हमारा हीरो – हरिवंश (प्रधान संपादक, प्रभात खबर) : भाग-3 : मुझे और अच्छी अंग्रेजी आती तो मैंने जीवन में और अच्छा किया होता : मैं असंतुष्ट, निराश, बेचैन रहने वाला आदमी हूं : मैं बहुत साफ-साफ, दो टूक बात करता हूं : एक भी ऐसा काम नहीं किया, जिसके लिए पश्चाताप हुआ हो या कोई ऊंगली उठा सके : मेरे अंदर आक्रोश बहुत है : मेरी नगद बचत क्या है, वह भी अगर आप चाहें तो ब्योरा दे दूं : पत्रकार पहल कर कोई संवैधानिक पीठ बनवाएं, जिससे हर पत्रकार कानूनन अपने और अपने परिवार की संपत्ति का ब्योरा उस संस्था को दे :
-मीडिया में हर किसी के बारे में उल्टे-सीधे कहने का दौर है। लोग आपको भी नहीं बख्शते। कुछ लोगों ने मुझसे कहा कि हरिवंश जी ने काफी पैसा कमा लिया है। आपके कई शहरो में फ्लैट हैं? इसमें कितनी सच्चाई है?
–अपने बारे में आपसे यह चर्चा पहली बार सुन रहा हूं। मेरी आदत है, न मैं किसी के बारे में बगैर तथ्य कुछ कहता हूं, न अफवाह-गॉशिप किसी के बारे में सुनता हूं या कहता हूं। पर हम पत्रकारों की दुनिया आज अजीब हो गई है। आज जो माहौल है, उसमें किसी के बारे में कुछ भी बोला जा सकता है, कहा जा सकता है, क्योंकि कुछ भी कहने-बोलने में एकाउंटेबिलिटी नहीं है। आपके माध्यम से मैं अपनी कुल संपत्ति का ब्योरा देता हूं। जनसत्ता कोआपरेटिव सोसाइटी (गाजियाबाद) में एक फ्लैट, एक तीन कमरे का फ्लैट रांची में, जिसमें रहता हूं। रांची में फ्लैट के अलावा दुकाननुमा एक छोटा-सा हाल है। बहुत पहले कुछ साथियों ने मिलकर शहर से काफी दूर छोटा घर बनाने के लिए जमीन का छोटा-सा टुकड़ा (20 डिसमिल) लिया था। रांची का कट्ठा काफी छोटा होता है। कुछ वर्षों पहले उसको बेचकर वैसा ही एक टुकड़ा शहर से उतनी ही दूर लिया। उससे थोड़ा अधिक बड़ा। यही कुल मेरी संपत्ति है। गांव पर पुश्तैनी घर है। पुश्तैनी जमीन है। जब हम गांव जाते हैं तो उसी घर में रहते हैं अन्यथा वह बंद रहता है। गांव में जो हमसे जुड़े लोग रह रहे हैं, पीढ़ियों से, उनके माध्यम से कुछ जमीन पर खेती भी कराते हैं।
नौकरी में आने के बाद जब-जब जो-जो चीजें मैंने लीं, उन सबकी सूचनाएं संबंधित संस्थानों को दे दिया है। हालांकि, यह बाध्यकारी नहीं था। मौजूदा संस्था से दो बार बड़ा लोन लिया। दिल्ली में जब जनसत्ता सोसाइटी में फ्लैट लिया तो उसका पूरा ही लोन इसी संस्था से सूद पर लिया, जो अभी ग्यारह वर्षों बाद, इस साल चुका पाया हूं। इसे मुझे वर्ष 2005-06 में ही चुका देना चाहिए था। इसके अलावा रांची में फ्लैट और एक अन्य छोटा दुकाननुमा हाल लेते वक्त दो बड़े बैंकों से बड़ा कर्ज लिया। इन सबका ब्योरा-विवरण कोई देखना चाहे, तो वह उपलब्ध है। मेरे पास अपनी निजी गाड़ी भी नहीं है, आफिस की गाड़ी है।
मैं जिस संस्थान में भी रहा, शुरू से इनकम टैक्स को विवरण देता रहा। मेरे पास एक-एक संपत्ति कब, कहां और कैसे आयी, घर का फर्नीचर तक कब, कहां से आया, इसका एक-एक ब्योरा खुद आयकर को देता हूं। इस संपत्ति के अलावा मेरे पास कोई और संपत्ति की सूचना दे सके, तो मैं उसका जवाब दूं। अगर बत्तीस वर्षों की कई अच्छी नौकरियों, अच्छे संस्थानों में काम करने के बाद मेरेपास कुल यही है, तो आप स्वतः अंदाज कर सकते हैं। मैंने टाइम्स आफ इंडिया से शुरुआत की, बैंक में अधिकारी के रूप में रहा। फिर आनंद बाजार में सहायक संपादक के रूप में रहा। कुछ दिनों के लिए प्राइममिनिस्टर आफिस में अतिरिक्त सूचना सलाहकार (ज्वायंट सेक्रेटरी, भारत सरकार) रहा। आप मानेंगे कि ये सभी संस्थाएं, वेतन और सुविधाएं तो बेहतर देती ही हैं। आज भी जहां हूं, अच्छा वेतन मिलता है। मुझे निजी बातें बताने में अत्यंत क्षोभ होता है। किस संस्थान में किस पद पर रहा, यह सब बताने में आत्मसंकोच होता है। पर आपका प्रश्न ही ऐसा है, जो बताना पड़ रहा है। न मैं होटलों मे जाता हूं, न क्लबों में जाता हूं। न कोई अतिरिक्त खर्च है। मेरे बच्चे भी अच्छे जॉब में गये। बेटे ने विदेश में चार वर्ष काम करने के बाद फिर पढ़ाई शुरू की है। इन सबके बाद भी मेरी नगद बचत क्या है, वह भी अगर आप चाहें तो एक-एक ब्योरा दे दूं। हां, यह कह सकता हूं कि आज चाहूं तो भी इच्छानुसार रिटायर होकर चैन से नहीं रह सकता। मुझे अच्छा लगा कि आपने यह सवाल पूछा। मैं चाहूंगा कि आप अपने फोरम से मेरा यह अनुरोध आगे बढ़ाएं कि पत्रकार पहल कर कोई संवैधानिक पीठ बनवाएं, जिससे हर पत्रकार कानूनन अपने और अपने परिवार कीसंपत्ति का ब्योरा प्रति वर्ष उस संस्था को दे और वह सार्वजनिक हो और अखबारों में छपे।
सवाल तो यह उठना चाहिए कि कौन-से पत्रकार अपने पद का दुरुपयोग कर रहे हैं? मैंने क्या दुरुपयोग किया है? ठेका, तबादला, दलाली में आज पत्रकारों के नाम क्यों आ रहे हैं? इस पर सप्रमाण सवाल उठने चहिए। सवाल इस पर उठे कि जिन पत्रकारों की 2-4 वर्ष पहले कोई हैसियत नहीं थी, न उन्होंने महत्वपूर्ण संस्थानों में काम किया, न उनकी वेतन सुविधाएं अच्छी, फिर भी वे अरबपति कैसे बन बैठे हैं?
पत्रकारिता मेरे लिए नैतिक कर्म है और मुझे संतोष है कि नैतिक पत्रकारिता करने की मैंने कोशिश की है। अनेक भूलें हुई हैं, गलतियां हुई हैं, पर एक भी ऐसा काम नहीं किया, जिसके लिए कभी कोई पश्चाताप हुआ हो या मुझ पर कोई ऊंगली उठा सके। चलते-चलते यह भी जोड़ दूं कि जब ‘प्रभात खबर’ में हम लोगों ने नये सिरे से काम करना शुरू किया तो घोषित तरीके से सार्वजनिक आचार संहिता बनायी। समय-समय पर उसे छापा। यहां तक कि किसी महत्वपूर्ण कार्यक्रम में शामिल होने पर मेरा नाम, बयान शायद ही देखने को मिले। नाम मिल भी गया तो बयान कभी नहीं। तस्वीर कभी नहीं।
-सुना है, आप प्रभात खबर के बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स में भी शामिल हो गए हैं?
–मैं बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स में था। मैंने छोड़ दिया। आज से पांच-छह वर्ष पहले की बात है। पुन: मुझसे कहा गया लेकिन मैं पत्रकार के अलावा कुछ हूं नहीं, न रहना चाहता हूं।
-जबसे झारखंड अलग राज्य बना, आप किसी मंत्री-मुख्यमंत्री से मिलने गए या नहीं?
–आठ वर्षों में तीन बार तीन मुख्यमंत्रियों ने मुझे बुलाया। मैं उनके घर गया। किसी मुख्यमंत्री के दफ्तर आज तक नहीं गया। किसी मंत्री के दफ्तर में तो आठ वर्षों से जाने का सवाल ही नहीं पैदा होता है। विधानसभा में एक बार गया हूं 2002-03 में। सचिवालय मैंने आज तक नहीं देखा। सिर्फ घर से दफ्तर। अगर दफ्तर में ज्यादा समय होता है तो अपने संवाददाताओं से बातचीत करता हूं। वही हमारे आंख-कान हैं। हम उनकी रिपोर्टों पर डिबेट करते हैं, पॉलिसी तय करते हैं। जैसे नक्सल इश्यू है। इसे हमें कैसे उठाना है? स्टेट अगर फेल कर रहा है तो कहां क्या करना है? अखबार में ऐसी वेराइटी है कि अनेक ऐसे मामले लोग दफ्तर पहुंचा जाते हैं, उनको उनकी आवाज और जन-भावना के अनुरूप प्रकाशित हो जाने की व्यवस्थाओं पर नजर रखना हमारी प्राथमिकता रहती है।
-एक मनुष्य के बतौर आपकी पांच कमजोरियां क्या हैं?
–सबसे पहली कमजोरी यह है कि मैं बहुत कटा, अलग-थलग अकेले रहने वाला आदमी हूं, जबकि ऐसा नहीं होना चाहिए। बचपन में ऐसा नहीं था। शायद अपने प्रोफेशन में आते-आते ऐसा हुआ। दूसरे, अपने घर को समय देना चाहिए, जो मैं नहीं दे पाता हूं। तीसरे, मैं मॉडर्न टेक्नोलॉजी- कंप्यूटर, इंटरनेट से दूर रहता हूं। चौथा, अगर मुझे और अच्छी अंग्रेजी आती तो मैंने जीवन में और अच्छा किया होता। प्रभाषजी को बहुत अच्छी अंग्रेजी आती है। पांचवां, मुझे लगता है कि प्रभाष जी, एमजे अकबर, अरूण शौरी जैसे अनेक ऐसे लोग, जिनको नजदीक से देखा, उतनी गहराई से मेरा अध्यवसाय नहीं हो सका है। एक और निजी कमी मेरे अंदर है, आक्रोश बहुत है।
-किस बात को लेकर इतना आक्रोश है?
–बहुत सारी चीजों को लेकर। दरअसल, मैं एक प्रकार से असंतुष्ट, निराश, बेचैन रहने वाला आदमी हूं। बहुत-से नए लोगों को जोड़ा। जो कोई नया आदमी मेरे पास आया, अगर मैं मदद कर सकने की स्थिति में था तो मैंने सहयोग किया। इसके पीछे भी एक घटना है। ‘धर्मयुग’ में जब काम करने गया तो मैं यंगेस्ट पत्रकारों में था। धर्मवीर भारती हम लोगों को सिखाते थे। हम गलती करते थे तो लिखकर सही करना, भाषा ठीक करना बताते थे। इसी प्रकार कोई नौजवान हमारे यहां आया कि हम आपके यहां काम करना चाहते हैं, हमने उसे अपनी लिमिटेशन बताई। हम आपको इतना पैसा नहीं दे सकते। आपको क्या-क्या यहां परेशानी होगी। तब भी आप यहां काम करना चाहते हैं, मैंने उन्हें रोका नहीं। मदद की। यहां से निकले लड़के कई जगहों पर हैं।
-सबसे ज्यादा गुस्सा आपको कब आया?
–जब भी ‘प्रभात खबर’ के साथ कोई ऐसी अनएथिकल कोशिश हुई कि इसको आगे नहीं निकलने देना है। जब हम विद्यार्थी थे, जयप्रकाश नारायण गिरफ्तार हुए थे तो उस समय लगा कि जैसे हमारे घर में कुछ हो गया हो, महीनों तक। निजी जीवन में या घर में, मैं तब अपने को थोड़ा कमजोर आदमी महसूस करता हूं, जब गुस्सा आता है। कई बार काम अगर सही ढंग से नहीं हो रहा हो, चाहे दफ्तर में, या घर में, तो मुझे गुस्सा आता है।
-आपकी विनम्रता काफी चर्चित है। तो फिर अपने गुस्से को आप कैसे अभिव्यक्त करते हैं?
–मैं बहुत साफ-साफ, दो टूक बात करता हूं।
… जारी …
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