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इस हिंदी वेब पत्रकारिता को सलाम

[caption id="attachment_17430" align="alignleft" width="89"]शेष नारायण सिंहशेष नारायण सिंह[/caption]पत्रकारिता के जनवादीकरण का युग : सच्चाई को कम खर्च में आम आदमी तक पहुंचाने का दौर : ये ऐसे अभिमन्यु हैं जो शासक वर्ग के खेल को समझते हैं : वेब मीडिया ने वर्तमान समाज में क्रान्ति की दस्तक दे दी है और उसका नेतृत्व कर रहे हैं आधुनिक युग के कुछ अभिमन्यु. मीडिया के महाभारत में वेब पत्रकारिता के यह अभिमन्यु शहीद नहीं होंगे.

शेष नारायण सिंह

शेष नारायण सिंह

शेष नारायण सिंह

पत्रकारिता के जनवादीकरण का युग : सच्चाई को कम खर्च में आम आदमी तक पहुंचाने का दौर : ये ऐसे अभिमन्यु हैं जो शासक वर्ग के खेल को समझते हैं : वेब मीडिया ने वर्तमान समाज में क्रान्ति की दस्तक दे दी है और उसका नेतृत्व कर रहे हैं आधुनिक युग के कुछ अभिमन्यु. मीडिया के महाभारत में वेब पत्रकारिता के यह अभिमन्यु शहीद नहीं होंगे.

हालांकि मूल महाभारत युद्ध में शासक वर्गों ने अभिमन्यु को घेर कर मारा था लेकिन मौजूदा समय में सूचना की क्रान्ति के युग का महाभारत चल रहा है. जनपक्षधरता के इस यज्ञ में आज के यह वेब पत्रकार अभिमन्यु अपने काम के माहिर हैं और यह शासक वर्गों की १८ अक्षौहिणी सेनाओं का मुकाबला पूरे होशो हवास में कर रहे हैं. कल्पना कीजिये कि अगर भड़ास जैसे कुछ पोर्टल न होते तो निरुपमा पाठक के प्रेमी को परंपरागत मीडिया कातिल साबित कर देता और राडिया के दलाली कथा के सभी खलनायक मस्ती में रहते और सरकारी समारोहों में मुख्य अतिथि बनते रहते और पद्मश्री आदि से सम्मानित होते रहते. लेकिन इन बहादुर वेब पत्रकारों ने टीवी, प्रिंट और रेडियो की पत्रकारिता के संस्थानों को मजबूर कर दिया कि वे सच्चाई को जनता के सामने लाने के इनके प्रयास में इनके पीछे चलें और लीपापोती की पत्रकारिता से बचने की कोशिश करें.

महाभारत के काल का अभिमन्यु तो गर्भ में था और सत्ता के चक्रव्यूह को भेदने की कला सीख गया था लेकिन हमारे वाले अभिमन्यु वैसे सादा दिल नहीं है. आज का हर अभिमन्यु शासक वर्गों के खेल को अच्छी तरह समझता है क्योंकि इसने उनके ही चैनलों या अखबारों में घुस कर उनके तमाशे को देखा भी है और सीखा भी है. शायद यही कारण है कि पत्रकारिता की किताबों में लिखी गयी आम आदमी की पक्षधरता की पत्रकारिता अपने वातविक रूप में जनता के सामने है.

वास्तव में हम जिस दौर में रह रहे हैं वह पत्रकारिता के जनवादीकरण का युग है. इस जनवादीकरण को मूर्त रूप देने में सबसे बड़ा योगदान तो सूचना क्रान्ति का है क्योंकि अगर सूचना की क्रान्ति न हुई होती तो चाह कर भी कम खर्च में सच्चाई को आम आदमी तक न पहुंचाया जा सकता और जो दूसरी बात हुई है वह यह कि अखबारों और टीवी चैनलों में मौजूद सेठ के कंट्रोल से आज़ाद हो कर काम करने वाले इन नौजवानों की राजनीतिक और सामाजिक समझदारी बिकुल खरी है. इन्हें किसी कर डर नहीं है, यह सच को डंके की चोट पर सच कहने की तमीज रखते हैं और इनमें हिम्मत भी है.

कहने का मतलब यह नहीं है कि अखबारों में और टीवी चैनलों में ऐसे लोग नहीं है जो सच्चाई को समझते नहीं हैं लेकिन उनमें बहुत सारे ऐसे हैं जो मोटी तनखाह के लालच में उसी गांव में रहने को मजबूर हैं. ज़ाहिर है इस मजबूरी की कीमत वे बेचारे हांजी हांजी कह कर दे रहे हैं. हमें उनसे सहानुभूति है. हम उनके खिलाफ कुछ नहीं कहना चाहते हम जानते हैं कि हर इंसान की अपनी अलग अलग मजबूरियां होती हैं. लेकिन हम उन्हें सलाम भी नहीं करेंगे क्योंकि हमारे सलाम के हक़दार वेब के वे बहादुर पत्रकार हैं जो सच हर कीमत पर कह रहे हैं. इस देश में बूढों का एक वर्ग भी है जो अपनी पूरी जवानी में लतियाए गए हैं लेकिन उन्होंने उस लतियाए जाने को कभी अपनी नियति नहीं माना. वे खुद तो कुछ नहीं कर सके लेकिन जब किसी ने सच्चाई कहने की हिम्मत दिखाई तो उसके सामने सिर ज़रूर झुकाया. इन पंक्तियों का लेखक उसी श्रेणी का मजबूर इंसान है.

हालांकि उम्मीद नहीं थी कि अपने जीवन में सच को इस बुलंदी के साथ कह सकने वालों के दर्शन हो पायेगा जो कबीर साहेब की तरह अपनी बात को कहते हैं और किसी की परवाह नहीं करते लेकिन खुशी है कि इन लोगों को देखा जा रहा है. आज सूचना किसी साहूकार की मुहताज नहीं है. मीडिया के यह जनपक्षधर उसे आज वेब पत्रकारिता के ज़रिये सार्वजनिक डोमेन में डाल दे रहे हैं और बात दूर  तलक जा रही है. राडिया ने जिस तरह का जाल फैला रखा है वह हमारे राजनीतिक सामाजिक जीवन में घुन की तरह घुस चुका है और अभी तो यह एक मामला है. ऐसे पता नहीं कितने मामले हैं जो दिल्ली के गलियारों में घूम रहे होंगें.

जिस तरह से राडिया ने पूरी राजनीतिक बिरादरी को अपने लपेट में ले लिया वह कोई मामूली बात नहीं है. इससे बहुत ही कमज़ोर एक घोटाला हुआ था जिसे जैन हवाला काण्ड के नाम से जाना जाता है. उसमें सभी पार्टियों के नेता बे-ईमानी करते पकडे गए थे लेकिन कम्युनिस्ट उसमें नहीं थे. इस बार कम्युनिस्ट भी नहीं बचे हैं.  यानी जनता के हक को छीनने की जो पूंजीवादी कोशिशें चल रही हैं उसमें पूंजीवादी राजनीतिक दल तो शामिल हैं ही, कम्युनिस्ट भी रंगे हाथों पकडे गए हैं. सवाल यह उठता है कि आगे क्या होगा.  जिस तरह से जैन हवाला काण्ड दफन हो गया था क्या उसी तरह सब कुछ इस बार भी दफ़न कर दिया जाएगा.

अगर वेब पत्रकारिता का युग न होता और मीडिया का जनवादीकरण न हो रहा होता तो ऐसा संभव हो सकता था. आज दुनिया राडिया के खेल की एक एक चाल को इसलिए जानती है कि वेब ने हर वह चीज़ सार्वजनिक डोमेन में डाल दिया है जो खबर की परिभाषा में आता है और अजीब बात यह है कि मामूली सी बात पर लड़ाई पर आमादा हो जाने वाली बरखा दत्त और वीर सांघवी जैसे लोग सन्न पड़े हैं.  इंदौर से निकल कर पत्रकारिता के मानदंड स्थापित करने वाले अखबार के मालिक दलाली की फांस में ऐसे पड़े हैं कि कहीं कुछ सूझ नहीं रहा है. इसलिए सभ्य समाज को चाहिए कि वर्तमान मीडिया के सबसे क्रांतिकारी स्वरुप, वेब को ही सही सूचना का वाहक मानें और दलाली को प्रश्रय देने वाले समाचार चैनलों को उनके औकात बताने के सामाजिक और राष्ट्रीय दायित्व का निर्वाह करें.

लेखक शेष नारायण सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं.

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0 Comments

  1. www.sakshatkar.com

    May 10, 2010 at 10:14 am

    web patrakarita – Sach ka dusra rup hai . Jisme bhadas4media sabse aage chal raha hai. Nirupma or raadia case ko bhedne me kaphi kargar savit huaa hai. ye upar likhit lekh me sahi kaha gaya hai ki abhi web media bikaoo nahi huaa ? Hum har us media ke sath hai jo sach ko kahne ki takat rakhta hai .
    Sushil Gangwar
    http://www.sakshatkar.com

  2. vineet kumar gkp 09936809770

    May 10, 2010 at 10:55 am

    patrakarita ka nai pidhi ka liya yah ummied ki krian hai.jo hum yua patrakaroo ko apana dil ke baat kahana kamanch uplabhad karita hai.

  3. कमल शर्मा

    May 10, 2010 at 11:35 am

    शेष नारायण जी नमस्‍कार। आपने वाकई हमेशा की तरह बेहतर लेख लिखा है और वेब पत्रकारिता को जिस अहम स्‍थान पर रेखांकित किया है उसके लिए धन्‍यवाद। अब समय वेब पत्रकारिता का ही है।

  4. suresh pandey

    May 10, 2010 at 1:36 pm

    शेष नारायण जी ने सही कहा है अब जमाना बेव पत्रकारिता का ही है। जिन्होंने इसे समझ लिया है, उनकी दाल रोटी आगे भी चलती रहेगी, जो नहीं समझ पाए हैं, आगे चलकर उनके सामने मुशि्कल हो जाएगी। वैसे बेव पत्रकारिता को सही मायने में मुख्य धारा का विकल्प बनने में वक्त लगेगा। यह कितना समय लेगा, कहा नहीं जा सकता।

  5. sushil Gangwar

    May 11, 2010 at 3:27 am

    नए पत्रकारों की जमात ——————————युवा पत्रकार नहीं जानते कि लेख कैसे लिखा जाता है ,जो मन में आता लिख देते है ऐसे ही एक युवा पत्रकार है राहुल कुमार जो बिहार के बेगुसराय ज़िले के निवासी हैं पिछले कुछ सालो से डेल्ही में रह रहे है । अभी दो महीने पहले इनके दिल दिमाग में पत्रकार बनने का सपना आया । आवेश में आकर http://www.vichar.bhadas4media.com/ को एक लेख लिखकर भेज दिया ।
    लेख का शीर्षक रखा है मैं मर्द हूं, तुम औरत, मैं भूखा हूं, तुम भोजन!! । लेख कि भाषा इतनी घटिया है कि कुछ नहीं कहा जा सकता है । लेख का सारांश निकाला जाये तो ये जनाव तो औरतों को पैर की जूती समझते है । लेख का मजबून कुछ इस तरह है
    मैं भेड़िया, गीदड़, कुत्ता जो भी कह लो, हूं। मुझे नोचना अच्छा लगता है। खसोटना अच्छा लगता है. मुझसे तुम्हारा मांसल शरीर बर्दाश्त नहीं होता. तुम्हारे उभरे हुए वक्ष॥ देखकर मेरा खून रफ़्तार पकड़ लेता हूं. मैं कुत्ता हूं. तो क्या, अगर तुमने मुझे जनम दिया है. तो क्या, अगर तुम मुझे हर साल राखी बांधती हो. तो क्या, अगर तुम मेरी बेटी हो. तो क्या, अगर तुम मेरी बीबी हो. तुम चाहे जो भी हो मुझे फ़र्क़ नहीं पड़ता. मेरी क्या ग़लती है? घर में बहन की गदरायी जवानी देखता हूं, पर कुछ कर नहीं पाता. तो तुमपर अपनी हवस उतार लेता हूं. घोड़ा घास से दोस्ती करे, तो खायेगा क्या? मुझे तुम पर कोई रहम नहीं आता. कोई तरस नहीं आता. मैं भूखा हूं. या तो प्यार से लुट जाओ, या अपनी ताक़त से मैं लूट .
    राहुल ने अपनी भड़ास मगर रिश्तो को भूल कर निकली है । आगे कुछ और लिखते है…………..
    पिछले साल तुम जैसी क़रीब बीस बाईस हज़ार औरतॊं का ब्लाउज़ नोचा हम मर्दों नें। तुम जैसे बीस बाईस हज़ार औरतों का अपहरण किया। अपहरण के बाद मुझे तो नहीं लगता हम कुत्तों, शेरों या गीदड़ों ने तुम्हे छोड़ा होगा. छोड़ना हमारे वश की बात नहीं. तुम्हारा मांस दूर से ही महकता है. कैसे छोड़ दूं. क़रीब अस्सी-पचासी ह़ज़ार तुम जैसी औरतों को घर में पीटा जाता है. हम पति, ससुर तो पीटते हैं ही, साथ में तुम्हारी जैसी एक और औरत को साथ मिला लिया है जिसे सास कहते हैं. और ध्यान रहे ये सरकारी रिपोर्ट है. तुम जैसी लाखों तो अपने तमीज़ और इज्ज़त का रोना रोते हो और एक रिपोर्ट तक फ़ाईल करवाने में तुम्हारी…. फट जाती है. तुम्हारे मां-बाप, भाई भी इज्ज़त की दुहाई देकर तुम्हे चुप करवाते हैं और कहते हैं सहो बेटी सहो. तुम्हारे लिये सही जुमला गढ़ा गया है, “नारी की सहनशक्ति बहुत ज़्यादा होती है.” तो फिर सहो।
    मै ये कहना चाहुगा आजकल औरतों मर्दों की गुलाम नहीं रही है वह सब जानती है अगर वह अपने पर आ जाये कुछ भी कर सकती है । औरत शक्ति का दूसरा रूप है । वह हमारी माँ – बहन भी हो सकती है । औरतों को कमजोर समझने वाला ही खुद मानसिक रूप से कमजोर है।
    एडिटर – सुशील गंगवार
    साक्षात्कार डाट काम

  6. mukesh tiwari

    May 14, 2010 at 6:49 am

    Aisa aap he likh sakte ho sir……padhne ke baad to josh aana lazmi mai…….

  7. akash rai

    November 19, 2010 at 11:21 am

    web journalism sach ka saamna hai . yeh logo ko aayna dikhane ka kaam kar raha hai . aage bhi web journalism portel se asei ummed rahegi

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