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मीडिया के नियमन से डर क्यों?

आनेद प्रधानमीडिया के नियमन (रेग्यूलेशन) का मुद्दा एक बार फिर गर्म हो गया है। ’सच का सामना’ को लेकर संसद में हुई तीखी बहस के बाद सूचना एवं प्रसारण मंत्री अंबिका सोनी ने वायदा किया है कि यूपीए सरकार अगले सात सप्ताहों में मीडिया के नियमन को लेकर एक मसौदा प्रस्ताव देश के सामने बहस के लिए पेश करेगी। लेकिन दूसरी ओर, दिल्ली उच्च न्यायालय ने ‘सच का सामना’ पर प्रतिबंध लगाने की मांग करनेवाली जनहित याचिका को खारिज करते हुए कहा है कि जिन्हें ऐसे कार्यक्रम पसंद नही हैं, वे रिमोट का इस्तेमाल करके ऐसे चैनल और कार्यक्रम बदल दें। इसके साथ ही, मीडिया के नियमन के मसले पर एक बार फिर बहस शुरू हो गयी है। जाहिर है कि मीडिया खासकर उसकी अंतर्वस्तु (कंटेंट) के नियमन की यह बहस नयी नही है। पिछले कई वर्षों से यह बहस चल रही है। यह भी सच है कि इस मुद्दे पर देश में एक राय नहीं है। इसमें भी कोई शक नहीं है कि मीडिया खासकर उसके कंटेंट के नियमन और वह भी सरकारी नियमन को लेकर बिलकुल सहमति नही है।

आनेद प्रधानमीडिया के नियमन (रेग्यूलेशन) का मुद्दा एक बार फिर गर्म हो गया है। ’सच का सामना’ को लेकर संसद में हुई तीखी बहस के बाद सूचना एवं प्रसारण मंत्री अंबिका सोनी ने वायदा किया है कि यूपीए सरकार अगले सात सप्ताहों में मीडिया के नियमन को लेकर एक मसौदा प्रस्ताव देश के सामने बहस के लिए पेश करेगी। लेकिन दूसरी ओर, दिल्ली उच्च न्यायालय ने ‘सच का सामना’ पर प्रतिबंध लगाने की मांग करनेवाली जनहित याचिका को खारिज करते हुए कहा है कि जिन्हें ऐसे कार्यक्रम पसंद नही हैं, वे रिमोट का इस्तेमाल करके ऐसे चैनल और कार्यक्रम बदल दें। इसके साथ ही, मीडिया के नियमन के मसले पर एक बार फिर बहस शुरू हो गयी है। जाहिर है कि मीडिया खासकर उसकी अंतर्वस्तु (कंटेंट) के नियमन की यह बहस नयी नही है। पिछले कई वर्षों से यह बहस चल रही है। यह भी सच है कि इस मुद्दे पर देश में एक राय नहीं है। इसमें भी कोई शक नहीं है कि मीडिया खासकर उसके कंटेंट के नियमन और वह भी सरकारी नियमन को लेकर बिलकुल सहमति नही है।

तथ्य यह है कि कोई दो साल इन्ही दिनों यूपीए सरकार ने मीडिया के नियमन के लिए भारतीय प्रसारण नियामक प्राधिकरण (बीआरएआई) के गठन का प्रस्ताव रखते हुए उसका मसौदा जारी किया था। वह मसौदा प्रस्ताव आज भी सूचना और प्रसारण मंत्रालय की वेबसाइट पर ‘व्हाट इज न्यू’ के तहत पड़ा हुआ है। लेकिन इस मसौदे का प्रसारकों और नागरिक समाज ने कड़ा विरोध किया, जिसके कारण सरकार ने अपने कदम पीछे खींच लिये थे। इसी तरह, समाचार मीडिया के नियमन का मुद्दा भी जब-तब उछलता रहता है। पिछले कुछ वर्षों में ऐसे कई मौके आए, जब समाज के अलग-अलग हिस्सों से समाचार मीडिया के नियमन की मांग जोर-शोर से उठी। इसके बावजूद सच यह है कि समाचार मीडिया के नियमन को लेकर अब भी गहरे मतभेद बने हुए हैं। मुम्बई में 26/11 के आतंकवादी हमलों की रिपोर्टिंग को लेकर उठे सवालों के बाद समाचार मीडिया के नियमन की मांग एक बार फिर जोर पकड़ने लगी थी लेकिन सरकार और समाचार चैनलों के बीच बातचीत के बाद यह सहमति बनी कि समाचार चैनल खुद को आत्मनियमन (सेल्फ रेग्यूलेशन) के जरिये संचालित करेंगे। इसके लिए समाचार चैनलों ने अपने एक संगठन-न्यूज ब्राडकास्टर्स एसोसिएशन का गठन किया है और एक शिकायत निवारण और नियमन समिति का भी बनाई है।

लेकिन अनुभव यह बता रहा है कि टीवी चैनल और उसमें भी खासकर समाचार चैनलों में वायदे के बावजूद आत्मनियमन की व्यवस्था काम नही कर रही है। समाचार चैनलों के मामले में खुद अपने द्वारा बनायी गई व्यवस्था को इंडिया टीवी ने जिस तरह से चुनौती दी, उससे यह स्पष्ट हो गया कि मौजूदा गलाकाट प्रतियोगिता के दौर में आत्मनियमन बहुत दूर तक और बहुत देर तक नहीं चलनेवाला है। इसी तरह से मनोरंजन चैनलों के मामले में भी यह साफ दिख रहा है कि बढ़ती प्रतियोगिता के साथ किसी तरह का कोई नियमन काम नही कर रहा है। असल में, भारत ही नही दुनिया भर का अनुभव बताता है कि खुली प्रतियोगिता में अगर कोई अम्पायर या रेफरी न हो तो कोई नियमन काम नही करता है।

यही कारण है कि दुनिया के अधिकांश देशों में मीडिया के नियमन के लिए अलग-अलग तरह की व्यवस्थाएं काम कर रही हैं। ऐसा शायद ही कोई देश होगा जहां मीडिया के नियमन की कोई व्यवस्था न हो। इसलिए अब इस मांग का कोई औचित्य नहीं रह गया है कि देश में मीडिया खासकर इलेक्ट्रानिक मीडिया के नियमन की जरूरत नही है। सच यह है कि आज भी इलेक्ट्रानिक मीडिया के नियमन का काम दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (ट्राई) कर रहा है। लेकिन उसे कंटेंट के नियमन का अधिकार नही है। यह अधिकार अब भी सूचना और प्रसारण मंत्रालय के पास है जो जब-तब चैनलों को नोटिस आदि भेजता रहता है। कुछ मामलों में चैनलों के खिलाफ मंत्रालय ने कार्रवाई भी की है।

ऐसे में, सच पूछिए तो इस तरह के सरकारी नियंत्रण से डरने की जरूरत है। यह नियंत्रण कहीं ज्यादा खतरनाक है। इसके बजाय इलेक्ट्रानिक मीडिया के लिए नियमन की एक स्वतंत्र और स्वायत्त संस्था का गठन कहीं ज्यादा बेहतर विकल्प होगा। निश्चय ही, इस तरह की किसी संस्था को सरकारी नियंत्रण से न सिर्फ बाहर रखा जाना चाहिए बल्कि यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि वह वास्तव में, सरकार और निजी क्षेत्र दोनों के दबावों से पूरी तरह से मुक्त हो। यह चैनलों के साथ-साथ दर्शकों और पूरे समाज के हित में होगा। इससे डरने के बजाय इसका स्वागत किया जाना चाहिए।


लेखक आनंद प्रधान इन दिनों देश के प्रतिष्ठित पत्रकारिता शिक्षण संस्थान इंडियन इंस्टीट्यूट आफ मास कम्युनिकेशन (आईआईएमसी) में हिंदी पत्रकारिता पाठ्यक्रम के निदेशक हैं। छात्रों के बीच बेहद लोकप्रिय आनंद बनारस हिंदी विश्वविद्यालय (बीएचयू) के छात्रसंघ अध्यक्ष भी रह चुके हैं। उनका वामपंथी विचारधारा से गहरा अनुराग है। अपने जीवन और करियर में जनपक्षधरता का झंडा हमेशा बुलंद रखने वाले आनंद प्रखर वक्ता और चिंतक भी हैं। देश के सभी बड़े अखबारो-पत्रिकाओं में सामयिक मुद्दों पर गहरी अंतदृष्टि के साथ लगातार लिखने वाले आनंद का यह आलेख उनके शिष्यों के ब्लाग ‘तीसरा रास्ता‘ से साभार लिया गया है। आनंद से संपर्क [email protected] का सहारा ले सकते हैं।

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