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साहित्य

ठाकुर साहब को दो तीन थप्पड़ रसीद कर बोली- ‘कुत्ते, तेरी यह हिम्मत!’

: उपन्यास – लोक कवि अब गाते नहीं (4) : कल परसों में तो जैसा कि पत्रकार ने लोक कवि को आश्वासन दिया था बात नहीं बनी लेकिन बरसों भी नहीं लगे। कुछ महीने लगे। लोक कवि को इसके लिए बाकायदा आवेदन देना पड़ा। फाइलबाजी और कई गैर जरूरी औपचारिकताओं की सुरंगों, खोहों और नदियों से लोक कवि को गुजरना पड़ा।

: उपन्यास – लोक कवि अब गाते नहीं (4) : कल परसों में तो जैसा कि पत्रकार ने लोक कवि को आश्वासन दिया था बात नहीं बनी लेकिन बरसों भी नहीं लगे। कुछ महीने लगे। लोक कवि को इसके लिए बाकायदा आवेदन देना पड़ा। फाइलबाजी और कई गैर जरूरी औपचारिकताओं की सुरंगों, खोहों और नदियों से लोक कवि को गुजरना पड़ा।

बाकी चीजों की तो लोक कवि को जैसे आदत सी हो चली थी लेकिन जब पहले आवेदन देने की बात आई तो लोक कवि बुदबुदाए भी कि, ‘इ सम्मान तो जइसे नौकरी हो गया है।’ फिर उन्हें अपने आकाशवाणी वाले ऑडिशन टेस्ट के दिनों की याद आ गई। जिस में वह कई बार फेल हो चुके थे। उन दिनों की याद कर के वह कई बार घबराए भी कि कहीं इस सम्मान से भी ‘आउट’ हो गए तो ? फिर फेल हो गए तो ? तब तो समाज में बड़ी फजीहत हो जाएगी। और मार्केट पर भी असर पड़ेगा। लेकिन उन्हें अपनी किस्मत पर गुमान था और पत्रकार पर भरोसा। पत्रकार पूरे मनोयोग से लगा भी रहा। बाद में तो उसने इसे अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया।

और अंततः लोक कवि के सम्मान की घोषणा हो गई। बाकी तिथि, दिन, समय और स्थान की घोषणा शेष रह गई थी। इसमें भी बड़ी दिक्कतें पेश आईं। लोक कवि एक रात शराब पी कर होश और पेशेंस दोनों खो बैठे। कहने लगे, ‘जहां कलाकार हूं वहां हूं। मुख्यमंत्री के यहां तो भडुवे से भी गई गुजरी स्थिति हो गई है हमारी।’ वह भड़के, ‘बताइए सम्मान के लिए अप्लीकेशन देना पड़ा जैसे सम्मान नहीं नौकरी मांग रहे हों। चलिए अप्लीकेशन दे दिया। और भी जो करम करवाया कर दिया। सम्मान ‘एलाउंस’ हो गया। अब डेट एलाउंस करवाने में पापड़ बेल रहा हूं। हम भी और पत्रकार भी। वह और जोर से भड़के, ‘बताइए इ हमारा सम्मान है कि अपमान! बताइए आप ही लोग बताइए!’ वह दारू महफिल में बैठे लोगों से प्रश्न पूछ रहे थे। पर इस के भी उत्तर में सभी लोग ख़ामोश थे। लोक कवि की पीर को पर्वत में तब्दील होते देख सभी लोग दुखी थे। चुप थे। पर लोक कवि चुप नहीं थे। वह तो चालू थे, ‘बताइए लोग समझते हैं कि मैं मुख्यमंत्री का करीबी हूं, मेरे गाए बिना उनका भाषण नहीं होता और न जाने क्या-क्या!’ वह रुके और गिलास की शराब देह में ढकेलते हुए बोले, ‘लेकिन लोग का जानें कि जो सम्मान बंबई के भडुवे बेभाव यहां से बटोर कर ले जा रहे हैं वही सम्मान यहां के लोग पाने के लिए अप्लीकेशन दे रहे हैं। नाक रगड़ रहे हैं।’ इस दारू महफिल में संयोग से लोक कवि का एकालाप सुनते हुए चेयरमैन साहब भी उपस्थित थे लेकिन वह भी सिरे से ख़ामोश थे। दुखी थे लोक कवि के दुख से। लोक कवि अचानक भावुक हो गए और चेयरमैन साहब की ओर मुख़ातिब हुए, ‘जानते हैं, चेयरमैन साहब, ई अपमान सिर्फ मेरा अपमान नहीं है सगरो भोजपुरिहा का अपमान है।’ बोलते-बोलते अचानक लोक कवि बिलख कर रो पड़े। रोते-रोते ही उन्होंने जोड़ा, ‘एह नाते जे ई मुख्यमंत्री भोजपुरिहा नहीं है।’

‘ऐसा नहीं है।’ कहते-कहते चेयरमैन साहब जो बड़ी देर से ख़ामोशी ओढ़े हुए लोक कवि के दुख में दुखी बैठे थे, उठ खड़े हुए। वह लोक कवि के पास आए खड़े-खड़े ही लोक कवि के सिर के बालों को सहलाया, उनकी गरदन को हौले से अपनी कांख में भरा लोक कवि के गालों पर उतर आए आंसुओं को बड़े प्यार से हाथ से ही पोंछा और पुचकारा। फिर आह भर कर बोले, ‘का बताएं अब हमारी पार्टी की सरकार नहीं रही, न यहां, न दिल्ली में।’ वह बोले, ‘लेकिन घबराने और रोने की बात नहीं। कल ही मैं पत्रकार को हड़काता हूं। दो-एक अफसरों से बतियाता हूं। कि डेट डिक्लेयर करो!’ वह थोड़ा अकड़े और बोले, ‘ख़ाली सम्मान डिक्लेयर करने से का होता है?’ फिर वह लोक कवि के पास ही अपनी कुर्सी खींच कर बैठ गए। और लोक कवि से बोले, ‘लेकिन तुम धीरज काहे को खोते हो। सम्मान डिक्लेयर हुआ है तो डेट भी डिक्लेयर होगा ही। सम्मान भी मिलेगा ही।’

‘लेकिन कब ?’ लोक कवि अकुलाए, ‘दुई महीना त हो गया।’

‘देखो ज्यादा उतावलापन ठीक नहीं।’ चेयरमैन साहब बोले, ‘तुम्हीं कहा करते हो कि ज्यादा कसने से पेंच टूट जाता है तो का होगा ? जइसे दो महीना बीता चार छः महीना और सही।’

‘चार छः महीना !’ लोक कवि भड़के।

‘हां भई, ज्यादा से ज्यादा।’ चेयरमैन साहब लोक कवि को दिलासा देते हुए बोले, ‘एसे ज्यादा का सताएंगे साले।’

‘यही तो दिक्कत है चेयरमैन साहब।’

‘का दिक्कत है ? बताओ भला ?’

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‘आप कह रहे हैं न कि ज्यादा से ज्यादा चार छः महीना !’

‘हां, कह रहा हूं।’ चेयरमैन साहब सिगरेट जलाते हुए बोले।

‘तो यही तो डर है कि का पता छः महीना इ सरकार रहेगी भी कि नहीं। कहीं गिर गिरा गई तो ?’

‘बड़ा दूर का सोचता है तुम भई।’ चेयरमैन साहब दूसरी सिगरेट सुलगाते हुए बोले, ‘कह तुम ठीक रहे हो। इ साले रोज तो अखाड़ा खोल रहे हैं। कब गिर जाए सरकार कुछ ठीक नहीं। तुम्हारी चिंता जायज है कि यह सरकार गिर जाए और अगली सरकार जिस भी किसी की आए, क्या गारंटी है कि इस सरकार के फैसलों को वह सरकार भी माने ही!’

‘तो ?’

‘तो का। कल ही कुछ करता हूं।’ कह कर घड़ी देखते हुए चेयरमैन साहब उठ गए। बाहर आए। लोक कवि के साथ और लोग भी आ गए।

चेयरमैन साहब की एंबेसडर स्टार्ट हो गई और इधर दारू महफिल बर्खास्त।

दूसरी सुबह चेयरमैन साहब ने पत्रकार से इस विषय पर फोन पर चर्चा की, रणनीति के दो तीन गणित बताए और कहा कि, ‘क्षत्रिय हो कर भी तुम इस अहिर मुख्यमंत्री के मुंहलगे हो, अफसरों की ट्रांसफर-पोस्टिंग करवा सकते हो, लोक कवि के लिए सम्मान डिक्लेयर करवा सकते हो, पचासियों और काम करवा सकते हो लेकिन लोक कवि के सम्मान की डेट नहीं डिक्लेयर करवा सकते?’

‘का बात करते हैं चेयरमैन साहब। बात चलाई तो है डेट के लिए भी। डेट भी जल्दी एनाउंस हो जाएगी।’ पत्रकार निश्चिंत भाव से बोला।

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‘कब एनाउंस होगी डेट जब सरकार गिर जाएगी तब ? उधर लोक कविया अफनाया हुआ है।’ चेयरमैन साहब भी अफनाए हुए बोले।

‘सरकार तो अभी नहीं गिरेगी।’ पत्रकार ने, गहरी सांस ली और बोला, ‘अभी तो चेयरमैन साहब, चलेगी यह सरकार। बाकी लोक कवि के सम्मान की डेट एनाउंसमेंट ख़ातिर कुछ करता हूं।’

‘जो भी करना हो भाई जल्दी करो।’ चेयरमैन साहब बोले, ‘यह भोजपुरिहों के आन की बात है। और फिर कल यही बात कर के लोक कवि रो पड़ा।’ वह बोले, ‘और सही भी यही है कि इस अहिर मुख्यमंत्री ने किसी और भोजपुरिहा को तो अभी तक इ सम्मान दिया नहीं है। तुम्हारे कहने सुनने से लोक कवि को अहिर मान कर जो कि वह है नहीं किसी तरह सम्मान डिक्लेयर कर दिया लेकिन डेट डिक्लेयर करने में उसकी क्यों फाट रही है?’

‘ऐसा नहीं है चेयरमैन साहब।’ वह बोला, ‘जल्दी ही मैं कुछ करता हूं।’

‘हां भाई, जल्दी कुछ करो कराओ। आखि़र भोजपुरी के आन-मान की बात है!’

‘बिलकुल चेयरमैन साहब !’

अब चेयरमैन साहब को कौन बताता कि इन पत्रकार बाऊ साहब के लिए भी लोक कवि के सम्मान की बात उन की जरूरत और उनके आन की भी बात थी। यह बात चेयरमैन साहब को भी नहीं, सिर्फ लोक कवि को ही मालूम थी और पत्रकार बाऊ साहब को। पत्रकार ने कहीं इसकी फिर चर्चा नहीं की। और लोक कवि ने इस बात को किसी को बताया नहीं। बताते भी कैसे भला? लोक कवि खुद ही इस बात को भूल चुके थे।

डांसर निशा तिवारी की बात !

लेकिन पत्रकार को यह बात याद थी। चेयरमैन साहब से फोन पर बात के बाद पत्रकार की नसें निशा तिवारी के लिए फिर तड़क गई। नस-नस में निशा का नशा दौड़ गया। और दिमाग को भोजपुरी के आन के सवाल ने डंस लिया।

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पत्रकार चाहता तो जैसे मुख्यमंत्री से कह कर लोक कवि का सम्मान घोषित करवाया था, वैसे ही उन से कह कर तारीख़ भी घोषित करवा सकता था। पर जाने क्यों ऐसा करने में उसे हेठी महसूस हुई। सो चेयरमैन साहब की बताई रणनीति को तो पत्रकार ने ध्यान में रखा ही खुद भी एक रणनीति बनाई। इस रणनीति के तहत उसने कुछ नेताओं से फोन पर ही बात की। और बात ही बात में लोक कवि के सम्मान का जिक्र चलाया और कहा कि आप अपने क्षेत्र में ही क्यों नहीं इस का आयोजन करवा लेते? कमोवेश हर नेता से उसके क्षेत्र के मुताबिक गणित बांध कर लगभग अपनी ही बात नेता के मुंह में डाल कर उस से पत्रकार ने प्रतिक्रियात्मक टिप्पणी ले ली। एक मंत्री से कहा कि बताइए उसका गृह जनपद और आपका क्षेत्र सटे-सटे हैं तो क्यों नहीं सम्मान समारोह आप अपने क्षेत्र में करवाते हैं, आपकी धाक बढ़ेगी। किसानों के एक नेता से कहा कि बताइए लोक कवि तो अपने गानों में किसानों और उनकी माटी की ही बात गाते हैं और सही मायने में लोक कवि का श्रोता वर्ग भी किसान वर्ग है। किसानों, मेड़, खेत खलिहानों में गानों के मार्फत जितनी पैठ लोक कवि की है, उतनी पैठ है और किसी की? नहीं न, तो आप इसमें पीछे क्यों हैं? और सच यह है कि इस सम्मान समारोह के आयोजन का संचालन सूत्र सही मायने में आपके ही हाथों होना चाहिए। जब कि मजदूरों की एक बड़ी महिला नेता और सांसद से कहा कि शाम को थक हार कर मजदूर लोक कवि के गानों से ही थकावट दूर करता है तो मजदूरों की भावनाओं को समझने वाले गायक का सम्मान मजदूरों के ही शहर में होना चाहिए। और जाहिर है सभी नेताओं ने लोक कवि के सम्मान की क्रेडिट लेने, वोट बैंक पक्का करने के फेर में लोक कवि का सम्मान अपने-अपने क्षेत्रों में कराने की गणित पर अपनी-अपनी टिप्पणियों में जोर मारा। बस पत्रकार का काम हो गया था। उसने दो एक दिन और इस चर्चा को हवा दी और हवा ने चिंगारी को जब शोला बनाना शुरू कर दिया तभी पत्रकार ने अपने अख़बार में एक स्टोरी फाइल कर दी कि लोक कवि के सम्मान की तारीख़ इस लिए फाइनल नहीं हो पा रही है कि क्यों कि कई नेताओं में होड़ लग गई है। अपने-अपने क्षेत्र में लोक कवि का सम्मान हर नेता करवाना चाहता है। तब जब कि पत्रकार भी जानता था कि योजना के मुताबिक लोक कवि का सम्मान उनके गृह जनपद में ही संभव है फिर भी लगभग सभी नेताओं की टिप्पणियों को वर्बेटम कोड करके लिखी इस ‘स्टोरी’ से न सिर्फ लोक कवि के सम्मान की तारीख़ जल्दी ही घोषित हो गई बल्कि उन के गृह जनपद की जगह भी घोषित हो गई। साथ ही लोक कवि की ‘लोकप्रियता’ की पब्लिसिटी भी हो गई।

लोक कवि की लय इन दिनों कार्यक्रमों में देखते ही बनती थी। ऐसे ही एक कार्यक्रम में पत्रकार भी पहुंच गया। ग्रीन रूम में बैठ कर शराब पीते हुए बार-बार कपड़े बदलती हुई लड़कियों की देह भी वह कभी कनखियों से तो कभी सीधे देखता रहा। पत्रकार की मयकशी में मंच से आते-जाते लोक कवि भी शरीक होते रहे। दो तीन लड़कियों को भी चोरी छुपे पत्राकर ने दो एक पेग पिला दी। एक लड़की पर दो चार बार हाथ भी फेरा। इस फेर में डांसर निशा तिवारी को भी उसने पास बुलाया। लेकिन वह पत्रकार के पास नहीं फटकी। उलटे तरेरने लगी। पत्रकार ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी और शराब पीता रहा। जाने उसकी ठकुराई उफना गई कि शराब का सुरूर था कि निशा की देह की ललक, चद्दर ओढ़ कर कपड़े बदलती निशा को पत्रकार ने अचानक लपक कर पीछे से दबोच लिया। वह उसे वहीं लिटाने के उपक्रम में था कि निशा तब तक संभल चुकी थी और उसने पलट कर ठाकुर साहब को दो तीन थप्पड़ धड़ाधड़ रसीद किए और दोनों हाथों से पूरी ताकत भर ढकेलते हुए बोली, ‘कुत्ते, तेरी यह हिम्मत!’ ठाकुर साहब पिए हुए तो थे ही निशा के ढकेलते ही वह भड़भड़ा कर गिर पड़े। निशा ने सैंडिल पैर से निकाले और ले कर बाबू साहब की ओर लपकी ही थी कि मंच पर इस बारे में ख़बर सुन कर ग्रीन रूम में भागे आए लोक कवि ने निशा के सैंडिल वाले हाथों को पीछे से थाम लिया। बोले, ‘ये क्या कर रही है ?’ वह उस पर बिगड़े भी, ‘चल पैर छू कर माफी मांग।’

‘माफी मैं नहीं ये मुझसे मांगें गुरु जी!’ निशा बिफरी, ‘बदतमीजी इन्होंने मेरे साथ की है।’

‘धीरे बोलो ! धीरे।’ लोक कवि खुद आधे सुर में बोले, ‘मैं कह रहा हूं माफी मांगो।’

‘नहीं, गुरु जी।’

‘मांग लो मैं कह रहा हूं।’ कह कर लोक कवि बोले, ‘यह भी तुम्हारे लिए गुरु हैं।’

‘नहीं गुरु जी !’

‘जैसा कह रहा हूं फौरन करो!’ वह बुदबुदाए, ‘तमाशा मत बनाओ। और जैसा यह करें करने दो।’ लोक कवि और धीरे से बोले, ‘जैसा कहें, वैसा करो।’

‘नहीं !’ निशा बोली तो धीरे से लेकिन पूरी सख़्ती से। लोक कवि ने यह भी गौर किया कि इस बार उसने ‘नहीं’ के साथ ‘गुरु जी’ का संबोधन भी नहीं लगाया। इस बीच पत्रकार बाबू साहब तो लुढ़के ही पड़े रहे पर आंखों में उनकी आग खौल रही थी। ग्रीन रूम में मौजूद बाकी लड़कियां, कलाकार भी सकते में थे पर ख़ामोशी भरा गुस्सा सबकी आंखों में सुलगता देख लोक कवि असमंजस में पड़ गए। उन्होंने अपनी एक ‘लेफ्टीनेंट’ लड़की को आंखों ही आंखों में निशा को संभालने के लिए कहा और खुद पत्रकार की ओर बढ़ गए। एक कलाकार की मदद से उन्होंने पत्रकार को उठाया। बोले, ‘आप भी ई सब का कर देते हैं बाबू साहब?’

‘देखिए लोक कवि मैं और बेइज्जती बर्दाश्त नहीं कर सकता।’ बाबू साहब दहाड़े, ‘जरा सा पकड़ लिया इस छिनार को तो इसकी ये हिम्मत।’

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‘धीरे बोलिए बाबू साहब।’ लोक कवि बुदबुदाए, ‘बाहर हजारों पब्लिक बैठी है। का कहेंगे लोग !’

‘चाहे जो कहें। मैं आज मानने वाला नहीं।’ बाबू साहब बोले, ‘आज यह मेरे नीचे सोएगी। बस! मैं इतना ही जानता हूं।’ नशे में वह बोले, ‘मेरे नीचे सोएगी और मुझे डिस्चार्ज करेगी। इससे कम पर कुछ नहीं!’

‘अइसेहीं बात करेंगे?’ लोक कवि बाबू साहब के पैर छूते हुए बोले, ‘आप बुद्धिजीवी हैं। ई सब शोभा नहीं देता आप को।’

‘आप को शोभा देता है ?’ बाबू साहब बहकते हुए बोले, ‘आपका मेरा सौदा पहले ही हो चुका है। आपका काम तो डन हो गया और मेरा काम ?’

बाबू साहब की बात सुन कर लोक कवि को पसीना आ गया। फिर भी वह बुदबुदाए, ‘अब इहां यही सब चिल्लाएंगे ?’ वह भुनभुनाए, ‘ई सब घर चल कर बतियाइएगा।’

‘घर क्यों ? यहीं क्यों नहीं !’ बाबू साहब लोक कवि पर बिगड़ पड़े, ‘बोलिए आज यह मुझे डिस्चार्ज करेगी कि नहीं ? मेरे नीचे लेटेगी कि नहीं ?’

‘इ का-का बोल रहे हैं ?’ लोक कवि हाथ जोड़ते हुए खुसफुसाए।

‘कोई खुसफुस नहीं।’ बाबू साहब बोले, ‘क्लियर-क्लियर बता दीजिए हां कि ना!’

‘चुप भी रहेंगे कि अइसेही बेइज्जती कराएंगे?’

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‘मैं समझ गया आप अपने वायदे से मुकर रहे हैं।’

लोक कवि चुप हो गए।

‘ख़ामोशी बता रही है कि वादा टूट गया है।’ बाबू साहब ने लोक कवि को फिर कुरेदा।

लेकिन लोक कवि फिर भी चुप रहे।

‘तो सम्मान कैंसिल !’ बाबू साहब ने बात जरा और जोर से दोहराई, ‘लोक कवि आपका सम्मान कैंसिल ! मुख्यमंत्री का बाप भी अब आप को सम्मान नहीं दे पाएगा।’

‘चुप रहीं बाबू साहब !’ लोक कवि के एक साथी कलाकार ने हाथ जोड़ते हुए कहा, ‘बाहर बड़ी पब्लिक है।’

‘कुछ नहीं सुनना मुझे !’ बाबू साहब बोले, ‘लोक कवि ने निशा कैंसिल की और मैंने सम्मान कैंसिल किया। बात ख़त्म।’ कह कर बाबू साहब शराब की बोतल और गिलास एक-एक हाथ में लिए उठ खड़े हुए। बोले, ‘मैं चलता हूं।’ और वह सचमुच ग्रीन रूम से बाहर निकल गए। माथे पर हाथ रखे बैठे लोक कवि ने चैन की सांस ली। कलाकारों को हाथ के इशारे से आश्वस्त किया। निशा के सिर पर हाथ रख कर उसे आशीर्वाद दिया, ‘जीती रहो।’ फिर बुदबुदाए, ‘माफ करना !’

‘कोई बात नहीं गुरु जी।’ कह कर निशा ने भी अपनी ओर से बात ख़त्म की। लेकिन लोक कवि रो पड़े। भरभर-भरभर। लेकिन जल्दी ही उन्होंने कंधे पर रखे अंगोछे से आंख पोंछी, धोती की निचली कोर उठाए, हाथ में तुलसी की माला लिए मंच के पीछे पहुंच गए। उन्हीं का लिखा युगल गीत उन के साथी कलाकार गा रहे थे, ‘अंखिया बता रही है लूटी कहीं गई है।’ लोक कवि ने पैरों को गति दे कर थोड़ा थिरकने की कोशिश की और एनाउंसर को इशारा किया कि मुझे मंच पर बुलाओ।

एनाउंसर ने ऐसा ही किया। लोक कवि मंच पर पहुंचे और इशारा कर कंहरवा धुन पकड़ी। फिर भरे गले से गाने लगे, ‘नाचे न नचावै केहू पइसा नचावेला।’ गाते-गाते पैरों को गति दी पर पैर तो क्या मन ने भी साथ नहीं दिया। अभी वह पहले अंतरे पर ही थे कि उनकी आंख से आंसू फिर ढलके। लेकिन वह गाते ही रहे, ‘नाचे न नचावै केहू पइसा नचावेला।’ इस समय उनकी इस गायकी की लय में ही नहीं, उन के पैरों की थिरकन में भी अजीब सी करुणा, लाचारी और बेचारगी समा गई थी। वहां उपस्थित श्रोताओं दर्शकों ने ‘इस सब’ को लोक कवि की गायकी का एक अविरल अंदाज माना लेकिन लोक कवि के संगी साथी भौचक्के भी थे और सन्न भी। लेकिन लोक कवि असहज होते हुए भी गायकी को साधे हुए थे। हालांकि सारा रियाज रिहर्सल धरा का धरा रहा गया था संगतकार साजिंदों का। लेकिन जैसे लोक कवि की गायकी ने बेचारगी की लय थाम ली थी संगतकार भी ‘फास्ट’ की जगह ‘स्लो’ हो गए थे बिन संकेत, बिन कहे।

और यह गाना ‘नाचे न नचावै केहू पइसा नचावेला’ सचमुच विरल ही नहीं, अविस्मरणीय भी बन रहा था। ख़ास कर तब और जब वह ठेका दे कर गाते, ‘हमरी न मानो….’ बिलकुल दादरा का रंग टच दे कर तकलीफ का जो दंश वह बो दे रहे थे अपनी गायकी के मार्फत वह बिसारने वाला था भी नहीं। वह जैसे बेख़बर गा रहे थे, और रो रहे थे। लेकिन लोग उन का रोना नहीं देख पा रहे थे। कुछ आंसू माइक छुपा रहा था तो काफी कुछ आंसू उनकी मिसरी सी मीठी आवाज में बहे जा रहे थे। कुछ सुधी श्रोता उछल कर बोले भी कि, ‘आज तो लोक कवि ने कलेजा निकाल कर रख दिया।’ उनकी गायकी सचमुच बड़ी मार्मिक हो गई थी।

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यह गाना अभी ख़त्म हुआ भी नहीं था कि लोक कवि एक दूसरे गाने पर आ गए, ‘माला ये माला बीस, आने का माला!’ फिर कई भगवान, देवी देवताओं से होते हुए वह कुछ महापुरुषों तक माला महिमा का बखान करते इस गाने में तंज, करुणा और सम्मान का कोलाज रचने लग गए। कोलाज रचते-रचते अचानक वह फिर से पहले वाले गाने, ‘नाचे न नचावै केहू पइसा नचावेला।’ पर आ गए। सुधी लोगों ने समझा कि लोक कवि एक गाने से दूसरे गाने में फ्यूजन जैसा कुछ कर रहे हैं। या कुछ नया प्रयोग, नई स्टाइल गढ़ रहे हैं। पर सच यह था कि लोक कवि माला को सम्मान का प्रतीक बता उसे पैसे से जोड़ कर अपने अपमान का रूपक रच रहे थे। अनजाने ही। अपने मन के मलाल को धो रहे थे।

….जारी….

दयानंद पांडेयउपन्यासकार दयानंद पांडेय से संपर्क 09415130127, 09335233424 और [email protected] के जरिए किया जा सकता है. इसके पहले के भागों को पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें- 1 2 3

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