रदेश पुलिस की तारीफ़ और उसके सम्बन्ध में चला गया था. मैंने सोचा, मैं तो अपने बारे में ही कह सकता हूं, पूरे उत्तर प्रदेश पुलिस के बारे में मुझे कौन-सा हक है. कहने का प्रयास किया पर गुरुजी तो गुरुजी. नहीं माने. हाईकोर्ट में सुनवाई हुई और पहली ही सुनवाई में केस खारिज हो गया. वकील साहब ने कहा- कोई बात नहीं, अब हम इस पर अपील करेंगे. इधर मुझे लगने लगा था कि इस समय के लिए इतना काफी है. लेकिन गुरुजी तो जब सोच बैठे तो उन्हें रोकने वाला कौन हो सकता है.
एक सप्ताह बाद ही अखबारों में पढ़ा कि अशोक पाण्डेय के जनहित याचिका पर इलाहाबाद हाई कोर्ट के मुख्य बेंच ने पच्चीस हज़ार रुपये का दंड निर्धारित किया है. फिर मिले. लेकिन कोई अंतर नहीं, इस बात का तनिक भी असर नहीं. उतने ही मस्त और प्रसन्न. अब सुप्रीम कोर्ट में जाने को तैयार. मुझे कहा- चलो, अबकी सुप्रीम कोर्ट चलेंगे. मैंने कुछ कहा नहीं पर धीरे-धीरे कर के बात टाल दिया. लेकिन एक लंबे समय तक हमारी मुलाक़ात में सुप्रीम कोर्ट चलने का जिक्र आता रहता था.
गुरुजी का एक और किस्सा बताता हूं. यह किस्सा हम दोनों के एक पत्रकार मित्र ने यह कहते हुए सुनाया था कि उन्हें दुनिया का हर कबीर बहुत प्रिय है और अशोक पाण्डेय एक सच्चे कबीर हैं. कहानी यह है कि अन्य चीज़ों के अलावा उन्होंने हिंदू पर्सनल ला बोर्ड भी बना रखा है, जिसके वे राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं. वे इसे हिंदू समाज की तमाम समस्यायों के सम्यक निराकरण के लिए एक सशक्त माध्यम के रूप में देखते हैं और इसे हिंदू समाज के रक्षक के तौर पर रेखांकित करते हैं.
गुरुजी ने इस पर्सनल ला बोर्ड का संविधान अखबारों के पास भेजा. इस संविधान में संभवतः गांव-गांव तक के लिए अपनी कचहरी, अपनी दंड व्यवस्था और अपने सशस्त्र बल का भी प्रावधान है. कई तरह की ऐसी बातें दी हुई हैं जिन्हें पढ़ कर कोई भी आदमी उसे नोटिस लेने को बाध्य हो जाएगा. इन मित्र महोदय ने अखबार के लिए उस कहानी को काफी विस्तार देते हुए ऐसा रूप दिया, जिससे कुछ ऐसा प्रतीत हो कि देश के अंदर कोई बड़ी भारी क्रान्ति टाइप की बात सोची जा रही हो और वर्तमान व्यवस्था को सीधे-सीधे चुनौती दी जाने की गहरी तैयारी हो.
पत्रकार लोगों को यह हक और हुनर तो होता ही है कि राई को पहाड़ और पहाड़ को शून्य बना दें. अखबार में उस खबर को पत्रकार के नाम सहित उस दिन का लीड न्यूज़ बना दिया गया और दिल्ली तक में उसे पढ़ा गया. तुरंत चारों ओर की अभिसूचना इकाईयां सक्रिय हो गयीं कि इतनी बड़ी बात हो रही है पर उन्हें पता ही नहीं है. दिन के दस बजते-बजते पत्रकार मित्र के कचहरी स्थित कार्यालय पर कई प्रकार के गोपनीय विभागों के लोग पहुंच गए. उसी खबर पर पूछताछ होने लगी. अशोक पाण्डेय के बारे में वे लोग तरह-तरह के कयास लगा रहे थे. कैसे होंगे? कितने आदमियों के साथ चलते होंगे? उनके पास कौन-कौन से हथियार होंगे? उनको कहां-कहां से फंडिंग होती होगी? और न जाने कितने ही खतरनाक सवाल. पत्रकार साथी मन ही मन हंस भी रहे थे पर ऊपर से पूरी बात व्यक्त नहीं करते हुए बस इतना ही कहा- “आप लोग अशोक पाण्डेय से मिलना चाहेंगे?”
“अरे नहीं. ऐसे ठीक नहीं रहेगा. पता नहीं वे किस मूड में हों. हम लोगों के पास समुचित मात्रा में हथियार-बंद लोग नहीं हैं. हम पूरी तैयारी कर के आते हैं.” उन लोगों की कुछ घबराई हुई आवाज़ आई.
“अरे चलिए, मैं मिलवाता हूँ. चिंता न कीजिये, मेरी गारंटी है.” पत्रकार महोदय के इतना कहने के बाद भी वे लोग पूर्णतया आश्वस्त नहीं थे. पर साथ हो लिए. पत्रकार मित्र उन लोगों को साथ ले कर हाई कोर्ट पहुंचे और वहाँ उस पान वाले के दुकान पर, जहां गुरूजी का अक्सर बैठना होता है.
गुरुजी ने पत्रकार महोदय को देखा तो देखते ही चिल्ला उठे- “अरे यार, मजा आ गया. तुमने तो एक दम चौड़े से छापा है.” वही मस्तमौला अंदाज़, वही हरफनमौलापन, वही बेफिक्री.
पत्रकार महोदय मुस्कराए- “कुछ लोग आपसे मिलने आये हैं.”
“अरे छोड़ो यार, पहले इसकी बात करो. मिलने वालों से तो मिल ही लेंगे” गुरुजी ने कहा, पर तब तक गोपनीय शाखा की शातिर निगाहें यह समझ चुकी थीं कि अब उन्हें चलना चाहिए.
वैसे किस्से तो कई हैं, कुछ खुद उनके सुनाये हुए और कुछ उनके दोस्तों द्वारा. पर एक कहानी जो वे अक्सर बड़े चाव से सुनाते हैं और जिसे उनके मित्रों ने भी तस्दीक किया है आपके सामने प्रस्तुत करते हुए मैं अपनी बात समाप्त करूंगा.
एक बार एक कोर्ट में वे बहस कर रहे थे. बहस के दौरान उनके दोनों हाथ उनके दोनों पैंट की जेबों में था. संभवतः जज महोदय को यह बात नागवार गुजरी. उसके बाद जो वार्ता हुई उसके अंश सुनें-
“पाण्डेय जी, ये आपने अपने हाथ अपनी जेब में क्यों रख रखे हैं. ये कौन सा ढंग हुआ?”
“मी लोर्ड, ये हाथ भी मेरे हैं और ये पॉकेट भी मेरे हैं. फिर इसमें आपको क्या आपत्ति है भला?”
“पाण्डेय जी, आपकी बहुत सारी शिकायतें मिल रही हैं. मुझे लगता है मुझे इन्हें संज्ञान में लेना पड़ेगा.”
“यदि लोगों की बात करें तो बहुत सारे लोग तो आपके बारे में भी कई सारी शिकायतें मुझे बताते हैं. और वे सब बहुत गंभीर शिकायतें हैं. यदि आज्ञा हों तो मैं यहां बताऊं.”
“अच्छा-अच्छा, अब हम मुकदमे की बात करें. इधर-उधर की बातें बाद में होती रहेंगी.”
“जैसा आप चाहें. मैं तो हर स्थिति के लिए तैयार हूं.”
तो ये हैं हम लोगों के अशोक पांडे उर्फ गुरुजी जिनके साथ यदि आप लखनऊ हाई कोर्ट परिसर में चल रहे होंगे तो आप वास्तव में आनंदित महसूस करेंगे क्योंकि न जाने कितने ही वकील उनको चाहने वाले, उनके इष्ट-मित्र के रूप में मिल जायेंगे और उन सबके बीच गुरुजी एक मस्त कबीरा की मुद्रा में अपनी ही मस्ती में अपना कोई नया केस लिए उसी पर हल्ला-गुल्ला मचाते चल रहे होंगे.
लेखक अमिताभ ठाकुर लखनऊ में पदस्थ आईपीएस अधिकारी हैं. पुलिस की नौकरी से अवकाश लेकर इन दिनों शोध कार्य में रत हैं.
Comments on “मी लोर्ड, ये हाथ भी मेरे हैं और ये पॉकेट भी”
दीपावली के अवसर पे शिशु एवं बाल लेखकों को भड़ास4मीडिया का उपहार.
अब सब बनेंगे लेखक. बच्चा बूढा जवान. जौन जौन कलम उठाई सकत हैं, लेखक बन सकत हैं. भड़ास4मीडिया ने आज से शुरू की है “ड्राफ्टिंग & एडिटिंग” सुविधा*.
लिखिए और भेज दीजिये. बाकी काम भड़ास4मीडिया का. आप चैन से सोइए. लेख छपने के बाद यदि आपको “HEADING पसंद नहीं आये, कोई बात नहीं. उसको बदलने की भी सुविधा है. लेख के भीतर के कंटेंट में भी आवश्यक या मनोवांछित परिवर्तन छपाई के बाद भी किया जा सकता है.
तो भूल जाइए आपने पिछले लेखो को. अगले ही लेख से लोग आपको हजारी प्रसाद द्विवेदी मानने पर विवश हों जायेंगे. तो साथियो निकल पड़ो लिखने और छपने……….
अपन चले लिखने. इस बार बम पटाखे चलाने में समय बर्बाद नहीं करेंगे. जित्ती देर में एक राकेट ऊपर जाके अपने थोड़े से आकाश में चमक बिखेरेगा उत्ती देर में अपन चार लाइना लिख के भड़ास4मीडिया को भेज देंगे वेब वर्ल्ड पे छा जायेंगे. बाकी……हो जाएगा….. मौज है भैया मौज…..
इस महतकारी सुविधा के लिए मैं श्री यशवंत सिंह जी का आभारी हूँ .
दीपावली की शुभकामनाओं सहित
जातक
* नियम व शर्तें लागू. सभी मामलो में भड़ास4मीडिया के एडिटर श्री यशवंत सिंह का निर्णय अंतिम होगा.
यशवंत जी, मेरा कमेन्ट छापने के बाद हटाया क्यों गया? कोई कारण भी तो हो…… आप तो ऐसे ना थे.
खैर, हम तो आपके भक्त हैं….अंध नहीं पर भक्त हैं.
जातक
दीपावली के अवसर पे शिशु एवं बाल लेखकों को भड़ास4मीडिया का उपहार.
अब सब बनेंगे लेखक. बच्चा बूढा जवान. जौन जौन कलम उठाई सकत हैं, लेखक बन सकत हैं. भड़ास4मीडिया ने आज से शुरू की है “ड्राफ्टिंग & एडिटिंग” सुविधा*.
लिखिए और भेज दीजिये. बाकी काम भड़ास4मीडिया का. आप चैन से सोइए. लेख छपने के बाद यदि आपको “HEADING पसंद नहीं आये, कोई बात नहीं. उसको बदलने की भी सुविधा है. लेख के भीतर के कंटेंट में आवश्यक या मनोवांछित परिवर्तन छपाई के बाद भी किया जा सकता है.
तो भूल जाइए आपने पिछले लेखो को. अगले ही लेख से लोग आपको हजारी प्रसाद द्विवेदी मानने पर विवश हों जायेंगे. तो साथियो निकल पड़ो लिखने और छपने……….
अपन चले लिखने. इस बार बम पटाखे चलाने में समय बर्बाद नहीं करेंगे. जित्ती देर में एक राकेट ऊपर जाके अपने थोड़े से आकाश में चमक बिखेरेगा उत्ती देर में अपन चार लाइना लिख के भड़ास4मीडिया को भेज देंगे और वेब वर्ल्ड पे छा जायेंगे . बाकी……हो जाएगा….. मौज है भैया मौज…..
इस महतकारी सुविधा के लिए मैं श्री यशवंत सिंह जी का आभारी हूँ .
दीपावली की शुभकामनाओं सहित
जातक
* नियम व शर्तें लागू. सभी मामलो में भड़ास4मीडिया के एडिटर श्री यशवंत सिंह का निर्णय अंतिम होगा.
amitabh ji prastuti achhi h.lagta h ki aap ke andar 1 bechain lekhak aur patrakar h.plz use bahar aane dijiye.shyad desh ko 1 aur achha lekhak aur patrakar mil jaye.
dhirendra pratap singh dehradun.
Guru ji ko mere sadar namaskaar…
अरे वाह, गुरु जी तो बेहद मस्तमौला निकले… आप कहीं पूर्णकालिक लेखन की तरफ अग्रसर तो नहीं हो रहे..
वाह आखिर कबीर आ हीं गयें। मजा आया गुरु जी के बारे में पढकर । कभी मौका मिला तो उनसे मिलना एक आनंद का मौका होगा ।
guru gi ki jai ho & aap ki bhi.tarif bahut suni thi. lekhani bhi dekh liya.lage rahe. vinod sahu( patrakar amar ujala)shahganj
कभी लखनऊ जाने का अवसर मिला तो गुरु जी से मुलाकात जरुर की जावेगी .सचमुच वे कबीर की परम्परा के आदमी प्रतीत होते है .अमिताभ जी आपने सरल शब्दों में वकील साहब के व्यक्तित्व पर प्रकाश डाला .
[b]मैं जो भी कहूँगा सच कहूँगा – जातक[/b] “दीपावली के अवसर पे शिशु एवं बाल लेखकों को भड़ास4मीडिया का उपहार. अब सब बनेंगे लेखक. बच्चा बूढा जवान. जौन जौन कलम उठाई सकत हैं, लेखक बन सकत हैं. भड़ास4मीडिया ने आज से शुरू की है “ड्राफ्टिंग & एडिटिंग” सुविधा” श्री जातक (bhadas4media पर प्रयुक्त नाम के अनुसार) ने श्री यशवंत सिंह की तरफ से यह घोषणा की है मेरे यानि अमिताभ ठाकुर के एक लेख मी लोर्ड, ये हाथ भी मेरे हैं और ये पॉकेट भी पर, जो मैंने अशोक पाण्डेय नामक लखनऊ के वकील साहब के विषय में लिखा. मैं दावे से नहीं कह सकता पर इनकी इस बात से इतना अवश्य लगता है कि जातक साहब शिशु और बाल लेखकों के प्रति सद्भाव रखते हैं. जब मैं छोटा था (और श्री जातक के अनुसार मेरी लेखनी मुझे अभी भी उसी रूप में प्रस्तुत करती है) तो बालक, नंदन, चंदामामा जैसी कई पत्रिकाएं आती थीं जिनमे “शिशु एवं बाल लेखक” अपने लेख और कहानियां लिखा करते थे. इनमे से कई तो लब्ध-प्रतिष्ठ लेखकों की श्रेणी में माने जाते थे. जयप्रकाश भारती, कन्हैया लाल नंदन, डॉ श्याम सिंह शशि आदि के नाम एकदम से याद आ जाते हैं. लेकिन संभवतः अब ऐसी पत्रिकाएं कम आती हैं या मेरी जानकारी में नहीं हैं, शायद इन्ही कारणों से उनमे अपने लेख नहीं भेज कर मैं यहाँ भड़ास पर भेजता रहा हूँ और जब श्री जातक के अनुसार यशवंत जी ने भड़ास को शिशु एवं बाल लेखकों के लिए खोल दिया है तो मैं स्वाभाविक रूप से इसका स्वागत करता हूँ. इससे मेरी लेखन क्षमता (चाहे उसे जातक साहब क्षमता के स्थान पर भ्रामकता, मूर्खता या कोई ऐसा अन्य नाम देवें) के सामने आने में भारी मदद जो मिलेगी. मेरी दृष्टि में यह एक सच्चे मित्र की पहचान है.
इससे पूर्व भी जातक साहब लगातार मेरी हौसला-आफजाई करते रहे हैं. मैंने सुश्री अरुंधती राय तथा कुछ अन्य व्यक्तियों पर कार्यवाही होने विषयक अपना एक लेख अरुंधति राय कानूनन दंड पाने योग्य हैं लिखा. तब भी मेरे ये साथी उतनी ही तत्परता से सामने आये और लिखा- “अमिताभ जी आप लिखो इस मुद्दे पे रोज़ लिखो इससे नैतिक दवाब बनेगा सरकार पे. और शीघ्र ही दवाब इतना अधिक हो जाएगा कि #$%&^& जी की छाती फटने को हो आएगी. उनकी लुंगी गीली हो जायेगी आंसू पोछते पोछते. फिर उन्हें कार्यवाही करनी ही पड़ेगी. जीत आपके विश्वास की होगी.” इतना ही नहीं उन्होंने तो यहाँ तक कह डाला- “अमिताभ जी आप विद्वान् हैं इसमें शक नहीं” तथा यह भी बताया कि “आप महान हो सर जी.” अंत में इच्छा प्रकट कि – “आपके अगले लेख के इंतज़ार में.”
अब उनके इतना कुछ कहने के बाद भी यदि मेरा मन उनके प्रति कुछ शंकालु सा हो रहा है तो इसमें दोष मेरा ही तो कहलायेगा. लेकिन पता नहीं क्यों मुझे बार-बार “इन्कलाब” फिल्म याद आ जा रहा है जिसमे नायक अमिताभ बच्चन नेता रणजीत को भांति-भांति के शब्दों से नवाज़ रहे हैं और विलेन रणजीत फिर भी यही कहते हैं- “यार, समझ में नहीं आ रहा है कि तुम मेरी बडाई कर रहे हो या बुराई.” अब यदि मैं ऐसा सोचता हूँ तो यह तो मेरे मन का ही चोर कहा जाएगा क्योंकि जातक साहब तो यही कहते सुने गए- “ वाह अमिताभ जी, क्या खूब लिखा है. सराहनीय. भावपूर्ण अभिव्यक्ति. सारगर्भित. निश्छल देशप्रेम. कितना भोलापन झलकता है विचारों में.”
ठीक हैं, मेरी पत्नी नूतन को उनसे शिकायत हो सकती है क्योंकि उनके प्रति जातक साहब के शब्द कुछ कठोर जरूर हैं. एक बानगी देखिये- “आप बेझिझक हो के bhadas4media पे लिखिए. सुबह आप लिखें, शाम को आप के पतिदेव लिखें. जो भी आपके बालमन, बालबुद्धि में आये उसे लिखें. हम कितना भी अपने बाल नोचें सर पीटें आप अपना लेखन जारी रखें. हम आपको ये अधिकार कदापि नहीं देते के आप अपनी मौलिकता से खिलवाड़ करें. आपको कसम है जो अपने कभी सोंच विचार कर के लिखा. “
लेकिन चूँकि वे बुद्धिमान व्यक्ति हैं अतः ऐसी स्थिति से निपटने का उपाय भी तुरंत खोज निकालते हैं- “चलो आप अपना मौलिक भौकालिक लेखन जारी रखो मैं डिस्पिरिन की टिकिया लेके आता हूँ.”
तुलसी दास जी या कबीर दास जी या रहीम साहब या मीरा बाई या इन्ही में से मध्य काल के ही किसी बहुत ही बड़े संत कवि ने कहीं लिखा है, जो मैंने भी पढ़ा है- “निंदक नियरे राखिये, आँगन कुटीर छवाए. बिन पानी साबुन बिना, निर्मल करे सुहाय.” नूतन को जातक साहब को ऐसे ही एक आदरणीय निंदक के रूप में सम्मान करना चाहिए जब वे उन्हें स्नेह भाव से समझाते हैं- “सत्य तो यही है के नूतन जी बेवजह का लिखती है. बिना सर पैर का लिखती हैं, सिर्फ लिखने के लिए लिखती हैं, छपने के लिए लिखती हैं.”
पर फिर पता नहीं ऐसा क्यों कह देते हैं- “और जब वो छप सकती हैं तो अपना तो हक उनसे ज्यादा बनता है.” क्या यशवंत जी उनके लिखे लेख नहीं छाप रहे हैं? यह तो बेईमानी कहलाएगी, यशवंत जी. और आप तो ऐसे ना थे? तभी तो वे आप को इस तरह खुले-आम आरोपित भी कर रहे हैं- “आपने यशवंत जी को IRDS पुरस्कार दिया है, अब bhadas4media आपके और आप जैसे लोगो के बाप की हो गयी है. फोटो जर्नलिस्ट भाइयो को तो आप सलाम कर ही चुकी है, यशवंत जी का चरण वंदन कर किताब यहीं छाप दें.”
बस एक सलाह मैं भी श्री जातक को देना चाहूँगा, मेरी धर्म-पत्नी नूतन को जो कहना हो कह दें, वे तो निरीह हैं, नयी लेखिका हैं और साधारण सी पत्रकार. आप जो भी कहेंगे चुपचाप सह लेंगी पर आलोक तोमर साहब जैसे योद्धा और धाकड पत्रकार से ज़रा दूर ही रहें तो कोई बुराई नहीं. बहुत मन करता हो तो मुझे लिख लीजिए- “सक्रिय होने से आपका क्या अर्थ है मैं नहीं समझ पाया. RTI का काम आजकल हर हिन्दुस्तानी कर रहा है. IIM से पढ़ाई कोई व्यक्ति समाज के लिए नहीं करता, अपने लिए करता है. एक श्वान एक शूकर पूरी जिंदगी सक्रिय रहते है इससे किसी मूल्य का सृजन नहीं होता. अपने पेट का इंतज़ाम करना कोई महती कार्य नहीं है जिसका मंडन किया जाए.”
क्या जरूरत थी उन्हें लिखने की- “भाषा और कमेन्ट की बात तो आलोक तोमर से शिष्ट लिखता हूँ.” शेर के मुंह में हाथ रखेंगे तो यही तो पायेंगे- “शिष्टाचार के हे महान अवतार, नकली नाम वाले जातक, आपने याद किया. आप जैसे फर्जी इंसान से शिष्टाचार की प्रतियोगिता तो क्या करना? असली होने की बात करनी चाहिए. मां के नाम पर विलाप करने वाले जातक, आपको अमिताभ नूतन और मेरे अस्तित्व तक से आपत्ति है. बदतमीज़ तो खैर हो ही. असली नाम के साथ आते तो मेहरबानी होती. आप कुल मिला कर मूर्ख और कायर हैं और %^&(*(# के चमचे होने का आभास देते हैं. अपन जैसे हैं , वैसे हैं मगर मां का दिया नाम इस्तेमाल करते हैं.आइन्दा नाम बता कर बात करना. वरना शिखंडियों को घर बैठना चाहिए.”
लेकिन चलिए, कुल मिला कर यह है कि आपका धन्यवाद क्योंकि यदि आप नहीं रहते तो हम पर ध्यान कौन देता.
अमिताभ ठाकुर
यह कितना दुखद है कि एक व्यक्ति छदम नाम से छिपकर आरोप लगा रहा है, दूसरा व्यक्ति अपने नाम पहचान के साथ सामने आकर जवाब दे रहा है. ये नाइंसाफी है. जातक जैसे ढेरों फर्जी नाम से लोग कमेंट लिखते हैं, गरियाते हैं, सलाह देते हैं, तर्क कुतर्क व बौद्धिक मैथुन करते हैं लेकिन सामने नहीं आते. सारा भाषण छिपकर. दरअसल जातक जैसों की बात छापकर हम लोग खुद ही नान-सीरियस माहौल खड़ा कर देते हैं, बहस जिस चीज पर होनी चाहिए, उससे हटकर नए मुद्दे पर बात शुरू हो जाती है. जातक जी, आगे से माफ करिएगा.
यशवंत
लेख वाकई लाजवाब है…मैं दो बार पढ़ चूका हूँ, …अमिताभ जी आपको सफाई देने की कोई जरुरत नहीं थी, रही जातक जैसे लोगो का सवाल …………..तो जिनका अपना कोई अस्तित्व ही न हो उनसे किसी भी प्रकार की बहस नहीं की ज सकती…………… जातक जी…एक बात आपके लिए …..कृपया आगे से कोई कमेन्ट लिखते समय भाषा शैली और किसी एक को निशाना बनाकर की गई बातो पर जरुर ध्यान रखियेगा…जिस लेख पर कमेन्ट दे विषयवस्तु के अनुरूप हो ….किसी भी प्रकार के संवाद के लिए मेल आईडी नीचे है..
सादर
श्रवण शुक्ल
shravan.kumar.shukla@gmail.com