भाग 7 : धीरे-धीरे मेरठ में क्राइम रिपोर्टर के रूप में मेरी पहचान बनने लगी। मेरी वो स्टोरी, जिसे नौनिहाल ने ‘ब्रेकिंग’ और ‘इम्पैक्ट’ खबर बना दिया था, काफी चर्चित हुई। इसके बाद हर थाने से मुझे ऐसी खबरें मिलने लगीं। अब नौनिहाल ने मुझे मेरठ के दो दिग्गज क्राइम रिपोर्टरों के टच में रहने को कहा। वे तब अनिल-सुधीर के नाम से सत्यकथाएं लिखा करते थे। अनिल बंसल बाद में ‘जनसत्ता’ में चले गये। पहले मेरठ में ही। फिर दिल्ली में। जबरदस्त लिक्खाड़। जितनी देर में हम दो समोसे और चाय की प्याली खत्म करते, उतनी देर में उनकी दो खबरें तैयार हो जातीं। हमेशा एक छोटा ब्रीफकेस साथ रखते। उसी पर कागज रखकर वे चौराहे पर खड़े-खड़े ही खबर लिख डालते थे। सुधीर पंडित के पुलिस में गहरे कांटेक्ट थे। वे अंदर की खबरें निकालने में माहिर थे। बाद में वे पत्रकारिता छोड़कर ऐड एजेंसी चलाने लगे। मेरठ का यह धांसू पत्रकार अगर आज किसी चैनल में होता, तो उस चैनल की टीआरपी को सबसे ऊपर रखने की गारंटी होती।
सुधीर पंडित से मेरा पहले से परिचय था। मुझे एक दिन वे दोनों कोतवाली के बाहर मिल गये। मैंने उनसे क्राइम रिपोर्टिंग के गुर पूछे। उन्होंने कहा, ‘तुम पढ़ने-लिखने वाले लड़के हो। क्राइम रिपोर्टिंग के चक्कर में क्यों पड़ते हो? कुछ नया करो।’
मैंने ये बात शाम को दफ्तर के बाद एनएएस कॉलेज के पास भगतजी की चाय की दुकान पर नौनिहाल को बतायी।
वे बोले, ‘बात में दम है। क्राइम रिपोर्टिंग से शुरूआत में जल्दी नाम कमाया जा सकता है। पुलिस अफसरों के साथ उठने-बैठने से जरा रौब-दाब भी बनता है। लेकिन कोई भी इसे गंभीर पत्रकारिता नहीं मानता।’
ये 1983 की बात है। तब क्राइम रिपोर्टिंग में सबसे नये पत्रकार को लगाया जाता था। जिन्हें इसका शौक लग जाता था, वे ही इसमें बने रहना चाहते थे। जो इससे ऊब जाते, वे किसी और बीट की जुगाड़ में रहते थे। आज तो सरकुलेशन और टीआरपी के तारणहार 3 सी – क्राइम, सिनेमा और क्रिकेट को ही खेवनहार मानते हैं जिसमें क्राइम अव्वल नंबर पर है। लेकिन तब सामाजिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक और विकास पत्रकारिता पर बहुत जोर रहता था।
मेरी तो पत्रकारिता में शुरुआत ही थी, इसलिए मैं हर बीट पर काम करके ज्यादा से ज्यादा सीखना चाहता था। चूंकि ‘मेरठ समाचार’ तनख्वाह देता नहीं था, इसलिए वहां कोई रिपोर्टर रुकता नहीं था। मुझे वहां काम करते तीन महीने हो गये थे। इसलिए भगतजी की दुकान पर चाय पीते हुए नौनिहाल ने मुझसे क्राइम के साथ ही कोई और बीट भी कवर करने को कहा, तो मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा।
‘कौन सी बीट?’
‘कोई भी, जो तुझे अच्छी लगे।’
‘मैं तो कोई भी बीट करने को तैयार हूं।’
‘तो कल से शहर में घूमना शुरू कर दे। जो भी खबर, जहां से भी मिले, ले आ। मैं छाप दूंगा।’
‘लेकिन सुबह तो मेरा कॉलेज होता है।’
(मैं इंजीनियरिंग की पढ़ाई छोड़कर एनएएस कॉलेज से हिन्दी, इतिहास और राजनीति शास्त्र में बी. ए. कर रहा था।)
‘फिर क्राइम ही कर।’
‘नहीं गुरु, मैं ज्यादा मेहनत कर लूंगा। कुछ खबरों के लिए मेरा मार्गदर्शन तो करो।’
‘ऐसा कर, अगर किसी खबर का पता चले और वहां पहुंच सके, तो जाकर खबर ले आ।’
‘पर ये तो बताओ कि मैं विशेषज्ञता किसमें हासिल करूं?’
नौनिहाल ने कुछ दिन पहले ही मुझे एक शानदार गुरुमंत्र दिया था- ‘एक कहावत है। जैक ऑफ ऑल ट्रेड्स, मास्टर ऑफ नन।
इसे संपादित करके यों कहना चाहिए- जैक ऑफ ऑल ट्रेड्स मास्टर ऑफ वन।’
(मैं अब इसे और एडिट करके पत्रकारिता के विद्यार्थियों को यों बताता हूं- जैक ऑफ ऑल ट्रेड्स, मास्टर ऑफ सम)
अचानक नौनिहाल ने मुझे वो बीट बतायी, जिसने बाद में मेरा जीवन बदल दिया।
‘खेल। तू खेल कवर कर। मेरठ में एक भी खेल रिपोर्टर नहीं है।’
मैं क्राइम के साथ खेल भी कवर करने लगा। खेल की कवरेज करते-करते ही ‘मेरठ समाचार’ से ‘दैनिक जागरण’ और वहां चार साल बैटिंग करके ‘नवभारत टाइम्स’ (मुम्बई) में आया। इस तरह नौनिहाल ने पहले मेरा करियर बदला। फिर नया करियर बना दिया।
लेखक भुवेन्द्र त्यागी को नौनिहाल का शिष्य होने का गर्व है। वे नवभारत टाइम्स, मुम्बई में चीफ सब एडिटर पद पर कार्यरत हैं। उनसे संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है।
supreet
February 19, 2010 at 8:29 am
pranam…….aapki story meri tarah milti julti hai………..