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कामरेडों को फिर रास न आई रिपोर्टिंग

अबकी “प्रथम प्रवक्ता’ में छपी रिपोर्ट को अनुचित बताया : संपादक रामबहादुर राय को पत्र भेजकर विरोध जताया : कामरेडों ने ‘मति भ्रष्ट’ मीडिया वालों को रास्ते पर लाने की तैयारी कर ली है. फिलहाल वे यह काम चिट्ठी लिख-लिख कर कर रहे हैं. इस काम को अंजाम देने के लिए कामरेड लोग जर्नलिस्ट यूनियन फार सिविल सोसाइटी (जेयूसीएस) के बैनर का इस्तेमाल करते हैं. इसी बैनर तले कई लोगों के हस्ताक्षरों से युक्त एक पत्र भड़ास4मीडिया के पास पहुंचा है. पत्र में ‘प्रथम प्रवक्ता’ मैग्जीन में छपी एक रिपोर्ट के सही-गलत के बारे में विस्तार से बताया गया है. पत्र लेखकों में जिन-जिन के नाम है, वे इस प्रकार हैं- अवनीश राय, लक्ष्मण प्रसाद, विजय प्रताप, विनय जायसवाल, ऋषि कुमार सिंह, शाहनवाज आलम, राजीव यादव, रवि राव, शिवदास, विवेक मिश्र, चंद्रिका, अरूण उरांव, प्रबुद्ध गौतम, अनिल, नवीन कुमार, पंकज उपाध्याय, दिलीप, संदीप दुबे, राघवेन्द्र प्रताप सिंह, देवाशीष प्रसून, राकेश कुमार, शालिनी वाजपेयी, सौम्या झा, पूर्णिमा उरांव, अर्चना मेहतो, अभिषेक रंजन सिंह, अरुण वर्मा, तारिक शफीक, मसीहुद्दीन संजरी, पीयूष तिवारी, अभिमन्यु सिंह, प्रकाश पाण्डेय, ओम नागर, प्रवीण मालवीय आदि. संपर्क के लिए दो मोबाइल नंबर भी दिए गए हैं जो इस प्रकार हैं- 09415254919, 09452800752. तो लीजिए, प्रथम प्रवक्ता में छपी रिपोर्ट पर कामरेडों की आपत्ति को पढ़िए…


<p align="justify"><font color="#003366">अबकी "प्रथम प्रवक्ता' में छपी रिपोर्ट को अनुचित बताया : संपादक रामबहादुर राय को पत्र भेजकर विरोध जताया :</font> कामरेडों ने 'मति भ्रष्ट' मीडिया वालों को रास्ते पर लाने की तैयारी कर ली है. फिलहाल वे यह काम चिट्ठी लिख-लिख कर कर रहे हैं. इस काम को अंजाम देने के लिए कामरेड लोग जर्नलिस्ट यूनियन फार सिविल सोसाइटी (जेयूसीएस) के बैनर का इस्तेमाल करते हैं. इसी बैनर तले कई लोगों के हस्ताक्षरों से युक्त एक पत्र भड़ास4मीडिया के पास पहुंचा है. पत्र में 'प्रथम प्रवक्ता' मैग्जीन में छपी एक रिपोर्ट के सही-गलत के बारे में विस्तार से बताया गया है. पत्र लेखकों में जिन-जिन के नाम है, वे इस प्रकार हैं- <font color="#000000">अवनीश राय, लक्ष्मण प्रसाद, विजय प्रताप, विनय जायसवाल, ऋषि कुमार सिंह, शाहनवाज आलम, राजीव यादव, रवि राव, शिवदास, विवेक मिश्र, चंद्रिका, अरूण उरांव, प्रबुद्ध गौतम, अनिल, नवीन कुमार, पंकज उपाध्याय, दिलीप, संदीप दुबे, राघवेन्द्र प्रताप सिंह, देवाशीष प्रसून, राकेश कुमार, शालिनी वाजपेयी, सौम्या झा, पूर्णिमा उरांव, अर्चना मेहतो, अभिषेक रंजन सिंह, अरुण वर्मा, तारिक शफीक, मसीहुद्दीन संजरी, पीयूष तिवारी, अभिमन्यु सिंह, प्रकाश पाण्डेय, ओम नागर, प्रवीण मालवीय आदि</font>. संपर्क के लिए दो मोबाइल नंबर भी दिए गए हैं जो इस प्रकार हैं- 09415254919, 09452800752. तो लीजिए, प्रथम प्रवक्ता में छपी रिपोर्ट पर कामरेडों की आपत्ति को पढ़िए...</p><hr width="100%" size="2" />

अबकी “प्रथम प्रवक्ता’ में छपी रिपोर्ट को अनुचित बताया : संपादक रामबहादुर राय को पत्र भेजकर विरोध जताया : कामरेडों ने ‘मति भ्रष्ट’ मीडिया वालों को रास्ते पर लाने की तैयारी कर ली है. फिलहाल वे यह काम चिट्ठी लिख-लिख कर कर रहे हैं. इस काम को अंजाम देने के लिए कामरेड लोग जर्नलिस्ट यूनियन फार सिविल सोसाइटी (जेयूसीएस) के बैनर का इस्तेमाल करते हैं. इसी बैनर तले कई लोगों के हस्ताक्षरों से युक्त एक पत्र भड़ास4मीडिया के पास पहुंचा है. पत्र में ‘प्रथम प्रवक्ता’ मैग्जीन में छपी एक रिपोर्ट के सही-गलत के बारे में विस्तार से बताया गया है. पत्र लेखकों में जिन-जिन के नाम है, वे इस प्रकार हैं- अवनीश राय, लक्ष्मण प्रसाद, विजय प्रताप, विनय जायसवाल, ऋषि कुमार सिंह, शाहनवाज आलम, राजीव यादव, रवि राव, शिवदास, विवेक मिश्र, चंद्रिका, अरूण उरांव, प्रबुद्ध गौतम, अनिल, नवीन कुमार, पंकज उपाध्याय, दिलीप, संदीप दुबे, राघवेन्द्र प्रताप सिंह, देवाशीष प्रसून, राकेश कुमार, शालिनी वाजपेयी, सौम्या झा, पूर्णिमा उरांव, अर्चना मेहतो, अभिषेक रंजन सिंह, अरुण वर्मा, तारिक शफीक, मसीहुद्दीन संजरी, पीयूष तिवारी, अभिमन्यु सिंह, प्रकाश पाण्डेय, ओम नागर, प्रवीण मालवीय आदि. संपर्क के लिए दो मोबाइल नंबर भी दिए गए हैं जो इस प्रकार हैं- 09415254919, 09452800752. तो लीजिए, प्रथम प्रवक्ता में छपी रिपोर्ट पर कामरेडों की आपत्ति को पढ़िए…


‘प्रथम प्रवक्ता’ के संपादक के नाम पत्र

समाचार पत्र पत्रिकाओं के लिहाज से देखें तो कथित नक्सली सीमा आजाद की गिरफतारी का कवरेज शायद ऐसी पहली घटना थी जिसमें पत्र पत्रिकाओं ने खुलकर तथ्यों और तर्कों के साथ पुलिसिया पटकथा की पोल खोली और पेशे से पत्रकार मासिक दस्तक की संपादक और मानवाधिकार संगठन पीयूसीएल की प्रदेश संगठन सचिव के पक्ष में खुलकर सामने आया। यह सीमा आजाद के पक्ष में तथ्यों और तर्कों की मजबूत मौजूदगी ही थी कि जनसत्ता, हिंदू, इंडियन एक्सप्रेस, तहलका, इंडिया टुडे, चौथी दुनिया, ईपीडब्लयू समेत राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में ही नहीं बल्कि इलाहाबाद के स्थानीय संस्करणों वाले अखबारों, सिर्फ दैनिक जागरण को छोड़कर सभी ने सीमा आजाद को लेकर संतुलित स्टोरी की और पुलिसिया पटकथा की कमजोर और हास्यास्पद कड़ियों को उजागर भी किया। पुलिसिया पटकथा कितनी फर्जी थी इसकी तस्दीक इस बात से भी होती है कि लोवर कोर्ट और सेशन कोर्ट से भी सीमा आजाद और उनके साथ पकड़े उनके पति विश्वविजय को पूछताछ के लिए रिमांड पर लेने की पुलिसिया अर्जी को तीन बार कोर्ट ने खारिज कर दिया।

ये बातें हमने इसलिए बतायी की रामबहादुर राय के संपादन में निकलने वाली पाक्षिक पत्रिका प्रथम प्रवक्ता के एक अप्रैल के अंक में रुपेश पांडे की स्टोरी ‘पावं पसारता लाल गलियारा’ संभवतः ऐसी पहली पत्रिका है जिसने अपनी विश्वसनियता को दांव पर लगाते हुए पूरी बेशर्मी से पुलिसिया पटकथा को वैधता देने की कोशिश की है। यह बात और है कि इस प्रयास में पत्रिका काफी हास्यास्पद बन गयी है। मसलन अपनी अधिकतर स्टोरी में बजरंग दल और विश्व हिंदू परिषद के नेताओं को कोट करने वाल रूपेश पांडे लिखते हैं ‘सूत्र बताते हैं कि पूर्वांचल में काम कर रहे वामपंथ प्रभावित तमाम किसानों और मजदूरों के स्वंय सेवी संगठन नक्सलियों के सहयोगी हैं। देवरिया,आजमगढ़ और गाजीपुर में काम कर रही किसान संघर्ष समिति और डीवाईएफआई जैसे जनवादी संगठन नक्सलियों के सामाजिक फ्रंटल संगठन हैं।’ खबर की यह पंक्तियां पत्रकार के मानसिक दिवालिएपन और वैचारिक पूर्वाग्रह को समझने के लिए पर्याप्त हैं। अव्वल तो यह कि पूर्वांचल में सक्रिय अधिकतर वामपंथी संगठन भाकपा, माकपा और भाकपा माले जैसे पार्टियों से संबद्ध हैं और बकायदा चुनाव लड़ते हैं और माओवादी लाइन की स्पष्ट मुखालफत करते हैं। लेकिन बजरंगियों को सूत्र मानने के चलते उन्होंने सभी वामपंथियों को माओवादी बता दिया है। ठीक उसी तरह जैसे संघियों को हर मुसलमान आतंकवादी नजर आता है। हद तो तब हो जाती है जब इस धुन में वो सीपीएम के किसान संगठन किसान संघर्ष समिति और उसके यूथ फ्रंट डीवाईएफआई को भी माओवादियों का फ्रंटल संगठन बता देते हैं। अब इस बजरंगी पत्रकार को कैसे समझाया जाय कि सीपीएम और माओवादियों में क्या फर्क है और क्यों वे एक दूसरे के खिलाफ पश्चिम बंगाल में लंबे समय से लड़ रहे हैं। और अगर समझाया भी जाय तो कलम को त्रीशूल समझकर चलाने वाले पांडे जी की ‘बेचारी संघी बुद्धी’ इसे कैसे समझ पाएगी।

इसी तरह पांडे जी आगे लिखते हैं ‘सूत्र बताते हैं कि इन क्षेत्रों के माफिया मुख्तार अंसारी के गुर्गे बाबू उर्फ अताउर्रहमान के भी नक्सलियों से संबंध हैं। यहां यह जानना रोचक होगा कि मुख्तार अंसारी के कथित गुर्गे बाबू उर्फ अताउर्रहमान का माओवादीयों से संबंध होने की प्लांटेड खबर पहली बार 14 फरवरी 2010 को इलाहाबाद के दैनिक जागरण के प्रथम पृष्ठ पर आशुतोष तिवारी की बाई लाइन ‘बाबू की बंदूक और माओवादियों का निशाना’ शीर्षक से छपी थी। जिस पर तथ्यों और तर्कों के साथ हमारे संगठन जेयूसीएस ने आपत्ती दर्ज करते हुए अखबार के संपादक के नाम खुला पत्र लिखा था और खबर के फर्जी, सांप्रदायिक और पूर्वाग्रह से प्रेरित होने के सुबूत रखे थे। जिसका असर यह हुआ था। अखबार में इस तरह की रिपोर्टें छपनी तत्काल रुप से कुछ समय के लिए बंद हो गयी थी।

इसी तरह रुपेश पांडे लिखते हैं ‘इलाहाबाद के पठारी इलाकों यानी शंकरगढ़, जसरा, बरगढ़ और घूरपुर में नक्सलियों के तीन गुट सक्रिय हैं। घूरपुर में बालू खनन माफिया का विरोध कर रहे संगठनों के बीच घुसपैठ बनाकर नक्सली उसे नक्सलवादी संघर्ष का रुप दे रहे हैं। तो जसरा, शंकरगढ़ में भाकपा माले समर्थित लाल सेना सक्रिय है।’ खबर के विश्लेषण पर आने से पहले इस क्षेत्र की आर्थिक राजनीतिक समीकरण को जान लेना जरुरी है। घूरपुर, शंकरगढ़, जसरा और बरगढ़ ब्लाक यमुना नदी के तटवर्ती क्षेत्र हैं जहां एक और भुखमरी के कगार पर आदिवासी और मल्लाह जाति के लोग हैं जिनके जीवन का आर्थिक आधार नदी, बालू और पठार पर पहाड़ तोड़ना है तो वहीं दूसरी ओर यह पूरा क्षेत्र बालू और पत्थर के अवैध खनन के लिए भी मुफीद है। जिस पर मौजूदा समय में बसपा के सांसद कपिल मुनि करवरिया का एक क्षत्र राज है। करवरिया जी अखिल भारतीय ब्राह्मण महासभा के राष्ट्ीय अध्यक्ष हैं तथा बसपा में आने से पहले भाजपा में थे और इन्हें ही इस क्षेत्र में बजरंग दल खड़ा करने का श्रेय भी जाता है। वहीं इनके एक भाई भाजपा से अभी-अभी विधायक हुए हैं। करवरिया के अवैध बालू खनन जिसका सलाना टर्न ओवर करोड़ों का है के खिलाफ वहां के आदिवासी और मल्लाह जाति के लोग लंबे समय से कम्युनिस्ट पार्टियों के नेतृत्व में आंदोलनरत हैं। जिस पर इलाहाबाद हाईकोर्ट ने भी तल्ख टिप्पड़ी करते हुए माफिया के खिलाफ कारवाई और अवैध रुप से चल रही बालू मशीनों को तत्तकाल रुप से बंद करने का आदेश दे चुकी हैं। न्यायालय में अपनी हार और सड़क पर गरीब-गुरबों का कम्युनिस्ट पार्टियों के नेतृत्व में बढ़ती जन गोलबंदी से निपटने का रास्ता उन्होंने इस पूरे आंदोलन को नक्सलवाद के हव्वे से जोड़ने में निकाला। जिसमें मीडिया का एक हिस्सा खास कर ब्राह्मण उनका सबसे विश्वसनीय सहयोगी बनकर उभरा है। आज स्थिति इतनी हास्यास्पद हो चुकी है कि भाकपा माले के जनसंगठनों नेतृत्व में चल रहे आंदोलनों की खबरें और फोटो के कैप्शन में संगठन के नाम के बजाय लाल सलाम ही लिखा जाता है। जबकि इनके नेता कई बार अखबारों के प्रति अपनी आपत्ती जताते हुए कह चुके हैं कि उनके नाम पूरे आधिकारिक पहचान के साथ लिखा जाय न कि लाल सलाम। बावजूद इसके तमाम अखबार उनके आंदोलनों को लाल सलाम, नक्सल और माओवादी लिखने की मुहीम चलाए हुए हैं। जिसका असर यह हुआ है कि शहर में नक्सलवाद और माओवाद के काल्पनिक भय का माहौल व्याप्त है जिसकी आड़ में पुलिस किसी को भी जो इस आंदोलन का समर्थक है को माओवादी या नक्सली बताकर उत्पीड़ित कर रही है। इस तरह पत्रकारों का एक हिस्सा न र्सिफ काल्पनिक माओवादी हैव्वा खड़ा कर आम जनता में असुरक्षा बोध पैदा कर रहे हैं बल्कि इस आड़ में बहुत सुनियोजित तरीके से बसपा सांसद की आर्थिक हितपूर्ति में भी मदद पहुंचाते हैं।

रुपेश पांडे की इस रिर्पोट को इसी नजरिए से समझा जा सकता है। रुपेश पांडे एक जगह लिखते हैं ‘अलबत्ता गुटबाजी और वर्चस्व की लडाई जरर बढ़ी। इसका ही परिणाम था कि कई नक्सली कमांडर आपसी मुठभेड़ में मारे गए। कमलेश चौधरी और रामवृक्ष की हत्या ऐसी ही घटना है।’ यह खबर कितनी फर्जी है इसको इसी से समझा जा सकता है कि कमलेश चौधरी को पुलिस के मुताबिक सोनभद्र में नौ नवंबर को कथित मुठभेड़ में मारा गया था। जिसकी खबर दूसरे ही दिन सभी अखबारों में छपी थी। लेकिन बावजूद इसके रुपेश जी इसे नक्सलियों का आपसी संघर्ष बता रहे हैं। हालांकि यहां यह स्पष्ट करना महत्वपूर्ण है कि कमलेश चौधरी फर्जी मुठभेड़ पर पीयूसीएल ने गंभीर सवाल उठाए थे। जिसके तथ्यों और तर्कों को आधार बनाकर जनसत्ता, हिंदुस्तान, इंडियन एक्सप्रेस, टाइम्स ऑफ इंडिया, तहलका, डीएनए तक ने कमलेश चौधरी की फर्जी मुठभेड़ पर सवाल उठाए। बहरहाल रुपेश पांडे की जो मानसिक और वैचारिक बनावट है उसमें हम यह उम्मीद नहीं कर सकते कि वे इस फर्जी मुठभेड़ पर उठ रहे सवालों को समझ पाएं लेकिन कम से कम उनसे यह उम्मीद तो जरुर की जा सकती थी, जिसे पुलिस और कुछ अखबार पुलिस मुठभेड़ बता रहे हों उसे तो वे आपसी संघर्ष न कहें।

जर्नलिस्ट यूनियन फॉर सिविल सोसाइटी (जेयूसीएस) के मीडिया मानिटरिंग सेल द्वारा जनहित में जारी

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