प्रेस काउंसिल के सदस्य मनोनीत हुए भाजपा प्रवक्ता : भाजपा नेता प्रकाश जावड़ेकर भारतीय प्रेस परिषद (प्रेस काउंसिल आफ इंडिया) के सदस्य बनाए गए हैं। उनका मनोनयन उप राष्ट्रपति हामिद अंसारी ने किया। प्रकाश जनवरी 2011 तक प्रेस काउंसिल के सदस्य रहेंगे। 1978 में प्रिंट मीडिया की निगरानी के लिए गठित प्रेस काउंसिल आफ इंडिया अब तक दिखाने का दांत ही साबित हुआ है। एक्शन का अधिकार न होने से पीसीआई के निर्देशों, सलाहों को बड़े अखबार मानते नहीं। इसके चलते धीरे-धीरे पूरी मीडिया से ही प्रेस काउंसिल के नाम से कोई अच्छा-बुरा असर पड़ना बंद हो गया। हाल-फिलहाल, पैसे लेकर खबर प्रकाशित करने के मुद्दे पर पीसीआई के चेयरमैन जीएन रे ने जांच समिति बनाकर दोषी अखबारों के खिलाफ कार्रवाई की बात कही है। इससे मीडिया के पतन से विचलित बुद्धिजीवियों में एक उम्मीद जगी है। लेकिन पीसीआई द्वारा कोई कार्रवाई वाकई हो पाएगी, यह कह पाना मुश्किल है। प्रकाश जावड़ेकर, जो कि भाजपा के प्रवक्ता भी हैं, पीसीआई में जाकर कोई क्रांति कर पाएंगे, इस संस्था को धारदार बनाने में मदद कर पाएंगे, कम ही उम्मीद है। वजह है उनका मीडिया को मिलाकर चलने वाला स्वभाव, जो कि आमतौर पर पार्टी प्रवक्ताओं का होता है।
इस दौर में पीसीआई के सदस्य उस तरह के लोग बनाए जाने चाहिए जिन्हें खुद मीडिया से कुछ लेना-देना न हो ताकि वे निःस्वार्थ भाव से काम कर सकें और भारतीय समाज व लोकतंत्र से बदतमीजी कर रही बेलगाम मीडिया की नाक में नकेल डाल सके। कुछ-कुछ टीएन शेषन जैसा आदमी चाहिए प्रेस काउंसिल को और चुनाव आयोग जैसे अधिकार देने चाहिए प्रेस काउंसिल को।
मैंने प्रकाश जावड़ेकर से बात की। उनसे कुछ सवाल पूछे। वे घाघ राजनेता की तरह खोल से बाहर नहीं निकले। उनसे पूछा…
लोकसभा चुनाव के दौरान पैसे लेकर खबर छापने के मुद्दे पर आपका क्या स्टैंड हैं?
दोषी अखबारों के खिलाफ किस तरह की कार्रवाई होनी चाहिए?
पैसे लेकर खबर छापने जैसे संवेदनशील मसला आपके संज्ञान में है या नहीं?
पैसे लेकर खबर छापने जैसी घटनाएं न हों, इसके लिए किस तरह का तंत्र डेवलप करने की सोच रहे हैं?
इन सभी व ऐसे और कई सवालों के जवाब प्रकाश जावड़ेकर ने नहीं दिए। वे बार-बार यही कहते रहे- ‘इन सवालों, इन मुद्दों पर नो कमेंट। मैं कुछ नहीं बोलूंगा। आप चाहे कितना ही घुमा-फिराकर सवाल पूछ लीजिए, लेकिन मैं इन मुद्दों पर अभी टिप्पणी नहीं करूंगा।’ वे इतना बोले कि प्रेस परिषद में आने वाली शिकायतें को संज्ञान लेकर और जांच कराकर जल्द से जल्द निर्णय दिया जाए, यह कोशिश रहेगी। प्रेस की स्वतंत्रता पर कोई असर न पड़े, इसका खयाल रखेंगे। जावड़ेकर से जब मैंने ने जब पूछा कि आपका मीडिया का कोई करियर रहा है, मीडिया से कोई जुड़ाव रहा है तो उन्होंने बजाय जवाब देने के, कहा कि उनका बायोडाटा देख लिया जाए, सब मिल जाएगा।
प्रकाश जावड़ेकर रटे-रटाए जैसे इन बयानों के अलावा कुछ भी नहीं बोले। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि प्रकाश जावड़ेकर मीडिया के सामने मुंह बाए खड़े मुद्दों पर कितनी सक्रियता से काम करेंगे। जिस राजनेता का मीडिया को लेकर कोई विजन न हो, कोई कमेंट न हो, वह प्रेस काउंसिल जैसी जिम्मेदार संस्था में क्या कर पाएगा, कहा नहीं जा सकता। पहले नेताओं-राजनेताओं की हर चीज पर एक दृष्टि होती थी, एक विजन होता था, एक राय होती थी, एक आदर्श होता था। इनके सहारे वे लोकतंत्र के पायदानों, समाज, संस्थाओं के बारे में टिप्पणी करने से नहीं चूकते थे। इन्हें सुधारने व बेहतर बनाने से नहीं हिचकते थे। पर अब जबकि राजनीति और मीडिया, दोनों के लाभ के उपक्रम हो चुके हैं, प्रकाश जावड़ेकर जैसे नेता एक आधुनिक समझदार नेता की तरह थोड़े भी संवेदनशील मुद्दे पर नो कमेंट कहकर अपने प्रोफेशनल पालिटिशियन होने की जानकारी दे देते हैं, साथ ही यह भी संकेत दे देते हैं कि उनसे किसी क्रांतिकारी कार्य की उम्मीद कतई न की जाए।
वैसे, प्रकाश जावड़ेकर से कोई उम्मीद पालना ज्यादती है क्योंकि प्रेस काउंसिल में पहले से जो बड़े-बड़े सूरमा बैठे हैं, वही कौन-सी क्रांति कर रहे हैं। प्रेस काउंसिल के चेयरमैन सुप्रीम कोर्ट का एक रिटायर्ड जज होता है। पदेन सदस्य के रूप में लोकसभा और राज्यसभा अध्यक्ष व एक वरिष्ठ पत्रकार शामिल किए जाते हैं। इतने दिनों से ये दिग्गज कोई क्रांति कर पाने में सफल नहीं हो पा रहे हैं तो अभी मनोनीत किए गए प्रकाश जावड़ेकर से कोई उम्मीद कर लेना एक तरह से ज्यादती ही है। चुनाव के दौरान धन देकर खबरें छपवाने वाला मुद्दा ऐसा है कि अगर इस मामले में प्रेस काउंसिल दोषी अखबारों के खिलाफ सख्त से सख्त कार्रवाई नहीं कर पाता और भविष्य के लिए कोई पुख्ता तंत्र नहीं विकसित कर पाता तो इस देश में प्रेस काउंसिल सदा की तरह मृतप्राय अवस्था में ही जीवित रहेगा।