सूप तो सूप बोले, अब संदीप गुप्त भी बोलें

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दैनिक जागरण के एक मालिक हैं संदीप गुप्त. कानपुर में बैठते रहे हैं और अब भी बैठते हैं. वे खुद को संपादकीय से लेकर प्रोडक्शन, प्रिंटिंग, बिजनेस… सबका मास्टर मानते हैं. छोटे से छोटा और बड़े से बड़ा काम कर गुजरने में माहिर मानते हैं अपने आपको. अब चूंकि वे मालिक हैं तो उनके सौ दोष माफ. उनके साथ काम करने वाले उनकी सोच, मेंटलिटी और कार्यप्रणाली के बारे अच्छे से जानते हैं लेकिन कोई कैसे कुछ बोल सकता है.

क्योंकि हर किसी को अपने घर का चूल्हा जलाना होता है और चूल्हा जलाने के लिए पैसा देते हैं गुप्ताजी. इन्हीं संदीप भइया ने आज अपने अखबार में अपनी सुंदर सी फोटो के साथ संपादकीय पेज पर लीड आलेख लिखा है. इन दिनों वेज बोर्ड की सिफारिश का मुखर विरोध करने का दौर मालिकों में चल पड़ा है. मालिकों की संस्था इंडियन न्यूजपेपर सोसायटी ने तो विज्ञापन अभियान शुरू कर दिया है वेज बोर्ड की सिफारिशों के खिलाफ. कभी हिंदुस्तान टाइम्स में तो कभी टाइम्स आफ इंडिया में वेज बोर्ड की रिपोर्ट के खिलाफ आईएनएस का विज्ञापन प्रकाशित हो रहा है.

मालिकों के चेले सीईओ टाइप लोगों ने अपने अपने संस्थानों के अखबारों में वेज बोर्ड के खिलाफ लंबा चौड़ा आलेख लिखा है, और लिखने का क्रम जारी है. टाइम्स आफ इंडिया और नवभारत टाइम्स में ग्रुप के सीईओ धारीवाल का लेख पहले ही छप चुका है, जिसे भड़ास4मीडिया पर भी प्रकाशित किया जा चुका है. ताजा मामला दैनिक जागरण का है. संदीप भइया की जुबान खुल गई है. वे वेज बोर्ड की सिफारिशों को मनमानी और अव्यावहारिक बता रहे हैं और इसे प्रेस की आर्थिक आजादी पर आघात मान रहे हैं. उनके बहुमूल्य वचन सुनिए और पढ़िए.

और हां, पढ़ कर आप चुप्पी ही साधे रहिएगा क्योंकि आपको भी तो नौकरी करनी है या मालिकों को तेल लगाकर अपना कद-पद बढ़वाना है. हां, समझ रहा हूं, आप दिल से तो चाहते हैं कि वेज बोर्ड की सिफारिशों का विरोध करने वाले मालिकों और उनके प्रबंधकों की बैंड बजा दी जाए लेकिन आप खुद को फंसा हुआ महसूस पाते हैं, इसीलिए आप सोचते हैं कि आप नहीं, आपका पड़ोसी क्रांतिकारी बन जाए और अन्याय का विरोध करते हुए शहीद हो जाए. आप उसकी याद में मूर्ति लगवाने में जरूर दो चार रुपये या दो चार हजार रुपये की मदद कर गुजरेंगे, यह सबको यकीन है, और इसके लिए आपको भी खुद पर भरोसा है.

आप श्रीमान, गुप्ता जी की चाकरी करें और जब पब्लिक में जाएं तो नैतिकता की बातें करें. यही है आपका हमारा दोहरापन और दोगलापन. इस हिप्पोक्रेसी ने बड़ा नुकसान किया है पर क्या करें, आप बड़े मजबूर हैं और आपकी मजबूरी हम समझते हैं. मजबूर तो हमारे पिता जी भी हैं, जो अखबार कर्मियों के संगठनों के झंडाबरदार हैं, लेकिन वे भी यहां वहां जहां तहां से माल पाकर, नौकरी कर अपने ईमान को बेच चुके हैं, सो लालाओं की चाकरी कर कुछ पा लेने के सिवा उनके पास कोई और नैतिकता नहीं है. हां, वे गाहे बगाहे पत्रकारिता दिवस टाइप के मौकों पर मंचासीन होकर भरपूर बकचोदी कर दिया करते हैं.

चलिए, आप लोग खुश रहिए चाकरी करके, लेकिन ये मालिक जो हैं, जिनकी आप चाकरी करते हैं, वो आपसे खुश नहीं है, वे नहीं चाहते कि आपको वो भी पैसे मिले जो मिल रहे हैं. खासकर दैनिक जागरण जैसा समूह जो अपने कर्मियों का खून पी पीकर इतना बड़ा हुआ है. लीजिए, संदीप भइया का आलेख पढिए और पढ़ने के बाद अगर आपमें थोड़ा भी कोई कीड़ा कुलबुलाए तो कलम उठाकर कुछ लिखकर bhadas4media@gmail.com पर जरूर भेज दीजिएगा. हालांकि पता है, बहुतों को लकवा मार जाएगा यह पढ़कर कि उन्हें वो कहने को कहा जा रहा है जो वो सोचते हैं, क्योंकि आज के मार्केट इकोनामी में सक्सेस का फार्मूला ही यही है कि वो न कहो जो सच है, वो कहो जो बिकाऊ है. फिर भी, धरती वीरों से खाली नहीं है, मुझे पता है. कोई न कोई कलमवीर जरूर जगेगा….

यशवंत

एडिटर

भड़ास4मीडिया


अखबारों की आजादी पर आघात

संदीप गुप्त

संदीप गुप्त
संदीप गुप्त
देश की आजादी के लिए लोकमान्य तिलक और गांधीजी ने भी अखबार निकाला था। देश तो आजाद हो गया, लेकिन सत्ता तंत्र अखबारों की आजादी नहीं पचा पा रहा। आजादी में सक्रिय योगदान देने वाले अखबारों की आजादी सत्ता प्रतिष्ठान को सबसे ज्यादा डरा रही है। वेतन आयोग के जरिये अखबारों की गर्दन कसने की उसकी मंशा और कृत्य नए नहीं हैं। समाचार पत्र उद्योग के लिए एक के बाद एक वेज बोर्ड लाना और फिर जमीनी सच्चाई की अनदेखी कर उनकी मनमानी अनुशंसाएं स्वीकार करने के लिए दबाव बनाने का एकमात्र उद्देश्य प्रेस को सरकार पर निर्भर बनाए रखना ही जान पड़ता है, लेकिन अब पानी सिर से ऊपर जा रहा है। प्रेस को नियंत्रित करने के लिए पत्रकारों का वेतनमान निर्धारित करने का जो अधिकार सरकार ने अपने हाथ में ले रखा है, अब वह उसका विनाशकारी इस्तेमाल करने के मूड में नजर आ रही है।

लगता है कि सरकार ने अखबारों की आजादी के साथ-साथ उनके वजूद को ही नेस्तनाबूद करने की ठान ली है, अन्यथा मजीठिया वेज बोर्ड की 80 से 100 फीसदी तक वेतन वृद्धि की अव्यावहारिक सिफारिशों का कोई औचित्य समझ में नहीं आता। इन सिफारिशों के लागू होने का मतलब है कई छोटे क्षेत्रीय अखबारों में तालाबंदी। अन्य अखबारों के लिए भी इनका बोझ वहन कर पाना असंभव है। यह नहीं माना जा सकता कि बाजार का सीधा-सा अर्थशास्त्र सत्ता प्रतिष्ठान नहीं समझता। उसकी नीयत पत्रकारों या दूसरे प्रेस कर्मचारियों का भला करना तो नहीं हो सकती। निशाना तो समाचार पत्र उद्योग की आर्थिक आजादी और ताकत है। इस बेजा हस्तक्षेप का नुकसान उन कर्मचारियों को ही होगा, जिनकी सरकार खैरख्वाह बनने की कोशिश कर रही है।

आखिर अखबार कैसे प्रकाशित हो पाएंगे, जब उनके कर्मचारियों के वेतन असंतुलित ढंग से आकाश छूने लगेंगे? सरकार उस रिपोर्ट को भी भुला रही है जो राष्ट्रीय श्रम आयोग के अध्यक्ष और पूर्व केंद्रीय मंत्री रवींद्र वर्मा ने 2002 में दी थी। इसमें किसी भी उद्योग में किसी भी प्रकार के वेतन आयोग की जरूरत नहीं मानी गई थी। देश में चीनी उद्योग को छोड़ दें तो किसी भी उद्योग में 1966 के बाद वेतन आयोग का गठन ही नहीं हुआ। इसके चलते कोई असंतोष नहीं दिखता तो इसकी सीधी वजह यह है कि हर जगह लोग अपने सेवायोजक से सीधा संबंध रखते हैं और हर जगह बाजार की जरूरतों के हिसाब से काम हो रहा है और बाजार ही वेतन तय करने में अग्रणी भूमिका निभा रहा है। जब कहीं और वेज बोर्ड नहीं है तो फिर केवल अखबार में क्यों? क्या ऐसा नहीं लगता कि सरकार वेज बोर्ड के बहाने अखबारों पर परोक्ष नियंत्रण रखना चाहती है? इससे इंकार नहीं कि अखबार कर्मियों को बेहतर वेतन मिलना चाहिए, लेकिन आखिर किस कीमत पर?

मीडिया अब कई रूपों में पांव पसार रहा है, लेकिन सरकार टीवी, इंटरनेट आधारित मीडिया समूहों के लिए वेजबोर्ड की बात नहीं करती। जब इनके लिए वेतन बोर्ड नहीं है तो फिर अकेले प्रिंट मीडिया पर मेहरबानी क्यों? जरा वेतन सिफारिशों पर गौर करें। इनके अनुसार कुछ बड़े अखबारों में काम करने वाले चपरासियों और ड्राइवरों का वेतन भी 45-50 हजार रुपये महीने तक हो सकता है। क्या सरकारी प्राइमरी स्कूलों के शिक्षकों को इतना वेतन मिलता है? क्या सिपाहियों, दरोगाओं और सीमा पर जान जोखिम में डालने वाले सैनिकों को भी सरकार इतना वेतन दे रही है? आखिर जब सरकार अपने इन कर्मचारियों को इतना वेतन नहीं दे रही तो फिर यह उम्मीद कैसे करती है कि अखबार अपने चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों को इतना वेतन दे सकते हैं? क्या इसे ही दोहरा मानदंड नहीं कहते?

न्यायमूर्ति मजीठिया की रिपोर्ट में अखबारों के कर्मचारियों का वेतन 80 से सौ फीसदी तक करने की सिफारिश है। इसके साथ ही सरकार के निर्देश पर अखबारों को जनवरी 2008 से 30 प्रतिशत की अंतरिम राहत देनी पड़ी है। इससे समाचार पत्र उद्योग में हाहाकार मचा है और वह असामान्य वेतन सिफारिशों के खिलाफ अदालत का दरवाजा खटखटाने को मजबूर हुआ है। प्रेस को कथित चौथे स्तंभ का दर्जा देने वाले सत्ता तंत्र का यह प्रयास क्या लोकतंत्र को कमजोर करने वाला नहीं माना जाना चाहिए? सबसे विचित्र यह है कि जिस वेतन भुगतान का सरकार इतने जोरदार ढंग से निर्देश देती है, उसका एक भी पैसा उसे नहीं देना होता। यदि बढ़े खचरें की वजह से कोई अखबार घाटे में जाने लगे तो वह उसे बचाने भी नहीं आती। समाचार पत्र समूहों को अपने चंगुल में रखने की कोशिश के चलते सरकारों ने अपने विज्ञापनों का भी राजनीतिकरण कर दिया है। एक ओर मजीठिया वेज बोर्ड की अनाप-शनाप सिफारिशों के जरिये अखबारों की अर्थव्यवस्था पर चोट की जा रही है और दूसरी ओर डीएवीपी विज्ञापन की दरें इतनी कम रखी गई हैं कि अखबार आर्थिक रूप से कमजोर बने रहें।

आखिर इन दरों को बाजार दर के बराबर क्यों नहीं किया जा रहा? यह भी किसी से छिपा नहीं कि सत्ता में बैठे लोग किस तरह पाठकों को नजर न आने वाले उन अखबारों को भी अपने यहां से विज्ञापन जारी कराते हैं, जिनकी प्रसार संख्या मात्र उनके कार्यालयों तक ही सीमित रहती है। ऐसे गुमनाम से अखबार निकालने वालों और उन्हें प्रश्रय देने वालों में सबसे आगे ये राजनीतिज्ञ हैं। इस तथ्य की भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि सत्ता में बैठे लोग एक ओर प्रेस की आजादी का दम भरते हैं और दूसरी ओर पत्रकारों के जेबी संगठनों को बढ़ावा भी देते हैं। यही नहीं वे ऐसे संगठनों के पत्रकारों को तरह-तरह से उपकृत भी करते हैं ताकि उनके काले कारनामों पर पर्दा पड़ा रहे। अब तो सत्ता प्रतिष्ठान के स्वाथरें की पूर्ति में सहायक बनने वाले पत्रकारों को सरकारी स्तर पर भी उपकृत करने का सिलसिला चल निकला है। खतरनाक यह है कि इस सिलसिले को वैधानिकता भी प्रदान की जा रही है। इस सबको देखते हुए इस नतीजे पर पहुंचने के अतिरिक्त अन्य कोई उपाय रह ही नहीं जाता कि सरकार वेतन आयोग की मनमानी और अव्यावहारिक सिफारिशों के जरिये चौथे स्तंभ को कमजोर करने का प्रयास कर रही है?

लेखक दैनिक जागरण के कार्यकारी अध्यक्ष हैं.


 

और ये है वो विज्ञापन जो आजकल आईएनएस (अखबार मालिकों की संस्था) वाले अपने-अपने अखबारों में छाप-छपवा रहे हैं और पाठकों के दिमाग में भ्रम पैदा कर रहे हैं…

क्या कोई माई का लाल है जो मालिकों और मालिकों की संस्था द्वारा फैलाए जा रहे भ्रमों, दुष्प्रचारों का समुचित, तार्किक व तथ्यों के साथ जवाब दे...??
क्या कोई माई का लाल है जो मालिकों और मालिकों की संस्था द्वारा फैलाए जा रहे भ्रमों, दुष्प्रचारों का समुचित, तार्किक व तथ्यों के साथ जवाब दे…??

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Comments on “सूप तो सूप बोले, अब संदीप गुप्त भी बोलें

  • alok pathak says:

    boss i am working in this industry for last 16 years in different role in media ad sales and even my group ceo has written his views in our magzines but since freedom of expression is our birthright it is being gaurented by our constitution why cant we have a open debate on this topic i am against the decision of goverment imposing salary strucure in media only . we are working in any organisation with our own consent and if we are not getting proper salary then we should leave that organization. we are not slave of our owners and if any body is unhappy he should leave the job

    Reply
  • arvind khare says:

    दैनि· जागरण ·े मालि· से और उम्मीद भी क्या ·ी जा स·ती है। से वो अखबार है जिस·ा मैनेजमेंट अपने ·र्मचारियों ·ो ·म से ·म वेतन दे·र उनसे ज्यादा ·ाम ·राने में विश्वास रखता है। मध्यप्रदेश ·ी राजधानी भोपाल में जागरण ·े ·र्मचारियों ·ो दो से तीन महीने में तनख्वाह मिल रही है। संदीप गुप्त ·े प्रवचनों में विरोधाभास साफ झल· रहा है। ए· तरफ वे वेज बोर्ड ·ी सिफारिशें लागू ·रने ·े विरोध में छोटे अखबारों में तालाबंदी जैसे हालात होने ·ी दुहाई दे रहे हैं तो दूसरी ओर सर·ार द्वारा ऐसे अखबारों ·ो विज्ञापन जारी ·रने पर भी साफ-साफ ऐतराज जताते दिखाई पड़ते हैं। इससे पता चलता है ·ि उन·ी चिंता ·ितनी फर्जी है। सच तो यह है ·ि मध्यप्रदेश ·ी पत्र·ारिता में राज एक्सप्रेस ·े आगमन ·े बाद ही पत्र·ारों ·े स्तर में सुधार आया है। राज गु्रप ने पत्र·ारों ·ो सम्मानजन· तनख्वाह देने ·े अलावा अपने यहां ·ाम ·रने वाले दर्जनों ·र्मचारियों ·ो रहने ·े लिए म·ान त· दिए हैं। निचले स्तर पर ·ाम ·रने वालों ·े लिए ·ंपनी ·ा हॉस्टल है। ·ुछ समय पहले त· खाना मुफ्त और ऑफिस आने-जाने ·े लिए ·ंपनी ·ी बस भी उपलब्ध थी। इस·े बावजूद सबसे ज्यादा न·ारात्म· प्रचार इसी ग्रुप ·ो झेलना पड़ता है।

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  • Dr. Vishnu Rajgadia says:

    यकीन मानिये, मजीठिया वेतन बोर्ड के कारण कोई अखबार बंद नहीं होने जा रहा.

    विष्णु राजगढ़िया

    जस्टिस मजीठिया आयोग ने श्रमजीवी पत्रकारों के वेतनमान पर रिपोर्ट दी है. सबका दर्द सुनने-सुनाने वाले पत्रकारों के बड़े हिस्से को वेज बोर्ड के बारे में कुछ मालूम नहीं होता, इसका लाभ मिलना तो दूर. इसके बावजूद अखबार प्रबंधंकों ने वेज बोर्ड को मीडिया पर हमला बताकर हल्ला मचाना शुरू कर दिया है. जबकि मीडिया पर असली हमला तो पत्रकारों का भयंकर आर्थिक शोषण है. आखिर इतनी कठिन परिस्थितियों में लगातार काम करके भी एक पत्रकार किसी प्रोफेसर, सीए, इंजीनियर, डॉक्टर, आइएएस या कंप्यूटर इंजीनियर से आधे या चौथाई वेतन पर क्यों काम करे? अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता चाहिए तो यह सवाल हर नागरिक और हर मीडियाकर्मी को पूछना चाहिए.

    कोयलाकर्मियों और शिक्षक-कर्मचारियों की तरह मीडियाकर्मियों को भी अपने वेज बोर्ड के बारे में जागरूक होना चाहिए. वरना अखबार प्रबंधकों की लॉबी तरह-तरह से टेसुए बहाकर एक बार फिर पत्रकारों को अल्प-वेतनभोगी और बेचारा बनाकर रखने में सफल होगी.

    आज जो अखबार प्रबंधक नये वेज बोर्ड पर आंसू बहा रहे हैं, उन्हें नहीं भूलना चाहिए कि उनके प्रोडक्ट यानी अखबार में जो चीज बिकती है- वह समाचार और विचार है. अन्य किस्म के उत्पादों में कई तरह का कच्चा माल लगता है. लेकिन अखबार का असली कच्चा माल यानी समाचार और विचार वस्तुतः संवाददाताओं और संपादनकर्मियों की कड़ी मेहनत, दिमागी कसरत और कौशल से ही आता है. इस रूप में पत्रकार न सिर्फ स्वयं कच्चा माल जुटाते या उपलब्ध कराते हैं, बल्कि उसे तराश कर बेचने योग्य भी बनाते हैं.

    इस तरह देखें तो अन्य उद्योगों की अपेक्षा अखबार जगत के कर्मियों का काम ज्यादा जटिल होता है और उनके मानसिक-शारीरिक श्रम से कच्चा माल और उत्पाद तैयार होता है. तब उन्हें दूसरे उद्योगों में काम करने वाले उनके स्तर के लोगों के समान वेतन व अन्य सुविधाएं पाने का पूरा हक है. दुखद है कि मीडियाकर्मियों के बड़े हिस्से में इस विषय पर भयंकर उदासीनता का लाभ उठाकर अखबार प्रबंधकों ने भयंकर आर्थिक शोषण का सिलसिला चला रखा है.

    जो अखबार 20 साल से महत्वपूर्ण दायित्व संभाल रहे वरीय उपसंपादक को 20-25 हजार से ज्यादा के लायक नहीं समझते, उन्हीं अखबारों में किसी चार्टर्ड एकाउंटेंट, ब्रांड मैनेजर या विज्ञापन प्रबंधक की शुरूआती सैलरी 50 हजार से भी ज्यादा फिक्स हो जाती है. सर्कुलेशन की अंधी होड़ में एजेंटों, हॉकरों और पाठकों के लिए खुले या गुप्त उपहारों और प्रलोभनों के समय इन अखबार प्रबंधकों को आर्थिक बोझ का भय नहीं सताता. चार रुपये के अखबार की कीमत गिराकर दो रुपये कर देने या महज एक रुपये में किलो भर रद्दी छापने या अंग्रेजी के साथ कूड़े की दर पर हिंदी का अखबार पाठकों के घर पहुंचाने में भी अखबार प्रबंधकों को गर्व का ही अनुभव होता है. लेकिन जब कभी पत्रकारों को वाजिब दाम देने की बात आती है, तब इसे मीडिया की स्वतंत्रता पर हमले जैसे हास्यास्पद तर्क से दबाने की कोशिश की जाती है.

    आज इन मुद्दों पर एक सर्वेक्षण हो तो दिलचस्प आंकड़े सामने आयेंगे-
    1. किस-किस मीडिया संस्थान में वर्किंग जर्नलिस्ट वेज बोर्ड लागू है?
    2. जहां लागू है, उनमें कितने प्रतिशत मीडियाकर्मियों को वेज बोर्ड का लाभ सचमुच मिल रहा है?
    3. मीडिया संस्थानों में प्रबंधन, प्रसार, विज्ञापन जैसे कामों से जुड़े लोगों की तुलना में समाचार या संपादन से जुड़े लोगों के वेतन व काम के घंटों में कितना फर्क है?
    4. मजीठिया वेतन आयोग के बारे में कितने मीडियाकर्मी जागरूक हैं और इसे असफल करने की प्रबंधन की कोशिशों का उनके पास क्या जवाब है?
    5. जो अखबार मजीठिया वेतन आयोग पर चिल्लपों मचा रहे हैं, वे फालतू की फुटानी में कितना पैसा झोंक देते हैं?

    जो लोग यह कह रहे हैं कि पत्रकारों को वाजिब वेतन देने से अखबार बंद हो जायेंगे, वे देश की आखों में धूल झोंककर सस्ती सहानुभूति बटोरना चाहते हैं. जब कागज-स्याही या पेट्रोल की कीमत बढ़ती है तो अखबार बंद नहीं होते. दाम चार रुपये से घटाकर दो रुपये करने से भी अखबार चलते रहते हैं. हाकरों को टीवी-मोटरसाइकिल बांटने और पाठकों के घरों में मिठाई के डिब्बे, रंग-अबीर-पटाखे पहुंचाने से भी अखबार बंद नहीं होते. प्रतिभा सम्मान कार्यक्रमों और महंगे कलाकारों के रंगारंग नाइट शो से भी कोई अखबार बंद नहीं हुआ. शहर भर में महंगे होर्डिंग लगाने और क्रिकेटरों को खरीदने वाले अखबार भी मजे में चल रहे हैं. तब भला पत्रकारों को वाजिब मजूरी मिलने से अखबार बंद क्यों हों? इससे तो पत्रकारिता के पेशे की चमक बढ़ेगी और अच्छे, प्रतिभावान युवाओं में इसमें आने की ललक बढ़ेगी, जो आ चुके हैं, उन्हें पछताना नहीं होगा. इसलिए यकीन मानिये, मजीठिया वेतन बोर्ड के कारण कोई अखबार बंद नहीं होने जा रहा. वक्त है पत्रकारिता को वाजिब वेतन वाला पेशा बनाने का. सबको वाजिब हक मिलना चाहिए तो मीडियाकर्मियों को क्यों नहीं?

    एक बात और. पत्रकारों की इस दुर्दशा के लिए मुख्यतः ऐसे संपादक जिम्मेवार हैं, जो कभी खखसकर अपने प्रबंधन के सामने यह नहीं बोल पाते कि अखबार वस्तुतः समाचार और विचार से ही चलते हैं, अन्य तिकड़मों या फिड़केबाजी से नहीं. प्रबंधन से जुड़े लोग एक बड़ी साजिश के तहत यह माहौल बनाते हैं कि उन्होंने अपने सर्वेक्षणों, उपहारों, मार्केटिंग हथकंडों, ब्रांड कार्यक्रमों वगैरह-वगैरह के जरिये अखबार को बढ़ाया है. संपादक भी बेचारे कृतज्ञ भाव से इस झूठ को स्वीकार करते हुए अपने अधीनस्थों की दुर्दशा पर चुप्पी साध लेते हैं. पत्रकारिता का भला इससे नहीं होने वाला. समय है सच को स्वीकारने और पत्रकारिता को गरिमामय पेशा बनाने का, ताकि इसमें उम्र गुजारने वालों को आखिरकार उस दिन को कोसना न पड़े, जिस दिन उन्होंने इसमें कदम रखा था.

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  • srikant saurav says:

    sanjay gupt ek lokpriya hindi dainik ke alakaman hai.inki ginti ek aise akhbar malik ke taur par ki jati hai.jinka wajood holywood filmon ke wampire ki tarah apne akhbar me kam karne wale patrakaro ka khoon choos kar bana hai.ab bhala aise khoonchusiye akhbarnawis ki lekhni se umeed hi kya ki ja sakti hai.

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  • yogesh jadon says:

    संदीप भईया जी प्रेस की किस आजादी की बात कर रहे हैं। अपने कर्मचारियों को जोंक की तरह चूस लेने की आजादी। या हर साल अपनी नई यूनिट लगाने की आजादी। अगर नहीं तो अभी प्रेस की नाक में या वेज बोर्ड लागू होने के बाद कौन सी नकेल डलने जा रही है। ये बेचारे तो अपने काम धंधों की वजह से अपने ही हाथों अपने नकेल डाले घूम रहे हैं और जब कहीं किसी बाप से सामना होता है तो खुद नकेल लेकर खड़े हो जाते हैं लो भईया तुम भी डाल लो। तो ये महोदय क्यों परेशान हैं वेज बोर्ड से इस सच्चाई को कौन नहीं जानता। आखिर यह भी तो मालिक हैं और मालिक क्यों चाहेगा कि उसका कर्मचारी उसके मुनाफे में भागेदारी करे। जय हो इन तथाकथित देशभक्त पत्रकारों की।
    मैने तो पहले भी कहा था और आज भी कहता हूं कि अगर प्रेस मालिकों की मानसिकता अगर यही है तो प्रेस का राष्ट्रीयकरण कर देने में क्या बुराई है। रही बात सरकार और भ्रष्ट्रों की खिंचाई करने की तो उसके लिए नई मीडिया है ना।

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  • ye sab nautankiyan akhbar malik jan boojh kar kar rahe hain. ab ye high court ya any adalton me stay le kar manmani karenge. aisa pahle bhi ho chuka hai. amar ujala ke malik allahabad high court kee madad le bhi chuke hain . ab to sab malik vahi jyenge, kyonki jaman har har gangem ka hai. to beta akhbar me kam kar rahe ho to vetan badhne ki ummeed na hi karo. okay

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  • RAKESH SHARMA says:

    यशवंत जी,
    श्रीमान संदीप गुप्त जी के प्रलाप को पढ़ने से साफ है कि कर्मचारियों को उनकी मेहनत के अनुसार भुगतान करने में दैनिक जागरण प्रबंधन की नीयत साफ नहीं है। मजीठिया आयोग को लेकर दुहाई देने वाले दैनिक जागरण प्रबंधन द्वारा अभी तक मणिसाना के अनुसार ही पत्रकारों को वेतन नहीं दिया जा रहा है। इस मामले में यदि किसी को संदेह है तो पिछले आठ की सैलरी स्लिप दिखा सकता हूं। इसके अलावा दैनिक जागरण द्वारा आठ जनवरी 2008 से दी जाने वाले 30 प्रतिशत अंतरिम राहत भी पत्रकारों को नहीं दी गई है। इस स्थित में आप सहज ही अंदाजा लगा सकते हैं कि पत्रकार किस स्थिति में वहां काम कर रहे हैं। हरियाणा के अधिकांश कस्बाई पत्रकारों को दैनिक जागरण द्वारा कालम सेंटीमीटर के हिसाब से भी भुगतान नहीं किया जाता है। पेड न्यूज के मामले में करोड़ों रुपये की हेराफेरी करने वाले दैनिक जागरण के मालिक संपादकीय विभाग को हाशिये पर रखते हैं और विदेशों में हर साल आयोजित की जाने वाली पार्टियों पर कितना खर्च किया जाता है और वहां क्या-क्या किया जाता है, उसका कोई हिसाब नहीं है। पी शराब जाती है औरबिल कोल्ड ड्रिंक के बनते हैं।
    बहरहाल इस बारे में सलाह है कि जो साथी नौकरी कर रहे हैं उनकी बजाए हमें ही यह कमान संभालनी होगी। शीघ्र ही इस बारे में कोई कार्रवाई होगी निश्चिंत रहें।
    राकेश शर्मा,
    कुरुक्षेत्र।

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  • ek patrakar says:

    संदीप गुप्त जी की बनियागिरी का मुंह तोड़ जवाब देना जरूरी है। बात करते हैं एक सेना के जवान की, कि वो खतरे का काम करता है। क्यो पत्रकार खतरे का काम नहीं करते। ताजा उदाहरण उनके सामने हैं। अगर पत्रतार की नौकरी में खतरा नहीं होता, तो मिड डे के जेडे यूं ही मारे जाते। मेहनत की बात करते हैं, तो बताएं एक बेलदार से ज्यादा संदीप गुप्त मेहनत करते हैं क्या? नहीं तो फिर इतना पैसा क्यो कंपनी से ले रहे हैं? बात करें जिम्मेदारी की तो एक कॉलेज प्रिंसिपल के पास कितनी जिम्मेदारी होती। किसी डीएम या डीसी से अधिक नहीं। लेकिन प्रिंसिपल को सरकार ज्यादा तनख्वाह देती है। संदीप गुप्ता बताएं यह भी गलत है। आज अगर सरकार इन्हीं मालिकों से पूछे कि डीएवीपी विज्ञापन के रेटों में क्या बढौतरी की जाए? तो देखते हैं कितने मना करते हैं। पत्रकार चार सतंभों में शामिल है, तो उसका उसे हक क्यों न मिले।

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  • Aprajita Ved says:

    Ek sarkari vigyapan nahi milta beat wale ki band baja di jati hai bhai, sarkari daren kam hai to kyon kutte ki tarah usake peechhe dudate ho bhai, sach yah hai sarkari vigyapan ki bhi redbility hoti hai, yeh sarkar bhi janti hai. niji vigyapan khabar nahi hote. Fir koi aur dhandha kar lo janab, wase jagran chahta hai ki usaki hank TATA BIrla jasi ho. Jara wahan ki selari to dekho. inki soch parchun wale ki hai chate hai TATA banana.
    Ek Jankari AUR jo shayad unka lekh likhanewale ko nahi thi ki Sabhi Udyog shram kanoono se chalte hai, aur shram vibhag aur mantralay samay samaya par nai wage niti bnata rahta hai, wah lagu ho ya ho, jase jagran men wah nahi hi lagu hoti, yahi wajah hai ki jagran ki poocha Mulayam singh ne kewal ek Inspector bhej kar daba di thi.

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  • How a person like sandeep who is the No. 1 Exploiter of Kanpur, can claim that he is working for the nation. He doesn’t has any moral right to talk about honesty because he is the most dishonest person of kanpur.

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  • Ye Paper Ke malik Vigyapan se itna paisa kamate hai par ek reporter ko dene ke liye inke paas paise nahi hai.Jabki field me sabse jyad reporter hi active rahte hai.Ek to aap reporter ko paise nahi dete upar se aap unse Fair news ki aasha karte hai ye kaha se mumkin hai.
    Ye paper me corruption ke against itna news aata hai par sabse jyada corruption to paper me hi hai.Aap kisi ko bhi reporter bana dete ho.

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