‘मुन्नी मोबाइल’ में पत्रकारिता का भी कच्चा चिट्ठा है : बहुत दिनों बाद हिन्दी वालों के पास एक अलग टेस्ट का हिन्दी उपन्यास आ रहा है। नाम है ‘मुन्नी मोबाइल’। लेखक हैं वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप सौरभ। इस उपन्यास में लंदन-शिकागो से लेकर बिहार-यूपी, दिल्ली-एनसीआर, पत्रकारिता-राजनीति, समाज-दंगा, नक्सलवाद-आंदोलन, कालगर्ल-कालसेंटर सब कुछ है। जिन लोगों ने इस उपन्यास के कच्चे रूप (प्रिंट होने से पहले) को पढ़ा है, उनका मानना है कि इस उपन्यास में ‘हिंदी बेस्ट सेलर’ बनने की संभावना है। उपन्यास तो इस महीने के आखिर में छपकर बाजार में आएगा लेकिन भड़ास4मीडिया उपन्यास के प्रकाशक वाणी प्रकाशन के सौजन्य से एक हिस्सा, खासकर वो हिस्सा जो पत्रकारिता से संबंधित है, यहां प्रकाशित कर रहा है। उपन्यास के इस हिस्से में गुजरात दंगों के दौरान मीडिया के रोल और मीडिया की आंतरिक बुनावट पर काफी कुछ कहा-लिखा गया है। तो आइए, ‘मुन्नी मोबाइल’ के एक अंश को पढ़ें-
मुन्नी मोबाइल
…..दंगाइयों की रणनीति से लग रहा था कि गोधरा अग्निकांड न भी होता, तो भी गुजरात में दंगों की भूमिका तैयार थी। दंगाई वोटरलिस्ट लेकर मुसलमानों के घरों पर हमला कर रहे थे। दिल्ली दरवाजा के बाहर बनी दुकानों का वाक्या है। दंगाइयों ने दुकानों में आग लगा दी। इस बीच पता चला कि इन दुकानों में एक हिन्दू की दुकान है, तो वे उसे बुझाने में जुट गये। दुकान में लगे फोन से दुकानदार को आग लगने की सूचना भी दी। बताया कि आकर आग बुझा लो। मुसलमानों की आर्थिक तरक्की भी दंगाइयों की आंख में खटक रही थी। चेलिया समुदाय के लोगों के होटलों को खोज-खोज कर आग के हवाले कर दिया। ये चेलिया वे लोग हैं, जिन्होंने गुजरात में पंजाबी और उत्तर भारतीय भोजन को सस्ते में परोसकर अपनी एक अलग पहचान बनाई है।
गुजरात में मुसलमान होना गाली बन गया था। मुसलमान पाकिस्तानी हो गये थे और हिन्दू राजा हिन्दुस्तानी। एक देश में दो देश। खास तरह की दाढ़ी और टोपी किसी की भी मौत का सबब बन सकती थी। आनंद भारती भी दाढ़ी रखते थे। उसके शुभचिंतक उसे फोन कर दाढ़ी कटाने की सलाह दे रहे थे। दाढ़ी कटवाना विकल्प नहीं था। गुजराती अखबारों को छोड़ कर राष्ट्रीय अखबार मोदी के कारनामों का खुलासा कर रहे थे। इसीलिए वे हिन्दू ब्रिगेड के निशाने पर थे। उन्हें धमकी भरी गुमनाम चिटिठियां भेजी जा रही थीं। जान बचाकर गुजरात से भागने की सलाह दी जा रही थी। पत्रकारों पर हमले किये जा रहे थे। टीवी पत्रकारों की ओबी वैन्स को भी कई बार निशाना बनाया गया। आनंद भारती की कार पर भी हमला हुआ। एक बार उन्हें दंगाइयों ने पकड़कर कहा- बोलो, भारत माता की जय। वंदेमातरम।
गुजरात का मीडिया दो भागों में बंट गया था। एक दंगों के गुनहगारों की पहचान कर रहा था, तो दूसरा दंगाइयों की हौसलाअफजाई करने में मशगूल था। मीडिया का यह हिस्सा आग में घी डालने का काम पूरी शिद्दत से कर रहा था। अफवाहें फैलाने में दंगाइयों से बड़ी भूमिका स्थानीय मीडिया की थी। गुजराती ‘लोक समाचार’ और ‘जनसंदेश’ में प्रतिस्पर्धा थी। यदि गुजराती ‘लोक समाचार’ एक दिन यह छापता कि मुसलमानों ने छः हिन्दू लड़कियों के वक्ष काट लिए, तो ‘जन संदेश’ एक दर्जन हिन्दू लड़कियों के साथ बलात्कार की खबर छाप देता था। हिन्दू ब्रिगेड के मुखपत्र बन गये थे ये अखबार। दंगा उनके व्यावसायिक हितों को बखूबी पूरा कर रहा था। इनकी प्रसार संख्या भी बढ़ रही थी। सरकार का भी इन्हें समर्थन प्राप्त था। उनकी खबरों की सत्यता पर सवालिया निशान लगाते हुए इन अखबारों के खिलाफ दंतविहीन संस्था प्रेस काउन्सिल में भी शिकायतें की गईं। लेकिन कुछ नहीं हुआ।
इन अखबारों के पत्रकारों का हिन्दू ब्रिगेड के मंचों पर अभिनन्दन किया जाने लगा। वहीं दंगाइयों की खबर ले रहे मीडिया पर हमले तेज होने लगे। दंगा विरोधी मीडिया ने गुजरात के बाहर दंगों के सच को बखूबी रखा। देश में गुजरात सरकार और मोदी के खिलाफ माहौल बनने लगा। केन्द्र की वाजपेयी सरकार पर भी हमले तेज होने लगे। मोदी को हटाने की मांग होने लगी।
गुजरात दंगों के खिलाफ अभियान चला रहे मीडिया भी इंसानियत की सेवा नहीं कर रहा था। वह भी अपने व्यावसायिक हितों को साध रहा था। उसके पाठक वैसा ही पढ़ना चाहते थे। दंगों का विरोध करने वाले अखबार भी मूल्यों के प्रति निष्ठावान हों, ऐसा नहीं हैं। औरत की नंगी तस्वीरें पेश करना उनकी प्राथमिकताओं में है। बाजार की शक्तियों के आगे वह भी नतमस्तक है। उसके अपने संस्थानों में पत्रकारों और गैर पत्रकारों की स्थिति अच्छी नहीं है। बड़ी संख्या में कर्मचारियों को रातोंरात निकाल देना उनके शगल में शामिल है।
असल में आजादी के बाद विकसित हुआ देश का मीडिया बाजार की रखैल बन गया। उसके पास न तो कोई सपना है और न ही समाज के प्रति कोई प्रतिबद्धता। वह एक उद्योग में तब्दील हो चुका है। लाभ कमाना और सत्ता के गलियारों में दबाव बनाना उसका एकमात्र उद्देश्य है।
टीवी चैनलों में तो और दुर्गति है। नासमझ टाइप के लोग जमा हो गये हैं। दूसरों का स्टिंग आपरेशन करने वाले चैनलों का अगर स्टिंग कर दिया जाये तो जलजला आ जाये। एंकर बनने के लिए लड़कियों को क्या-क्या नहीं करना पड़ता है। इसके लिए बॉस के साथ शराब पीने से लेकर बिस्तर गर्म करने तक कोई भी कीमत चुकानी पड़ती है। बॉस का अगर किसी पर दिल आ गया है तो उसे आत्मसमर्पण करना ही होगा। वरना कई- कई महीनों नाइट ड्यूटी करनी पड़ेगी। रातोंरात यहां दस-दस हजार के इनक्रीमेन्ट हो जाते हैं। कल की आई लड़की आपकी बॉस बन सकती है। बॉस जो चाहे वह सब सच। चैनलों की चमक के चक्कर में तो कई लड़कियां पहले से ही सोचकर आती हैं कि उन्हें अपनी खूबसूरती को अपनी तरक्की के लिए इस्तेमान करना है। इसमें उन्हें नैतिकता और अनैतिकता कुछ नहीं दिखती है। कुछ जो सोच कर नहीं आती हैं, उन्हें तरक्की का यह शॉर्टकट जल्दी समझ आ जाता है। लेकिन कुछ समझौता नहीं करती हैं। नतीजतन वे ज्यादा दिन चैनल में नहीं रहती हैं या फिर उन्हें नेपथ्य में ऐसा काम मिलता है जो उनकी योग्यता से बहुत कम होता है।
चैनलों में इतनी व्यस्तता है कि सुबह-दोपहर का फर्क ही नहीं रह जाता है। कितने तो अपने घरों में सिर्फ सोने के लिए आते हैं। इसलिए एक नई प्रथा चल पड़ी है यहां। अधिकांश न्यूजमैन और अन्य टेकनिकल स्टॉफ आपस में ही शादी कर लेते हैं और चैनल को ही अपना घर मान लेते हैं। लेकिन ऐसी शादियों की सफलता का ग्राफ काफी नीचा है। यही सब वजह है कि अब न्यूज चैनलों में खबरों के अलावा सब कुछ मिल जाता है। नाग-नागिन के प्यार से लेकर भुतही हवेली के जिन्न का सच आदि- आदि। बावजूद इस सड़ांध के गुजरात दंगों के दौरान राष्ट्रीय अखबारों की कारगर भूमिका को नकारा नहीं जा सकता है।
दंगे गुजरात की किस्मत बन गये थे। जगह जगह राहत शिविरों की फसल उग आई थी। राहत शिविरों में भी लोग महफूज नहीं थे। दंगाई राहत शिविरों को भी निशाना बना रहे थे। जूहापुरा और गुप्ता नगर कालोनी के बीच बार्डर जैसा माहौल था। जूहापुरा अहमदाबाद के बड़े मुस्लिम बहुल इलाकों में था। जूहापुरा पाकिस्तान बन गया था और उसके सामने की गुप्ता कालोनी हिन्दुस्तान। गुप्ता कालोनी में लोगों ने घरों में बड़ी संख्या में पत्थर जमा कर लिए थे। लोग पाषाण युग की तरफ लौटते दिख रहे थे। रात को एक साथ घरों में बर्तन बजने लगते थे। बर्तन का बजना संकेत होता था कि पत्थरबाजी शुरू करो। हमलावार आ गये हैं। बर्तन बजा-बजा कर गुप्ता कालोनी के लोगों ने बर्तनों की शक्ल बदल दी थी।
आनंद भारती के घर काम करने वाली महिला कमला बेन भी गुप्ता कालोनी में रहती थी। एक दिन न आने पर आनंद भारती ने कमला बेन से पूछा- ‘कल क्यों नहीं आई?’
‘बॉर्डर पर हमारी बारी थी ड्यूटी की।’ -कमला बेन ने जवाब दिया।
‘मतलब?’- आनंद भारती ने हैरान होते हुए पूछा।
‘जूहापुरा बॉर्डर है। मुसलमान हमारे ऊपर हमला न कर दें, इसलिए सबकी बारी-बारी से रात को ड्यूटी लगती है।’- कमला ने इस अंदाज से जवाब दिया, जैसे सचमुच देश की सीमा-सुरक्षा की ड्यूटी पर तैनात हो।
‘कभी हमला किया क्या?’ – आनंद भारती की जिज्ञासा बढ़ गई थी।
‘अभी तक तो नहीं किया। धमाल चल रहा है। पता नहीं कब हमला बोल दें।’- कह कर कमला बेन काम में जुट गई।
कमला बेन की बात सुनने के बाद अचानक आनंद भारती को दिल्ली के अपने मित्र के. के. कोहली का विभाजन के समय का वह किस्सा याद आ गया…देश विभाजन के पहले कोहली का परिवार रावलपिंडी के गोलड़ा शरीफ गांव में रहता था। विभाजन की मांग को लेकर दंगे-फसाद शुरू हो चुके थे। कोहली के घर के सामने वाली दीवार पर लिखा था- हाथ में बीड़ी, मुंह में पान, नहीं बनेगा पाकिस्तान। उस वक्त उनकी उम्र सात साल की रही होगी। हॉफ पैंट पहनते थे। घर वाले दंगाइयों के डर से उनकी जेब में कुछ पैसे और ड्राई फ्रूट भर देते थे, ताकि हमले के बाद परिवार बिखरे तो भूख मिटाई जा सके और पैसे से मदद हासिल की जाए। उस दौर में भी हिन्दू पत्थर नहीं रखते थे। लेकिन गुजरात के बॉर्डर में पत्थरों के पहाड़ खड़े कर दिए गए।
सामाग्री सौजन्य : वाणी प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली
प्रदीप सौरभ : निजी जीवन में खरी-खोटी हर खूबियों से लैस। खड़क, खुरदुरे, खुर्राट और खरे। मौन में तर्कों का पहाड़ लिये इस शख्स ने कब, कहां और कितना जिया इसका हिसाब-किताब कभी नहीं रखा। बंधी-बंधाई लीक पर नहीं चले। पेशानी पर कभी कोई लकीर नहीं, भले ही जीवन की नाव ‘भंवर’ में अटकी खड़ी हो। कानपुर में जन्मे लेकिन समय इलाहाबाद में गुजारा। वहीं विश्वविद्यालय से एमए किया। कई नौकरियां करते-छोड़ते दिल्ली पहुंचकर साप्ताहिक हिन्दुस्तान के संपादकीय विभाग से जुड़े। कलम से तनिक भी ऊबे तो कैमेर की आंख से बहुत कुछ देखा। कई बड़े शहरों में फोटो प्रदर्शनी लगाई और अखबारों में दूसरों पर कॉलम लिखने वाले, खुद कॉलम पर छा गए। मूड आवा तो चित्रांकन भी किया। पत्रकारिता में पच्चीस वर्षों से अधिक समय पूर्वोत्तर सहित देश के कई राज्यों में गुजारा। गुजरात दंगों की बेबाक रिपोर्टिंग के लिए पुरस्कृत हुए। देश का पहला हिन्दी का बच्चों का अखबार और साहित्यिक पत्रिका ‘मुक्ति’ का संपादन किया। पंजाब के आतंकवादियों और बिहार के बंधुआ मजदूरों पर बनी लघु फिल्म के लिए शोध किया। बसेरा धारावाहिक के मीडिया सलाहकार भी रहे। कई विश्वविद्यालयों के पत्रकारिता विभाग की विजिटिंग फैकल्टी हैं। इनके हिस्से कविता, बच्चों की कहानी, संपादित आलोचना की पांच किताबें हैं। फिलवक्त दैनिक हिन्दुस्तान के सहायक संपादक हैं।
संपर्क : 334, वार्तालोक, वसुंधरा, गाजियाबाद-201012
मेल : [email protected]
‘मुन्नी मोबाइल’ के बारे में क्या कहते हैं दिग्गज-
रवीन्द्र कालिया (सुप्रसिद्ध कथाकार) : ‘मुन्नी मोबाइल’ समकालीन सच्चाइयों के बदहवास चेहरों की शिनाख्त करता उपन्यास है। धर्म, राजनीति, बाजार और मीडिया आदि के द्वारा सामाजिक विकास की प्रक्रिया किस तरह प्रेरित व प्रभावित हो रही है, इसका चित्रण प्रदीप सौरभ ने अपनी मुहावरेदार रवां-दवां भाषा के माध्यम से किया है। प्रदीप सौरभ के पास नये यथार्थ के प्रामाणिक और विरल अनुभव हैं। इनका कथ्यात्मक उपयोग करते हुए उन्होंने यह अत्यंत दिलचस्प उपन्यास लिखा है। मुन्नी मोबाइल का चरित्र इतना प्रभावी है कि स्मृति में ठहर जाता है।
मृणाल पांडेय (प्रमुख सम्पादक, दैनिक हिन्दुस्तान) : लेखक-पत्रकार आनंद भारती व्यासपीठ से निकली ‘मुन्नी मोबाइल’ की कथा पिछले तीन दशकों के भारत का आइना है। इसकी कमानी मोबाइल क्रांति से लेकर मोदी (नरेन्द्र) की भ्रांति तक और जातीय सेनाओं से लेकर लंदन के अप्रवासी भारतीयों के जीवन को माप रही है। दिल्ली के बाहरी इलाके की एक सीधासादी घरेलू नौकरानी का वक्त की हवा के साथ क्रमशः एक दबंग और सम्पन्न स्थानीय ‘दादा’ बन जाना और फिर लड़कियों की बड़ी सप्लायर में उसका आखिरी रूपांतरण, एक भयावह कथा है, जिसमें हमारे समय की अनेक अकथनीय सच्चाइयां छिपी हुई हैं। मुन्नी के सपनों की बेटी रेखा चितकबरी पर समाप्त होने वाली यह गाथा, खत्म होकर भी खत्म कहां होती है?
सुधीश पचौरी (सुप्रसिद्ध आलोचक) : ‘मुन्नी मोबाइल’ एकदम नई काट का, एक दुर्लभ प्रयोग है! प्रचारित जादुई तमाशों से अलग, जमीनी, धड़कता हुआ, आसपास का और फिर भी इतना नवीन कि लगे आप उसे उतना नहीं जानते थे। इसमें डायरी, रिपोर्टिंग, कहानी की विधाएं मिक्स होकर ऐसे वृत्तांत का रूप ले लेती हैं जिसमें समकालीन उपद्रवित, अति उलझे हुए उस यथार्थ का चित्रण है, इसे पढ़कर आप गोर्की के तलछटिए जीवन के जीवंत वर्णनों और ब्रेख्त द्वारा जर्मनी में हिटलर के आगाज को लेकर लिखे गए ‘द रेसिस्टीबिल राइज आफ आर्तुरो उई’ जैसे विख्यात नाटक के प्रसंगों को याद किए बिना नहीं रह सकते! पत्रकारिता और कहानी कला को मिक्स करके अमरीका में जो कथा-प्रयोग टॉम वुल्फ ने किए हैं, प्रदीप ने यहां किए हैं!