मैं राम बहादुर राय, छुट्टा पत्रकार हूं

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दरियागंज (दिल्ली) में ”प्रज्ञा” आफिस में कल शाम एक बैठक हुई. प्रभाष न्यास की तरफ से. एजेंडा था मीडिया के हालात पर चर्चा करना और प्रभाष जी की स्मृति में होने वाले आयोजन को फाइनलाइज करना. रामबहादुर राय ने संचालन किया और नामवर सिंह ने अध्यक्षता. बैठक की शुरुआत हो जाने के बाद राम बहादुर राय अचानक उठ खड़े हुए और बीच में बोलने के लिए मांफी मांगते हुए बोल पड़े.

उन्होंने कहा कि एक गलती हो गई है. आपस में हम सभी का परिचय नहीं हुआ. सब लोग अपना-अपना परिचय बैठे-बैठे ही दे दें ताकि जो जिससे परिचित नहीं है, वो उसके बारे में जान जाए, उसके बाद बैठक की कार्यवाही को आगे बढ़ाते हैं. और, पहल करते हुए राम बहादुर राय ने सबसे पहले खुद अपना परिचय दिया, इन शब्दों में- ”मैं राम बहादुर राय, छुट्टा पत्रकार हूं.” खुद को ‘छुट्टा’ कहते हुए राम बहादुर राय थोड़ा मुस्कराए, वहां बैठे अन्य लोग हंसे. राय साहब की देखादेखी कुछ और पत्रकारों ने भी अपना परिचय देते हुए खुद को ‘छुट्टा’ बताया. इस प्रकार ‘छुट्टा’ शब्द सभी के दिमाग में टंक-टंग चुका था.

बैठकों में आमतौर पर जो कुछ होता-हवाता है, यहां भी हुआ. मीडिया के सामने कई तरह की चुनौतियों पर चर्चा हुई. आजकल मीडिया पर जहां कहीं भी बातचीत होती है तो वहां न्यू मीडिया पर चर्चा भी खुद ब खुद शुरू हो जाया करती है. इस बैठक में भी न्यू मीडिया और भड़ास इत्यादि पर कई लोगों ने सवाल उठाए और अपने विचार रखे. संभवतः मेरे होने से भी न्यू मीडिया को लेकर कुछ ज्यादा ही सवाल-जवाब हुए, जबकि यह सब एजेंडे में न था पर एजेंडा भी बहुत बांध बनाकर नहीं था, सो, जहां से जो विचार प्रवाह आया, उसे सबने स्वीकारा, महसूसा.

राम बहादुर राय ने सबकी कही गई बातों के सार को कागज पर नोट कर लिया था और नामवर सिंह के अध्यक्षीय संबोधन के ठीक पहले उन्होंने अभी तक आए सुझावों की लिस्ट को पढ़कर सुनाया. मैं सोचने लगा, इस उम्र में भी राय साहब एक युवा संगठनकर्ता की तरह छोटी छोटी बातें नोट करते रहे और सारी बातचीत के सार व सुझावों को आखिर में सबके सामने पेश कर दिया. ये काम वह चाहते तो किसी और से भी करा सकते थे, पर उन्होंने खुद किया, ताकि संजीदगी और ईमानदारी बने रहे. जब उन्होंने सुझावों को पढ़ना शुरू किया तो अचानक से दस पंद्रह लोगों ने कागज कलम निकालकर उन्हें नोट करना शुरू कर दिया. शायद हम लोगों की पीढ़ी पका-पकाया पाने-खाने के इंतजार में रहती है. बिना-हाथ पांव चलाए परिणाम पा जाने की चाह में रहती है.

सुझाव कई तरह के थे…. यथा- सिर्फ बातचीत ही न हो, एक्शन भी हो. दूसरे भाषा-भाषी राज्यों को भी जोड़ा जाए. चुनावों में पेड न्यूज पर नजर रखने के लिए कमेटी बने. नए चैनलों के बैकग्राउंड की जांच की जाए. प्रेस कमीशन बनाने की मांग हो. आदि. आदि.

बताया गया कि इंदौर में वहां का प्रेस क्लब इस बार प्रभाष जी की स्मृति में बड़ा आयोजन कर रहा है और इसी आयोजन के सिलसिले में ठीक उसी समय इंदौर में भी प्रेस क्लब के लोगों की तैयारी बैठक चल रही है. आखिर में नामवर सिंह बोले. बेहद निरीह व निर्दोष की तरह- कि मैं तो सुनने आया था और बहुत कुछ सीखा हूं और चूंकि मैं तो पत्रकार हूं नहीं सो, बोल कैसे सकता हूं मीडिया पर. बड़े धूर्त व दयनीय किस्म के लगे नामवर. पर ना ना कहते हुए भी वे मीडिया पर बोलने लग गए. उनसे पहले रामशरण जोशी ने मीडिया के पूरे परिदृश्य पर प्रकाश डाला. अपने समय जो पत्रकारों को जो जाब व आर्थिक सेक्युरिटी थी, उसकी चर्चा करते हुए आजकल के माहौल के बारे में बताया.

कई अन्य लोगों ने अपनी बात, अपने अनुभव रखे. चाय, बिस्कुट का दौर भी चलता रहा. नामवर सिंह के इस कहिन के बाद कि प्रभाष न्यास सिर्फ जागरूकता फैला सकता है, इससे ज्यादा ताकत व संसाधन इसके पास नहीं है, बैठक के अंत की घोषणा की गई और सब लोगों को समोसा, मिठाई खाने को निमंत्रित किया गया. कुमार संजाय सिंह थोड़ा देर से पहुंचे. पर बैठक में वे भी बोले. और अपने अंदाज में बोले. न्यू मीडिया से दुखी दिखे. अनाप-शनाप छापे जाने और चरित्र हनन की परंपरा को उखाड़ फेंकने का आह्वान कर डाला. मिठाई तो टाइम से मिल गई पर समोसा आने में काफी वक्त लगा. और, सब लोग प्रणाम सलाम नमस्ते कहते हुए चल पड़े. रास्ते में मैं सोचता रहा छुट्टा शब्द के बारे में. कार आईटीओ के पास पार्क किया था, सो उमेश चतुर्वेदी जी के साथ रिक्शे पर बैठकर दरियागंज से आईटीओ के लिए चले.

रिक्शा पर रिक्शे को लेकर थोड़ी चर्चा हुई. उमेश जी ने बताया लोहिया जी रिक्शे पर नहीं बैठते थे, क्योंकि मनुष्य द्वारा मनुष्य को खींचा जाना गुलामी की तरह होता है. मेरा मत था कि रिक्शे वालों को किराया बढ़ा चढ़ाकर देना चाहिए क्योंकि ये लोग ही असल मेहनत करते है, इनका वाकई खून पसीना जलता है. और यह भी कि, अगर बेरोजगारी इतनी है, लोग रिक्शा चलाकर जिंदा रहने की कोशिश न करें तो लाखों को बेमौत मरना पड़ेगा, भूख के मारे. इसलिए रिक्शा आपद धर्म है. रिक्शा चलाने की मजबूरी प्रदान करने वाले सिस्टम को उलटे बिना रिक्शा को उलटना सामूहिक भुखमरी को जन्म देने जैसा होगा.

रिक्शे से उतरकर जब कार पर सवार हुआ और गाड़ियों की रेलमपेल में स्लो-स्पीडी होते हुए घर की ओर रवाना हुआ तो राम बहादुर राय द्वारा बोले गये वाक्य ”मैं राम बहादुर राय, छुट्टा पत्रकार हूं” को कार के अंदर ही यदा-कदा जोर-जोर से बोल पड़ता, चिल्ला पड़ता. वैसे, मुझे अकेले कार ड्राइविंग के वक्त कोई भी वाक्य अचानक बोल पड़ने की आदत है, इससे बहुत राहत पाता हूं. पर ”मैं राम बहादुर राय, छुट्टा पत्रकार हूं” दो-चार बार चिल्लाया, वहां वहां जहां जहां लाल बत्तियां मिलीं और कार को रोकने के लिए मजबूर होना पड़ा तो महसूस किया कि बड़ी ऊर्जा मिली. लगा कि कुछ सींग और जम गए हैं मेरे, और देर तक लाल बत्ती रही तो शायद कार को कुदा दूं, भले ही मार्च महीने में कोटा पूरा करने की मजबूरी में फाइन लगाने को मुंह बाए, जगह-जगह गैंग बनाए ट्रैफिक वाले घेरघार कर मुझे पकड़ लें और जुर्मनिया दें.

कितना मस्त शब्द है छुट्टा पत्रकार. हाल-फिलहाल ही राम बहादुर राय प्रथम प्रवक्ता मैग्जीन से अलग हुए. और अब वे खुद को छुट्टा मान रहे हैं. बेहद गर्व के साथ. लोग खुद को स्वतंत्र पत्रकार कहने लगते हैं जब वे किसी संस्थान की गुलामी से हटते या हटाए जाते हैं. पर इससे बेहतर शब्द है छुट्टा पत्रकार. कुछ कुछ भाव सांड़ वाला आ रहा है, ज्यादा दाएं बाएं हुए तो सींग लगा कर उठाकर फेंक देंगे. वाकई में असल ताकत तो छुट्टा पत्रकारों के पास ही होती है. कारपोरेट पत्रकारिता करने वालों के हाथ-पांव पहले ही बांध दिए जाते हैं कि उन्हें क्या करना है और क्या नहीं करना है. सो वो चाहते हुए भी बहुत कुछ नहीं कर कह लिख पाते हैं. लेकिन छुट्टा पत्रकार तो उस उन्मुक्त सांड़ की तरह होता है जो जहां चाहे ताक झांक करे और जिसे चाहे दौड़ा ले. असीम ताकत का बोध कराने वाला यह शब्द उन पत्रकारों के लिए नसीहत की तरह है जो किसी संस्थान की गुलामी से अलग होने के बाद खुद को दीनहीन व बेचारा मान बैठते हैं और अपने छुट्टापन को बेरोजागारी का काल मानकर कलपते रहते हैं. जय हो छुट्टा पत्रकारों की और जय हो राय साहब की.

यशवंत

एडिटर

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Comments on “मैं राम बहादुर राय, छुट्टा पत्रकार हूं

  • Anil Saxena says:

    “Chutta Patrakaar” shabd bhale hi aap ko bechain kar raha ho kyo ki ye Ram Bahadur Rai ne bola hai. Agar yahi kisi janpadea patrakaar ne bola hota to use badi hikaarat se dekh rahe hote.

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  • गुरु क्या पते कि बात कही.पत्रकारीय पेशे के अनरूप जीवनशैली जीने वाले राम बहादुर राय का यह अंदाज खूब जचा….एक वाक्य से इतने बड़े फसाने की कहानी बंया होते देख खुशी हुई…खैर राय साब जैसे दुर्लभ मसिजीवी पत्रकारों की प्रजाति अब लुप्तप्राय होने के कगार पे है…बाकी सब नित नई पैदा होने वाली प्रजाति के होने का दावा करते हैं, जिनकी बिकने की कीमत बाजार में मौजूद है..

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  • savji chaudhari says:

    कारपोरेट पत्रकारिता करने वालों के हाथ-पांव पहले ही बांध दिए जाते हैं कि उन्हें क्या करना है और क्या नहीं करना है. सो वो चाहते हुए भी बहुत कुछ नहीं कर कह लिख पाते हैं. लेकिन छुट्टा पत्रकार तो उस उन्मुक्त सांड़ की तरह होता है जो जहां चाहे ताक झांक करे और जिसे चाहे दौड़ा ले.

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  • रिक्शे वालों को ज्यादा किराया देने से बात नहीं बनेगी
    उनका ज्यादा उपयोग करना चाहिए ताकि उनका जीवन यापन चल सके अगर उनका किराया बढाया गया तो यह संस्था को ही ख़तम कर देगा और लाखो लोगों का रोज़गार छीन जायेगा

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  • shravan shukla says:

    wahh …chhutta patrakaar… M4B ke mobile service se jab se msg mila bechain tha…link dhhoondhe nahi paya to yashwant ji se mangakar padha…laga ki abhi dam hai…in CHHUTTEI patrakaaron me…jindagi aage bhi aise hi daudati rahi toi koshis karunga ki inhi CHHUTTO Me mera bhi name aaye…JAY BHADAS>>>

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  • om prakash gaur says:

    जिन्होंने राय साहब कि हिंदुस्तान समाचार मैं पहले दिन क़ी पत्रकारिता सर लेकर आज तक क़ी पत्रकारिता को कभी दूर तो अभी पास से देखा है वे सब जानते हैं कि राय साहब जन्मजात छुट्टे पत्रकार हैं. जब जब वे बंधें थे तब भी व्यवहारिक रूप से छुट्टे ही रहे हैं. ओम प्रकाश गौड़ भोपाल मोब.- 09926453700

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  • chandra kant says:

    samradh patrakarita karne wale patrkar sansthaoun ke sirmour bane rahtey hain aur karyakarm ki adhyachta karteyn hain
    per chhuta patrakar ban kar manch per baney rahna her kishi ki bat nahin

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