दिल्ली में पिछले दो दिनों में मीडिया से जुड़े दो बड़े आयोजन हुए। अखबार मालिकों के संगठन इंडियन न्यूजपेपर सोसाइटी (आईएनएस) की ओर से होटल ताज में इंडियन न्यूजपेपर कांग्रेस का आयोजन किया गया तो इसके ठीक एक दिन बाद 11 जुलाई को उदयन शर्मा के जन्मदिन पर दिल्ली स्थित कांस्टीट्यूशन क्लब के डिप्टी स्पीकर हाल में संवाद-2009 में लोकसभा चुनाव और मीडिया को सबक विषय पर परिचर्चा आयोजित हुई।
इंडियन न्यूजपेपर कांग्रेस में अखबार मालिकों और उनके प्रतिनिधियों ने धंधा फैलाने और बिजनेस बढ़ाने के लिए समाचार रूपी कच्चे माल को और ज्यादा विश्वसनीय व मजबूत बनाने के लिए न्यूज की जय हो बोलकर विदा हुए। उदयन के जन्मदिन पर आयोजित परिचर्चा में उपस्थित पत्रकार मीडिया माध्यमों और इन माध्यमों के मालिकों के चरम नैतिक पतन से उपजी स्थितियों से खासे दुखी दिखे और इसे किसी भी तरह से बदलने की जरूरत पर बल देते हुए विदा हो गए।
दोनों आयोजनों में समानता यह थी कि दोनों ही जगह कंटेंट चर्चा का विषय रहा। पर दोनों जगह कंटेंट की चर्चा के संदर्भ अलग-अलग थे। आईएनएस की न्यूजपेपर कांग्रेस में मालिक और उनके मार्केटियर मित्र कंटेंट के बल पर ज्यादा से ज्यादा रेवेन्यू कमाने और ज्यादा से ज्यादा विस्तार पाने के तरकीब खोज रहे थे तो पत्रकारों की परिचर्चा में संपादक और पत्रकार लोग कंटेंट की खत्म होती पवित्रता, मीडिया माध्यमों की खत्म होती विश्वसनीयता, खबरों की सौदेबाजी की प्रवृत्ति के संस्थाबद्ध होते जाने से चौथे खंभे की तार-तार होती प्रासंगिकता, पत्रकारिता के दिन-प्रतिदिन जनता से दूर होते जाने और सिर्फ लाभ-हानि के उपक्रम में तब्दील होते जाने की परिघटना पर दुखी होकर इसे हर हाल में ठीक करने का आह्वान कर रहे थे। पर दोनों ही जगहों पर मौजूद लोग यह जानते हैं कि दरअसल, कुछ भी अब किसी के हाथ में नहीं रहा।
बाजार कभी खिड़की के रास्ते घुसा था और अब यह पूरे घर पर कब्जा कर घरवालों को बेदखल कर चुका है। घर के अंदर वही टिका है और फल-फूल रहा है जिसने बाजार से हाथ मिला लिया। जिसने दोस्ती गांठ ली। जिसने बाजार की गति के साथ मूक समझौता कर लिया। मालिकों और उनके मार्केटियरों के फलने-फूलने का कारण यही है कि वे बाजार के प्रवक्ता हैं। वे बाजार के बेहद अपने और सगे हैं। वे बाजार के रहनुमा हैं। जनता और जनता से सरोकार रखने वाली पत्रकारिता को पसंद करने वाले लोग बाजार के कभी प्रिय पात्र नहीं बन सकते इसलिए इन्हें मुश्किल झेलना ही है। इन्हें साइडलाइन रहना ही है। इन्हें मालिकों और मार्केटियरों की नापसंद बनना ही है।
आईएनएस की होटल ताज की कांग्रेस के खत्म होने के बाद सभी मालिक और मार्केटियर खुशी-खुशी एक दूसरे से मिल रहे थे। रात में ड्रिंक और डिनर पर बीते चुनाव में ज्यादा से ज्यादा धंधा कर लेने की अपनी काबिलियत के बारे में एक दूजे को शिक्षित-प्रशिक्षित कर रहे थे। ज्यादा भ्रष्ट और बेईमान मालिक व मार्केटियर इस रंगीन रात में हीरो बने हुए थे क्योंकि उन लोगों ने अपनी ‘बुद्धि’ से अपनी मीडिया कंपनी को जमकर मुनाफा कमवाया। जो थोड़े नैतिक और जन सरोकार वाले मीडिया मालिक व मार्केटियर थे, वे खुद को छला-ठगा महसूस कर रहे थे, मन ही मन अगले चुनाव में नैतिकता की केंचुल फेंक ज्यादा से ज्यादा मुनाफा बटोरने की रणनीति बना रहे थे। पर माहौल बिलकुल रंगीन और खुशहाल था।
पत्रकारों की संगोष्ठी में माहौल तनावपूर्ण रहा। मालिकों ने लाभ कमाने के लिए मीडिया माध्यमों को जिस कदर बाजारू बना दिया है, उसके कारण पत्रकारिता और पत्रकारीय नैतिकता की जो ऐसी-तैसी हुई है, उससे समाज व देश के प्रति थोड़ा भी कनसर्न रखने वाला पत्रकार आहत है और इस आहत मन की पीड़ा इस मंच से प्रतिध्वनित हुई। इसी कारण जिन लोगों ने बाजार और प्रबंधन की भाषा के जरिए पत्रकारों को समझाने और उन्हें नजरिया बदलने की सलाह देने की हिम्मत दिखाई, उन्हें पत्रकारों के कोप का भाजन भी बनना पड़ा। मीडिया के मालिकों और उनके चेले पत्रकारों-संपादकों ने बाजार के साथ कदमताल करने के नाम पर मीडिया की जो हालत बनाई है, उसका प्रमाण इस परिचर्चा में भी मिला।
कांग्रेसी नेता और केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल ने अपने शुरुआती भाषण में ही कह दिया कि बदले हुए इस दौर में आप मीडिया वाले क्या छापते हो और क्या नहीं छापते हो, इससे उन लोगों को कोई खास फर्क नहीं पड़ता। आईबीएन7 के प्रबंध संपादक आशुतोष भी मंच से समझाने लगे कि 1947 और 1977 के आदर्शवादी चश्मे से 2009 को मत देखिए। अपना चश्मा ठीक करिए। अपना नजरिया ठीक करिए। दुनिया ठीक से देखिए। फिर देखिए, हर जगह बुरा बुरा ही नहीं है। और बुरा है भी तो उतना ही है जितना 1947 और 1977 में बुरा था। तब भी पत्रकार नेता की गोद में बैठकर उनके लिए खबर लिखते थे और आज भी लिख रहे हैं। आशुतोष ने साफ-साफ कहा कि 1947 वाला आदर्शवाद अब नहीं चलेगा। अब नई स्थितियां और नई वास्तविकताएं हैं, जिसे पत्रकारों को समझना चाहिए। आशुतोष ने गिरिलाल जैन जैसे पत्रकार और जवाहर लाल नेहरू जैसे नेताओं की अब कोई जरूरत नहीं होने की बात कही। उनका कहना था कि अब संस्थाएं और उसको संचालित करने वाले लोग काफी परिपक्व हो चुके हैं।
आशुतोष अपनी बात ठीक से कह नहीं पाए या फिर पत्रकारों को प्रबंधन की भाषा में पाठ पढ़ाया जाना नागवार लगा, जो भी हुआ, श्रोताओं में से विरोध के स्वर उठने लगे। कुर्बान अली ने खासकर कपिल सिब्बल और आशुतोष को लताड़ा। कुर्बान अली ने आशुतोष के कथन का विरोध किया तो श्रोताओं में से कई लोगों ने आशुतोष की बातों को गलत कहा और इसका नतीजा यह हुआ कि आशुतोष को अपनी बात पूरी किए बगैर मंच छोड़कर नीचे अपनी सीट पर आकर बैठना पड़ा। कपिल सिब्बल के बारे में कुर्बान अली ने मंच से कहा कि हम लोगों की आज यह हालत हो चुकी है कि कपिल सिब्बल जैसा नेता हमारे ही मंच से हमारे मुंह पर तमाचा मारते हुए निकल जाता है और हम कुछ नहीं कर पाते। कपिल सिब्बल कहता है कि आप कुछ भी छापें, हम पर फरक नहीं पड़ता। यह बात हम लोगों के लिए शर्मनाक है। कोई नेता आता है और हम लोगों से कह जाता है कि आप लोगों की विश्वसनीयता खत्म हो चुकी है तो फिर हम लोगों के पास सिवाय अपना सिर फोड़ने के कुछ रह नहीं जाता।
वरिष्ठ पत्रकार और सीएनईबी के एडिटर-इन-चीफ राहुल देव ने संजीदगी और कुशलता के साथ उदयन शर्मा के जन्मदिन पर आयोजित संवाद का संचालन किया। इस संवाद में मंच से पत्रकारिता की वर्तमान दशा पर अपने-अपने तरीके से दुख, गुस्सा, क्षोभ, पीड़ा व्यक्त करने वाले पत्रकारों में प्रमुख हैं- कुलदीप नैय्यर, संतोष भारतीय, पुण्य प्रसून वाजपेयी, अलका सक्सेना, नीलाभ, सीमा मुस्तफा, विनोद अग्निहोत्री। कपिल सिब्बल के अलावा जिन प्रमुख नेताओं ने यहां भाषण दिया, उनके नाम हैं- शरद यादव और सीताराम येचुरी। इलेक्शन कमीशन के वाईएस कुरैशी ने अपनी बात रखी। कार्यक्रम में अखबारों और चैनलों के कई छोटे-बड़े पत्रकार मौजूद थे जिनमें प्रमुख हैं- अजीत अंजुम, शैलेश, सुप्रिय प्रसाद, कुमार राजेश, मुकेश कुमार, राजेश बादल, जयशंकर गुप्ता, अनूप भटनागर, संजीव आचार्या, रेणु मित्तल, वीरेंद्र सेंगर, बीबी नागपाल, आनंद प्रधान, संजय ब्रागटा, आलोक पुराणिक, जेपी दीवान, सुमित अवस्थी, अमिताभ सिन्हा, अखिलेश शर्मा, राजेश रपरिया, वीरेंद्र मिश्रा, संजय तिवारी, अविनाश दास, पुष्कर पुष्प आदि।
इस आयोजन में कई अच्छे सुझाव भी आए। हिंदी आउटलुक के एडिटर नीलाभ मिश्रा ने कहा कि पाठकों को सूचना का यह अधिकार दिया जाना चाहिए कि वह अपने अखबार के प्रकाशकों और संपादकों से पूछ सके कि आपने यह जो खबर पढ़ाई है, वह दरअसल खबर नहीं विज्ञापन है और इस मिलावट के लिए क्यों न आप पर चारसौबीसी का मुकदमा चलाया जाए? नीलाभ के मुताबिक जिस दिन यह अधिकार पाठकों को मिल जाएगा, सच जानिए, चीजें ठीक होनी शुरू हो जाएंगी। नीलाभ ने कहा कि हर धंधे, हर उद्योग की अपनी नैतिकता होती है। अगर कोई तेल बेचता है तो उसकी नैतिकता यह होती है कि वह तेल में मिलावट न करे। अगर वह मिलावट करता है और पकड़ा जाता है तो उसको सजा होती है। लेकिन मीडिया उद्योग में जिस तरह मिलावट हो रही है, उसके लिए कोई सजा नहीं है।
पुण्य प्रसून वाजपेयी ने संपादकों से साफ-साफ पूछा कि वे अब अपना स्टैंड तय करें, किस ओर हैं, बाजार के साथ हैं या फिर पत्रकारिता के साथ हैं। दोनों नहीं चलेगा। जैसा मंच देखा, वैसा स्टैंड लेना नहीं चलेगा। पुण्य ने कहा कि अगर कोई मिशन के साथ आज भी अखबार निकाल दे तो जिस तरह की पत्रकारिता हो रही है, वह बंद हो जाएगी।
संतोष भारतीय ने उन संपादक मालिकों को लताड़ा जो संपादकीय लिखकर समाज को नैतिकता व आदर्श सिखाते हैं लेकिन खुद के संस्थान में अनाचार फैलाए हुए हैं। संतोष भारतीय ने कहा कि अब खुद को पत्रकार कहते हुए शर्म आती है क्योंकि पत्रकारिता में लुच्चे और बेइमान लोग भर चुके हैं। उन्होंने पत्रकारों, संपादकों व मालिकों से खुद के अंदर झांकने की अपील की।
पंकज पचौरी ने मीडिया और बाजार की रिश्तेदारी में नैतिकता के फांसी पर लटक जाने के तर्क गिनाए। उन्होंने बाजार को स्वीकारने, चैनल चलाने जैसे खर्चीले उपक्रम के लिए बाजार पर निर्भर होने की बात समझाई। उन्होंने यह भी स्वीकार किया कि देश में दो तरह का मीडिया चल रहा है। एक पैसे वाला है तो दूसरा बिना पैसा वाला। पैसे वाले और पैसे के खेल में डूबे मीडिया से आप किसी नैतिकता व बदलाव की उम्मीद न करें। ये लोग खबर के नाम पर मनोरंजन कराएंगे और किसी भी बदलाव की मुहिम को एसएमएस पोल के यस या नो के बीच वोटिंग कराकर समाप्त कर देंगे।
कोवर्ट की संपादक सीमा मुस्तफा ने साफ तौर पर कहा कि बाजार ने सबको अपने शिकंजे में कर लिया है। मीडिया बिकाऊ हो चला है। नेता अब मीडिया की परवाह नहीं करते क्योंकि वे मीडिया को ही खरीद लेते हैं। इस कारण आज के दौर में वे पत्रकार भी नहीं रह गए हैं जो मिशन के तहत पत्रकारिता करते थे।
ये सब ऐसे ही चलता रहता है
पत्रकार जब आपस में गरमागरमी कर रहे थे, तभी एक बुजुर्ग दाढ़ीवाले श्रोताओं की अंग्रिम पंक्ति से उठे और हाल के किनारे-किनारे चलते हुए पीछे की ओर सरकने लगे। वे निकले और ठीक पिछवाड़े जहां चाय-समोसे-मिठाई के जरिए जलपान की व्यवस्था थी, की ओर बढ़ चले। शक्ल-सूरत से किसी मिशनरी पत्रकार की माफिक दिख रहे बाबा ने सैंडविच, समोसा, मिष्ठान और चाय को समवेत उठाया और खाना-निगलना शुरू कर दिया। उनसे उस एकांत में जब इस आयोजन के बारे में पूछा तो उन्होंने समोसा खाते हुए कहा कि किसी सबक-वबक पर बात हो रही है। सबक का मतलब तो लेसन होता है न, उन्होंने उल्टे सवाल दागा। बाबा से उनका परिचय पूछा तो उन्होंने अपना नाम विश्वनाथ और खुद को केरल का निवासी बताया। यह भी बताया कि वे चालीस साल से दिल्ली में रह रहे हैं। बाबा से यह पूछने पर कि क्या वे मीडिया से जुड़े हैं, उन्होंने कहा कि हां, जुड़े हैं। कई पत्रिकाओं में फ्रीलांस के बतौर लेख लिख चुका हूं। इस आयोजन की जानकारी किस तरह मिली, इस सवाल पर उनका कहना था कि मैं यहां आता रहता हूं क्योंकि यहां अक्सर कुछ न कुछ होता रहता है। मीडिया में पतन के सवाल पर उनका कहना था कि सब चलता है यहां, मंच पर बोलने से क्या बनता-बिगड़ता है। मीडिया में पतन है या नहीं, इस सवाल पर उन्होंने सैंडविच दबाते हुए पहले तो हां में सिर हिलाया, फिर सैंडविच निगलते हुए ना में, आखिर में तटस्थ भाव में हां-ना, दोनों में सिर हिलाने लगे। फिर बोले- ये सब ऐसे ही चलता रहता है। ट्रस्ट वालों ने ये सब कराया है। मैं तो पतन-उत्थान रोज सुन-सुन के थक चुका हूं। बाबा ने मिठाई, समोसा और सैंडविच दबाने के बाद चाय खत्म कर मुझे बॉय कहा और चल पड़े अगले ठिकाने की ओर।
पत्रकारों की गोष्ठी ने बाबा का थोड़ा दिमाग और थोड़ा पेट भरा, इसका संतोष उनके चेहरे पर दिखा।
कारपोरेट मीडिया हाउसों में काम करने वालों की हालत कहीं इस बाबा की तरह ही तो नहीं…..??? बाबा तो फिर भी चुप रहे, चुपचाप निकले और पेटपूजा कर चुपचाप चले गए। हम तो जिनका खा रहे हैं, उनका गा भी रहे हैं और गरिया भी रहे हैं, यह उलटबांसी कब तक ??
संवाद-2009 की कुछ तस्वीरें-