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गुडबॉय दिल्ली

वो जा रहे हैं। हम सबको छोड़कर। दिल्ली छोड़कर। दिल्ली से हारकर। पत्रकारिता छोड़कर। अपने देस। अपने गांव। दिल्ली आए थे करियर बनाने, काफी आगे जाने। पर उनकी गाड़ी ऐसी रुकी की वर्षों बीतने के बाद भी एक जगह से हिली नहीं। वे गुमनाम-से ही रह गए। एक बड़े मीडिया हाउस में दिल्ली में काम कर रहे हैं वो। उनके साथ के लोग जाने कहां-कहां चले गए। पर वे वहीं के वहीं रह गए। उम्र हर साल बढ़ती रही लेकिन पैसे व पद बढ़ने का नाम ही नहीं ले रहे। दिल्ली में किराए पर रहना हो नहीं पा रहा। कम पैसे के कारण परिवार को गांव से नहीं ला पाए। दो बच्चे हैं। इतने कम पैसे में क्या खाते, क्या बिछाते। बच्चों को कैसे पढ़ाते। सो, परिवार गांव में ही रखा। अब तय कर लिया है कि त्रिशंकु बनकर जिंदगी नहीं जीना। आर या पार। फैसला ले लिया। वे सामान पैक करने लगे हैं। दिल्ली छोड़कर कभी भी जा सकते हैं। दिल्ली को गुडबाय कभी भी कह सकते हैं।

वो जा रहे हैं। हम सबको छोड़कर। दिल्ली छोड़कर। दिल्ली से हारकर। पत्रकारिता छोड़कर। अपने देस। अपने गांव। दिल्ली आए थे करियर बनाने, काफी आगे जाने। पर उनकी गाड़ी ऐसी रुकी की वर्षों बीतने के बाद भी एक जगह से हिली नहीं। वे गुमनाम-से ही रह गए। एक बड़े मीडिया हाउस में दिल्ली में काम कर रहे हैं वो। उनके साथ के लोग जाने कहां-कहां चले गए। पर वे वहीं के वहीं रह गए। उम्र हर साल बढ़ती रही लेकिन पैसे व पद बढ़ने का नाम ही नहीं ले रहे। दिल्ली में किराए पर रहना हो नहीं पा रहा। कम पैसे के कारण परिवार को गांव से नहीं ला पाए। दो बच्चे हैं। इतने कम पैसे में क्या खाते, क्या बिछाते। बच्चों को कैसे पढ़ाते। सो, परिवार गांव में ही रखा। अब तय कर लिया है कि त्रिशंकु बनकर जिंदगी नहीं जीना। आर या पार। फैसला ले लिया। वे सामान पैक करने लगे हैं। दिल्ली छोड़कर कभी भी जा सकते हैं। दिल्ली को गुडबाय कभी भी कह सकते हैं।

उनसे हम मिलवाएंगे। उनकी सारी बात आपको बताएंगे। दिल्ली आकर करियर बनाने की कड़वी हकीकत हम बताएंगे। बहुत जल्द। भड़ास4मीडिया पर। उनकी एक तमन्ना हम पूरी करेंगे। उनकी तमन्ना थी कि वे भी इस्तीफा देते और किसी नए संस्थान में अच्छे पद व पैसे पर ज्वाइन करते ताकि उनकी खबर और तस्वीर भड़ास4मीडिया पर छपती।

भड़ास4मीडिया पर उनकी खबर और तस्वीर अब छपेगी लेकिन संदर्भ अलग होंगे। वे दिल्ली क्यों छोड़ रहे हैं, क्या भुगता उन्होंने अपने करियर में, किन-किन से उन्हें रंज है, किन-किन से उन्होंने प्रेरणा पाई। बीत रहे इस साल में एक ऐसे पत्रकार की कहानी हम बताएंगे जो वर्तमान पत्रकारिता के माहौल में एडजस्ट नहीं कर पाए। सफल होने के लिए, आगे बढ़ने के लिए, तरक्की पाने के लिए वह वो सब नहीं कर पाए जो करना जरूरी हो गया है। रीढ़ सीधी रखी सो उसका खामियाजा भुगता। अब और झेलने-भुगतने को तैयार नहीं हैं। गांव जाकर गाय-भैंस पालेंगे और दूध बेचेंगे। घास और गोबर का धंधा करेंगे। इससे भी उतने ही पैसे आएंगे जितना वे दिल्ली में रहकर और एक बड़े मीडिया हाउस में काम कर पा रहे हैं। गांव-घर में अपना काम करेंगे तो कम से कम परिवार के साथ तो रह पाएंगे। बच्चों संग खेल तो पाएंगे। अपने बचपन के दोस्तों के साथ कस्बे के बाजार में हंसी-ठट्ठा तो कर पाएंगे। अपनी मिट्टी और अपनी हवा में सांस तो लेंगे। दबाव और तनाव से मुक्त होकर अपनी जिंदगी अपने तरीके से तो जी पाएंगे।

वे जा रहे हैं। हम सबको छोड़कर। दिल्ली छोड़कर। दिल्ली से हारकर। क्या आप उन्हें दिल्ली छोड़ते समय फोन कर या एसएमएस कर आगे के जीवन के लिए शुभकामनाएं देंगे? अगर हां, तो पढ़ना न भूलिए दिल्ली से दुखी दिल से जा रहे बड़े मीडिया हाउस में कार्यरत एक पत्रकार की कहानी।

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