सोते जागते हम लोगों की बात होती रहती थी। हंसी मजाक होता था। गाना बजाना होता था। वह तो मेरी देह में, मेरे मन में गा ही रहे हैं। जाने कितने लोगों की भावनाओं को उन्होंने स्वर दिया है, तेवर और ताव दिया है। मैं अमूमन सुबह देर तक सोता हूं। फिर आज तो इतवार था। सोया ही था कि बालेश्वर जी के सबसे छोटे बेटे मिथिलेश का फोन आया। आवाज में घबराहट थी। उसने बताया कि पिताजी को अस्पताल लाए हैं। मैंने पूछा कि, ‘हुआ क्या है।’ उसने बताया कि, ‘बोल नहीं पा रहे हैं।’ मैं खुद घबरा गया। अस्पताल जाने के लिए तैयार हो ही रहा था कि तभी उनके दूसरे बेटे अवधेश का भी फोन आ गया। मैंने बताया कि, ‘बस पहुंच रहा हूं।’ जल्दी से पहुंचा भी।
ज्यों उनके पास गया, वह पहचान गए। मैंने हाथ जोड़े और आश्वासन दिया, ‘घबराइए नहीं ठीक हो जाएंगे।’ वह जैसे हमेशा धधा कर मिलते थे, आंखों में चमक आ जाती थी, रोआं-रोआं फड़क उठता था, आज भी हुआ पर लेटे-लेटे। आंखों-आंखों में। वह जैसे हुटुक कर रह गए। निःशब्द हो गए। लेकिन बहुत कुछ कहते हुए। उनकी आंखों में जैसे एक आस थी, जीवन जीने की। उनकी यह तकलीफ मुझसे देखी नहीं गई। और मैं रो पड़ा। उन्होंने आंखों-आंखों में सांत्वना दी। मुझे लगा अभी जीवन चलेगा।
उनके लड़के ने मुझे इशारा किया कि डॉक्टरों की तरफ ध्यान दें। आनन-फानन में डॉक्टरों की व्यवस्था करवाई। छुट्टी के बावजूद सीनियर डॉक्टर भी आ गए। खून की जांच हुई। शुगर 314 था। लेकिन ई.सी. जी. और बी. पी. ठीक था। अच्छा लगा। लेकिन ज्यादा देर तक ऐसा नहीं रहा। थोड़ी देर बाद फिर खून की जांच हुई। शुगर और बढ़ गया था। दो-तीन डॉक्टर और गए। बालेश्वर का नाम ही काफी था। सभी डॉक्टर उनकी मिजाजपुर्सी में लग गए। पल्स गुम होने लगी। आक्सीजन लग गया। इंजेक्शन पर इंजेक्शन। फिर ई.सी. जी. हुआ।
पल्स तो गायब हो ही रही थी, दिल भी डराने लगा। सीने पर फिजियोथेरेपी शुरू हो गई। जाने क्या-क्या दवाएं। लेकिन तिबारा जांच में शुगर 650 हो गया। फिर 700 और डॉक्टरों के साथ-साथ हम लोगों के चेहरे भी इस सर्दी में और भी सुन्न होने लगे। सबके चेहरे पर हवाईयां थीं। एक दूसरे को सांत्वना देते हुए। भीड़ बढ़ती जा रही थी। अचानक एक डॉक्टर ने हाथ उपर खड़े कर दिए। और हाथ जोड़ कर बालेश्वर जी को प्रणाम करते हुए वार्ड से बाहर निकल गए। दिन के साढ़े ग्यारह बजे थे। परिजनों का रोना-धोना भी शुरू हो गया। भोजपुरी की आन-मान और शान ने हम सबसे बिदा ले ली। हम सभी अवश थे समय के हाथों। काल का क्रूर पंजा अवधी की धरती पर भोजपुरी का झंडा गाड़ने वाले को, दुनिया भर में भोजपुरी का झंडा फहराने वाले को दबोच चुका था।
कोई ढाई दशक से हमारी और बालेश्वर की दोस्ती थी। हम दोनों एक दूसरे के दोस्त भी थे और दुश्मन भी। ठीक उनके एक गाने में कहें तो, ‘दुश्मन मिले सबेरे लेकिन मतलबी यार न मिले।’ हम दोनों के बीच सचमुच कोई मतलब नहीं था। एक सेतु था जिस पर भोजपुरी की संधि होती थीं। हम दोनों भोजपुरी को जीते थे। अगर कोई स्वार्थ था भी तो सिर्फ भोजपुरी का था। एक समय था कि मैं भी दारूलशफा में रहता था और बालेश्वर भी। तो हम लोगों की सुबह-शाम की मुलाक़ात थीं। मैं सुबह बच्चों को स्कूल छोड़ कर आता तो बालेश्वर की गरम जलेबी खा कर घर लौटता। शाम को दफ्तर से लौटता तो बालेश्वर की संगीत महफिल में बैठ जाता। कलाकारों के साथ उनकी रिहर्सल और बतकही में सारी थकान डूब जाती।
हाल-फिलहाल तो भोजपुरी बाजार में हाहाकार मचाए हुई है। पर एक समय मैंने भोजपुरी की समस्याओं को उकेरने के लिए कि कैसे तो भोजपुरी मरती जा रही है और कि सतही होती जा रही है, उनके जीवन को आधार बना कर एक उपन्यास लिखा था, ‘लोक कवि अब गाते नहीं’, जिसमें उनके जीवन के कुछ स्याह-सफेद प्रसंग भी थे। कुछ ‘शुभचिंतकों’ ने कान भर दिए। मेरे भी और उनके भी। बालेश्वर को कुछ ज्यादा ही ऐतराज हो गया। लेकिन हमारे खिलाफ उन्होंने कभी कुछ कहा नहीं। कोई कुछ कहता भी तो वह कहते, ‘जाने दीजिए दोस्त हैं।’ बावजूद इस सबके हम दोनों के बीच कुछ दिनों तक संवादहीनता जारी रही। एक दिन अचानक वह सुबह-सुबह मेरे घर आ गए। और कहने लगे, ‘माफ करिए पांडेय जी, गलती हो गई। आपने तो हमको अमर कर दिया!’ ठठा कर हंसे और गले मिलने लगे। फिर तो जाने कितने ताने आए, गाने आए पर हम लोग इधर से उधर नहीं हुए।
बालेश्वर वस्तुतः कवि थे। हालांकि वह अपने गाने को लिखना नहीं, बनाना कहते थे। अपने गाए सारे गाने उन्होंने ही लिखे। चाहे वह जिस भी मूड के हों। एक बार मैंने उनसे पूछा भी कि, ‘आप कवि सम्मेलनों में भी क्यों नहीं जाते!’ वह एकदम सपाट बोले, ‘फ्लाप हो जाउंगा।’ और हंस पड़े। मैंने पूछा, ‘अगर आप गायक न होते तो क्या होते!’ वह बोले, ‘कहीं मजूरी करता।’ और जैसे जोड़ा, ‘और जो थोड़ा पढ़ लिख गया होता तो उच्च कोटि का साहित्यकार होता!’ कह कर वह फिर फिस्स से हंस पड़े। दरअसल बालेश्वर को अपने बारे में कोई गुमान था भी नहीं। वह इतने बड़े गायक थे, भोजपुरी की दुनिया उन्हें पूजती थी लेकिन वह अपने को मजूर ही मानते थे। कहते थे, ‘लोग ईंट गारा की मजूरी करते हैं, मैं गाने की मजूरी करता हूं।’ शायद सच भी यही था।
‘तोहरे बरफी ले मीठ मोर लबाही मितवा’ गाते-गाते वह लखनऊ आये थे। अवधी की धरती पर भोजपुरी गाने। बहुत संघर्ष किया, बहुत दुत्कार खाई, अपमान पिए और फिर मान और सम्मान भी चखा कि आज लखनऊ में अवधी नहीं भोजपुरी की बात होने लगी है। वह खुद भी कहते थे कि बताइए, ‘अवधी में जो तुलसी दास, रसखान और जायसी न होते तो अवधी का होता क्या!’
दरअसल भिखारी ठाकुर के बाद अगर भोजपुरी को किसी ने आधारबिंदु दिया, जमीन और बाजार दिया तो वह बालेश्वर ही हैं कोई और नहीं। एक समय था कि बालेश्वर के कैसेटों से बाज़ार अटा पड़ा रहता था। कारण यह था कि वह गायकी को भी साधते थे और बाजार को भी। कैसेट और आरकेस्ट्रा दोनों में उनकी धूम थी। यह अस्सी और नब्बे के दशक की बात है। वह भोजपुरी की सरहदें लांघ कर मुंबई, बंगाल और आसाम, नागालैंड जाने लगे। हालैंड, सूरीनाम, त्रिनिडाड, फिजी, थाईलैंड, मारीशस और जाने कहां-कहां जाने लगे। बालेश्वर के यहां प्रेम भी है, समाज भी और राजनीति भी। यानी कामयाबी का सारा गुन! बालेश्वर कई बार समस्याओं को उठा कर अपने गीतों में जब प्रहार करते हैं और बड़ी सरलता से तो लोग वाह कर बैठते हैं। उनके कहने में जो सादगी होती थी, और गायकी में जो मिठास होती थी, वही लोगों को बांध देती थी।
‘हम कोइलरी चलि जाइब ए ललमुनिया क माई!’ गीत में बेरोजगारी और प्रेम का जो द्वंद्व है, वह अदभुत है। ‘बिकाई ए बाबू बी. ए. पास घोड़ा’ और ‘बाबू क मुंह जैसे फैजाबादी बंडा / दहेज में मांगै लैं हीरोहोंडा’ या फिर ‘जबसे लइकी लोग साइकिल चलावे लगलीं तब से लइकन क रफ्तार कम हो गइल’ जैसे गीत उन्हें न सिर्फ लोकप्रिय बनाते थे, लोगों को मोह लेते थे। ‘नीक लागे टिकुलिया गोरखपुर क’ और ‘मेला बीच बलमा बिलाइल सजनी’ जैसे रिकार्ड जब एच. एम. वी. ने 1979 में जारी किए थे तो बालेश्वर की धूम मच गई थी। फिर तो ‘चुनरी में लागता हवा, बलम बेलबाटम सिया द’ जैसे गीत के साथ वह समय के साथ हो गए थे। वह थे, बाजार था, सफलता थी, शोहरत थी। पर बाद के दिनों में जब लोग हाईटेक हुए, बालेश्वर नहीं हो पाए। वह बाजार से फिसल गए।
यह उनके ज्यादा पढ़े लिखे न होने का दंश था। बाजार को वह लाख साधने की कोशिश करते, बाजार उनसे फिसलता जाता। यश भारती वह पा चुके थे। और इसके जुनून में वह गा चुके थे, ‘शाहजहां ने मोहब्बत की तो ताजमहल बनवा दिया / कांशीराम ने मोहब्बत की तो मायावती को मुख्यमंत्री बनवा दिया!’ राजनीतिक स्थितियां बदल गई थी। इसके लिए उन्हें अपमान भी झेलना पड़ा और सरकारी आयोजनों से बाहर हो गए। फिर भी वह भूले नहीं, ‘दुश्मन मिलै सबेरे लेकिन मतलबी यार न मिले / हिटलरशाही मिले मगर मिली-जुली सरकार न मिले / मरदा एक ही मिलै हिजड़ा कई हजार न मिलै।’ वह तो गा रहे थे, ‘लागता जे फाटि जाई जवानी में झूल्ला’, ‘अंखिया बता रही हैं लूटी कहीं गई है’, ‘अपने त भइल पुजारी ए राजा, हमार कजरा के निहारी ए राजा।’ वह गा रहे थे, ‘आवा चलीं ए धनिया ददरी क मेला’ और कि, ‘फगुनवां में रंग रसे-रसे बरसै /उहो भींजि गइलीं जे निकरै न घर से।’ शादी-ब्याह में जयमाल में अकसर वह एक गीत गाते, ‘केकरे गले में डारूं हार, सिया बउरहिया बनि के।’ तो लोग तो झूम जाते पर दुलहनें अकसर सचमुच भौचक हो जातीं। कि किसके गले में हार डालूं। तो यह देखते ही बनता था।
जैसे कोई नरम और मीठी ऊंख हो। एक गुल्ला छीलिए तो पोर-पोर खुल जाए। कुछ वैसी ही मीठी, नरम और फोफर आवाज बालेश्वर की थी। अपनी गमक, माटी की महक और एक खास ठसक लिए हुए। भोजपुरी गायकी में एक समय शिखर पर आसीन रहे बालेश्वर की गायकी की यात्रा बहुत सुविचारित नहीं थी। उनका कोई गुरू भी नहीं था। एक बार उनसे पूछा था, ‘आप का गुरू कौन है!’ छूटते ही वह बोले थे, ‘कोई गुरू नहीं!’
‘तो सीखा कैसे!’
‘बस गाते-गाते।’
‘और शिष्य।’
‘शिष्य मानता ही नहीं किसी को। फिर भी हमारे गाने बहुत लोग गाते हैं।’
‘फिरकापरस्ती वाली बस्ती बसाई न जाएगी / मंदिर बनी लेकिन मस्जिद गिराई न जाएगी / आडवानी वाली भाषा पढ़ाई न जाएगीं।’ जैसे तल्ख गीत लिखने और गाने वाले बालेश्वर ने गायकी की यात्रा शुरू की नकल कर-कर के। वह कहते थे, ‘गांव में शादी-ब्याह में, रामलीला, नौटंकी में गाना सुन के हम भी गाना शुरू किए।’
‘किन कलाकारों को।’
‘भोजपुरी लोकगायकों को। जैसे वलीवुल्लाह थे, जयश्री यादव थे। हमने न सिर्फ इनकी नकल की, बल्कि कोशिश की कि इनकी टीम में आ जाऊं। पर इन्होंने अपनी टीम में हमें नहीं लिया। लेकिन मैंने हिम्मत नहीं हारी। गांव के मंचों पर चंग बजा-बजा कर अकेले ही गाना शुरू किया। पैसे कुछ भी नहीं मिलते थे। खाली वाह-वाही मिलती थी।’ वह बताते थे कि गांव की घटनाओं पर ही गाना बनाते और गाते तो लोग नाराज हो जाते। पिटाई भी हो जाती थी।’ वह जैसे जोड़ते, ‘लेकिन मैंने गाना बनाना और गाना नहीं छोड़ा। पैदाइशी गांव बदनपुर भले छोड़ दिया और चचाईपार में आ कर बस गया।’ 1962 के चुनाव में पूर्व विधायक व स्वतंत्रता सेनानी विष्णु देव गुप्ता ने सोशलिस्ट पार्टी के चुनाव प्रचार के लिए दोहरी घाट भेज दिया। वह वहीं गाने बना-बना कर गाने लगे। कम्युनिस्ट पार्टी के झारखंडे राय की नजर उन पर पड़ गई तो वह अपने साथ घोसी ले गए। अपने चुनाव प्रचार में। झारखंडे राय जब जीत गए तो अपने साथ ही बालेश्वर को भी लखनऊ ले आए। अब लखनउ था और बालेश्वर और उनके भोजपुरी गाने। कोई सुनने को तैयार नहीं। भटकाव सामने था। मिट्टी-गारा की मजदूरी शुरू की। 1965 में आकाशवाणी लखनऊ में गाने का आडिशन दिया। फेल हो गए। लगातार फेल होते गए। परेशानी बढ़ती गई।
सूचना विभाग में एक के. बी. चंद्रा थे। उन्होंने आकाशवाणी का इम्तहान पास करने के गुन बताए। दस साल बाद 1975 में बालेश्वर आकाशवाणी का इम्तहान पास कर गए। आकाशवाणी पर उनकी बुलंद आवाज जब छा गई तो बहुतेरे लोग मौका देने को तैयार हो गए। हरवंश जायसवाल मिले। चार साल तक सरकारी कार्यक्रमों में उनसे गवाया। एच. एम. वी. के मैनेजर जहीर अहमद मिले 1978 में। 1979 में एच. एम. वी. ने बालेश्वर के दो रिकार्ड जारी किए, ‘नीक लागे टिकुलिया गोरखपुर क’ और ‘बलिया बीचे बलमा हेराई सजनी।’ 1982 आते-आते बालेश्वर छा गए। और फिर पीछे मुड़ कर नहीं देखा। बहुत सारे लोग फिल्मी गानों की पैरोडी गाते हैं। लेकिन बालेश्वर ऐसे गायकों में शुमार हैं जिनके गाने की पैरोडी फिल्मों में चलती है। सबसे पहले सुजीत कुमार ने अपनी फिल्मों में उनके गाने लिए। एक नहीं तीन-तीन। और बालेश्वर को क्र्रेडिट भी नहीं दिया। पर बालेश्वर उनसे नाराज नहीं हुए, न उनसे कुछ कहा।
भोजपुरी के ‘विकास’ से ही वह खुश थे। फिर तो उनके बीसियों गाने फिल्मों में चले गए। मैं कभी कुछ टोकता कि, ‘कुछ ऐतराज करिए ना!’ वह कहते, ‘जाने दीजिए। भोजपुरी का विकास हो रहा है, लोग खा कमा रहे हैं।’ कई बार वह बुदबुदाते, ‘समय बड़ा बलवान होता है। कहीं हमसे भी अच्छे-अच्छे गाने वाले पड़े हैं। पर उनको कोई जानता नहीं। हमको तो लोग जान गए हैं।’ वह अपने मकान की पक्की फर्श दिखाते। बोलते, ‘पक्का में रह रहा हूं और का चाहिए!’ और गाने लगते, ‘कजरवा हे धनिया!’ फिर जैसे जोड़ने लगते, ‘नाचे न नचावे केहू, पैसा नचावेला!’ गाने लगते, ‘मोर पिया एम.पी., एम. एल. ए. से बड़का / दिल्ली लखनउवा में ओही क डंका / अरे वोट में बदलि देला वोटर क बक्सा!’ अचानक वह जोश में आते तो ‘रई-रई-रई-रई-रई’ कर गाने लगते, ‘समधिनिया क पेट जैसे इंडिया क गेट…. / समधिनिया क बेलना झूठ बोलेला।’
एक समय उनका एक कैसेट आया था, ‘बलेसरा काहे बिकाला।’ अब कौन बिकेगा और कौन बेचेगा! कौन गायकी के रस का वह नशा, उनकी कहरवा धुन में पगे उनके गीत, उनकी गायकी का वह मिठास, ऊंख जैसी मिठास, वह फोफर आवाज आकाश में धरती पर गांव की मेड़ों पर मद्धिम रोशनी वाले मटियारे घरों में, मेहनतकशों और मजूरों के घरों में कौन गाएगा! फिलहाल तो मैं उनको एक भोजपुरी निर्गुण में ही हेर रहा हूं, ‘सुधि बिसरवले बा पिया निरमोहिया बनि के!’ और ‘तोहरे बरफी ले मीठ मोर लबाही मितवा!’ में जोह रहा हूं। हेरते-जोहते उनको शत-शत प्रणाम कह रहा हूं।
दयानंद पांडेय
वरिष्ठ पत्रकार और साहित्यकार
लखनऊ
संपर्क- मेल: [email protected] फोन: 09335233424, 09415130127
jaishankar Gupta
January 15, 2011 at 6:33 pm
बालेश्वर उर्फ बलेसर जी के निधन का समाचार न सिर्फ बेहद दुखद और असहनीय बल्कि हैरान करने वाला भी है. आपका और दयानंद का धन्यवाद कि उनके निधन का समाचार मिल सका. मीडिया में इस राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के लोक गायक के निधन के समाचार को महत्व नहीं मिल पाना दुर्भाग्यपूर्ण है लेकिन आज के मीडिया की प्राथमिकताओं को देखते हुए आश्चर्यजनक कतई नहीं. बालेश्वर जी के हवाले भाई दयानंद ने पिताजी, स्वतंत्रता सेनानी और पूर्व विधायक स्व. विष्णुदेव का जिक्र भी किया है.
बालेश्वर जी को हम पिछले ढाई दशकों या कहें कि बचपन से ही जानते हैं. वे सिर्फ लोक गायक ही नहीं बल्कि एक जागरूक सामाजिक एवं राजनीतिक कार्यकर्ता भी थे. मुझे १९६२ के चुनाव का तो स्मरण नहीं लेकिन १९६७ और उसके बाद के विधानसभाई और लोकसभाई चुनावों का स्मरण है. १९८० तक पूर्वी उत्तर प्रदेश सोशलिस्ट (माफ कीजिएगा आज के समाजवादी नहीं) एवं कम्युनिस्ट आंदोलन का गढ था. बालेश्वर जी का और हमारा जिला (तब आजमगढ अब मऊ), विधानसभा (नत्थूपुर) एवं लोकसभा (घोसी) क्षेत्र एक ही था. एक दो अपवादों को छोड दें तो नत्थूपुर से सोशलिस्ट अथवा प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार चुनाव जीतते तो घोसी लोकसभा और विधानसभा क्षेत्रों को लेनिनग्राद कहा जाता था जिनका प्रतिनिधित्व लंबे समय तक जयबहादुर सिंह-झारखंडे राय करते रहे.
१९६७ के चुनाव में नत्थूपुर को अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित कर दिया गया. नतीजतन पिताजी को सोशलिस्ट पार्टी के नेतृत्व के निर्देश पर कम्युनिस्टों के गढ घोसी से विधानसभा का चुनाव लडना पडा. लोकसभा के लिए कल्पनाथ राय सोपा के उम्मीदवार थे. उस समय तक बालेश्वर न सिर्फ एक अच्छे लोक गायक (बिरहिया) बल्कि कम्युनिस्ट कार्यकर्ता बन चुके थे. इस तरह से देखें तो हम एक दूसरे के विरोधी खेमे में थे. सोपा के लिए एक और बहुत लोकप्रिय लोकगायक रक्षा यादव तथा गोमती यादव राजनीतिक गीत गाते थे. सिर्फ चुनावों के समय ही नहीं बल्कि अन्य मौकों-सभा प्रदर्शनों में भी बालेश्वर कम्युनिस्ट पार्टी और गोमती सोशलिस्ट पार्टी के मंच पर चंग बजाते राजनीतिक गीत गाते मिलते थे. इसी तरह से चौधरी चरण सिंह के भारतीय क्रांति दल, बाद में लोकदल के लिए जयश्री यादव और श्रवण कुमार राजनीतिक गीत गाते थे. वह समय कारपोरेट राजनीति का नहीं था. चंग और खंझडी बजाकर गाने वाले समर्पित राजनीतिक कार्यकर्ताओं की बडी महत्वपूर्ण भूमिका होती थी. आज जबकि लोकसभा-विधानसभा की बात तो छोड ही दें ग्रामसभाओं के चुनाव में भी लाखों रुपये खर्च हो रहे हैं, कोई यकीन कर सकता है कि गोरखपुर के बांसगांव से सोशलिस्ट पार्टी के मोलहू प्रसाद जैसे लोग खंझडी बजाकर गाते बजाते लोकसभा में पहुंच गए थे. हमारे पिताजी भी २५-३० हजार रु. खर्च कर १९८५ में विधानसभा का चुनाव जीत गए थे. यही बातें बाबू जयबहादुर सिंह, झारखंडे राय और सरजू पांडे जैसे कम्युनिस्ट नेताओं के बारे में भी कही जा सकती है. इनकी जीत में बालेश्वर और गोमती यादव जैसे लोकगायकों की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण होती थी. १९६७ के चुनाव में या कहें कि उससे कुछ पहले से ही बालेश्वर जी और हम लोग जो अलग अलग राजनीतिक खेमों में बंटे तो फिर १९८० में ही एक साथ हो पाए और वह भी लोकसभा के चुनाव में जब (जनता पार्टी एस) लोकदल और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के बीच चुनावी तालमेल था. लेकिन वह तालमेल क्षणिक था भाकपा के लोगों ने विधानसभा चुनाव में तालमेल तोड दिया. इन सबके बावजूद बालेश्वर जी के साथ हमारा पारिवारिक संबंध लगातार बना रहा. बाद के वर्षों में बालेश्वर जी का भाकपा से मोहभंग हुआ और वह कल्पनाथ राय के साथ कांग्रेसी मंच पर भी दिखने लगे थे. लेकिन तब तक उनके लोक गीतों ने आकाशवाणी, दूरदर्शन और देश विदेश के कार्यक्रमों समारोहों में भी धूम मचाना शुरू कर दिया था. उनके गानों के कैसेट भी बाजार में आने और धूम मचाने लगे थे. उन्होंने बदनपुरा का अपना पुश्तैनी घर छोड मधुबन-मझवारा रोड पर चचाईपार के पास अपना मकान ङङ्गबिरहा’ बनवा लिया था. हालांकि उनका अधिकतर समय लखनऊ में ही बीतता था. सही मायने में तभी से बलेसर के बजाय बालेश्वर कहलाने लगे. हालांकि उस दौर में बाजार ने भी उन्हें प्रभावित किया और अपनी सामाजिक-राजनीतिक प्रतिबद्धताओं से इतर वह भोजपुरी के बाजारू और कई बार तो ङङ्गवल्गर’ तक कहे जाने वाले गीत भी गाने लगे थे. लेकिन जैसा कि दयानंद ने ठीक ही लिखा है कि बालेश्वर बाजार की आधुनिकता और अनिवार्यता की दौड में बहुत आगे तक नहीं दौड सके. लेकिन जिस तरह की मौत उन्हें मिली उसके हकदार वह कतई नहीं थे. ऐसे समय में जबकि भोजपुरी का काफी विकास हो रहा है, देश-विदेश में इसकी मांग भी बढ रही है. राज्यों में इसके विकास के नाम पर अकादमियां बन रही हैं. सिनेमा जगत में भी भोजपुरी की फिल्में अब महज घाटे का सौदा नहीं रहीं, ऐसे समय में मीडिया के द्वारा बालेश्वर के निधन के समाचार की अनदेखी बालेश्वर की नहीं पूरे भोजपुरी समाज की अनदेखी और अवमानना है. अपने नायकों और कवि गायकों को किस तरह याद किया जाए, यह तय करने की जिम्मेदारी संबद्ध समाजों की भी है. इन शब्दों के साथ भाई बालेश्वर को अश्रुपूरित श्रद्धांजलि इस उम्मीद के साथ कि उनके शुरुआती दिनों की संघर्ष गाथा और गायकी भोजपुरी की नई पीढियों को प्रेरित करती रहेगी.
जयशंकर गुप्त
कार्यकारी संपादक
लोकमत समाचार
नागपुर
nityanand pandey
January 12, 2011 at 5:41 pm
baleshwar jaise bhijpuri ke mahan gaayak ko hamari shat shat shraddhanjali
Amit Kumar PAndey
January 12, 2011 at 7:41 am
I pay my heart felt tribute to this legend of Bhojpuri singing who ruled the hearts of millions of bhojpuri lovers across the globe His demise certainy painful for all of us but this great singer will reside in people’s heart forever. I also want to thank Dayanand ji for this lucid and beautiful article.
nityanand pandey
January 11, 2011 at 4:43 pm
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anamisharanbabal
January 11, 2011 at 1:46 pm
लोकगायक बालेश्वर का जाना एक एसी क्षति है, जिसकी भरपाई होना कठिन है। बालेश्वर के साथ ही लोकगायन का एक युग का अंत हो गया। लोकजनमानस में बसे बालेश्वर के साथ ही संगीत कला की वह धरोहर भी गूम हो गई , जिसकी ऐज के जमाने में और ज्यादा जरूरत थी .
Lokenath Tiwary Kolkata
January 11, 2011 at 11:18 am
Jaba tak bhojpuri gaanon ko gaya jayega tab tak Baleshwar Ji jiwit rahenge.
Baleshwar Ji yugo-yugon tak yaad kiye jayenge..
bhojpuri samrat Baleshwar Ji ki atma ko shanti mile.
Manoj Pandey
January 10, 2011 at 2:23 pm
Baleswar jee ko sradhnajali SUMAN. Bhagwan unki Aatma ko shanti de.
Bhai sahab ka e lekh bahut had tak sahi yatharth ko vayan kar raha hai.
भारतेन्दु मिश्र
January 10, 2011 at 12:53 pm
हार्दिक श्रद्धांजलि,बालेश्वर जैसे सच्चे लोक गायक अब हमारे समाज से छीजते जा रहे है। यह दुखद है।
avinash pandey
January 10, 2011 at 11:59 am
भोजपुरी के इस लोकगायक को शत-शत नमन…. बालेश्वर मर कर भी अमर हो गए..उनके गाए गीत बिहार-यूपी की फिजाओं में हमेशा उनकी मौजूदगी का अहसास कराती रहेगी… इस जीवट कलाकार को कोटिश: श्रद्धांजलि…
rakesh
January 10, 2011 at 4:58 am
God give peace to the divine soul of Baleshwar Ji it is indeed a sad news and is like an end of era in bhojopuri his contribution to bhojpuri society cannot be matched with anybody he was the tallest among all.
Narendra Dubey
January 10, 2011 at 2:58 am
Wish peace for Baleswar’s soul and UP/Bihar lost one of most popular Bhojpuri singer. With respect, Narendra
gunjan sinha
January 10, 2011 at 3:07 am
बहुत दुखद है इस तरह बालेसर का चुप चाप चले जाना. भिखारी ठाकुर के बाद भोजपुरी के इस सबसे बड़े गायक कवि के गुजर जाने की खबर किसी चैनल या अखबार में नहीं आई. ये तो श्री दयानंद पाण्डेय और भड़ास की मेहरबानी है कि कुछ लोगों को मालूम हो सकेगा कि बालेसर अब नहीं रहे. भदेस भोजपुरी जीवन्तता की सबसे ईमानदार आवाज़ थे बालेसर. जिन्होंने जीवन को सिर्फ किताबों में पढ़ा है, वे बालेसर को कई बार अश्लील समझते थे, ठीक वैसे ही जैसे होली को अश्लील समझते हैं. कुछ करिये ताकि बालेसर के साथ भी वही अपराध न हो जाए जो हमने भिखारी के साथ किया है.
Arvind Kumar
January 10, 2011 at 2:53 am
मैं ने लोककवि अब नहीँ गाते उपन्यास पढ़ा था, समीक्षा की थी… तभी लगता था कि इतना सारी घटनाएँ दयानंद ने कैसे गढ़ीँ… अब पता चला सब सच था,,, लोककवि की स्मृति मेरे मन मेँ सुपरिचित जैसी थी. अब पता चला वह सच था.
दयानंद की श्रद्धांजलि ने उन के प्रति सम्मान और बढ़ा दिया
anil yadav
January 9, 2011 at 6:22 pm
बालेश्वर जी को लखनऊ में कई बार सुनने का अवसर प्राप्त हुआ है निश्चित ही उनकी गायकी बेजोड़ थी….भोजपुरी के इस योद्धा हजार बार नमन है….
pragya
January 9, 2011 at 6:05 pm
baleshwar jaise bhijpuri ke mahan gaayak ko hamari shat shat shraddhanjali ..
प्रमोद प्रवीण
January 9, 2011 at 5:28 pm
भोजपुरी के इस लोकगायक को शत-शत नमन…. बालेश्वर मर कर भी अमर हो गए..उनके गाए गीत बिहार-यूपी की फिजाओं में हमेशा उनकी मौजूदगी का अहसास कराती रहेगी… इस जीवट कलाकार को कोटिश: श्रद्धांजलि…
abhishek singh
January 23, 2011 at 12:40 pm
Sir, bahut achha.