अब और चौकन्ने हो गए उदय प्रकाश बोले- मैं किसी का समर्थन नहीं करता : हर तरह की राजनीति, सरकारी तंत्र और मीडिया ने उदय प्रकाश को पहले से ही बहुत निराश-उदास कर रखा था, ‘पुरस्कार प्रकरण‘ के बाद रचना जगत के साझा विरोध-बहिष्कार के फतवे ने उन्हें और अंदर तक झकझोर दिया है। वह जितने खिन्न, उतने ही विचलित-से लगते हैं। भड़ास4मीडिया के कंटेंट हेड जयप्रकाश त्रिपाठी से बातचीत में उदय प्रकाश ने अपनी राजनीतिक निर्लिप्तता की घोषणा कर रचनाजगत में फिर अपने लिए संदेह की गुंजाइश बढ़ा दी है क्योंकि जो निर्लिप्त होता है, वह भी किसी न किसी तरह की राजनीति के पक्ष में जरूर होता है। बातचीत में उदय प्रकाश कहते हैं- ‘लेखक को हर तरह की राजनीतिक तानाशाही से मुक्त कर देना चाहिए। मेरा किसी भी तरह से कोई राजनीतिक सरोकार नहीं, न किसी ऐसे दल से कोई संबंध है। कभी रहा भी नहीं। रहना भी नहीं चाहिए। किसी को मेरा समर्थन करना हो, करे, अथवा मत करे, मैं किसी का समर्थन नहीं करता।’
पिछले दिनों के ‘दुष्प्रचार-विवाद-बहिष्कार’ के बाद वह अपनी बात को सिरे तक ले जाते हुए कहते हैं- ‘जैसी कि शोशेबाजियां की जा रही हैं, मेरा किसी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद आदि से भी कोई लेना-देना नहीं। बात कुछ और सोची-कही जाती है और उसके अर्थ कुछ और निकाल कर प्रचारित-प्रसारित कर दिए जाते हैं। झूठ की खाद पर आदमखोर फासीवाद पैदा होता है। झूठ का सहारा दो तरह के लोग लेते हैं… सर्वसत्तावादी या फासीवादी। वह फासीवाद गुजरात का हो या नंदीग्राम का। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि लोगों को किस तरह, कहां मारा गया। उन्हें गुजरात में मारा गया, नंदीग्राम में अथवा भोपाल गैस त्रासदी में। जिसने भी मारा, जनद्रोही है। उसे माफ नहीं किया जा सकता, न उसका किसी भी तरह से पक्ष लिया जाना चाहिए।’
सुनो कारीगर, अबूतर कबूतर, रात में हारमोनियम (कविता संग्रह), दरियायी घोड़ा, तिरिछ, और अंत में प्रार्थना, पॉलगोमरा का स्कूटर और रात में हारमोनियम (कहानी संग्रह), ईश्वर की आंख (निबंध और आलोचना संग्रह), पीली छतरीवाली लड़की (लघु उपन्यास), इंदिरा गांधी की आखिरी लड़ाई, कला अनुभव, लाल घास पर नीले घोड़े आदि अपनी रचनाओं से विख्यात हुए उदयप्रकाश हिंदी साहित्य जगत में लगातार अपनी उपस्थिति बनाए रहे हैं। उन्हें भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार, ओम प्रकाश सम्मान, श्रीकांत वर्मा पुरस्कार, मुक्तिबोध सम्मान, साहित्यकार सम्मान आदि मिल चुके हैं, लेकिन उनके मन में एक बहुत गहरी टीस आज भी धंसी-फंसी रह गई है कि वे कभी राजपाट के चित्त नहीं चढ़ीं। ‘चढ़तीं भी कैसे?’ वह कहते हैं कि चारणगान युग अभी गया कहां है? और मेरी रचनाओं का मुख्य स्वर जनता का है।
भड़ास4मीडिया से विशेष बातचीत में कवि, कथाकार, फिल्मकार और चित्रकार उदय प्रकाश अपना कोई पक्ष-विपक्ष, समर्थन-विरोध न जताते हुए भी अपनी रचनात्मक-पक्षधरता, यानी अपने रचनाकार के साथ अडिग-अटल दिखाई देते हैं। उतनी ही शिद्दत और निर्ममता से व्यवस्था पर चोट करते हैं। कहते हैं- ‘मैं किसी भी तरह की हिंसा के खिलाफ हूं। हिंसा गुजरात की हो, अयोध्या की अथवा नंदीग्राम, सिंगूर, लालगढ़ की। यह गलत होगा कि आदमी का शिकार करने वाली किसी भी किस्म की हिंसा को वैचारिक खांचों में फिट कर देखा जाए। भोपाल गैस त्रासदी के लिए उस समय के सत्ता नायकों को माफ नहीं किया जा सकता। उसी तरह, गुजरात और सिंगूर-नंदीग्राम की हिंसा अक्षम्य है। उनके पक्ष में कोई तर्क, कोई भी विचार जायज नहीं ठहराए जा सकते। वैचारिक प्रतिबद्धताओं की आड़ लेकर हिंसा का तर्कशास्त्र गढ़ना, न अतीत में उचित रहा है, न भविष्य में होगा।’
यद्यपि कुछ कहने से कतराते हैं, लेकिन उदय प्रकाश इस बात की जानकारी रखते हैं कि पुरस्कार-प्रकरण में उनके खिलाफ जारी लेखकों-रचनाकारों की फेहरिस्त में ज्यादातर नाम किन्हीं लोगों ने स्वयं शामिल कर लिए थे। उसकी सच्चाई अब धीरे-धीरे सामने आने लगी है। वह इस पूरे मामले पर कुछ भी कहने से बचते हुए हर सवाल को टाल जाते हैं। इतना भर कहते हैं कि ‘किसी भी तरह का जिरह मेरे रचनाकार पर होना चाहिए, उदय प्रकाश पर नहीं। हर व्यक्ति के जीवन में उसका बहुत-कुछ निजी होता है। जब मैंने अपनी ‘किंचित भूल’ स्वीकार कर ली, क्षमा भीमांग चुका, फिर काहे का वितंडावाद? उस बहिष्कार के पीछे कौन-सी मानसिक बनावट काम कर रही है, मैं समझ नहीं पा रहा। अपने समय ने मेरी रचनाओं को देश-दुनिया में इतनी लोकप्रियता और स्वीकार्यता दिलाई है। अनेक भाषाओं में मेरी पुस्तकें लाखो-लाख पाठकों तक पहुंच रही हैं। लेकिन वे मेरे समय के सत्ता-प्रतिष्ठानों से लगातार उपेक्षित रही हैं। उन्हें कोई सरकारी पुरस्कार नहीं मिला है। क्योंकि मुझे चाटुकारिता नहीं करने आई। मैं सिर्फ लिखता रहा। जबकि मेरा एकेडमिक करियर भी किसी से कमजोर नहीं रहा है। जिन किताबों की पठनीयता और पाठक संख्या इतनीज्यादा हो, वे देश की स्वनामधन्य साहित्यिक अकादमियों की आंखों से ओझल कैसे रह गई हैं, इसके रहस्य भी अज्ञात नहीं रहे। फासीवाद से कम खतरनाक नहीं होता है किसी भी तरह का भ्रष्टाचार।’
प्रकारांतर से अपने ‘रचनाकार’ के पक्ष में उनका कहना होता है कि ‘साहित्य में किसी भी दृष्टि से किसी का भी पार्टी, झंडा नहीं चलेगा। आलोचना के मानदंड बदल रहे हैं। हर तरह की आलोचना के। उत्तर आधुनिकतावाद की सुनें तो सचमुच ‘अबोधता के युग का अंत’ हो चुका है। साहित्यकार त्रिकालदर्शी कहा जाता है। तीनों समय का साक्षी। भूत-भविष्य-वर्तमान। इसी तरह हमे आने वाले समय को देखना होगा। इसी तरह बीते कल के रूस-चीन और मौजूदा टेक्नो-साम्राज्य की मैनेजरी कर रही देश-दुनिया की राजनीति को देखना होगा। इसी प्रकार गुजरात, पश्चिमी बंगाल और दिल्ली की राजनीति को भी। करने वालों ने अबोधता के युग का अंत तो घोषित कर दिया, लेकिन अब इसके आगे क्या? जवाबदेही हमारी है। और हम सत्ताहीन हो गए हैं। लेकिन सबसे बड़ी होती है भाषा की सत्ता। साहित्य की सत्ता। जिसके पास भाषा की सत्ता है, साहित्य की सत्ता है, उसे किसी भी राजनीतिक सत्ता की जरूरत नहीं होनी चाहिए। जिसको अपनी भाषा और साहित्य की सत्ता पर अटूट भरोसा है, वह किसी भी राजनीतिक सत्ता की ओर क्यों भागे? मैं नहीं भागता ऐसे किन्हीं राजनीतिक सरोकारों के पीछे।’
‘जहां तक व्यवस्था की बात है, हिंदुस्तान की राजनीतिक ईमानदारी की बात है, उसी की विफलता और बेईमानी से एक ओर अथाह वैभव, दूसरी तरफ भयावह विपन्नता के हालात हैं। सत्तर और तीस के अनुपात में। सत्तर फीसदी लोगों की दैनिक कमाई सिर्फ बीस रुपये? ये नहीं चलेगा। इतनी बड़ी वंचना को कोई भी ताकत लंबे समय तक सुरक्षित नहीं रख सकती। बड़ा टकराव होना है, चाहे जब हो। वह टकराव कत्तई टाला नहीं जा सकता। क्योंकि सच है, आसमान किसी के रोके नहीं रुक सकता। ‘इतने घुप्प अंधेरे में एक पीली पतंग धीरे-धीरे आकाश में चढ़ रही है।’ मेरी या मेरे रचनाकार की मंशा सिर्फ इतनी होनी चाहिए कि वह टकराव हिंसक न हो। और यदि होता है तो उस हिंसा के लिए जिम्मेदार ‘सिर्फ’ वही होंगे, जो सत्तर और तीस के बीच की खाईं लगातार बढ़ा रहे हैं।’
‘सन 1980 के दशक से दुनिया बदल गई है। तीसरी प्राविधिक-तकनीकी क्रांति, सूचना क्रांति के बाद से ही यंत्र-युग, जैविक तकनीकि के युग में दुनिया ने प्रवेश किया है। इस तकनीकी साम्राज्य का पूंजी के साम्राज्य से गहरा गंठजोड़ है। उसने पुरानी राजनीति के तौर-तरीकों, विचारों को तहस-नहस कर डाला है। आज के समय में उस तरह की राजनीति और विचारों से किसी को बेवकूफ नहीं बनाया जा सकता। उस राजनीति में मेरी न कोई निष्ठा है, न पक्षधरता। न किसी भी साहित्यकार को ऐसे राजनीतिक विचारों का आग्रही-दुराग्रही होना चाहिए।’
भाषा के प्रश्न पर उदय प्रकाश का कहना है कि ‘इस समय की हिंदी संचार-सरकार-बाजार की हिंदी है। ये मीडिया और सरकार की हिंदी, जनता की हिंदी नहीं है। किसी समय से अंग्रेजी के लोग ऐसे हिंदी लेखन पर हमला करते रहे हैं। अंग्रेजी को ‘मुक्ति की भाषा’ कहा जा चुका है। हिंदी अपनी पट्टी की भाषायी विकृतियों से मुक्त नहीं हो सकी है, न इसके लिए सरकारी, सांस्थानिक स्तरों पर कोई खास प्रयास दिखते हैं। यह हमारी बोलियों और मातृभाषाओं के साथ ज्यादती है।’
अंग्रेजी साहित्य जगत जर्मनी, फ्रांस आदि में अपनी अनूदित रचनाओं की बढ़ती स्वीकार्यता पर उन्होंने बताया कि वह आगामी 14 से 18 अक्तूबर तक फ्रैंकफुट में आयोजित विश्व पुस्तक मेले में होंगे। वहां उनकी जर्मन में अनूदित दो पुस्तकों (‘और अंत में प्रार्थना’, ‘पीली छतरी वाली लड़की’) का प्रकाशनोत्सव है। पिछले विश्व पुस्तक मेले में ‘छप्पन तोले की करधन’ का लोकार्पण हुआ था।
…और अंत में उदय प्रकाश कहते हैं- ‘मैं अपनी रचनाओं के साथ हूं। अपने रचना जगत में व्यस्त हूं। बार-बार दुहराता हूं कि मेरी कोई राजनीतिक निष्ठा अथवा प्रतिबद्धता नहीं है। मैं सिर्फ, और सिर्फ अपने रचनाकार के लिए प्रतिबद्ध हूं। बाकी वंचना और चातुर्य से मेरा कोई लेना-देना नहीं।’
हाल के दिनो की असह्य मानसिक यंत्रणा, कुछ वामपंथी लेखकों-रचनाकारों के समवेत बहिष्कार की घोषणा, और उन्हीं दिनों में अपने कनिष्ठ बेटे के सड़क हादसे में घायल हो जाने के बाद व्यथित उदय प्रकाश अपनी इन पंक्तियों से पुनः प्रकट हो जाते हैं कि-
इतनी गहरी / लगातार / तार की तरह न टूटने वाली / बारिश के बाद
…..
कितने भीगे हुए / खाली घोंसले हिल रहे हैं / हमारी स्मृतियों में।
उदय प्रकाश का जन्म 1 जनवरी 1952 को छत्तीसगढ़ अंचल के गाँव सीतापुर, जिला शहडोल में हुआ था। इस समय वह वैशाली, गाजियाबाद में रहते हैं। बचपन में ही उनके माता-पिता की कैंसर से मृत्यु हो गई थी। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय नई दिल्ली से उन्होंने उच्च शिक्षा ग्रहण की है। वह लोकप्रिय कवि, कथाकार, चित्रकार और फिल्मकार के रूप में जाने-माने जाते हैं। ‘सुनो कारीगर’ उनका पहला कविता संग्रह रहा है। रिव्यू, आलोचनाएं, कहानियां और कविताएं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं। उनकी कई कृतियों के अंग्रेज़ी, जर्मन आदि भाषाओं में अनुवाद भी विदेशों में चर्चित रहे हैं। उनकी कहानी ‘वॉरेन हेस्टिंग्स का सांड’ के नाट्य रूपांतरण का सौ से ज्यादा बार मंचन हुआ है।
इसके अलावा ‘और अंत में प्रार्थना’, ‘लाल घास पर नीले घोड़े’ ‘तिरिछ’ आदि भी मंचित होते रहे हैं। सन् 2007 में उन्हें रूस के प्रतिष्ठित ‘पुश्किन पुरस्कार’ से सम्मानित किया जा चुका है। उदय प्रकाश का हिंदी में ब्लाग भी है जिस तक www.uday-prakash.blogspot.com पर क्लिक कर पहुंच सकते हैं।
उदय प्रकाश की एक पंक्ति, जो मुहावरा बन गई-
आदमी मरने के बाद कुछ नहीं सोचता,
आदमी मरने के बाद कुछ नहीं बोलता,
कुछ नहीं सोचने और कुछ नहीं बोलने पर,
आदमी मर जाता है.