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प्रभात खबर के अनुरोध को एसएन विनोद ने स्वीकारा

एसएन विनोदप्रभात खबर की शुरुआती कहानी एसएन विनोद ने अपने ब्लाग के जरिए प्रभात खबर के कर्मियों को सुनाई : रांची (झारखंड) से दैनिक प्रभात खबर का एक आग्रह पत्र मिला था : ”सेवा में, श्री. एस.एन. विनोद, संस्थापक संपादक,  प्रभात खबर, सर, आपका लगाया पौधा यानी प्रभात खबर अब 25 साल का हो रहा है. मै खुद आपकी खुशी को महसूस कर रहा हूं. 25 साल पूरा होने पर रांची में समारोह का आयोजन किया जा रहा है. 15 अगस्त को रांची क्लब में प्रभात खबर परिवार के तमाम सदस्य इस मौके पर उपस्थित रहेंगे. प्रयास किया जा हा है कि प्रभात खबर के पुराने सदस्य भी इस मौके पर मौजूद रहें. आपकी मौजूदगी के बगैर यह कार्यक्रम अधूरा रहेगा. आपसे विनम्र आग्रह है कि अपने व्यस्त कार्यक्रम से समय निकालकर 15 अगस्त 2009 को रांची मेन रोड स्थित रांची क्लब में शाम में आने का कष्ट करें. प्रभात खबर परिवार के सदस्य आपकी जुबान से उस कहानी को सुनना चाहते हैं कैसे आपने रांची से प्रभात खबर प्रकाशित करने की योजना बनाई थी, फिर बाद में कैसे मूर्त रूप दिया. हम आपके आने तक प्रतीक्षा करेंगे. सादर.

आपका विश्वासी,

अनुज कुमार सिन्हा,

वरिष्ठ संपादक (झारखंड),

प्रभात खबर, रांची”

एसएन विनोद

एसएन विनोदप्रभात खबर की शुरुआती कहानी एसएन विनोद ने अपने ब्लाग के जरिए प्रभात खबर के कर्मियों को सुनाई : रांची (झारखंड) से दैनिक प्रभात खबर का एक आग्रह पत्र मिला था : ”सेवा में, श्री. एस.एन. विनोद, संस्थापक संपादक,  प्रभात खबर, सर, आपका लगाया पौधा यानी प्रभात खबर अब 25 साल का हो रहा है. मै खुद आपकी खुशी को महसूस कर रहा हूं. 25 साल पूरा होने पर रांची में समारोह का आयोजन किया जा रहा है. 15 अगस्त को रांची क्लब में प्रभात खबर परिवार के तमाम सदस्य इस मौके पर उपस्थित रहेंगे. प्रयास किया जा हा है कि प्रभात खबर के पुराने सदस्य भी इस मौके पर मौजूद रहें. आपकी मौजूदगी के बगैर यह कार्यक्रम अधूरा रहेगा. आपसे विनम्र आग्रह है कि अपने व्यस्त कार्यक्रम से समय निकालकर 15 अगस्त 2009 को रांची मेन रोड स्थित रांची क्लब में शाम में आने का कष्ट करें. प्रभात खबर परिवार के सदस्य आपकी जुबान से उस कहानी को सुनना चाहते हैं कैसे आपने रांची से प्रभात खबर प्रकाशित करने की योजना बनाई थी, फिर बाद में कैसे मूर्त रूप दिया. हम आपके आने तक प्रतीक्षा करेंगे. सादर.

आपका विश्वासी,

अनुज कुमार सिन्हा,

वरिष्ठ संपादक (झारखंड),

प्रभात खबर, रांची”

पत्र पाकर खुशी तो हुई किन्तु साथ ही एक आशंका ने भी जन्म लिया. ‘इतिहास लिखवाए जाने’ के वर्तमान काल में ‘सच’ को सामर्थ्यवानों से मिल रही चुनौतियां अब कोई आश्चर्य पैदा नहीं करती. कड़वा सच यह भी कि ऐसे ‘लिखवाए गये इतिहास’ के समर्थन में स्वार्थियों की एक फौज खड़ी हो जाती है. निज स्वार्थपूर्ति की भूख से प्रेरित होते हैं ये लोग. भूतकाल के सच को वर्तमान के झूठ से ढंकना इनकी मजबूरी होती है. मीडिया जगत पर भी इसकी छाया स्पष्टत: परिलक्षित है. खैर, ‘प्रभात खबर’ परिवार के सदस्य मेरी जुबान से सुनना चाहते थे प्रभात खबर के प्रकाशन की मेरी योजना और फिर उसे मूर्त रूप दिये जाने की गाथा को. किन्ही कारणों सें रूबरू ऐसा संभव नहीं हो पाया. किन्तु आज इतिहास रच रहे प्रभात खबर परिवार के सदस्यों की इच्छा की पूर्ति करना मेरा कर्तव्य है, धर्म भी. इस हेतु अपने ‘ब्लॉग’ का सहारा ले रहा हूं.


14 अगस्त 1984! ठीक ही कहते हैं कि समय के पंख नहीं होते. 25 वर्ष बीत गए. लेकिन लगता है अभी कल ही की बात है जब रांची (झारखंड) से दैनिक प्रभात खबर का प्रकाशन आरंभ किया था. रांची क्लब के प्रांगण में देश के सुख्यात पत्रकार अंग्रेजी दैनिक ‘स्टेट्समेन’ के संपादक (स्व.) एस. सहाय और तत्कालीन केंद्रीय मंत्री एन.के.पी. साल्वे के हाथों प्रभात खबर का लोकार्पण संपन्न हुआ था. वस्तुत: तब एक पत्रकारीय स्वप्न की पूर्ति की दिशा में प्रभात खबर परिवार ने कदमताल किया था. स्वप्न था, एक ऐसे पाठकीय मंच के निर्माण का जिस पर पाठक और पत्रकार संयुक्त रूप से बगैर किसी पूवाग्रह के निडरतापूर्वक सत्य के पक्ष में चिंतन-मनन-लेखन कर सकें. समाज को सूचना के साथ ही शिक्षित करने के अखबारी दायित्व को हमने चिन्हित किया था. तब मेरे अचेतन में स्वत: कहीं एक स्वप्न सृष्टि का निर्माण हो रहा था. हां, स्वत:! छपाई मशीन की खड़खड़ाहट के बीच जन्म और पत्रकारीय पारिवारिक पार्श्व! पत्रकारीय मूल्य के रक्षार्थ सब कुछ कुर्बान कर देने वालों के साए में पला-बढा़! प्रभात खबर को पूंजी के दबाव से बिल्कुल मुक्त मंच बनाने का स्वप्न हमने देखा था. प्रभात खबर परिवार के सभी सदस्यों ने, अनेक बाधाओं के बावजूद, सफलतापूर्वक इस सोच को अंजाम दिया. प्रकाशन के आरंभिक छ: माह में ही प्रभात खबर ने न केवल दक्षिण बिहार (झारखंड) बल्कि अविभाजित बिहार के प्राय: सभी हिस्सों के साथ-साथ राष्ट्रीय स्तर पर एक अलग पहचान बना लिया था. कलकत्ता (कोलकत्ता), उत्तर प्रदेश, त्रिवेन्द्रम और दिल्ली में भी प्रभात खबर की मांग लगातार बढ़ने लगी थी, तब पत्रकारिता के प्रकाश स्तंभ नवभारत टाइम्स के प्रधान संपादक (स्व.) राजेंन्द्र माथूर ने टिप्पणी की थी ”….. हिन्दी पत्रकारिता को विनोदजी की यह (प्रभात खबर) एक अमूल्य- क्रांतिकारी देन है.” यह संभव हो पाया था युवा जुझारू पत्रकारों की सपर्पित टीम के कारण. समर्पण ऐसा कि आरंभिक दिनों में संपादकीय सहयोगियों ने ‘हॉकर’ की तरह प्रभात खबर के अंक रांची शहर में बेचे. इस संदर्भ में एक उदाहरण देना चाहूंगा.

हटिया औद्योगिक क्षेत्र में प्रभात खबर की एजेंसी नहीं मिल पा रही थी, ‘रांची एक्सप्रेस’ और दैनिक ‘आज’ ही वहां बिकते थे. एक दिन अल सुबह अखबार छपने के बाद अखबर के बंडल मैंने अपने गाड़ी में लादे. वरिष्ठ संपादकीय सहयोगी विजय भास्कर, रायतपन भारती और किसलय मेरे साथ गाड़ी में बैठ हटिया क्षेत्र में पहुंचे. एक पेड़ के नीचे गाड़ी को पार्क किया और हम चारों प्रभात खबर की प्रतियां हाथों में लेकर चार अलग-अलग स्थानों पर खड़े हो गए, तब एचईसी की विभिन्न इकाइयों के प्रथम पाली में ड्यूटी के लिए कर्मचारी जा रहे थे. सुबह 5-5:30 बजे! अंधेरा छंट रहा था. जब हम चारों ने हॉकर की तरह प्रभात खबर के अंक बचे. यह सिलसिला लगभग एक सप्ताह चला. पाठकों के बीच प्रभात खबर की मांग बढ़ी और उस क्षेत्र में एजेंसी शुरू हो गई. तपन भारती ने तो सुबह-सुबह रांची रेलवे स्टेशन पर जाकर प्रभात खबर के अंक बेचे. एक अकल्पनीय जुनून सभी संपादकीय सहयोगियों पर सवार था. पाठकों के बीच प्रभात खबर की मांग और लोकप्रियता के आलम की एक रोचक जानकारी उन दिनों बिहार के एक मंत्री शंकरदयाल सिंह ने दी थी. एक दिन सुबह-सुबह छपरा शहर से वह गुजर रहे थे. चौराहे के निकट भीड़ देखकर उन्होंने गाड़ी रुकवाई. ड्राइवर को कारण जानने को भेजा, ड्राइवर ने आकर बताया कि ‘ अरे कुछ नहीं, रांची के प्रभात खबर का बंडल खुल रहा है. ग्राहकों की भीड़ है.’ 31 अक्टूबर 1984 को प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद उत्पन्न दंगों के कारण शहर में कर्फ्यू लग गया था. अखबार के वितरण में कठिनाई हो रही थी. तब अखबार छपने के बाद मैं अपने सहयोगियों के साथ अपनी गाड़ी में प्रभात खबर के बंडल को लेकर मुहल्ले-मुहल्ले में जाकर एजेंटों/हॉकरों के घर पर पहुंचा दिया करता था. ‘कर्फ्यू पास’ का भरपूर उपयोग तब मैंने किया था. एजेंट/हॉकर अपने-अपने मुहल्ले में प्रभात खबर का वितरण कर दिया करते थे. जबकि अन्य अखबार इस मामले में पिछड़ गए थे.

ज्ञानरंजन को कांग्रेस पार्टी ने रांची शहर से उम्मीदवार बनाया था. ज्ञानरंजन की उम्मीदवारी का घोर विरोध कांग्रेस पार्टी के अंदर शुरू हो गया था. कांग्रेस के एक अति सक्रिय नेता जगन्नाथ चौधरी विद्रोही उम्मीदवार के रूप में खड़े हो गए. यह दोहराना ही होगा कि चौधरी को रांची में कांग्रेस संगठन का पूरा समर्थन प्राप्त था. मेरे एक घनिष्ट मित्र विजयप्रताप सिंह के छोटे भाई छात्र नेता रंजीत बहादुर सिंह स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में चुनावी मैदान में जमे हुए थे. चुनाव में रंजीत की मौजूदगी के कारण ज्ञानरंजन, जगन्नाथ चौधरी और समीपस्त हटिया विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र से जनता पार्टी के उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ रहे सुबोधकांत सहाय (संप्रति केन्दीय मंत्री) परेशानी में पड़ गए थे. क्योंकि प्राय: सभी युवा कार्यकर्ता रंजीत के लिए ही काम कर रहे थे. कांग्रेस संगठन का विरोध और विद्रोही जगन्नाथ चौधरी के प्रभाव के कारण ज्ञानरंजन की स्थिति अत्यंत ही नाजुक हो चली थी. मुझ पर दबाव पड़ा कि मैं अपने प्रभाव का उपयोग करते हुए रंजीत बहादुर सिंह को उम्मीदवारी वापस लेने के लिए तैयार कर दूं. दबाव इतना कि एक दिन पटना से तत्कालीन डीआईजी दिनेश नंदन सहाय (संप्रति राज्यपाल त्रिपुरा) का फोन आया कि रंजीत को बैठाओ नहीं तो ज्ञानरंजन नहीं टिकेंगे. पटना के कुछ पत्रकार मित्र भी इस संबंध में लगातार मुझसे संपर्क में थे. अंतत: अपने संबंधों को दांव पर लगाते हुए, रंजीत के मित्रों-संबंधियों के विरोध के बावजूद चुनाव से हटने के लिए रंजीत को तैयार कर लिया. केंन्द्रीय नेता टी. अंजैया और जी. एल. डोगरा, रंजीत की उम्मीदवारी वापसी के साक्षी बने. रंजीत न केवल चुनावी मैदान से हटे बल्कि ज्ञानरंजन के पक्ष में सक्रिय सहयोग दिया. ज्ञानरंजन चुनाव में विजयी हुए. बता दूं कि ज्ञानरंजन की जीत में निर्णायक भूमिका रंजीत के प्रभाव वाले क्षेत्रों ने निभायी. सुबह 4 बजे चुनाव परिणाम की घोषणा के बाद प्रमाणपत्र हाथों में लिए ज्ञानरंजन की अश्रुयुक्त आंखें बहुत कुछ कह रही थीं. उस दिन से हमारी घनिष्टता बढी. प्राय: प्रतिदिन की मुलाकात के दौरान चर्चा का विषय समाचारपत्र प्रकाशन भी होता था.

केन्द्रीय सत्ता से निकटता का हवाला देते हुए ज्ञानरंजन भरपूर मदद का आश्वासन दिया करते थे. लेकीन मैं आश्वस्त नहीं हो पाता था. इस बीच 1982 के जनवरी माह में मैं समाचार एजेंसी समाचार भारती का संपादक सह क्षेत्रीय प्रबंधक बन कर कलकत्ता चला गया. ज्ञानरंजन अक्सर वहां आया करते थे. एक दिन मेरे मित्र डा. हरी बुधिया की मौजूदगी में ज्ञानरंजन मिलने आए. रांची के प्रतिष्ठित बुधिया परिवार के सदस्य हरी बुधिया से तब मैंने ज्ञानरंजन की औपचारिक मुलाकात करवाई. नियति ने ऐसे संयोग पैदा किए की डा. बुधिया ‘भामा शाह’ की भूमिका में मदद को सामने आ गए. मेरे और ज्ञानरंजन के बीच तय समझौते के आधार पर एक कंपनी ‘विज्ञान प्रकाशन प्रा.लि.’ के नाम से बनाई गई इसमें मैं, मेरी पत्नी शोभा, ज्ञानरंजन और उनकी पत्नी बिभा रंजन साझेदार/निवेशक बने. तय यह पाया कि विज्ञान प्रकाशन के अंतर्गत प्रिटिंग प्रेस की स्थापना की जाएगी और दैनिक अखबार का स्वामित्व मेरा रहेगा. इसी समझौते के अनुरूप दैनिक प्रभात खबर का रजिस्टर्ड कार्यालय हरमूर कॉलोनी स्थित मेरा निवास बना और विज्ञान प्रकाशन का रजिस्टर्ड कार्यालय वर्दवान कंपाउंड स्थित ज्ञानरंजन का आवास बना. बाद में मैंने अपनी और से ज्ञानरंजन को प्रभात खबर में पार्टनर बना लिया. ज्ञानरंजन अपनी और से इसके लिए तैयार नहीं थें किन्तु इस आधार पर कि जब एक साथ उपक्रम को आगे बढ़ाया जा रहा है, मैंने उन्हे तैयार किया.

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प्रभात खबर का नामकरण : दिल्ली स्थित प्रेस रजिस्ट्रार के यहां मैंने अनेक टाइटल भेजे थे, लेकिन सभी अस्वीकृत कर दिए गए. एक दिन मैं स्वयं दिल्ली रजिस्ट्रार से मिलने पहुंचा. मैं चाहता था कि टाइटल में ‘समाचार’ शब्द आए लेकिन रजिस्ट्रार इसके लिए तैयार नहीं थे. वे बार-बार जोर दे रहे थे कि अंग्रेजी-हिन्दी का कोई मिश्रण बनाया जाए लंबी माथापच्ची के बाद अचानक मेरे मस्तिष्क में हिन्दी-उर्दू का मिश्रण ‘प्रभात खबर’ कौंधा. रजिस्ट्रार तैयार हो गये. इस प्रकार ‘प्रभात खबर’ का टाइटल लेकर मैं रांची वापस लौटा. मुझे आज भी अ’छी तरह याद है कि प्राय: सभी मित्रों ने प्रभात खबर टाइटल का तब मजाक उडाया था. हिन्दी-उर्दू के मिश्रण की बात उनके गले नहीं उतर रही थी. नाम बदलने के सुझाव भी आए. लेकिन मैं ‘प्रभात खबर’ के नाम पर अडिग रहा. मैं इस मत पर अड़ा रहा कि अंतत: प्रभात खबर लोकप्रिय होगा और एक ट्रेंड सेटर बनेगा. ‘खबरों में आगे-खबरों के पीछे’, ‘अब नगर की हर सुबह, नई खबरों की सुबह’, ‘एक अखबार सारा संसार’ आदि स्लोगन खूब प्रचारित किए गए. संभवत: ‘खबर’ शब्द का भरपूर प्रचलन प्रभात खबर के साथ ही शुरू हुआ. प्रभात खबर के संवाददाताओं को ‘प्रखर संवादक’ के रूप में एक अलग नई पहचान दी गई.

संपादकीय सहयोगी : संपादकीय सहयोगियों की नियुक्ति के लिए रांची, पटना और दिल्ली में साक्षात्कार लिए गए. हर आवेदकों को लिखित परिक्षाओं से गुजरना पड़ा. योग्यता के आधार पर पूरे देश से छांट-छांट कर नियुक्तियां की गई. उल्लेखनीय है कि तब स्थानीय के रूप में सिर्फ दो लोग कल्याण कुमार सिन्हा और अविनाश चंद्र ठाकूर संपादकीय सहयोगी बने थे. अन्य बाद में जुड़े. शेष सभी संपादकीय सहयोगी रांची के बाहर के थे. इसे लेकर स्थानीय पत्रकार नाराज भी हुए. एक जुझारू रचनात्मक टीम तैयार हुई थी. भूख और नींद दोनों को भुला सभी सहयोगियों ने प्रभात खबर की प्रगति में अतुलनीय योगदान दिया. तब मुंबई से प्रकाशित अंग्रेजी साप्ताहिक ‘ब्लिट्स’ के सुख्यात कार्टूनिस्ट लोकमान्य भी ब्लिट्स छोड़कर प्रभात खबर से जुड़े थे. टेक्निकल स्टाफ की टीम में करंट (मुंबई) और टेलीग्राम (कलकत्ता) के सहयोगी जुड़े. उल्लेखनीय है कि प्रभात खबर के प्रकाशन के साथ ही रविवार (कलकत्ता) के संपादक सुरेंद्र प्रताप सिंह, नवभारत टाइम्स (दिल्ली) के दीनानाथ मिश्र और नवभारत टाइम्स (पटना) के अरूण रंजन, अंबिकानंद सहाय (स्टेट्समन), मोहन सहाय (स्टेट्समन), और डा.वी.पी. शरण (पेट्रियॉट) का भरपूर सहयोग मिला. तब हमने पूरे देश में संवाददाताओं का एक नेटवर्क तैयार किया था. सुरेंद्र प्रताप सिंह ने तो प्राय: प्रत्येक राज्यों के अपने प्रतिनिधियों को प्रभात खबर में लिखने के लिए विशेष अनुमति प्रदान कर दी थी. संभवत: प्रभात खबर तब अकेला क्षेत्रीय अखबार था, जिसके संवाददाता पूरे देश में फैले थे. प्रसार और विज्ञापन विभाग में भी प्रतिष्ठित-अनुभवी व्यक्तियों का योगदान मिला.

भवन निर्माण : कोकर इंडस्ट्रियल एरिया में जमीन के आवंटन के बाद हमने अपने आर्किटेक्ट मित्र मयुख विरनवे की मदद ली थी. मित्रों का भरपूर सहयोग मिला. यहां अपने मित्र श्रीहरि मुरारका, विजयप्रताप सिंह और अमरेश वर्मा का उल्लेख नहीं करना अकृतज्ञता होगी. मालूम हो कि मुरारका ने अपने रोलिंग मिल से भवन के लिये पूरे लोहे के छड़ की आपूर्ति की थी. विजयप्रताप सिंह ने अपने भट्टे से ईंट और उनके भाई अशोक सिंह द्वारा रेत की आपूर्ति कराई थी. अमरेश के पास सीमेंट की एजेंसी थी. इन सभी ने सामग्रियों की आपूर्ति बगैर किसी अग्रिम भुगतान के किया था. मुरारका और विजय प्रताप सिंह ने तो छड़, रेत और ईंट के लिए पैसे लिए भी नहीं. कहने का तात्पर्य यह कि उस समय प्रभात खबर के पक्ष में मित्रों ने तन-मन-धन से योगदान दिया था.

स्मृतियां पूर्व निर्धारित और स्वनिर्मित स्थितियों से गुजरती हुई नियति को चिन्हित करती चली जाती हैं. प्रभात खबर के प्रकाशन की कल्पना, उसे आकार दिया जाना और फिर उससे पृथक होने की घटना नियति से जुड़ी एक ऐसी गाथा है जिसे अल्पशब्दों में बांधना कठिन है. आज जब प्रभात खबर प्रकाशन के 25 वर्ष पूरे कर रहा है, तब उन दिनों की अनेक यादें कड़वे, मीठे रूप में सामने है. ‘प्रभात खबर मेरा चौथा बेटा…..’ शीर्षक के अंतर्गत ‘भडास4मीडिया डॉट कॉम’ पर साल के पहले दिन 1 जनवरी 2009 को प्रकाशित मेरे साक्षात्कार में कुछ बातों की चर्चा है. प्रभात खबर के प्रकाशन से लेकर अब तक की अपनी पत्रकारीय यात्रा की गाथा शीघ्र प्रकाशित ”दंश” नामक पुस्तक में मिलेगी. पत्रकारीय मूल्यों की उंचाई और क्षरण से लेकर विश्वसनीयता के वर्तमान के संकट के कारणों की पड़ताल इस पुस्तक में की गई है. आज तो मैंने प्रभात खबर परिवार के सदस्यों के आग्रह को स्वीकार करते हुए इसकी प्रकाशन से जुड़ी गाथा के कुछ अंश ही यहां दे पाया. अवसर विशेष की गरिमा को देखते हुए ऐसा करने पर मजबूर हूं. प्रभात खबर के तमाम सदस्यों व पाठकों को मेरी हार्दिक शुभकामनाएं. मुझे पूरा विश्वास है कि प्रधान संपादक हरिवंश के नेतृत्व में प्रभात खबर अपने आंदोलन को आगे बढ़ाता हुआ सफलता के नए-नए कीर्तिमान स्थापित करेगा.

शुभकामनाएं.


यह लेख एसएन विनोद के ब्लाग चीरफाड़ से साभार लिया गया है। ब्लाग पर जाने और अपना कमेंट दर्ज कराने के लिए क्लिक करें- प्रभात खबर के 25 वर्ष

एसएन विनोद तक अपनी बात [email protected] के जरिए पहुंचा सकते हैं।

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