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अनुकूलित मानसिकता के पत्रकार न थे आलोक

[caption id="attachment_20039" align="alignnone" width="505"]आलोक तोमर जी की तस्वीर पर फूल अर्पित करतीं उनकी पत्नी सुप्रिया रॉयआलोक तोमर जी की तस्वीर पर फूल अर्पित करतीं उनकी पत्नी सुप्रिया रॉय[/caption]

: इसीलिए उनकी कलम शीत-ताप नियंत्रित भाषा नहीं लिखती थी :

आलोक तोमर जी की तस्वीर पर फूल अर्पित करतीं उनकी पत्नी सुप्रिया रॉय

आलोक तोमर जी की तस्वीर पर फूल अर्पित करतीं उनकी पत्नी सुप्रिया रॉय

आलोक तोमर जी की तस्वीर पर फूल अर्पित करतीं उनकी पत्नी सुप्रिया रॉय

: इसीलिए उनकी कलम शीत-ताप नियंत्रित भाषा नहीं लिखती थी :

आलोक तोमर : न दैन्यम् न पलायनम्

कितना अजीब लगता है कि जो शख्स हमारी बातों में शामिल हो सकता था, आज हम उसको इस तरह याद करने और उसके बारे में बात करने के लिए इकट्ठा हुए हैं। सबके मन में आलोक तोमर की अपनी-अपनी छवि और छाप होगी- जो उनसे मिलते-जुलते रहे होंगे, जिनसे उनकी फोन या मोबाइल पर बातें होती आईं या फिर जो उनके लिखे को पढ़ते-सराहते या सहमत-असहमत होते रहे हैं। मेरे मन में भी आलोक तोमर के भीतर एक जो हमेशा जाग्रत पत्रकार रहा और जिसने अपनी चेतना के दहकते अंगारे पर कभी राख नहीं जमने दी, उसकी एक छवि-एक छाप बनी हुई है, जो इतनी गहरी और गाढ़ी है कि आसानी से मिटने वाली नहीं है।

चार साल पहले जब लखनऊ से मैंने हिन्दी दैनिक डेली न्यूज़ ऐक्टिविस्ट की शुरुआत की, उस उत्तर प्रदेश की राजधानी से, जिसके बारे में कभी कवि धूमिल ने किंचित व्यंग्य पूर्वक लिखा था- भाषा में भदेस हूं/ इस तरह कायर हूं/ कि उत्तर प्रदेश हूं… तो मेरी आकांक्षा यही थी कि जन सरोकारों के लिए जुझारू, समझौताविहीन और लोकतांत्रिक मूल्यों को मर्यादा देनेवाली ऐसी प्रतिबद्ध पत्रकारिता की जाए, जिसमें संघर्ष का साहस भी हो और सृजन का विवेक सम्मत आत्मविश्वास भी।

चार साल के इस छोटे-से सफर में यही कोई ढाई साल पहले आलोक जी की कलम का आत्मीय सहयोग मिलना हमें शुरू हुआ, जो आखिर तक बना रहा- जबतक कि उस पर पूर्ण विराम नहीं लगा। बहुत छोटे संपर्क-काल की बहुत बड़ी क्षति है यह तो हमारे लिए। हमारे अखबार के चौथे स्थापना दिवस पर लिखा गया उनका शुभकामना आलेख ही क्या हमें अब हर स्थापना दिवस पर बार-बार छापना पड़ेगा?

आलोक तोमर को एक पत्रकार के रूप में हम कैसे याद करते हैं? पौराणिक मिथकों में जाकर नारद को और महाभारत के समर का संवाद देनेवाले संजय को अगर उदाहरण बनाना चाहें तो मेरे खयाल से आलोक तोमर महाभारत के संजय सरीखे हैं। नारद की चतुराई वाले पत्रकार तो भरे पड़े हैं, कहां नहीं हैं, मगर आलोक तोमर तो महाभारत के न्याय-युद्ध या धर्म-युद्ध के ताप से भरे संजय हैं, जिनकी प्रत्यंचा हमेशा चढ़ी रही- कभी ढीली नहीं पड़ी। उनकी पत्रकारिता को जितना मैंने जाना है, कह सकता हूं कि उसमें प्रतिश्रुतियां हैं, और अविचलित रहते हुए उनका निर्वाह है। आलोक ने जैसे अपना मंत्र ही बना लिया हो- न दैन्यम् न पलायनम्।

आलोक चूंकि अनुकूलित मानसिकता के पत्रकार नहीं थे, सो उनका लहजा समशीतोष्ण नहीं था, उनकी कलम शीत-ताप नियंत्रित भाषा नहीं लिखती थी। यही खूबियां उन्हें विशिष्ट बनाती हैं, उन्हें एक अलग तेवर, चमक और प्रखरता प्रदान करती हैं। इन्हीं खूबियों के चलते वे बहुतों के लिए सॉफ्ट नहीं थे- अक्खड़, दंभी, जुनूनी वगैरह पता नहीं क्या-क्या थे। लेकिन गौर कीजिए तो पाएंगे कि ऐसे विशेषण उस शहरी, समझौतापरस्त, बाजारवादी आधुनिक दुनियादारी की कोख से उपजते हैं, जो बुनियादी तौर पर मनुष्य, सच्चाई व न्याय को न्यून करते हैं और अपने लिए खड़े किसी भी चुनौतीपूर्ण, सच्चे कलमकार या इनसान की काट के लिए बड़ी चालाकी से इस्तेमाल किए जाते हैं। वरना जिसे अक्खड़ कहा जाता है- वह खरा होता है, जिसे दंभी कहते हैं- वह सीधी रीढ़वाला स्वाभिमानी होता है और जिसे जुनूनी कहकर तिरस्कृत करने की कोशिश की जाती है, वह अपने मिशन में समर्पित-संकल्पित व्यक्ति होता है- आलोक तोमर की ही तरह।

आलोक तोमर की समझ, चीजों को देखने का नजरिया और उनकी पत्रकारिता को महत्वपूर्ण बनाने वाली एक बात जो मेरी समझ में आती है, वह है उनकी भिंड-मुरैना की ग्रामीण पृष्ठïभूमि और ग्वालियर के कस्बाई देशज अनुभव। चूंकि आलोक तोमर ने परिधि से राजधानी के केंद्र तक का सफर किया था, इसलिए उनकी पत्रकारिता और सोच में परिधि से केंद्र और केंद्र से परिधि को देखने की दोहरी प्रक्रिया लक्षित की जा सकती है। उनकी पत्रकारिता में परिधि को सम्मान देने और परिधि पर आबाद जिंदगी के सरोकारों-सवालों को बार-बार सामने लाया जाना दिखाई देता है। इसी के चलते वे जन यानी परिधि की तरफदारी में तंत्र यानी केंद्र यानी तरह-तरह के सत्ताकेंद्रों से बड़े साहस के साथ मुठभेड़ करते दिखाई देते हैं। कालाहांडी की गरीबी-भुखमरी पर लिखी उनकी किताब एक हराभरा अकाल तो इसका बेहतरीन उदाहरण है ही, उनक ी सैकड़ों रपटों और समाचार-फीचर आदि का भी इस लिहाज से जायजा लिया जा सकता है। एक सच्चे जनतांत्रिक पत्रकार या कलमकार की सार्थकता इसी में है- हो सकती है। इस तरह आलोक तोमर अपने पत्रकारीय कर्म से नई पीढ़ी के सामने एक अनुकरणीय उदाहरण रख गए हैं। जिसकी आज शायद पहले से भी ज्यादा जरूरत है।

डा. निशीथ राय

डा. निशीथ राय

जरूरत है कि आलोक जी के व्यापक पत्रकारीय लेखन से चुनी हुई सामग्री के पुस्तकाकार संचयन प्रकाशित किए जाएं। साथ ही उनके समेत अपने-अपने दौर में सार्थक हस्तक्षेप करनेवाले पत्रकारों के कामकाज को पत्रकारिता के शिक्षण संस्थानों के पाठ्ïयक्रम में भी शामिल किया जाए, ताकि पत्रकारिता के छात्र उनके जरिए बहुत कुछ सीख सकें।

लेखक डॉ. निशीथ राय लखनऊ और इलाहाबाद से प्रकाशित प्रखर हिंदी दैनिक डेली न्यूज एक्टिविस्ट के संस्थापक चेयरमैन हैं.

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