जिस राडिया प्रकरण को लेकर देश दुनिया मे भारत की भद्द पिट रही है, उस प्रकरण को सरकार का भ्रष्टाचार माना जाये या मीडिया में अब तक का सबसे बड़ा भ्रष्टाचार, क्योंकि इस राडिया प्रकरण ने भारतीय मीडिया और उसके बड़ी मूंछ वालों की कलई खोल दी है। लेकिन शुक्र है राडिया प्रकरण की, जिसने यह भी साबित कर दिया है कि जिस बड़े पत्रकारों का नाम जप कर नए व पुराने मीडियाकर्मी अघाते नहीं थे, वे पूंछ उठने के बाद मादा निकल गए।
ये वही मादा हैं जिन्होंने सिर्फ अपने लिए मीडिया का सहारा लेकर सत्ता-शासन और ऐशो आराम का लुत्फ उठाते रहे। यह बात और है कि इन मादाओं के खेल से हमारा समाज स्तब्ध है और मीडिया की विश्वसनीयता खतरे मे पड़ती दिख रही है। लेकिन यह भी उतना ही सच है कि ऐसे मादाओं के कारण ना तो ये विशाल देश बदनाम हो सकता है और ना ही हमारी मीडिया पूरी तरह से बर्बाद व अविश्वसनीय।
लेकिन सबसे बड़ा तो सवाल ये है कि मीडिया के क्रियाकलापों और पत्रकारों के आचरण पर नजर रखने के लिए जो संस्थाएं काम कर रही हैं वो पूरी तरह से मूकदर्शक बनी हुई हैं। प्रेस कौंसिल, एडिटर्स गिल्ड और ब्राडकास्ट ऐसोसिएशन की चुप्पी जाहिर करती है कि ये संस्थाएं या तो नपुंसक हैं या किसी बड़ी मछली के बारे में कुछ भी कहने में असमर्थ। जिस तरह अमेरिका के सामने संयुक्त राष्ट्र संघ नतमस्तक है, उसी तरह बड़े मादाओं के सामने ये संस्थाएं। लगता है कि ये संस्थाएं भी बड़े मादाओं की तरह ही संचालित हैं, तभी इतना कुछ होने के बावजूद उधर से एक आवाज तक नहीं उठ रही है।
राडिया प्रकरण से जुड़े जिन बड़े लोगों का नाम संलग्न है, उनमें सब के सब बड़े हैं और पत्रकारों के बीच आदर्श माने जाते रहे हैं। वीर सांघवी, बरखा दत्त, प्रभु चावला और कई। ये वैसे नाम हैं जिनसे मिलने के लिए पत्रकार लालायित रहते हैं। और इनसे शिक्षित होना चाहते हैं। लेकिन क्या आज का पत्रकार अब इन लोगों से मिलने की कोशिश कर सकता है? क्या इनके नाम अदब से लिए जा सकते है? सवाल कई और खड़े हो सकते हैं, लेकिन सबसे बड़ी बात ये है – क्या भारतीय मीडिया और उसके मठाधीश इस खेल और उसके खिलाड़ी को दोषी मानते हैं?
राडिया प्रकरण से जुड़े पत्रकारों का तर्क है कि वे सूचना पाने के लिए राडिया से बातचीत कर रहे थे। इन पत्रकारों ने कहा है कि वे राडिया के जरिये कारपोरेट और राजनीति के उस खेल को जानना चाह रहे थे, जिसके जरिए देश की सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था को लूटा जाता है। इन पत्रकारों का ये तर्क यहां तक तो सही है, लेकिन क्या इन लोगों ने इतनी जानकारी लेने के बावजूद इस बातचीत या इस खेल को जनता के सामने रखने की कोशिश की! नहीं और हरगिज नहीं की!
छोटे-छोटे शहरों और कस्बाई इलाकों में पेट-परिवार चलाने वाले छुटभैये पत्रकार जब छुटभैये नेताओं से लेन-देन के खेल से दो-चार होते हैं, तब यही स्वयंभू बड़े पत्रकार सेमिनारों, वर्कशॉपों और सम्मेलनों में मीडिया की गिरती शाख पर सवाल उठाकर तालियों से सम्मानित होते हैं, लेकिन कभी ये पत्रकार भूख-गरीबी और बिना वेतन से जूझ रहे हजारों पत्रकारों को कैसे मजबूत किया जाये, इस पर एक शब्द भी बोलना नहीं चाहते। ऐसे में तो यही लगता है कि जिस तरह हमारी सरकार गरीबों की राजनीति करके दलाल अमीरों की लंबी सूची बनाती है, ठीक उसी तरह पत्रकारिता के नाम पर सौ से ज्यादा पत्रकार करोड़ों का खेल करते हैं।
ऐसे में सबसे बड़ी बात तो ये है कि इन स्वयंभू पत्रकारों के आय एवं सम्पत्ति की जांच होनी चाहिए और सरकार को ऐसे पत्रकारों को जांच के घेरे में रखना चाहिए। जब मीडिया लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ है, तब इसके लोगों की संपत्ति की जांच क्यों नहीं हो रही? राडिया प्रकरण के इस पूरे खेल में एक नई बात और सामने आई है, वह है हिन्दी और अंग्रेजी माध्यम की। जिन बड़े मादाओं से राडिया ने बातचीत की है वे लगभग सभी अंग्रेजी मीडिया से जुड़े हैं, जाहिर है कि अंग्रेजी मीडिया सत्ता के ज्यादा नजदीक है। ऐसे मे कहा जा सकता है कि अंग्रेजी के पत्रकार बड़े खेल के माहिर हैं और हिन्दी वाले छोटे खेलों के लिए अभिशप्त।
वरिष्ठ पत्रकार अखिलेश अखिल बिहार के मुजफ्फरपुर जिले के निवासी हैं. पटना-दिल्ली समेत कई जगहों पर कई मीडिया हाउसों के साथ कार्यरत रहे. मिशनरी पत्रकारिता के पक्षधर अखिलेश अखिल से संपर्क mukheeya@gmail.com के जरिए किया जा सकता है.
Comments on “मीडिया की नपुंसक संस्थाएं”
akhilesh jee patrakar se bada napunshak prani sanshar me dushra koee nahi hoga. yah napushank hee nahee kayar bhi hai.dushre ke atyachar ke khilaf too likhega lekin apne liye kuch bhi nahee likh pata.aaj tak ek bhi aandolan apni behatari ke liye isne kiya ho o bhe apen malik ke khilaf to bata digiye ek shyr hai khudu ke ghar se kuch gadhe farar ho gaye kuch pkre gaye kuch patrakar ho gaye. sahmat hai na.
han, akhilesh jee ek baat to likhna hee bhool gaya tha.yah bhram kb se pal liya ki patrkar loktanta ka chautha khamba hai. kesne chautha khamba hai.shavidhan me likha hai kaya?khud ko chautha khamba kayon man liya.man bhi len ki vah chautha khamba hai to baki tino se vah kamjoor kayn hai. vidhika ke talove kayn chata hai.karyapalika ko tail kayon lagata hai.bataeivega jaroor
“”आपने बहुत सटीक और कटु सत्य लिखा है .ये तथाकथित बडे पत्रकार कस्बाई पत्रकारों के कन्धों पर चढ़ कर बड़ी बड़ी संस्थाओं का गठन करते है और उन्ही के संख्या बल पर केंद्र और राज्य सरकारों से धन व सत्ता में हिस्सेदारी ले कर मौज करते है .बदलते समय के साथ कारपोरेट वर्ल्ड भी इनके लिए एक और दूध देती गाय मिल गयी है .
वैसे ये कोई नयी बात नहीं है , मुझे उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ के एक पत्रकार संगठन की १९८४ की एक बैठक में पत्रकारों के एक बड़े नेता के शब्द आज भी याद है क़ि “” कस्बाई पत्रकार , पत्रकारिता की छवि खराब करते रहते है जिसका बुरा असर पड़ता है पर हम उन्हें छोड़ भी नहीं सकते क्यूंकि यही संख्या बल हमारी नींव है , इस लिए इन कस्बाई पत्रकारों को शो पीस के नाम पर हमें अपने साथ रखना एक मजबूरी है “”
होता यह है क़ि मलाई ये तथाकथित बड़े पत्रकार चाट जाते है और बदनामी कस्बायी पत्रकारों के माथे पर चिपका देते थे , भला हो नीरा राडिया का जिसने इन मठाधीशों को नंगा कर इनकी असलियत सब के सामने ला दी .
अब कम से कम इन तथाकथित भलमनसाहत के ठेकेदारों के चेहरों क़ि कलयी तो उतर गयी .
कस्बायी पत्रकार तो बेचारे थे , हैं और रहेंगे , पर भला हो नीरा राडिया का जिस ने वो काम कर दिखाया है, जो शायद और कोई नहीं कर पाता , वो भी पक्के और ठोस सबूतों के साथ , ये बात अलग है क़ि ये सारे चालबाज व ठग जो पत्रकारिता के नाम पर अपने आप को चमकाने के साथ साथ अकूत दौलत कमाँ चुकें हैं , कोई ना कोई जुगत कर के अपना लूट का धंधा बराबर जारी रखने में फिर सफल हो जायेंगे , वजह यह है क़ि , सच का मुलम्मा चढ़ा कर झूठ का नाच नाचने वालों के पास बड़ी ताकत है , जिनसे ना सरकार लड़ सकने की हिम्मत दिखाएगी और ना अखबार मालिकान.
…”” इसलिए जय बोलो बेईमानों की “”……”” इसलिए जय बोलो बेईमानों की “”..”” इसलिए जय बोलो बेईमानों की “””” इसलिए जय बोलो बेईमानों की “””” इसलिए जय बोलो बेईमानों की “””” इसलिए जय बोलो बेईमानों की “””” इसलिए जय बोलो बेईमानों की “”
अंग्रेजी भाषा में दलाली करते हैं तो इसका जोरदार इंपैक्ट पड़ता है, क्योंकि इसमें क्लोजनेस की फिलींग के साथ-साथ हर मसले को हाय हैलों करते हुये हल कर लेते हैं…तमाम तरह के गिल्ड जो हैं वे भी अंग्रेजियत की पकड़ में है…वैसे अंग्रेजी से कोई दुश्मनी नहीं है….लेकिन इसका जो इस्तेमाल हो रहा है वो देखने लायक है….इस पूरे प्रकरण में कुछ तोप टाइप पत्रकारों की विश्वनीयता गई है..पत्रकारिता की नहीं….यह पत्रकारिता ही है जो इनके असली चेहरे को सामने ला रही है…नेट जर्नलिज्म ने तो पत्रकारिता के फलक को और भी धारदार कर दिया है…..सूचना की जय हो, सूचनाओं के डिजिटल वितरण की जय हो….अभी बहुत कुछ बाकी है….
Patrakaro ki sampatti ki jaanch ka sujhaav dilchasp hai. Waakai in mathadheesho ki sampatti ke baare me jaan-na manoranjak hoga.
AAJ KI PRESS REPORTING VASTAV ME CHAPLUSO/DALALO KI HO GAYI LAGTI HE.FIR BHI KAIN SANGATHAN PATRKARON KE KHERAMKHWA BANANE KA DHONG KAR RAHE HAI. NETAON KE RANG ME RANGE YE REPORTER SUVIDHON KE LIYE KIS HAD TAK GIR JAYEN KALPANAO SE DUR HO SAKATA HAI. GLAIMARNESS RANG ME DUBI REPORTING CHAYE WALE TAK KE LOG PEPAR KI DUNIYAN ME NA JANE KAB GHUS GAYE.. UK JAISE NAYE STATE ME UP KE SAMAY ME GRAM PRADHAN/SABHASADI KA CHUNAV LADNE WALE NETA VIDHAYAK V MINISTER BAN BAITHE YE KYA JANE PATRKARITA KE MAYANE. ENHE TO ES TARAH KE LOGO SE KAM JO LENA HAI. KABHI NETAO KI CHOKHATO PAR JUTE GHISANE WALE YE LOG YAHAN MAHARAJA JO BAN GAYE. VIGYAPTION KO BATANE WALE LAL BATTIYON ME SAVAAR HOKAR HEKADI OR DHANBAL PAR GIRE LOGO KO SAATH LEKAR MIDIA KO APANI JEB ME SAMAJH BAITHE HAI LEKIN NETAON KO SAVDHAN HOKAR APANI JAMEEN KO SURAXHIT KARNE KO AAL MIDIA KA SAMMAAN KARNAA HOGAA ESME HI NETA KI BHALAEI HAI.