: एक शराबी मित्र मिला. वो भी दुख को स्थायी भाव मानता है. जगजीत की मौत के बाद साथ बैठे. नोएडा की एक कपड़ा फैक्ट्री की छत पर. पक रहे मांस की भीनी खुशबू के बीच शराबखोरी हो रही थी. उस विद्वान शराबी दोस्त ने जीवन छोड़ने वाली देह के आकार-प्रकार और पोस्ट डेथ इफेक्ट पर जो तर्क पेश किया उसे नए घूंट संग निगल न सका… :
दुख मेरा प्रिय विषय है. मेरा स्थायी भाव है. ज्यादातर लोगों का होगा. क्योंकि ब्रह्मांड में फिलहाल हम्हीं लोग सबसे ज्यादा सोचने, समझने, महसूस करने और कहने-बोलने वाले लोग हैं. मनुष्य जो हैं हम लोग. कोई और जीव-जानवर होते तो शायद दुख स्थायी भाव नहीं होता. कुत्ता, बिल्ली, चींटी, चिड़िया, गोजर, सांप…. सैकड़ों तरह के गैर-मनुष्य कोटि के जीवों के नाम ले लीजिए. उनके सुख-दुख के रेशियो-प्रपोर्शन के बारे में हम लोग नहीं जानते, इसलिए कह सकते हैं कि दुख उनका स्थायी भाव नहीं होगा. कई तरह के भावों के साथ वे लगातार जीते रहते हैं. भय, आतंक, दुख वाले भाव भी अन्य भावों की तरह समान या कम ज्यादा मात्रा में उनमें होंगे. पर यह तय है कि दुख स्थायी भाव नहीं होगा.
इन गैर-मानव कोटि के प्राणियों के लिए किसी एक भाव पर हर पल टिके रहना संभव नहीं है. उनकी समझने-बूझने की चेतना उतनी उन्नत नहीं है जितनी हम लोगों की है. जो कहना चाह रहा हूं यह कि मेरे जैसे दुखी आत्मा वाले लोगों के लिए कई मौके आते हैं जब दुख की धधकन कुछ घटनाओं के कारण बढ़ जाती है, भभक जाती है, पूरी तरह प्रचंड हो जाती है. उन मौकों पर सोचता ही रह जाता हूं और सोचने-समझने की प्रक्रिया इतनी गहन हो जाती है कि खुद से बेगाना हो जाने का एहसास होने लगता है. जैसे कुछ इस तरह कि मैं यशवंत देहधारी अलग हूं और जो सोच-समझ पा रहा है वह आंतरिक यशवंत कोई अलग है. देह वाले यशवंत की जरूरतें अलग है. आंतरिक सोच-समझ वाले यशवंत की जरूरतें भिन्न हैं. कई बार देह की जरूरतों से प्रेरित होकर आंतरिक यशवंत संचालित होता है पर यह बड़ा छोटा वक्त होता है. यह वही वक्त होता है जब मैं मनुष्य नहीं होता. देहधारी कोई प्राणी होता हूं.
रुपया, पैसा, मकान, सेक्स, खाना, सुरक्षा, स्वास्थ्य…. ये सब वाह्य यशवंत की जरूरतें हैं. और इन जरूरतों के लिए आंतरिक यशवंत भी परेशान होता रहता है. पर अब वाह्य जरूरतों के लिए आंतरिक को परेशान होने का वक्त कम होता जा रहा है. ऐसा नहीं कि सब ठीकठाक हो गया है. इसलिए क्योंकि वो होता तो क्या होता और वो न होगा तो क्या होगा जैसी फीलिंग बढ़ गई है. तो वाह्य जरूरतों के लिए अब अंदर वाले हिस्से को परेशान करने का मन नहीं करता. दोनों यशवंत के मिजाज-काम अलग-अलग हैं, सो दोनों को अलग-अलग सोचना-जीना करना चाहिए. यह बड़ी अदभुत अवस्था होती है.
हालांकि कई बार एक का काम दूसरे के बिना संचालित नहीं होता, सहयोग लेने की जरूरत पड़ जाती है. जैसे, आंतरिक यशवंत को सक्रिय करने के लिए यदा-कदा मदिरा की जरूरत महसूस होती है तो उस मदिरा को वाह्य यशवंत यानि देहधारी धारण करता है. तो यह अन्योन्याश्रितता है. जैसे वाह्य यशवंत को पैसे की जरूरत महसूस होती है तो उसे आंतरिक उर्जा का भी इस्तेमाल करना पड़ता है. तो यह आपसी सौहार्द है. बावजूद इन एका के, दोनों की मूल प्रकृति और काम अलग-अलग है, वो तो दुनिया इतनी बेईमान है कि दोनों को एक दूसरे के काम के लिए कई बार एक दूसरे का सहारा लेने को मजबूर करती है.
: ज़ुल्मत कदे में मेरे शब-ए-ग़म का जोश है, इक शम्मा है दलील-ए-सहर, सो ख़मोश है :
तो अब, बाहरी जरूरतों को वैसे ही लेने लगा हूं जैसे अन्य देहधारी लेते हैं. पहनने को जो मिल गया, सब ठीक है. ना पहना भी तो क्या ग़म है. खाने को जो मिल गया ठीक है. ना खाया तो क्या ग़म है. पीने को जो मिल गया ठीक है, ना पिया तो क्या ग़म है. रोने को कोई मुद्दा मिल गया तो ठीक है. ना रोया तो क्या ग़म है. हंसने को कुछ मिल गया तो हंसा, ना हंसा तो दुखी होने के लिए कई ग़म ही ग़म हैं.
दुख वो आखिरी पड़ाव है जहां आकर ठहर जाता हूं. और कहीं पर आप बार बार अंटकते हों, रुकते हों तो उस जगह से आपको प्यार हो जाता है. दुख से भी हो गया है. स्टीव जाब्स चले गए. जगजीत सिंह भी चले गए. थोड़ा बहुत विश्लेषण दिमाग ने किया और फिर तुरंत बोल पड़ा- सब चले जाएंगे. एक दिन सब चले जाएंगे. जा ही रहे हैं लगातार. करोड़ों वर्षों से लोग जा रहे हैं. हर कोई जो जिंदा है, अपने अगले चालीस-पचास साठ सत्तर अस्सी नब्बे सौ साल में चला जाएगा. जाना उतना ही बड़ा स्थायी भाव है जितना दुख है. कह सकते हैं कि इस नकारात्मक दृष्टि के कारण मुझे वो नहीं दिख रहा है जो पाजिटिव है, आधी खाली है गिलास या आधी भरी की तरह.
जा रहे हैं लोग तो उससे ज्यादा मात्रा में आ रहे हैं. दुख है तो सुखों के हजार गुना ज्यादा कारण भी हैं, और मौके भी. सच है ये. पर उन रहस्यों के पार न जा पाने का दुख है कि ये लोग जाते कहां हैं, आते कहां से हैं. और क्यों आते हैं, क्यों जाते हैं. आखिरी सच क्या है. असीम प्रेम और असीम आनंद कहां है. दुखों को न समझ पाने की दुर्बुद्धि से कैसे पार पाया जाए… इन रहस्यों के ओरछोर समझने के लिए गौतम बुद्ध से पहले भी लाखों संत-साधक-मनीषी-ऋषि हुए और उनके बाद भी. सबके अपने-अपने तर्क, जीने और सोचने को लेकर. पर आदमी का रोना बंद नहीं हुआ. लोग जाते हैं तो लोग रोते हैं. कुछ लोगों के लिए ज्यादा लोग रोते हैं. कुछ लोग बिना किसी को रुलाए रुखसत हो जाते हैं.
स्टीव जाब्स गए तो उनकी सफलताओं की कहानी के बीच कुछ दाग-धब्बे दिखे तो मन वहीं अटक गया. स्टीव जाब्स जिन हालात में धरती पर आए, बिन ब्याही मां और पिता के संभोग के कारण, वही कृत्य स्टीव जाब्स ने किया, एक बिन ब्याही लड़की से संभोग कर बच्चा पैदा किया. शादी-ब्याह ब्रह्म की लेखी नहीं है, खुले और बौद्धिक समाज में इसकी जरूरत कम से कमतर होती जाती है. लेकिन पता नहीं क्यों, अपन के संकुचित भारतीय दिमाग में यह बात टंग गई कि जैसा स्टीव जाब्स के मां-पिता ने किया और वैसा ही स्टीव जाब्स ने किया, वह ठीक न था. पर थोड़ा ठहरकर सोचता हूं तो लगता है कि इतने छोटे-छोटे ठीक और सही के पचड़े में अगर मैं फंस रहा हूं तो दिक्कत मेरी है. और ऐसी फच्चड़ों, फंसान से उबरते रहना चाहिए अन्यथा मेंटल ग्रोथ रुक जाएगी और कब हम चेतन की जगह गोबर हो जाएंगे, पता ही नहीं चलेगा. चलिए, ऐसी सोच रखने के लिए स्टीव जाब्स से सारी.
स्टीव जाब्स की महानत की गाथा हर कोई गाता रहा, कारपोरेट से लेकर आम बुद्धिजीवी तक, पर अभी तक केवल मैं नहीं समझ पाया कि स्टीव जाब्स ने जो क्रांति की, उसमें उनका मकसद मुनाफा पाना नहीं, लाभ कमाना नहीं तो और क्या था. क्या उनकी कथित क्रांति दुनिया के आम लोगों तक पहुंची? जिनके हाथ में आईपैड आ गया वो स्टीव जाब्स की महानता को समझ गया. पर जिनके हाथ वे एप्पल नहीं लगे, वो भला स्टीव जाब्स को क्या समझे-माने!
मतलब, आपकी महानता और आपका ओछापन भी क्लास के हिसाब से तय होता है. स्टीव जाब्स ने कोई सोशल काम नहीं किया. उन्होंने पैसे को किसी सामाजिक या पर्यावरणीय या मनुष्यता के भले के काम में नहीं लगाया. हां, वे खुद निजी जीवन में ज्यादा प्रयोगधर्मी, रचनाशील, संघर्षशील और विजनरी थे. पर समाज-देश-मनुष्य से कटकर यह कोई गुण कोई खास गुण तो नहीं! ऐसे न जाने कितने स्टीव जाब्स कारपोरेट कंपनियों में, मल्टीनेशनल कंपनीज के रिसर्च एंड डेवलपमेंट विंग में काम कर रहे हैं, अविष्कार कर रहे हैं और एक दिन सिधार जा रहे हैं. उन सभी का कुछ न कुछ योगदान है पर अंत में देखता हूं तो पाता हूं कि सतत महान खोजों-अविष्कारों के बावजूद ज्यादातर मनुष्यों के दुखों के आवेग में कमी नहीं आई है, हां तरीके में जरूर कमी आई होगी. तो स्टीव जाब्स एक इंडिविजुवल वर्कर, कारपोरेट लीडर के रूप में गजब के लगे पर ज्योंही सोशल कनसर्न पर आते हैं, उनका योगदान शून्य टाइप का ही लगा.
काश, कितना अच्छा होता जो स्टीव जाब्स ने दुनिया भर के आम लोगों को एप्पल फ्री में खिला दिया होता. यह बहस पुरानी है कि फ्री में क्यों, फ्री में किसलिए. समाजवाद या पूंजीवाद. कौन सा वाद अच्छा वाद…. और हर छोटी छोटी बड़ी बड़ी ऐसी बहसें एक समय के बाद कई लोगों के लिए अनसुलझी रह जाती हैं, उसी तरह जैसे आजतक यह हल नहीं हुआ कि सच्चाई की वैश्विक जयघोष के बावजूद दुनिया में मुनाफा आधारित, पूंजी आधारित, मुद्रा आधारित सिस्टम ही अघोषित रूप से वैल्यू सिस्टम क्यों बना हुआ है.
पूंजी आधारित वैल्यू सिस्टम जब अघोषित रूप से दुनिया का वैल्यू सिस्टम बन चुका है तो फिर हमें इसे घोषित, संवैधानिक रूप में मानने-बताने में क्या दिक्कत और क्यों नहीं हम खुला ऐलान कर देते हैं कि पूंजी ही अंतिम सच है, इसलिए हे गरीबों, अब नियम-कानून-संविधान वगैरह भूलो, पूंजी के लिए मरो-जियो. हालांकि बिना कहे हो भी यही रहा है. पर दुनिया के हुक्मरानों ने सच को एकरूप में नहीं पेश किया है. सच को अपने मुट्ठी में भींच रखा है और सच की लोक परिभाषा संविधानों, पोथियों, नैतिकताओं के जरिए लोगों में व्याख्यायित-प्रचारित कर दी है.
ज्यादातर लोगों के लिए जीने लायक स्थितियां नहीं क्रिएट हो पा रही हैं, तनाव, दुखों, अवसादों के ढेर लगे हैं हर एक की खोपड़ी पर लेकिन दुनिया ने मरने को गैरकानूनी कह दिया है. पेट भरने के लिए पैसे देने की, रोजगार देने की व्यवस्था नौजवानों के लिए नहीं की गई, वे जब छीनने लगते हैं, लूटने लगते हैं तो उन्हें लुटेरा कहकर मुठभेड़ में मार देते हैं. थोड़ा हटकर, थोड़ा धैर्य से सोचिए. क्या दुनिया में कुछ भी गलत लगता है आपको? गलत-सही की ठेकेदारी अलग-अलग देशों में अलग-अलग लोगों को दे दी गई है और सबने अपने अपने कबीले के नियम-कानून बना रखे हैं, अपनी अपनी सुविधा के हिसाब से. पर हर जगह एक कामन सच है कि कबीलों में अमीर और गरीब होते हैं और ये अमीर-गरीब अपने कर्म से नहीं, अपने पास पाए जाने वाले मुद्रा की मात्रा से नामांकित होते हैं.
मैं खुद को तकनीक फ्रेंडली आदमी मानता हूं, इसलिए स्टीव जाब्स के जीवन को रोचक, प्रेरणादायी और महान मान लेता हूं. पर अगर मैं तकनीक फ्रेंडली नहीं होता तो स्टीव जाब्स का दुनिया से जाना उसी तरह का होता जैसे मेरे पड़ोसी गांव का कोई अपरिचित घुरहू भाई दमे की किसी घनघोर बीमारी से अचानक एक दिन विदा ले लेता और फोन से कुछ महीनों बाद बातों बातों में कोई गांववाला दोस्त बता देता कि अरे वो घुरहूवा मर गया.
: फ़िक्र-ए-दुनिया में सर खपाता हूं, मैं कहां और ये वबाल कहां :
जगजीत सिंह के चले जाने पर ऐसा लगा कि कोई अपने घर का चला गया है. मिडिल क्लास के डाक्टर कहे जाने वाले जगजीत सिंह की आवाज और उनकी गाई गई लाइनों के जरिए करोड़ों भारतीयों ने अपने अवसादों, अपने दुखों, अपने अकेलेपनों का इलाज किया है, विचित्र स्थितियों को जस्टीफाई किया है, ग़मों को सहज रूप से लेने की आदत डाली है. जैसे गांव के किसी आम आदमी के लिए एक लोकधुन उसे दिन भर के दबावों-तनावों से मुक्त कर देती है, उसी तरह किसी लोअर मिडिल क्लास, मिडिल क्लास और शहरी आदमी के लिए जगजीत की आवाज व लाइनें क्षणिक मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करती है. वह अपने दुखों को महिमामंडित होते देख खुश हो जाता है. वह अपने दुख में ग़ालिब जैसा दुख देखने लगता है और दुखों की इस अदभुत एका के आधार पर वह अंदर से समाज-लोगों से दूर होते जाते हुए भी ज्यादा नजदीक पाने लगता है क्योंकि उसे लगने लगता है कि विशाल दुखों को जीने वाले लोग दुखीजन नहीं, बल्कि बड़े आदमी होते हैं. मुझे भी कई बार ऐसी गलतफहमी होती है.
और इस तरह जगजीत जैसे लोगों की आवाज के पास करीब रहते हुए हम एकाकीपन से बच जाते हैं, अवसाद से उबर जाते हैं. लेकिन इस प्रक्रिया में हम दुख को स्थायी भाव बनाने-मानने लगते है. हर शख्स उम्र के एक मोड़ पर अपनी मौत के बारे में खुद के अंदर से बतियाते हुए एक आमराय कायम कर लेता है. उसके बाहर की देह और अंदर का व्यक्ति जिस दिन मौत पर एक हो जाते हैं, वह व्यक्ति दुख को स्थायी भाव बना लेता है और जीने लगता है. जब आप किसी चीज को स्थायी भाव बना लेते हैं तो उससे उबर चुके होते हैं क्योंकि वह हर पल आपके पास रहता है इसलिए उस पर अलग से चिंता करने की कोई जरूरत महसूस नहीं होती. लेकिन जो लोग इसे टालते, भगाते, गरियाते, समझाते रहते हैं, वे बीच-बीच में गहरे डिप्रेसन में उतरने लगते हैं. अचानक से बेचैन हो जाया करते हैं. बहुत कुछ सोचने विचारने लगते हैं. यहां वहां जहां तहां तक पहुंच जाते हैं. और आखिर में पस्त होकर सो जाते हैं. नींद न आने पर न सोना, खूब जगना भी नींद आने की राह को बनाता है. उसी तरह बहुत सोचने, बहुत विचारने और अंतहीन मानसिक कूद-छलांग लगाने के बाद ‘अनिर्णीत पस्त जीत’ हाथ में आ ही जाती है जिसमें ‘अनिर्णय’ और ‘पस्त’ का भाव दबा हुआ, सोया हुआ होता है सो कथित जीत के मारे हम तात्कालिक अवसाद, आवेग से उबरते हुए महसूस होते हैं.
अब जबकि दुख स्थायी भाव बन चुका है तो किसी के मरने जीने पर वैसा आवेग उद्विग्नता निराशा दुख क्षोभ अवसाद नहीं आता जैसा कुछ महीनों के पहले आया करता था. इस नयी डेवलप मानसिकता को मजबूत करने का काम एक छोटी घटना ने भी किया. दरवाजे को पैर से जोर से मार कर खोलने की कोशिश करने जैसी फुलिश हरकत के कारण अपने पैर के अंगूठे में हेयरलाइन फ्रैक्चर करा बैठा. डाक्टर ने प्लास्टर लगाया और तीन हफ्ते तक पैर को धरती से छुवाने से मना किया. सो, जरूर कार्यों के लिए चलने हेतु कांख में दबाकर चलने वाली लाठी का सहारा लेना पड़ा और एक पैर के सहारे कूद कूद कर बाथरूम-टायलेट के लिए चलना पड़ा. शुरुआती दो तीन दिन बेहद कष्ट में गुजरे. इस नई स्थिति के लिए मेरा मन तैयार नहीं था. पर डाक्टर की सलाह पर अमल करना था और अपने बेहद दर्द दे रहे अंगूठे के फ्रैक्चर को सही करना था, सो नसीहत के सौ फीसदी पालन के क्रम में धीरे-धीरे मन को इस हालात के अनुरूप ढलने को मजबूर होना पड़ा.
शुरुआती दो-तीन दिन बीत गए तो मैं शांत सा होता गया. दिन भर सोया बैठा. और रात में दारू. दारू का जिक्र आया तो बता दूं कि दर्जनों बार छोड़ने की बात कही, की, पर हर बार उसे पकड़ने को मजबूर हुआ. बिना इसके सूने व दुखदाई दिखते जीवन में कोई रंग, कोई दर्शन नहीं दिखता. पैर देखने के लिए घर आने वालों में एक नाम अमिताभ जी का भी है. आकर उन्होंने पैर पर चर्चा कम की, मेरे दारू प्रेम पर ज्यादा हड़काया. मैं निरीह और फंसे हुए बच्चे की तरह उनकी हां में हां, ना में ना करता रहा. और अगले दिन दोपहर से ही शुरू हो गया. तब उन्हें फोन करके उसी दिव्यावस्था में बताया कि आपका दारू पर भाषण देना मुझे ठीक नहीं लगा, इसीलिए आज दोपहर से ही शुरू हो गया हूं. वे बेचारे क्या कहते. घोड़ा को नदी तक ले जाने का काम घुड़सवार कर सकता है, उसे पानी पीने के लिए मजबूर नहीं कर सकता. हालांकि अगले दिन सुबह उन्हें मैंने एक एसएमएस भेजकर कहा कि आज से छोड़ रहा हूं और उस आज से छोड़ने के वादे को तीन दिनों तक निभा पाया.
: तूने क़सम मैकशी की खाई है ‘ग़ालिब’, तेरी क़सम का कुछ ऐतबार नहीं है :
अब फिर पीने लगा हूं. चाहता हूं पहले की तरह रोज रोज पीना पर रोज रोज पीने का दिल नहीं करता. और, पीने का सिलसिला, कई लोगों के बीच आनंदित-आप्लावित-आह्लादित होने का सिलसिला भी दुहराव देने लगता है, वैसे में सूनेपन अकेलापन कई बार अच्छा लगता है क्योंकि इसके जरिए कुछ नया माहौल मिलता है. कई बार सोचता हूं कि जो लोग नहीं पीते होंगे, वे कितने दुर्भाग्यशाली लोग होते होंग कि हर शाम उनकी जिंदगी में एक सी होती होगी, बेहद बोर और उबाऊ-थकाऊ. न पीने वाले हर शाम क्या करते होंगे, यह सोचने की कोशिश करता हूं तो लगता है कि वे वही करते होंगे जो मैं न पीने वाली शाम करता हूं. यानि थोड़ा ज्यादा सामाजिक हो जाना. खाना पकाने लगना. बच्चों से उनकी पढ़ाई के बारे में बात करना. किसी से मिलने जुलने परिवार के साथ निकल जाना. कोई फिल्म देख लेना. किसी को घर पर बुलाकर उनसे बतिया लेना. कुछ सरकारी या आफिसियल काम निपटा लेना. कोई उपन्यास या कहानी या लेख वगैरह लिख देना.. और इन सबसे क्या होता है….
खैर, पियक्कड़ों के लिए दुनिया पैदा होने व मरने के बीच के दौरान खेल-तमाशे से भरी होती है और ना पीने वालों के लिए यह दुनिया पैदा और मरने के बीच में बेहद सफल या महान बन जाने के लिए जुट जाने की होती है, सो सबकी अपनी भावना, सबकी अपनी मनोकामना. दारू को लेकर कोई जिद नहीं है. जो ना पीता है, उसके ना पीने के दस अच्छे तर्क होते हैं और उन तर्कों से डेमोक्रेटिक स्प्रिट के साथ सैद्धांतिक रूप से सहमत रहता हूं. और, पीने वालों के अपने जो दस रंजोगम होते हैं, उनसे व्यावहारिक रूप से सहमत रहता हूं. कोई बुरा नहीं है. केवल देखने वालों के नजरिए में फर्क होता है.
एक शराबी मित्र मिला. वो भी दुख को स्थायी भाव मानता है. जगजीत की मौत के बाद एक दिन साथ बैठे थे. नोएडा की एक कपड़ा फैक्ट्री की खुली छत पर. उसी छत पर मांस पक रहा था और उसकी भीनी खुशबू के बीच शराबखोरी हो रही थी. वो दोस्त जीवन त्यागने वाली देह के प्रकार और पोस्ट डेथ इफेक्ट पर बोलने लगा- ”जग को जीत लो या जग में हार जाओ, दोनों को अंजाम एक होता है. फर्क बस ये होता है कि जग के जीतने वालों के जाने पर जग में शोर बहुत होता है जिससे दुखी लोगों की संख्या बढ़ जाया करती है जिससे पूरी धरती पर निगेटिव एनर्जी ज्यादा बढ़ जाया करती है और जो जग में हारा हुआ जग से जाता है तो उसकी चुपचाप रुखसती धरती के पाजिटिव एनर्जी के माहौल को छेड़ती नहीं. तो बोलिए, महान कौन हुआ. जो जग को रुला जाए या जो जग को एहसास ही न होने दे कि ये गया कि वो गया.”
उस विद्वान शराबी के तर्क को दारू के एक नए घूंट के साथ पी जाने को मन था, पर वह गले से नीचे सरका नहीं. सोचने लगा… कि कहीं दुनिया का बड़ा संकट यह बकबक ही तो नहीं है. जिसो देखो वो बकबक का कोई एक कोना थामे पिला पड़ा है. कोई कश्मीर के भारत से अलग होने की संभावना की बात कहे जाने पर पगलाया हुआ हमला कर रहा है तो कोई सारा माल गटककर भी खुद के निर्दोष होने का कानूनी व संवैधानिक तथ्य-तर्क गिनाए जा रहा है, कोई बंदूकधारियों की सुरक्षा से लैस होकर शांति का पाठ पढ़ा रहा है तो कोई शांति के नाम पर संस्थाबद्ध हत्याएं करा रहा है. कोई रुपये के मोहजाल में न फंसने की बात कहकर खुद को मालामाल किए जा रहा है तो कोई नशे से दूर रहने का उपदेश देकर देश में ब्लैक में नशा बिकवा रहा है. कोई पार्टी करप्शन में लीन होने के बावजूद करप्शन के खिलाफ रथ-अभियान चलाने में लगी है तो कोई दंगे कराकर खुद को निर्दोष-अहिंसक बता रहा है.
पर ठीक से देखिए, थोड़ा उबरकर सोचिए, थोड़ा शांत-संयत होकर मन को बांचिए तो पता चलेगा कि इस ब्रह्मांड के अनगिनत वृत्ताकार खेल-तमाशों के एक छोटे से वृत्त में हम भी कैद हैं और उस वृत्त को हम सिर से लेकर पैर तक से नचा नचा कर कुछ कहने समझाने की कोशिश कर रहे हैं पर दूसरा आपका सुनने कहने के दौरान अपना भी सुनता कहता रहता है और इस तरह अरबों-खरबों जीव जंतु प्राणी जड़ चेतन मनुष्य अपनी अपनी दैहिक-मानसिक सीमाओं के भीतर नाच रहे हैं, कह रहे हैं, रो रहे हैं, पुकार रहे हैं, हंस रहे हैं, सो रहे हैं, मर रहे हैं, पनप रहे हैं और कारोबार चल रहा है. जीवन का कारोबार. धरती का कारोबार. ब्रह्मांड का कारोबार. किसी कोने में कोई बाढ़ में फंसा मर रहा है तो कोई भूख से दम तोड़ रहा है तो कोई सुख की बंशी बजा रहा है तो कोई कांख-पाद रहा है…
बिखरे जाल को अब बटोरते हैं. फिर क्या माना जाए. क्या किया जाए. क्या सोचा जाए. कैसे रहा जाए. क्या कहा जाए. क्या सुना जाए. कैसे जिया जाए… बहुत सवाल खड़े होते हैं. माफ कीजिए. मैं अभी इन सवालों के जवाब तक नहीं पहुंचा हूं. पर इतना कह सकता हूं कि पहले फैलिए. खूब फैलिए. सांचों, खांचों, विचारों, वृत्तों, सोचों, वर्जनाओं, कुंठाओं, अवसादों… के माध्यम से इन्हीं से उपर उठ जाइए. जैसे पोल वाल्ट वाला खिलाड़ी लाठी के सहारे लंबी छलांग लगाकर लाठी को पीछे छोड़ देता है. जब तक उदात्तता को नहीं जीने लगेंगे, जानने लगेंगे तब तक जो हम करेंगे कहेंगे जियेंगे वह औसत होगा, किसी और की नजर में हो या न हो, खुद की नजर में औसत होगा. और जिस दिन खुद को आप खुद के औसत से उच्चतर ले जाने की सोच में पड़ जाएंगे, कुछ न कुछ नया करने लगेंगे, और स्टीव जाब्स के शब्दों में ”स्टे हंग्री, स्टे फुलिश” की अवस्था में रहकर बहुत कुछ कर पाएंगे. तड़प होना दूसरों को बेहतर करने की, एक ऐसी खोज, एक ऐसी यात्रा की शुरुआत कराती है जिस पर हम तमाम बाहरी दिक्कतों, दिखावों, दुनियादारियों के बावजूद चलते रहने लगते हैं.
और संक्षेप में बात कहना चाहूंगा ताकि अमूर्तता खत्म हो और बातें साफ साफ समझ में आएं. आप जैसे भी हों, अपनी मानसिक ग्रोथ के लिए प्रयास करें वरना अटक जाएंगे किसी गैर-मनुष्य जीव के बौद्धिक स्तर पर और फंसे हुए टेप की तरह रिपीट मारकर बजने लगेंगे जिससे बहुतों को सिरदर्द होगा और आखिर में आपको भी माइग्रेन या साइनस की दिक्कत हो जाएगी. जब आप खुद की मेंटल ग्रोथ करते, पाते हैं तो अपने अगल बगल वालों को भी खुद ब खुद बहुत कुछ दे देते हैं जिससे उनकी ग्रोथ होती रहती है. अभी बड़ी दिक्कत बहुतों की चेतना के लेवल के जड़ होने की है. जीवन स्थितियां ऐसी क्रिएट की गई हैं, सिस्टम ऐसा बनाया गया है कि बहुत सारे लोग मनुष्य की देह में जानवर जैसी सोच-समझ रखते हैं जिस कारण समाज और देश-दुनिया में बहुत सारे विद्रूप देखने को मिलते हैं जिससे हमारे आपके मन में दुख पैदा होता है.
यह हालत सिर्फ कम बुद्धि वालों को पैसे दे देने से भी खत्म नहीं होगीं. पैसा का इस्तेमाल हर कोई अपनी बुद्धि विवेक के अनुसार करता है. बहुत ज्यादा बुद्धि रखने वाला कमीना आदमी पैसा बटोरकर विदेश के बैंक में रख देगा. बहुत कम बुद्धि वाला पैसा बटोरकर कई बीघे खेत खरीद लेगा और बाकी का दारू-मुर्गा में लगा देगा. तो पैसे से हालात नहीं बदलने वाले. हालात बदलेंगे जब हम शिक्षा को टाप प्रियारिटी पर रखें और एजुकेशन में पढाई गई बताई गई पवित्र चीजों, पवित्र भावना के अनुरूप सिस्टम को चलाएं-बढ़ाएं-बनाएं. पढ़ने और करने में जो हिप्पोक्रेसी है, जो भयंकर उलटबांसी है, वह अंततः पढ़े लिखे को बेकार और चोर-चिरकुट को समझदार साबित करता है. आजकल का माहौल ऐसा ही है. जिसने पढ़ लिखकर सत्ता का हिस्सा बनकर खूब चोरी कर ली, वह बड़ा आदमी और जो ईमानदारी से काम करे वह सड़ा आदमी. कुछ ऐसी हालत है आजकल की.
: बेख़ुदी बेसबब नहीं ‘ग़ालिब’, कुछ तो है जिसकी पर्दादारी है :
विद्रोह और प्रेम. ये दो शब्द लगते अलग अलग हैं, पर हैं एक ही सिक्के के दो पहलू. सच्चा प्रेम वही कर सकता है जो विद्रोही हो. जो विद्रोही होता है वह सच्चा प्रेमी होता है. विद्रोही केवल अपने लिए नहीं जीता. वह अपने जैसी स्थितियों में रहने वालों का प्रतिनिधि होता है. मतलब वह बहुत सारे लोगों के लिए आगे बढ़कर नेतृत्व करता है, लड़ता है जड़ता से. तो वह उन सबसे प्रेम करता है जो हाशिए पर किए गए हैं, वंचित किए गए हैं. वह सच्चा प्रेमी है. और जो सच्चा प्रेमी है वह लड़ता है अपने प्रेम के लिए, अपने हक के लिए, अपने सिद्धांत के लिए. बिना प्रेम किए विद्रोह संभव नहीं है. विद्रोही प्रेम ना करे, यह असंभव है. यह चरम अवस्था है. यही उदात्तता है. इसी में आनंद है.
स्टीव जाब्स और जगजीत सिंह के न रहने के बहाने अपने दुख-सुख-सोच-समझ की जो नुमाइश की है, उससे भले ही आपके कुछ काम लायक ना मिले पर मैं यह सब लिखकर कुछ ज्यादा उदात्त और संतोषी महसूस कर रहा हूं खुद को. मुझे खुद के उलझे हुए होने को सुलझाने के लिए कई बार मदिरा, तो कई बार कागज कलम, तो कई बार संगीत तो कई बार जादू की झप्पी लेने-देने की जरूरत महसूस होती है… और इसी तरह का हर किसी का होता है कुछ न कुछ. दुख का स्थायी भाव बनना विद्रोह की निशानी होती है. और, विद्रोही ही दुखों से ताकत खींच-सींच पाते हैं. सो, अपने स्थायी-तात्कालिक दुखों से दुखी होने के दिन नहीं बल्कि उससे ताकत लेकर मजबूत होने के दिन हैं, उदात्त होने के दिन हैं, ताकि शब्द, तर्क, शोर के परे के असीम आनंद को जीते-जी महसूस कर सकें हम-आप सब.
अपने प्रिय ग़ालिब साहिब की उपरोक्त कई जगहों पर कुछ एक लाइनों के बाद अब आखिर में, यहां चार लाइनों को छोड़ जा रहा हूं गुनने-गुनगुनाने के लिए…
तुम न आए तो क्या सहर न हुई
हां मगर चैन से बसर न हुई
मेरा नाला सुना ज़माने ने
एक तुम हो जिसे ख़बर न हुई
(सहर यानि सुबह, बसर यानि गुजर-बसर वाला बसर और नाला यानि रोना-धोना शिकवा-गिला-शिकायत)
((हैदाराबाद में रह रहे बुजुर्ग पत्रकार भरत सागर जी से कहना चाहूंगा कि आपकी उस एक लाइन वाली मेल से इतना भारी भरकम लिख बैठा जिसमें आपने अनुरोध किया था- ”Jagjeet Singh par aapko sun ne ki tamanna thi !” पता नहीं क्या लिखा और कैसा लिखा, लेकिन हां, जो भी लिखा, आपके कहने के कारण लिखा क्योंकि मैं ठहरा भड़ास का क्लर्क जो दूसरों के लिखे को ही छापते देखते जांचटे काटते पीटते थक जाता है, सो, अपना भला कब और क्यों लिख पाएगा. भरत सागर जी मेरा प्रणाम स्वीकारें और मैं उनके लिए लंबी उम्र व अच्छी सेहत की कामना करता हूं. -यशवंत))
लेखक यशवंत भड़ास4मीडिया से जुड़े हुए हैं. उनसे संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है.
sameer shukla
October 12, 2011 at 11:12 pm
yashwant ji app ne ek bar fir se apne bindas andaz me jeevan ke kuch aese anchhuey pahluyo ko chu liya jo …jo kai logo ke zehen me halchal to har pal karti hai per wo esse sabdo me nahi dhal pate….app ke es sandar artical ke liye badhyi ….bus ab etna hi kahna chahta hu ki sabdo ka khel hai jindagi koi ek sabad me jeevan ka saar kah jata hai aur koi ek sabad ki liye pure jindagi gawa jata hai….asha karta hu jald hi bhadas par jald hi app ki lekhni ka kuch naya leakh padhunga.
कुमार सौवीर, लखनऊ
October 13, 2011 at 5:14 am
मिली शराब की बूंदें तो फिर से जी गया है शहर,
यकीन मानिये, कई दिन से, बहुत उदास था मैं।
Anil Gupta
October 13, 2011 at 10:15 pm
यसवंत भया आप भड़ास के क्लर्क नही कमिश्नर हैं /. जब लिखते हैं तो कलम तोड़ देते हैं….
Sanjay chandna
October 14, 2011 at 8:04 am
भाई यशवंत जी आप लिखते तो कमाल हैं, प्रतीत होता है कि मेरे मन का ही तो है ये सब…….. बस कम्बख्त एक ही प्राबलम है…… अभी बजे हैं दोपहर के 12 एवं आपका लेख पढकर जो सबसे पहली जो प्रतिकि्रया मन में आई वो ये कि चल उठ भाई दो पैग लगा ले………आगे से आपका लेख सांयकाल में ही पढा जायेगा……… लिखते रहियेगा…..
😉
prashant
October 14, 2011 at 5:39 pm
किश्तों में लिखो, बढ़िया रहेगा. एक बार में सप्ताह भर का राशन गले में उतार दोगे तो क्या होगा.