टिप्पणी (1) : मृणालजी की हिंदुस्तान से दुर्भाग्यपूर्ण विदाई का समाचार भड़ास4मीडिया से पता चला। उनके जाने पर मिश्रित प्रतिक्रिया भी आपके ही माध्यम से जानी। मृणालजी का मैं भी एक शिकार रहा हूं और मेरा इस्तीफानामा भी भड़ास4मीडिया पर प्रकाशित हो चुका है। एक निजी पत्र को भड़ास4मीडिया ने सार्वजनिक कर दिया था, फलतः जिसने भी वो पढ़ा होगा, वो यही सोच रहा होगा कि मैं उनके खिलाफ बयान दूंगा। जबकि सच्चाई इसके सर्वथा उलट है। सच तो ये है कि मृणालजी का जाना हिंदुस्तान के लिए दुर्भाग्यपूर्ण है ही, उससे भी ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण है उनके घोषित उत्तारधिकारी का नाम। समझ में नहीं आता है कि आखिर एचटी मैनेजमेंट के संपादक चयन का पैमाना क्या है?
क्या जिसको वे लेते हैं उसके बारे में पूरा होमवर्क भी करते हैं? क्या उसको पूरी तरह से ठोक बजा लेते हैं? अजयजी के मामले में भी वही हुआ और आज मृणालजी का भी यही हश्र किया गया। क्या मैनेजमेंट संपादक की रिपोर्ट कार्ड को भी कभी पढ़ने की जहमत उठाता है? अगर उठाता तो ना मृणालजी जातीं और ना ही शशिशेखर आते। जो निकाले गए और अकारण निकाले गए, उनका दर्द मैं समझता हूं। पर आप अखबार की प्रगित का भी तो लेखा-जोखा करोगे। और इस दृष्टि से निःसंदेह हिंदुस्तान की प्रगति निष्पक्षतः असाधारण कही जाएगी। बदल नहीं रहा हिंदुस्तान बल्कि बदल चुका है हिंदुस्तान। जो नए प्रयोग मृणालजी ने किए उनकी और आप आंख नहीं मूंद सकते। अखबार दर्शनीय ही नहीं, पठनीय भी हुआ उनके कार्यकाल में। और जो सज्जन उनका स्थान लेने जा रहे हैं, उन्होंने अपने कार्यकाल में जो किया, उसे किसी भी दृष्टि से सराहा नहीं जा सकता। अमर उजाला कभी भी उतना दर्शनीय नहीं रहा। टेक्नोलाजी में भी वो अग्रिम पंक्ति में कभी नहीं रहा पर उसकी एक पहचान सबसे अलग हट कर जो थी, वो थी पठनीयता। कंटेंट के मामले में कभी 30 साल पहले ऐसी ही साख आज की हुआ करती थी। पर आज कंटेंट और उसके चलते प्रसार में हुई गिरावट से शायद कोई इनकार करेगा। नए संपादकजी कभी आज की शोभा बढ़ाया करते थे और उस अखबार का कबाड़ा इन संपादक जी के जमाने में ही हुआ था। असफलता ही अगर सीढ़ी चढ़ने का माध्यम है तो हिंदी पत्रकारिता का भगवान ही मालिक है।
मैं मानता हूं कि मेरे जाने से हिंदी खेल पत्रकारिता के आंदोलन की हत्या हो गई। आज जिसे क्रिकेट एनालिस्ट होना चाहिए था, वो लखनऊ में बैठ कर बलात्कार और अपराध की खबरें लिख रहा है। पर इसमें दोष मृणालजी का कम, उनके सलाहकारों का ज्यादा है। मृणालजी की खेल ज्ञान शून्यता का लोगों ने लाभ उठाया। पर हम सभी ने देखा भी है कि खेल पन्नों को सुधारने का मृणालजी ने कम प्रयास नहीं किया था। दो पृष्ठ रखे, कवरेज का भी विस्तार हुआ। और समग्र रूप से भी आप देखें कि प्रोफाइल और लेआउट में काफी सकारात्मक बदलाव आया। सचमुच अजयजी के शुरू किए गए कार्यों को मृणालजी ने पूरी शिद्दत के साथ आगे बढ़ाया। किसी जमाने में हिंदुस्तान को लाटरी वाला अखबार कहा जाता था, हम ये कैसे भूल सकते हैं। पर मैनेजमेंट शायद ये भूल चुका है और ये भी कि अजयजी और मृणालजी का कितना अमूल्य अंशदान रहा है हिंदुस्तान की विकास यात्रा में। असल में, खेल तो एचटी के प्रबंधन का होता है। फंसते हैं बेचारे संपादक। पहले आंख मूंद लेना और फिर समय आने पर हिसाब साफ करना। इससे अखबार का कभी भला होने से रहा। नेतृ वर्ग को दरअसल दैन्यदिन के कामकाज में पूरी सहभागिता करनी होगी। अभी तो मजा में यही कहा जाता है कि अरे, मालिक या मालकिन हिंदी थोड़े ही पढ़ते हैं। वो तो उनका कोई मित्र या सहेली फोन कर किसी समाचार पर कुछ बोलता है तब वे रिएक्ट करते हैं। तो जहां पर ऐसी प्रवृत्ति होगी, वहां ऐसे ही संपादक जी आते और जाते रहेंगे।
मुझे याद है कि जब मैं अमर उजाला छोड़ रहा था तब अतुल जी ने मुझसे कहा था- ‘अरे, कहां जा रहे हैं पदमजी। वहां तो लोग आते हैं और जाते (निकाले) रहते हैं। वहां के कारपोरेट कल्चर में आप खुद को कैसे ढाल पाएंगे।’ मैंने इस बात का उल्लेख अपनी पुस्तक में भी किया है। अतुलजी बहुत सही थे। लेकिन मैं ये भी जानता हूं कि अतुलजी ने ये बात शशिशेखर से नहीं कही होगी। जहां तक मृणालजी का प्रश्न है तो एक कालमनिस्ट के रूप में वो कभी भी सर्वश्रेष्ठ नहीं लगी मुझे। मैं हर चंद कोशिशों के बावजूद कभी भी उनका रविवासरीय स्तंभ पूरा नहीं पढ़ सका। काफी गरिष्ठ होता है और उसे मेरे लिए पचा पाना असंभव रहा। पर एक संपादक के रूप में वो शानदार हैं, श्रेष्ठ हैं। उनके पास एक विजन यानि एक दृष्टि है। इससे उनका मुखर से मुखर आलोचक भी इनकार नहीं कर सकता।