बीत रहे इस साल और आने वाले वर्ष के संधिकाल में खुशियां मनाने में जुटे देश और दिल्ली वालों में एक शख्स ऐसा भी है जो टूटे दिल से दिल्ली को विदा बोल रहा है। ‘गुडबॉय दिल्ली‘ शीर्षक से पिछले दिनों भड़ास4मीडिया पर प्रकाशित खबर में बताया जा चुका है कि एक पत्रकार दिल्ली और पत्रकारिता, दोनों को अलविदा कहने जा रहा है। वह गांव जा रहा है। सामान पैक कर चुका है। मकान छोड़ चुका है। किसी दोस्त के कमरे पर गेस्ट बन गया है। दिल्ली अभी इसलिए रुका है क्योंकि उसे दैनिक जागरण से अपना बकाया पैसा चाहिए। रुकी हुई सेलरी चाहिए। छुट्टियों का पेमेंट चाहिए। दिल्ली के मकान का किराया कुछ दोस्तों से उधार लेकर चुकाया क्योंकि वे दो महीने गांव में रह गए, कुछ पारिवारिक वजहों से और कुछ खराब स्वास्थ्य के चलते, इस कारण उनके एकाउंट में कोई सेलरी नहीं गई, मेडिकल लीव की अप्लीकेशन भेजने के बावजूद। आज हम उस पत्रकार का नाम, उनके संस्थान का नाम और उनके दिल की बात को यहां प्रकाशित करने जा रहे हैं। पत्रकार का नाम है धर्मेंद्र प्रताप सिंह। उनके संस्थान का नाम है- दैनिक जागरण। वे नोएडा स्थित मुख्यालय में सीनियर सब एडिटर पद पर कई वर्षों से कार्यरत हैं। धर्मेंद्र ने अपने दिल की बात तफसील से कही है, जिसे कई किश्तों में प्रकाशित किया जाएगा, आज पहली किश्त और कुछ तस्वीरें आपके सामने है। -एडिटर, भड़ास4मीडिया
गुडबाय दिल्ली (1)
पहला और दूसरा प्यार : न मैं खुश, न बच्चे और न ही पत्नी। मैं अपने माता-पिता के बुढ़ापे में भी उनके काम नहीं आ पा रहा तो फिर क्यों और किसके लिए करूं नौकरी? उन्होंने बचपन में कितना झेला होगा मुझे, यह बात मैं पिता बनने के बाद जान पाया तो आज उन्हें मेरी जरूरत है तो फिर मैं क्यों नहीं काम आ सकता उनके? कई सवाल उमड़-घुमड़ रहे हैं। मां-पिता को दिल्ली ला पाने की हैसियत नहीं है। सो, मुझे ही उनके पास जाना होगा। आपने पूछा कि पत्रकारिता में कैसे आए, तो अपने बारे में विस्तार से बताना चाहूंगा। मैं ब्यूरोक्रेसी का हिस्सा बनना चाहता था क्योंकि होश संभालने के बाद घर में वैसा ही माहौल था और बड़े भाई (योगेंद्र कुमार सिंह) के चयन के बाद परंपरा पड़ चुकी थी और सपने कुलाचें मारने लगे थे। इसके बाद तो घर-गांव और पूरे इलाके के मुंडों को लगने लगा था कि हम देहाती लोग भी आईएएस-पीसीएस बन सकते हैं। भाई के दिशा-निर्देशन में सन 1989 से ही तैयारी शुरू की और 1999 में 28वां वसंत आते-आते पांच बार यूपीएससी और यूपीपीएससी की मु्ख्य परीक्षाएं दे चुका था। पत्रकारिता मेरा दूसरा प्यार। पहली कविता कक्षा 10 (1984) में ही लिख चुका था।
काफी संकोची व दब्बू रहा क्योंकि उसी महात्मा गांधी इंटर कालेज सफीपुर में पढ़ता था, जिसके प्रधानाचार्य पापा (श्री युधिष्ठिर सिंह) रहे। इससे एक सबक मिला कि कभी वहां मत पढ़ो, जहां घर का कोई पढ़ाता हो। फख्र है कि 1989 से 2000 तक यहां से पास आउट तीन-चार लड़के हर साल मुख्य परीक्षा में बैठते रहे। साल 1997 में मेरे पिता ने अवकाश ग्रहण करने के पहले कहा कि जो भी करना है, जल्दी करो। तब तक मास्टर आफ जर्नलिज्म एंड मास कम्युनिकेशन की पढाई पूरी कर चुका था। ऐसा लगा, जैसे लिखने का लाइसेंस मिल गया हो और छपास की क्षुधा की शांति के लिए संपादकों के चक्कर काटने लगा। उस वक्त लखनऊ में कुबेर टाइम्स नंबर दो की हैसियत में था। एक मित्र राधे श्याम मिश्र मुझे अपने साथ डा. उपेन्द्र पांडेय जी (संप्रति-कंट्री हेड एचआर जागरण समूह) के पास लेकर गए। उन्हें लेख पसंद आया और पहली बार संपादकीय पेज पर मेरा नाम छपा। उसके बाद अरमान सातवें आसमान पर थे और पैर हवा में।
फिर सन 1999 में अमर उजाला में बतौर प्रशिक्षु भर्ती होने तक यह सिलसिला चलता रहा। दो साल में 42 लेख संपादकीय पेज पर छपे। पंकज जी (संपादक) से चवन्नी की उम्मीद करना भी व्यर्थ था। हां इस दौरान उन्होंने एक पंक्ति पसंद न आने पर 51 दिन का प्रतिबंध मेरे पर जरूर लगाया था। इससे लगा कि जो कुछ लिख रहा हूं, उसे संपादक भी पढ़ते हैं। मैंने लिख दिया था कि 10 स्वयंभू प्रतिभाशालियों में से यदि एक की पहचान करने का समय व अवसर (मंच) देने का भी माद्दा संपादकों में नहीं है तो डाउन कर दो शटर और बंद कर दो दुकानें। हालांकि वर्ष के पूर्वार्द्ध में ही डा. पांडेय अमर उजाला चंडीगढ़ में जिम्मेदारी संभाल चुके थे। वह लखनऊ विश्वविद्यालय में पढ़ाने भी आते थे मुझे, एज ए गेस्ट लेक्चरर। उन्होंने संपादकीय पेज का एक कालम लगातार कवर करवाया और यूनिवर्सिटी की भी जिम्मेदारी सौंपी। यह सब मैंने दो साल तक किया। कंपटीशन में बैठने की उम्र बाकी होने के बाद भी मैं पत्रकारिता के करीब आ गया और इस तरह पत्रकार बनने की नींव पड़ी।
फ्री लांसिंग बनाम नौकरी : बड़ी नौकरी मिली नहीं तो फ्रीलांसर ही बनना चाहता था क्योंकि यूपीएससी का दरवाजा दो बार खटखटाने के बाद छोटी-मोटी नौकरी करने की मनःस्थिति नहीं थी, लेकिन फिर घर वालों के दबाव में करनी पड़ी। की तो पूरे नक्शे व उत्सवधर्मिता से की, 12 साल तक कभी भी और कहीं भी परिवार और विश्वविद्यालय की नाक नीची नहीं होने दी। 2001 में शादी के बाद ऐट होम जालंधर में किया। पंजाब के कोने-कोने व घर से मिलाकर करीब दो सौ लोग पहुंचे। उसमें पहुंचे करीब दर्जन भर पितृ तुल्य और अग्रज सदृश लोग आज देश के विभिन्न शहरों में संपादक हैं या फिर समाचार संपादक। उत्सव के इस सिलसिले को पंजाब में चार साल तक मैंने टूटने नहीं दिया और हर साल एक बार कोठी नंबर तीन की छत पर शामियाने जरूर लगवाए। तीन विषयों में मास्टर, इतनी ही बैचलर डिग्री और विभिन्न विधाओं में आधा दर्जन डिप्लोमे लेने के बाद तमन्ना थी कि मैं लिखूं और दूसरे पढ़ें। यदि उस वक्त अपने लखनऊ में पंकज जी सौ रुपये प्रति लेख दे देते तो मैं 4000 रुपये पर जालंधर कतई नहीं जाता। डा. पांडेय ने इस दौरान तरकीब सुझाई कि काका (श्री रामेश्वर जी पांडे) को मार्मिक पत्र लिखो। मैंने लिखा और काल लेटर आ गया। मैं उस ऐतिहासिक भीड़ का हिस्सा बना, जब काका ने मेरठ में दो कालेज हायर करके देश का शायद सबसे बड़ा मीडिया इंट्रेस टेस्ट कराया। अंदाजा है कि करीब 2000 लोग बैठे होंगे। सौ से अधिक लोग भर्ती भी किए।
उस वक्त अमर उजाला का मतलब होता था काका। रिटेन के बाद इंटरव्यू हुआ और जालंधर के मोर्चे पर भेज दिया गया। ऐसा मैंने उस वक्त की क्षत्राणी किशोरियों के बापों की खुशी के लिए भी किया था क्योंकि वे सिर्फ ये संभावनाएं टटोलते थे कि लड़की को शहर में रहने को मिलेगा या नहीं। भले ही हमारे घर पर 52 बीघे पुदीना पानी के अभाव में सूख रहा हो। यानी कि 22 कमरे के बजाय मुश्किल से दो कमरे और बोरे में आटे के बजाय एक किलो के पालीथिन में आटा और कागज की पुड़िया में 250 ग्राम दाल। दूसरे मम्मी-पापा को एक गाड़ी गिफ्ट करना चाहता था क्योंकि घर की पुरानी जीप कंवर्जन के बाद घर में कम, मेकेनिक के यहां ज्यादा रहती थी। तीसरे, तीन-चार संपादकों से बेहतरीन संबंध बनाना रडार में था क्योंकि करनी मुझे फ्री लांसिंग ही थी। पत्नी एकता सिंह (लखनऊ) दो कमरे का सपना लिए ही दिल्ली से 2008 के शुरू में दोनों बच्चे के साथ चली गईं क्योंकि जागरण की नौकरी में मैं उन्हें कभी दो कमरे के मकान में नहीं रख पाया।
…जारी…