: चौथा कोना – खुद सुधरो फिर छेड़ो सुधार की मुहिम : एक आईपीएस अधिकारी ने कानपुर प्रेस को सिखाया सबक : दिसम्बर के आखिरी हफ्ते में पलटकर देखा जाता है बीते साल को. चौथा कोने से पलटकर देखने में 2010 कनपुरिया पत्रकार के मानमर्दन का वर्ष कहा जायेगा. एक आईपीएस अधिकारी ने कानपुर प्रेस को यह सबक दिया है कि चाहे नौकरी वाले पत्रकार हों या फैक्ट्री (प्रेस) मालिक वाले पत्रकार अगर अपने गरेबान में झांके बगैर दूसरे में खोट निकालने का धन्धा करोगे तो मारे जाओगे…. तन से भी, मन से भी और धन से भी.
वर्ष २०१० भी कानपुर के भोंथरे पत्रकारों के कारण नपुंसक पत्रकारिता का ही वर्ष रहा. जहां थोड़ा बहुत पुंसत्व दिखा भी वहां भी धोखा निकला. लोग समझते रहे बहादुर पत्रकारिता हो रही है. निर्बल को न्याय दिलाने का संघर्ष चल रहा है. जबकि तह में निकला एक अखबार के अहं का फंसाव और एक शातिर लम्बरदार द्वारा उगाही को रचा गया एक षडय़ंत्र…जो रपट पड़े की हर गंगे के कारण २०१० की सबसे सनसनीखेज पत्रकारिता और संघर्षशील पत्रकारिता प्रचारित हो गई. जी हां, यहां दिव्या काण्ड पर कलमकारों की भूमिका का इशारे-इशारे में जिक्र हो रहा है.
पिछले दिनों मेरी कानपुर के समस्त स्थानीय सम्पादकों से मुलाकात हुई. चारो सम्पादक (दैनिक जागरण, हिन्दुस्तान, अमर उजाला और राष्ट्रीय सहारा) इस बात से बेहद चिन्तित और आहत मिले कि कानपुर में ‘प्रेस’ दूसरे शब्दों में मीडिया बेहद शर्मनाक स्थिति में पहुंच गया है. पत्रकारों की कोई इज्जत या हैसियत नहीं रह गई. सम्पादकों की यह चिन्ता वाजिब है. ये अखबार चाहे विश्व के नम्बर एक हों, चाहे देश के या प्रदेश के इनमें अब इतनी कूबत नहीं बची है कि ये अपने कलमकारों की ढाल या तलवार बन सके, मान लो कोई अखबार यह दायित्व निभाये भी तो बाकी के प्रतिद्विन्द्वी अखबार ढाल और तलवार दोनों को निस्तेज करने की मुहिम में लग जायेंगे. जैसा कि दिव्या काण्ड के दौरान हिन्दुस्तान की मुहिम के साथ हुआ. कानपुर में ‘हिन्दुस्तान’ के साथ जो हुआ कोई अप्रत्याशित या पहली घटना नहीं थी. ऐसा यहां तब भी होता रहा है जब शहर में खेल दैनिक जागरण और आज दो ही अखबार थे.
सच्चाई तो यह है कि इन दो अखबारों की प्रतिस्पर्धा ने शहर की पत्रकारिता का माहौल चौपट कर दिया. आज ने तो अपने पत्रकारों को गुण्डों की भूमिका में सड़क पर उतार दिया था. अखबारों में सड़क छाप लफंगों और टुच्चों को शायद पहली बार ‘आज’ में ही स्थान मिलना शुरू हुआ. अब तो खैर कोई मानदण्ड है ही नहीं किसी अखबार में किसी के भर्ती होने का. साहब के गांव का सबसे बदतमीज लड़का यूनिट का सबसे प्रभावी रिपोर्टर बनता है. क्योंकि वह अखबार के पक्ष में, साहब के कक्ष में सबसे बढिय़ा दलाली जो कर लेता है. इस पर ज्यादा लिखने की आवश्यकता नहीं है… अब तो सब जगजाहिर है.
हां, एक बात २०१० के समापन पर. कानपुर के एक-एक पत्रकार से फिर कहूंगा कि तुम लोगों की अगर गली-गली, चौराहे-चौराहे, ऊपर-नीचे जो फजीहत हो रही है तुम सब उसके लिये पक्के जिम्मेदार लोग हो. प्रेस क्लब का चुनाव क्यों नहीं हो रहा…? २०१० भी गया. अरे, रूअंटो आंसू पोंछो. दसियों लाख डकार चुकी बेईमान समिति को कान पकड़कर प्रेस क्लब से बाहर करो. नया चुनाव कराओ. एक अच्छी और सच्ची टीम चुनो. ‘प्रेस क्लब’ के मंच को मीडिया बैनरों से दूर पत्रकारों के बैनर से लैस करो. और अगर ऐसा नहीं करोगे तो तुम्हारे लिये लडऩे का कोई दूसरा फोरम फिलहाल है नहीं. यह काम अब तभी सम्भव होगा जब शहर के सभी अखबारों के सम्पादक मन बनायेंगे. जहां तक मैं आपको बता पा रहा हूं शहर का हर सम्पादक अब निर्जीव प्रेस क्लब में प्राण फूंकने की आवश्यकता पर सहमत है. गतिविधियां शुरू करो, नौकरी नहीं जायेगी.
लेखक प्रमोद तिवारी कानपुर के वरिष्ठ पत्रकार हैं और ‘हेलो कानपुर’ के संपादक हैं. प्रमोद बेबाकबयानी और सच्ची पत्रकारिता के लिए जाने जाते हैं.
Comments on “2010 कनपुरिया पत्रकारों के मानमर्दन का वर्ष”
hi sir i m a media student………………..pramod ji agar aap bhi kisi bade news paper ke editor hote to kya aap apne ristedaro ko preference nahi dete????????????????
प्रमोद तिवारी और पत्रकारिता ????????
bhai lakh accha he
झाड़े रहो कलक्टर गंज !