हिंदी पट्टी के लोगों में उद्यमिता के लक्षण कहीं दूर दूर तक नहीं होते. सिपाही से लेकर कलेक्टर तक बनने की हसरत लिए बच्चे जवान होते हैं और बीच में कहीं घूसघास के जरिए या टैलेंट के बल पर फिटफाट होकर नौकरी व उपरी कमाई का काम शुरू कर देते हैं और इस प्रकार जिंदगी की गाड़ी टाप गीयर में दौड़ाने लगते हैं.
वह आदमी जो किसी के लिए पैसा लेकर काम करता है, नौकर कहलाता है. और इस करने की प्रक्रिया को नौकरी कहते हैं. गुलामी और नौकरी में थोड़ा-सा ही फर्क है. गुलामी में आपकी जिंदगी के लिए कोई विकल्प नहीं होता, सेवा-शर्तें नहीं होती. नौकरी में आप नौकर बनने के अलावा के वक्त में अपनी निजी जिंदगी जी पाते हैं. नौकरी की सेवा-शर्तें होती हैं. आजकल के मार-काट-इंग (मार्केटिंग) माहौल में कई जगहों पर नौकरी व गुलामी के बीच का फासला खत्म हो जाता है. कई मीडिया कंपनियों में भी कई पत्रकार अपने बारे में तय नहीं कर पाते कि वे यहां के नौकर हैं या गुलाम. इसी कारण कई बार गुलामों को लगता है कि वे नौकर हैं और नौकरों को लगता है कि वे गुलाम है. फासला जो बड़ा महीन सा है.
चंद रुपये के लिए करेजा काट कर रख देने वाली धुंधली दृष्टि युक्त हिंदी पट्टी के अपने रणबांकुरें भला सोच भी कैसे सकते हैं कि वे खुद उद्यमी बनें, वे खुद मालिक बनें, वे खुद कंपनी चलाएं. क्योंकि यह सोचने और करने का अधिकार तो सिर्फ गुप्ताज, अग्रवाल्स, माहेश्वरीज, जैन्स, मारवाड़ीज, लालाज आदि को होता है. हम आप तो पैदा ही हुए हैं इनकी गुलामी करने के लिए, महीने में मिलने वाले चंद सैकड़ा नोटों की खातिर मरने-खपने के लिए. तो, इस बंधी-बंधाई नौकरी-गुलामी वाली परंपरा से अलग कोई कुछ कर पाए, खासकर हिंदी पट्टी वाला तो उसे साहसी आदमी मानना चाहिए और अगर वह यह काम न्यूनतम बेइमामी के साथ अधिकतम ईमानदारी के उद्देश्य के लिए करे तो साहसी के साथ उसे महान आदमी भी मानना चाहिए.
और, अगर बिना किसी आर्थिक बैकग्राउंड वाला कोई व्यक्ति साहित्यिक मैग्जीन अपने दम पर निकालने की ठाने तो उसे कुछ कुछ पागल और उसके काम को दुनिया का सबसे रिस्की काम माना जाना चाहिए. पर राजेंद्र यादव ने साबित किया कि दुनिया पागल है, वह नहीं. असंभव ही संभव हो जाता है, गर ठान लो. और महान रिस्की काम को करते हुए उन्होंने 25 बरस गुजार दिए. कह सकते हैं कि दुनिया के लिए जो काम पहाड़ था, उनके सामने आकर वह धूल-धूसरित-सा है. समाज में अधिकतम ईमानदारी हो, न्यूनतम लूटपाट हो, ज्यादातर लोग प्रसन्न व खुशहाल रहें, कोई जात-पात-धर्म-भाषा का भेदभाव न हो… ऐसे मकसद के लिए साहित्यकार, कलाकार जीता है, करता है. इस महान मकसद के लिए जीना और करना आजकल के मार-काट-इंग माहौल में बेहद रिस्की काम है. पर यह सब कुछ राजेंद्र यादव ने किया.
एक बड़ा साहित्यकार लगातार 25 बरस तक हिंदी साहित्य को दिशा देने वाली मैग्जीन को चलाता रहता है और यह सब करते हुए वह खुद 85 बरस का हो जाता है और जब वह अपनी मैग्जीन के 25 बरस होने पर आयोजित समारोह में बोलता है तो उसकी आवाज से जो हांफने का कंपन निकलता है उससे कइयों को लगा कि राजेंद्र यादव बुढ़ा गये हैं क्योंकि हंस का भी बुढ़ापा आ चुका है. नामवर सिंह ने अपने संबोधन में लोगों (अखिलेश) के कहने का जिक्र करते हुए इशारा किया कि, हंस का अब बुढ़ापा है. नामवर या अखिलेश, जिसे मानना हो माने, पर हम लोग नहीं मानते कि राजेंद्र यादव का बुढ़ापा है. खुद राजेंद्र यादव नहीं मानते होंगे कि उनका बुढ़ापा है. वह आज भी एक नौजवान की तरह चौकस, चैतन्य और चंगे हैं. वैसे भी, अपन के यहां कहा जाता है, अपन के यहां की परंपरा है, शरीर बूढ़ा हो सकता है. आत्मा और विचार को कैसा बुढ़ापा.
नामवर सिंह को माइक से आवाज देते राजेंद्र यादव और मंच की ओर बढ़ते नामवर सिंह. सबसे दाहिने तरफ अजय नावरिया.
नामवर को सम्मान से मंच पर बिठाते अजय नावरिया. नामवर के विराजने को दूर से देखते राजेंद्र यादव और पूरे दृश्य को कैमरे में कब्जातीं एक मोहतरमा.
अर्चना वर्मा को हंस से उनके जुड़ाव के लिए सम्मानित किया गया. सबसे दाएं मंच पर बैठे हैं गौतम नवलखा. अर्चना वर्मा ने कहा कि उनका नाम इसलिए लोगों को याद रहा कि उन्होंने हंस के स्त्री विशेषांक के संपादन के दौरान राजेंद्र यादव की रचना को लौटा दिया था. अर्चना के मुताबिक, इसमें उनका साहस कम, राजेंद्र यादव की लोकतांत्रिकता ज्यादा सराहनीय है. गौतम नवलखा ने कहा कि उन्हें अंग्रेजी से हिंदी लिखने को प्रेरित राजेंद्र यादव ने किया और उन्हीं के चलते वे हिंदी में लिख पाने का साहस जुटा पाए, जिसके लिए वे आभारी हैं.
नामवर सिंह ने भले कहा कि राजेंद्र यादव ऐसे भीष्म पितामह हैं, जो शरशैय्या पर सोए हैं, उनसे सीखना हो तो सीख लो. लेकिन यह एकांगी सच है. राजेंद्र यादव से करीब तीन पीढ़ियों के लाखों-करोड़ों लोगों सीखा है. उनके हंस से गांव-कस्बे तक में एक चेतना, एक जागरूकता पहुंची-पैली है. आरक्षण आंदोलन रहा हो चाहे नक्सली या वामपंथी आंदोलन. दलितों-पिछड़ों का मुद्दा रहा हो या मुस्लिमों-स्त्रियों का. धर्म का मुद्दा रहा हो या सवर्ण का, जातपात का मु्ददा रहा हो या भेदभाव का, दुनिया के साहित्य का मसला हो या भारत के लोगों की जीवन शैली व सोच-समझ का, इतना बेबाक, इतना लाजिकल, इतना तेवरदार लेखन अपने जीवन में मैंने किसी और का नहीं देखा.
कुछ एक लोगों का कुछ एक लिखा स्पार्क देता है, प्रेरित करता है लेकिन कोई बंदा पच्चीस साल तक अलख जगाए रखे, अपने दम पर, अकेले दम पर ताल ठोंककर अपनी बात, अपनी प्रगतिशील सोच, अपनी सामूहिक चेतना के विस्तार को समझाता-बताता-पहुंचाता रहे, यह अदभुत है, यह जीवट है, यह असंभव के संभव होने जैसा है. मेरे जैसे कइयों को रोलमाडल हैं राजेंद्र यादव. मेरे जैसे कइयों की दिमागी बुनावट पर असर डाला है राजेंद्र यादव ने. उनको दिल से सलाम. उनकी लंबी उम्र के लिए दुआ. हंस यूं ही निकले, इसके लिए ढेरों शुभकामनाएं. हंस के निर्बाध निकलते पच्चीस बरस हो गए, इसके लिए बधाई.
राजेंद्र यादव ने हंस की यात्रा से जुड़े कुछ ऐसे लोगों को सम्मानित किया जिन्होंने दिन को दिन नहीं माना और रात को रात नहीं. ऐसे लोगों ने अपने खून पसीने के बल पर हंस का निकलना सुनिश्चित किया. दुर्गा प्रसायद जासवाल, वीना उनियाल, संजीव, गौतम नवलखा, अर्चना वर्मा… ढेरों नाम हैं. राजेंद्र यादव ने यह करके एक नई समझ दी. एक नया ज्ञान दिया. कि, हे कंपनी के मालिकों, हे उद्यमियों, हे अन्टरप्रिन्योरों… सफल हो जाओ, स्थापित हो जाओ… तो उन्हें न भुलाओ, जिनके एक एक कतरे से तुम्हारी सफलता लिखी गई है, जिनकी एक-एक सांस इकट्ठी होकर तुम्हारे लिए नींव के पत्थर बन गए. राजेंद्र यादव ने हंस के पच्चीस बरस होने पर हंस की याद में और हंस के साथियों को सम्मानित करने के लिए कार्यक्रम रखकर अपनी महानता का ही विस्तार किया है.
छोटी सोच वाले लोग अपने फायदे के इतर सोच ही नहीं पाते, इसी कारण उन्हें छोटा आदमी कहा जाता है. आदमी अपनी लंबाई से छोटा या बड़ा नहीं होता. अपने दिल और दिमाग से छोटा-बड़ा होता है. जिसमें दूसरों का भला करने, दूसरों के योगदान के प्रति कृतज्ञ होने, दूसरों के काम को बड़ा मानने का भाव नहीं, वह आदमी बड़ा नहीं हो सकता. राजेंद्र यादव ने हंस के 25 बरस पूरे होने पर आयोजित जलसे में हंस से जुड़े नामधारी-एनानिमस लोगों को सम्मानित कर, उन्हें सामने लाकर बड़ा काम किया है. सच में यह एक बड़ी सीख है. कोई चीज बनाने के दौर में हम मनुष्यों का इस्तेमाल टूल की तरह करते हैं, इस्तेमाल करो और फेंक दो वाले सिद्धांत से अनुप्रेरित होकर करते हैं, यहीं से कंपनियों, संस्थाओं का अमानवीयकरण शुरू होता है. जो कंपनी, संस्था, चीज अपने एप्रोज में अमानवीय हो तो उसका लार्जर मकसद चाहे जो हो, अंततः वह एक दिन आम आदमी के खिलाफ दैत्याकार रूप में खड़ी मिलेगी.
आजकल के मीडिया हाउसों को ही देख लीजिए. इन मालिकों के बाप-दादाओं ने पत्रकारों के खून से अपने अखबारों को सींचा. बाद में उन पत्रकारों को उनकी दुर्दशा में याद तक नहीं किया, मदद देने की बात दूर. और यही अखबार अब पेड न्यूज करते हैं, मीडिया के मौलिक सिद्धांतों को बेवकूफी की बात कहते हैं, बिजनेस को सबसे बड़ा लक्ष्य मानते हैं, जन सरोकार को किताबी बात बताते हैं… तो हालत क्या हो गई है. अखबार आज करप्ट लोगों के करप्शन को ढंकने का सबसे बड़ा माध्यम बन गया है. भ्रष्ट नेताओं, भ्रष्ट नौकरशाहों, भ्रष्ट संस्थाओं के कारनामों को न प्रकाशित किया जाए, इसका खेल चलता रहता है और इसके बदले दाम मिलता रहता है. यानि मीडिया अब सच दिखाने के लिए नहीं बल्कि सच छुपाने का माध्यम बन गया है.
तो ये चौथा खंभा भी विकलांग हो चुका है. आम जन के खिलाफ हो चुका है. इसलिए क्योंकि इसके मालिक का जो दिमाग है, वह मानवीय नहीं है. वह कारपोरेट है. वह ज्यादा से ज्यादा मुनाफा अपने निजी नाम से करने को इच्छुक रहता है. वह लाभ में अपने कर्मियों को हिस्सेदारी देने के नाम से ही भड़कता है. ऐसे दौर में अगर राजेंद्र यादव हंस मैग्जीन से जुड़े रहे लोगों को याद करते हैं, सम्मानित करते हैं, उनकी भूमिका को रेखांकित करते हैं और हंस के लगातार निकलते रहने को एक टीम वर्क बताते हैं तो यह उनका बड़प्पन है, यह हमारे समय के बनियों के लिए सीख है.
हंस चलाते रहने के लिए राजेंद्र यादव ने न्यूनतम बेइमानी का सहारा लिया होगा, इससे इनकार नहीं किया जा सकता क्योंकि जब आपको कोई चीज चलानी होती है तो थोड़ा बहुत दाएं बाएं करना पड़ता है, आंख बचाके या सबके सामने रखके. इसे मैं निजी तौर पर दस फीसदी तक मानता हूं. क्योंकि समय और सिस्टम ऐसा है कि अगर आप अच्छा काम कर रहे हैं तो कोई आपको पैसा नहीं देने वाला. जब तक आप किसी ओबलाइज या उपकृत नहीं करते, तब तक वह आपको कोई मदद देने के बारे में सोच ही नहीं सकता. कई मैग्जीनों में अफसरों की बीवियों की कहानी-कविताएं इसलिए छपती हैं क्योंकि उनके साजन सरकारी या प्राइवेट विज्ञापन दिलाने की भूमिका में होते हैं.
…मैं और मेरा मेरा तेरा सबका प्यार-दुलारा ”हंस” : यूं गुजर गए पच्चीस साल जैसे कल की बात हो… मंच पर अकेले विराजे राजेंद्र यादव चिंतन में लीन… जब पूरा हाल श्रोताओं-दर्शकों से भर गया तो एक कोने से चुपचाप राजेंद्र यादव मंच की तरफ पहुंचे. उन्हें उनका एक साथी किशन सहारा दिए हुए था. उस साथी को इस जलसे में सम्मानित किया गया. किशन साये की तरह राजेंद्र यादव के साथ रहते हैं. उनकी सेहत की पूरी देखभाल करते हैं. क्या खाना है, कितना खाना है, इसका मुकम्मल हिसाब किशन के पास होता है.
इतनी बड़ी संख्या में लोग राजेंद्र यादव और हंस के प्रोग्राम में पहुंचे कि बड़ा सा हाल छोटा पड़ गया. ऐसे में बहुत सारे लोगों को पीछे जमीन पर बैठना पड़ा. कई लोग खड़े होकर सुनते रहे.
ग़ालिब सभागार के दाएं और बाएं, दोनों ओर सभी सीटें फुल थीं. बाद में पीछे इंग्री गेट के आसपास लोग बैठकर, खड़े होकर कार्यक्रम में देर तक शरीक रहे.
हंस और कथादेश ने भी ये काम किए हैं. घटिया रचनाओं को इसलिए प्रकाशित किया क्योंकि उसके बदले उन्हें विज्ञापन मिलते या इसी पीआर के जरिए उन्हें कुछ लाभ मिल जाता. और, यह क्रम राजेंद्र यादव जारी रखे हुए हैं. अगले वाले अंक में उत्तराखंड के मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल निशंक की कोई रचना छप रही है हंस में. उस हंस मैग्जीन में जिसे प्रेमचंद ने शुरू किया और राजेंद्र यादव ने अपनी पूरी जवानी, अपनी पूरी मेधा, अपनी पूरी प्लानिंग के जरिए पिछले पच्चीस साल से जिंदा रखा हुआ है. तो क्या, छब्बीसवें साल से हंस का स्तर निशंक की रचनाओं को प्रकाशन करने वाला रहेगा?
ऐसा ही एक सवाल किसी युवा ने हंस के पच्चीस बरस पूरे होने के जलसे में मंच से राजेंद्र यादव से पूछा. जाहिर है, राजेंद्र यादव को यही कहना था कि रचना मुख्य होती है, लेखक कौन है यह नहीं. और, कई बार बुरे लोग अच्छी रचनाएं कर जाते हैं. और, यह कि वे रचना के स्तर से तय करते हैं कि छपनी है या नहीं. राजेंद्र यादव की बातों से बहुतेरे लोग कनवींस हो गए होंगे. मैं भी थोड़ा थोड़ा हूं. पर मुझे लगता है कि राजेंद्र यादव और हंस अब बड़े ब्रांड हैं. उन्हें हंस चलाने के लिए अब वो मगजमारी करने की जरूरत नहीं जो पहले रही होगी. ऐसे में उन्हें निशंक जैसे रचनाकारों से बचना चाहिए था. मुझे नहीं पता निशंक की जो रचना छपने जा रही है, उसका स्तर क्या है, कंटेंट क्या है. पर भ्रष्टाचार के आधा दर्जन से ज्यादा आरोपों में घिरे भाजपा के इस मुख्यमंत्री के खिलाफ जगह-जगह विरोध के स्वर उठते रहे हैं और कई बार तो अच्छे लोग इस सीएम के साथ बैठने से परहेज करते हैं. ऐसे में राजेंद्र यादव का निशंक की कथित रचना छापने के पक्ष में दलील देना थोड़ा चौंकाता भी है, और उनके बुढ़ापे की मजबूरी को समझने का मौका भी देता है.
मुझे लगता है कि कोई संस्था या मैग्जीन चलाते वक्त उसके मालिक को न्यूनतम बेइमानी का सहारा लेना पड़ता है, खासकर आजकल वाले मार-काट-इंग दौर में, तो उसी अघोषित अनकहे अधिकार का इस्तेमाल किया होगा राजेंद्र यादव ने. क्योंकि ज्योंही आप नौकर की अवस्था से हटकर किसी संस्था, कंपनी, मैग्जीन, धंधा को शुरू करके एक उद्यमी या संचालक या मालिक या प्रधान या मुखिया की भूमिका में आते हैं तब आपको अपनी सारी इंद्रियों को सक्रिय करके संबंधित चीज को जिंदा रखना पड़ता है और इसके लिए कुछ बार ऐसे समझौते भी करने पड़ते हैं जिन्हें लोग पचा नहीं पाते, ऐसा काम भी करना पड़ता है जो आपके काम के स्तर को घटिया बना देता है. पर यह सब तो शुरुआती अवस्था में होता है, प्रारंभ की अवस्था में होता है. किसी चीज के पच्चीस साल हो जाने पर भी अगर यही सब करना पड़े तो मेरे खयाल से यह ठीक नहीं. और अगर ऐसा कोई संकट है तो जनता के बीच जाने में कौन सी हिचक. जिस जनता के दुलार प्यार से हंस ने पच्चीस साल का सफर तय किया, वही जनता छोटे छोटे सहयोग से हंस की क्वालिटी को जिंदा रखने में मददगार साबित हो सकती है.
इतना तो तय है कि जब इस परम भ्रष्टाचार वाले देश में ट्रांसपैरेंसी एक बड़ा मुद्दा है, भ्रष्टाचार को रोकना बड़ा मुद्दा है, वहां निशंक जैसे घपलेबाज-घोटालेबाज सीएम की रचना को छापना दरअसल सारे आंदोलन की हवा निकालने का प्रयास करना है. और, मेरे खयाल से निशंक इसीलिए आजकल अपनी रचनाओं को यहां वहां छपवा रहा है, कवियों-लेखकों के साथ बैठ रहा है, ब्लागर सम्मेलनों में जा रहा है, नेक-पुनीत काम करते-कराते दिख रहा है, अपने नाम से किताबें छपवा रहा है ताकि वह अपने चरित्र के धवल होने का सर्टिफिकेट ले सके, दिखा सके.
याद रखें राजेंद्र यादव जी, अभी कर्नाटक का येदुरप्पा भ्रष्टाचार के आरोपों के कारण भाजपा नेतृत्व के द्वारा पदमुक्त किया गया है, बेहद दबाव में. उस भाजपा नेतृत्व के द्वारा जिस पर आरोप है कि वह पैसे लेकर, अटैची लेकर अपने भ्रष्टाचारी मुख्यमंत्रियों को बचाने का काम करता है. उस तक को मजबूर होकर अपने एक दागदार सीएम से कुर्सी छीननी पड़ी है. निशंक की कुर्सी भले ही ओबलाइज्ड भाजपा नेतृत्व न छीने लेकिन बहुत जल्द होने जा रहे चुनाव में निशंक की लाइजनिंग और रचनाधर्मिता का उत्तराखंड की जनता ही बैंड बजाने वाली है.
याद रखिए यादव जी, देश-समाज के बड़े मुद्दों से कटकर रचनाधर्मिता का ककहरा सुनाना आपको ही हास्यास्पद बना देगा. मैं उस युवा के तेवर को सलाम करता हूं जिसने हंस के मंच पर चढ़कर निशंक और हंस के नापाक रिश्ते के बारे में खुलासा किया, वहां मौजूद सभी लोगों को जानकारी दी.
उस जलसे से लौटकर, दो दिन बाद जब मैं उस आयोजन के बारे में सोचता हूं तो खुद को राजेंद्र यादव के जीवन, दृढ़ता, उद्यमिता से बहुत कुछ सबक लेता हुआ पाता हूं. साथ ही यह निराशा भी कि यादव जी ने हंस जैसी मैग्जीन में निशंक को छापने का एक घटिया फैसला लिया, और, यह फैसला कंस सरीखा है, जैसाकि यादवजी ने मंच से कहा था कि उनकी इच्छा कंस निकालने की थी, पर निकाल दिया हंस, लेकिन आज भी इच्छुक हूं कंस निकालने के लिए. हंस-कंस के बीच हम सब जीवन जीते हैं. कभी किसी का पलड़ा भारी होता है कभी किसी का. लेकिन पब्लिक लाइफ में जिन मूल्यों को लेकर हम प्रतिबद्ध होते हैं, उससे समझौते करते वक्त यह जरूर देख लेना चाहिए कि इसका वृहत्तर समय, समाज, जनता, आंदोलन पर क्या असर पड़ेगा.
यशवंत
एडिटर
भड़ास4मीडिया
kamta prasad
August 3, 2011 at 2:49 pm
भाई बहुत ही बढि़या लिखा है और एकदम देशज स्टाइल में। घिस-घिसकर कलम को जबर्दस्ती का नहीं बनाया है। जो सोचते हैं वह अपने आप कंप्यूटर के पर्दे पर उतरता गया है। साधुवाद। राजेंद्र यादव जैसे डेमोक्रेट साहित्यकार को सलाम।
Dr Maharaj singh Parihar
August 3, 2011 at 3:01 pm
निश्चित रूप से राजेन्द्र यादव हिंदी पत्रकारिता और साहित्य के युगपुरुष हैं, उन्होंने विपरीत परिस्थितियों में हंस का सफलता के साथ 25 साल तक संपादक और प्रकाशन किया है। अपनी बेवाक टिप्पणी और निर्भीक विचार ही उनकी थाती है। कोई भी व्यक्ति आयु से बुजुर्ग नहीं होता अपितु अपनी मानसिकता और विचारधारा से होता है। राजेन्द्र जी ने यथास्थितिवाद के खिलाफ हमेशा मोर्चा खोला है। उन्हें इस बात की परवाह नहीं कि कोई क्या कहेगा। वह अपनी बुद्धि और विवेक से जो सामाजिक सरोकारों से जुडा हो वहीं लिखते हैं। इस विश्लेषणात्मक आलेख के लिए भाई यशवंतजी को धन्यवाद
अशोक कुमार शर्मा
August 3, 2011 at 5:11 pm
यशवंत जी, इस लेख से आपकी निष्पक्षता पर मेरा भरोसा तार-तार हो गया है. आप सरीखे ओजस्वी युवा ने न जाने किस सोच में क्या क्या लिख दिया गौर फरमाएं ‘..धुंधली दृष्टि युक्त हिंदी पट्टी के अपने रणबांकुरें भला सोच भी कैसे सकते हैं कि वे खुद उद्यमी बनें, वे खुद मालिक बनें, वे खुद कंपनी चलाएं. क्योंकि यह सोचने और करने का अधिकार तो सिर्फ गुप्ताज, अग्रवाल्स, माहेश्वरीज, जैन्स, मारवाड़ीज, लालाज आदि को होता है. हम आप तो पैदा ही हुए हैं इनकी गुलामी करने के लिए,’
1- ‘हिंदी पट्टी के लोगों में उद्यमिता के लक्षण कहीं दूर दूर तक नहीं होते.’ ..’घूसघास के जरिए या टैलेंट के बल पर फिटफाट होकर नौकरी व उपरी कमाई का काम शुरू कर देते हैं’
2- एक बड़ा साहित्यकार… यह सब करते हुए.. खुद 85 बरस का हो जाता है और जब वह अपनी मैग्जीन के 25 बरस होने पर आयोजित समारोह में बोलता है तो उसकी आवाज से जो हांफने का कंपन निकलता है उससे कइयों को लगा कि राजेंद्र यादव बुढ़ा गये हैं क्योंकि हंस का भी बुढ़ापा आ चुका है. नामवर सिंह ने अपने संबोधन में लोगों (अखिलेश) के कहने का जिक्र करते हुए इशारा किया कि, हंस का अब बुढ़ापा है. नामवर या अखिलेश, जिसे मानना हो माने, पर हम लोग नहीं मानते कि राजेंद्र यादव का बुढ़ापा है…’
3-हंस और कथादेश ने ..घटिया रचनाओं को इसलिए प्रकाशित किया क्योंकि उसके बदले उन्हें विज्ञापन मिलते या इसी पीआर के जरिए उन्हें कुछ लाभ मिल जाता. और, यह क्रम राजेंद्र यादव जारी रखे हुए हैं. अगले वाले अंक में उत्तराखंड के मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल निशंक की कोई रचना छप रही है हंस में. उस हंस मैग्जीन में जिसे प्रेमचंद ने शुरू किया और राजेंद्र यादव ने अपनी पूरी जवानी, अपनी पूरी मेधा, अपनी पूरी प्लानिंग के जरिए पिछले पच्चीस साल से जिंदा रखा हुआ है. तो क्या, छब्बीसवें साल से हंस का स्तर निशंक की रचनाओं को प्रकाशन करने वाला रहेगा?
यशवंत जी, मैं सिर्फ इतना जानना चाहता हूँ कि बाकी सब तर्क-वितर्क तो कभी मिलने पर हो सकते हैं मगर सिर्फ इतनी सी जानकारी भर से कि हंस के अगले अंक मैं निशंक जी की रचना चाप रही है, आप यह निष्कर्ष कैसे निकाल सके कि निशंक जी की वह रचना छपने से पूर्व ही घटिया हो गयी या घटिया ही होगी?
भाई, ऐसा न करें कि आपको जानने वाले लोगों को दूसरे लोग यह कह कर अपमानित करें कि ‘अरे उसका पर क्या भरोसा, वह तो यशवंत का दोस्त है.
मेरी शुभकामनाएं आपके साथ हैं.
shashi
August 4, 2011 at 8:59 am
darasal is patan ki shuruat bahut pahale ho gai thi…jab vampanth ke nam par bahut se murkho, afasaro aur dalalo ko prmote kiya gaya…ab paise ke dam par isme sanghi aur bhajapai mukhymantri bhi aa jaye to inko kya fark padata hai…bhrastachar ki is maili ganga me sari vichardharaye ek hi ghat par aa mili hain yashwantji…
prashant gorkhapur
August 4, 2011 at 2:46 pm
🙂 vah,bhai ysvnt ji,maine bhi aapse aaj sikh liya ki chapaloosi kaisi ki jati hai. vaise mai aapko thora thik samagh raha tha.kyonki abhi mai es duniya me thora naya hun. nishank ki kahani hans me nikal rahi hai to esme etna hay-tauba kyo.hans esi layak hai.aane vala samay jabab mangega rajendra yadav jaise logo se.ye kans,hans ke nam par kauva nikal raha tha.
Santosh Verma
August 4, 2011 at 7:45 pm
I agree with Dr. Ashok Sharma’s views
Thanks Ashok ji
Santosh Verma
Chandramohan Jyoti
August 4, 2011 at 11:04 pm
यशवंत जी बाकि बिश्लेषण पर तो मै कोई टिपण्णी नहीं करूँगा मगर ये बात सोलह आने सच है कि एक भ्रष्ट मुख्यमंत्री और जुगाडू टाइप का साहित्यकार को हंस में स्थान मिलना आश्चर्य की ही बात है. पिछले दिनों निशंक की भ्रष्टता का महिमामंडन (पोल) उत्तराखंड के लोकगायक एवं जनकवि नरेन्द्र सिंह नेगी ने एक ऑडियो सीडी के जरिये किया. ‘नौछमी नारेणा’ की तरह ‘अब कथगा खेल्यु’ (अब कितना खायेगा) नाम की इस सीडी ने उत्तराखंड में धूम मचा रही है. देहरादून से प्रकाशित मासिक पत्रिका ‘युगवाणी’ में मैंने इसकी समीक्षा लिखी. आपको भी भेज रहा हूँ.
rohan dabang
August 5, 2011 at 2:46 pm
चन्द्रमोहन ज्योति के नाम से नए “कुकुरमुत्ता पत्रकार” ने इस लेख के कमेन्ट में कुछ लिखा है. चंद्रू जी मैं नहीं जनता की आपका मूल निवास कहाँ है. और जानने की इच्छा भी नहीं रखता. आपको एक बात बतानी थी की आखिर आज हमारा उत्तराखंड क्यूँ पिछड़ा हुआ है. उसका सबसे बड़ा कारण हैं हमारे लोग. दरअसल आप जैसे लोग आज भी गुलामी की मानसिकता के शिकार हैं. अपने आदमी को तो तुम कभी खुश देख ही नहीं सकते. डॉ. निशंक को लेकर आपका लेख पढ़ा. लिखते अच्छा हो. बस ये ध्यान में रखा करो की लिखना क्या है. जिन नेगी जी के गीत पर अपने लिखा है. उनका मैं बहुत सम्मान करता था. लेकिन अब नहीं. इस बात में कोई संदेह नहीं की वे उत्तराखंड के सम्मानित लोकगायक हैं. लेकिन उस इंसान का दूसरा चेहरा यह है की वो अपने निजी स्वार्थों के लिए. जनता की भावनाओं की आड़ में बदला लेने में माहिर है.
आपने अपने लेख में नौछमी नरेना का जिक्र किया है. गीत अच्छा था. लेकिन वो सिर्फ इसलिए लिखा गया था क्योंकि नेगी जी को कार्यक्रम करने के लिए विदेश जाने की अनुमति तिवारी जी ने नहीं दी थी. उसका बदला उन्होंने गीत में लिया. अब कथ्गा खैल्यु गीत भी उनके निजी स्वार्थों की आधारशिला पर खड़ा है. सूत्रों से पता चला है.(आपके जैसे आधारहीन सूत्र नहीं) की नेगी जी के इस गीत के पीछे उनकी अपनी बहन (जो की टीचर हैं) के ट्रांसफर का न होना है. इसका सबूत ये भी है की यह गीत उनके द्वारा तब लिखा गया जब उनकी बहन का ट्रांसफर रुक गया. (आखिरी छणो में) जैसे नौछमी नरेना गीत उन्होंने तब लिखा जब उनको विदेश नहीं जाने दिया गया.
नेगी जी के अपने नजदीकी लोग (जो उनके साथ शुरूआती दौर में रहे) भी उनके लिए. खतरनाक और स्वार्थी जैसे शब्दों का प्रयोग करने से नहीं चूकते. (आप अपने आप को पत्रकार कहते हैं तो छान बीन कर सकते हैं)
एक और बात नेगी जी के बारे में बताता हूँ. और अगर हिम्मत है तुममे मिस्टर चन्द्रमोहन. तो तहकीकात करके देख लो. नेगी जी के ज्यादातर गीत, जिनको वो अपना बताते हैं वो उनके नहीं हैं. उत्तराखंड के लोकगीतों पर एक पुस्तक है. जो आपको उत्तराखंड के किसी पुराने पुस्तकालय में मिल जाएगी. (अगर खोजेंगे तो.) नेगी जी के ज्यादातर गीतों के बोल उस पुस्तक में प्रकाशित गीतों से हु बा हु मिलते हैं. खास बात ये है की इस पुस्तक का प्रकाशन वर्ष तब का है जब नेगी जी ने गीत गाने भी शुरू नहीं किये थे. ये सब लोकगीत हैं (अब इतना तो जानते होंगे की गीत और लोकगीत में फर्क क्या है) न की नेगी के आपने गीत.
चलिए छोडिये. मुद्दा थोडा भटक गया. मैं कह रहा था की भाई आज हमारे बीच का एक युवा पत्रकार मुख्यमंत्री बन गया. तो हमको तो खुश होना चाहिए. लेकिन आप जैसे लोगों के कारण ही आज हमारा आदमीं पीछे है. बगल वाले को तो तुम बढ़ते देखना ही नहीं चाहते न… सही कहा किसीने. “घर का जोगी जोगना. आन गाँव का सिद्ध”
P.P.
August 5, 2011 at 3:05 pm
यहावंत दा. कितनी कुंठा है भाई तुम्हारे मन डॉ. निशंक के लिए? मान गए यार टटपुन्जियेपन की भी हद हो गयी. निशंक जी की रचना छपी भी नहीं और तुमने उसके खिलाफ समीक्षा तक लिख डाली. अरे मालिक कहो तो आई०बी० में भर्ती करवा दूँ. पहले ही बता दोगे की कहाँ धमाका होने वाला है. जे बात भी माननी पड़ेगी की निशंक की एक रचना से (जो छपी भी नहीं अभी) से तुमने कहा दिया की हंस के पूरे इतिहास पर दाग लग गए. भैया पहले अपना कुरता तो देख लो? “अपनी चड्ढी पहनी नहीं. और दूसरे की लंगोट पर हँसते हो!” कमल कटे हो यार तुम तो ठेकेदार ही बन गए.
और किसकी बात कर रहे हो भाई . की कौन निशंक जी के साथ मंच पर नहीं बैठते ..खुशदीप सहगल ! दो टेक के तत्पुन्जियों के साथ मत बैठा करो नहीं तो कभी ये सहगल टाइप टपोरी (जो खुद को पत्रकार कहता है.) तिम्हारे साथ भी न बैठना चाहे. कहता है की मुझे पता होता की सम्मान निशंक जी देंगे तो मैं आता ही नहीं ??? अरे सहगल. तेरे को सम्मान देने बुलाया किसने? अबे सिफारिश करके तो तुमने अपना नाम डलवाया लिस्ट में. और अब डींगें हांकते हो? मैं तो उसे ढून्ढ रहा हूँ जिसने तेरे को बुलाया था.
और यशवंत भाई तुम होते कौन हो किसी के चरित्र का सर्टिफिकेट देने वाले ?? अमाँ. ज़रा आपने गिरेबान में फैली गन्दगी से दो चार हो लो. अपना किरेक्टर का पोस्त्मर्तम करवा लो फिर दुसरे को सर्टिफिकेट देना. तुम जैसे फर्जी पत्रकारों ने तो हमारे पेशे को भी बदनाम कर दिया है. लगे रहो जब तक दिन हैं.
Thando ji
August 5, 2011 at 3:07 pm
अरे यशवंत जी आजकल देख रहा हूँ. खूब लिख रहे हो निशंक के खिलाफ. क्यों सहयोग (विज्ञापन) नहीं मिल रहा क्या आजकल ??
uttarakhandi
August 6, 2011 at 7:08 am
यशवंतजी (हम तो जी लिखना नहीं छोड़ेंगे, आप भले ही कितने बत्तमीज हो जाएँ) , सबसे पहले धन्यवाद. धन्यवाद राजेंद्र यादवजी के बारे में कुछ अच्छा लिख पाने के लिए. दो प्रश्न आपसे. पहला अग्रवाल्स, गुप्ताज, महेश्वरिस, वगैरह वगैरह हिंदी बेल्ट में नहीं पाए जाते क्या ? दूसरा प्रश्न , निशंक से क्या जाती दुश्मनी है आपकी? इतनी कटुता, इतनी कुंठित सोच किसी सामान्य आदमी की तो हो नहीं सकती. क्या दिमागी रूप से बीमार हैं आप? या अंतर्यामी प्रभु हैं ?रचना पढ़ी नहीं और उसके घटिया होने की बात पहले ही लिख डाली. क्या साबित होता है इससे? अच्छा होता की आप उसे पढ़ने के बाद अपने विचार व्यक्त करते. वैसे भी निशंक के बारे में आपकी इस साईट पर पूर्व में दिए गए articles से ये तो साबित हो जाता है कि रचना पढ़ने के बाद भी आपकी टिप्पणी पूर्वाग्रह से ग्रसित हो होती लेकिन फिर भी ये लोकतान्त्रिक तरीका होता अपने विचार व्यक्त करने का. कुछ इसी तरह की प्रतिक्रिया पिछले दिनों आपकी एक फर्जी पत्रकार उमेश कुमार को लेकर थी. क्या बात है कई दिनों से उस बिचारे, निशंक द्वारा सताए हुए(?) तथाकथित पत्रकार को लेकर आंसू बहाता कोई दर्दनाक लेख नहीं लिखा आपने? नहीं बताया अपने पाठकों को कि माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने क्या टिप्पणी की है उसकी याचिका पर ? चलो आपने नहीं बताया तो मैं बता देता हूँ. न्यायालय ने उसे फटकार लगाते हुए १५ दिनों के भीतर उत्तराखंड पुलिस के समक्ष समर्पण करने को कहा है. गलत लोगों को सरंक्षण देने से आपकी विश्वसनीयता भी दांव पर है यशवंत जी. आखिर में मुफ्त में एक सलाह, अच्छी और positive सोच रखिये. यूँ कुंठित और नकारात्मक सोच रखेंगे तो स्वास्थ्य ख़राब होगा और ऐसा न हो कि आपके दर्शन करने हमें किसी मानसिक रुग्णालय में आना पड़े.