चौथी दुनिया के सद्यः प्रकाशित विशेषांक में प्रभात खबर के प्रधान संपादक हरिवंश का इंटरव्यू छपा है। इसमें पत्रकारिता की दशा-दिशा पर काफी कुछ बातें हैं। समकालीन विचारवान और सरोकार वाले संपादकों में हरिवंश का नाम जाना-पहचाना है। रांची में रहकर बिहार-झारखंड के प्रमुख वैचारिक हिंदी अखबार प्रभात खबर को नेतृत्व प्रदान करने वाले हरिवंश ने बाजार के मजबूत दबाव के बावजूद विचार से समझौता नहीं किया। चौथी दुनिया में प्रकाशित यह इंटरव्यू यहां साभार दिया जा रहा है।
–पत्रकारिता की वर्तमान दशा और दिशा को देखकर क्या आपको अफसोस नहीं होता?
–आपके प्रश्न के पहले हिस्से के जवाब में कहना चाहूंगा कि अफसोस जैसी कोई बात मेरे साथ नहीं है. पत्रकारिता कोई अकेली या अछूती विधा नहीं, जहां गिरावट आई है. फिर पत्रकारिता की विधा एक आयामी भी नहीं होती. इसे संदर्भों में देखने की जरूरत है. आप देखिएगा कि पत्रकारिता को खाद हमेशा राजनीति और समाज से ही मिली है. मैं तो यह कहना चाहूंगा कि पत्रकारिता और राजनीतिक विचार एक दूसरे के प्रेरक रहे हैं. आप स्वाधीनता आंदोलन से लेकर जेपी आंदोलन तक देख लीजिए. क्या इन्हीं राजनीतिक विचारों ने पत्रकारों को प्रेरणा नहीं दी, और क्या पत्रकारिता ने इन विचारों के फैलाव और प्रसार में अहमतरीन भूमिका नहीं निभाई? तो, यह चौतरफा गिरावट का दौर है. इसी वजह से मुझे अफसोस तो नहीं, पर चिंता जरूर है.
हाशिए के लोगों या वंचितों के सरोकारों को पत्रकारिता सामने नहीं ला पा रही है. दूसरे शब्दों में कहें तो यह सत्ता की सहायक हो गई है. पत्रकार बस तिकड़मी बन कर रह गए हैं जो सत्ता के हितों का पोषण करने में लगे हैं. यह समय आत्ममंथन का है, मूल उद्देश्य की तरफ लौटने का है. तभी कुछ हो पाएगा.
–हिंदी पत्रकारिता मौजूदा दौर में वाद न विवाद, केवल अनुवाद बनकर रह गई है और पत्रकार अनुवादक सह टंकक. अधिकतर मीडिया हाउस में अंग्रेजी का ही अनुवाद होता है. यह तस्वीर कैसे बदलेगी?
–आपकी इस धारणा से मैं बुनियादी रूप से असहमत हूं. यह दिल्ली के बड़े मीडिया प्रतिष्ठानों जैसे एचटी और टाइम्स आफ इंडिया के साथ हो सकता है. आप हिंदी पट्टी से निकलने वाले अखबारों को देखिए. समस्या दरअसल दूसरी है. हमें मानव संसाधन को विकसित करने की जरूरत है. पत्रकारों को प्रशिक्षित करने की जरूरत है ताकि वे खबरों की नब्ज़ को पकड़ सकें. भाषाई फैलाव तो बहुत हुआ है, लेकिन उसी अनुपात में खबरें भी असीमित हो गई हैं.
–खबरों की धार और गहराई गायब हो गई है. खबर देने का दावा करने वालों की संख्या जितनी बढ़ी है, खबरें उसी अनुपात में गायब हो गई हैं. आप क्या सोचते हैं?
–इस बात से सहमत हुआ जा सकता है. दरअसल, खबरों या कहें कि पत्रकारिता के मूल चरित्र में ही परिवर्तन हो गया है. पहले के दौर में आम तौर पर यह माना जाता था कि पब्लिक रिलेशन या पीआर से मिलने वाली खबरें तो खबरें हैं ही नहीं. बल्कि जो छुपाया जाता है, वही खबर है. आज शार्टकट के इस दौर में यह चरित्र ही खो गया है. पत्रकार बंधु सूत्रों पर अधिकाधिक निर्भर रहने लगे हैं. सतही तौर पर आकलन करने लगे हैं. वे खबरों की तह तक नहीं जाते. मौजूदा संकट के लिए यही जिम्मेदार है.
–पत्रकारिता में जल, जंगल और जमीन से जुड़े मसले गायब होते जा रहे हैं. हम जो भी देखते या पढ़ते हैं, वह समाज के दो फीसदी हिस्से का ही सच बयान करती है. इस सूरत-हाल को कैसे बदला जाएगा?
–देखिए, यहां भी मसला कुछ दूसरा ही है. थोड़े-बहुत या छिटपुट मामले तो उठते ही रहते हैं, वरना आप ही बताइए कि बीस पन्नों या ज्यादा का अखबार भला भरेगा कैसे. ऐसे में समग्रता का अभाव हो जाता है, दृष्टि की कमी पैदा हो जाती है. इसे बदलने के लिए केवल दिल्ली के बड़े मीडिया प्रतिष्ठानों में वातानुकूलित कमरों में बैठकर बयानबाजी करने से काम नहीं चलेगा. नब्बे के दशक तक विचारधारा को लेकर राजनीति होती रही.
राजनीति मुद्दा आधारित हुआ करती थी. किंतु आज पक्ष और विपक्ष दोनों का ही चाल, चरित्र और चिंतन लगभग एक सा ही है. कहां है वह विजन, कहां वह सोच और कहां है वह दृष्ठि?
–कई पत्रकार साथी पत्रकारिता की मौजूदा दशा से काफी खिन्न हैं. वे जिस उत्साह, जोश और जज्बे से इस क्षेत्र में आए थे, काम शुरू करने के कुछ ही दिनों बाद उनका वह जोश ठंडा पड़ गया. उनके उत्साह को फिर से कैसे जगाया जाए?
–यह आपका बड़ा ही सामान्यीकृत सवाल है. वैसे ही, जैसे देश की दशा बहुत खराब है, क्या करें? देखिए, जब तक मुद्दे और विचार जीवित थे, लोग पत्रकारिता में एक बेचैनी, एक जुनून से आते थे. आज पैशन की वजह से नहीं, मजबूरी से आते हैं. किसी का यूपीएससी में नहीं हुआ, या किसी और जगह वह नहीं जा सका, तो पत्रकारिता में आ गया. ऐसे में कमिटमेंट का, दृष्टि का अभाव होता है. अब लोग खबरिया चैनलों को गाली भी देंगे और अधिक पैसा मिलने पर वही काम भी करेंगे, तो यह तस्वीर कैसे बदलेगी. आप गुणवत्ता बढ़ाइए. हमें आर्थिक आधार को देखना होगा. हिंदी अखबार सबसे अधिक बिकते हैं, पर उनको विज्ञापन नहीं मिलते. आप देखिए कि प्रसार के मामले में शीर्ष 10 अखबारों में शायद ही अंग्रेजी का कोई हो, सिवाय टाइम्स आफ इंडिया के तो, हमें इसको बदलना होगा. संसाधन पैदा करने होंगे. हमें तो केंद्र सरकार पर दबाव बनाना चाहिए, कि आखिर सारे बड़े विज्ञापन अंग्रेजी अखबारों को ही क्यों दिए जाते हैं.
–प्रिंट मीडिया के सामने सबसे बड़ी चुनौती क्या है?
–अपनी साख और विश्वसनीयता को फिर से बना लेना हमारे सामने सबसे बड़ी चुनौती है.
–हिंदी भाषा के स्वरूप को लेकर रोज नए सुझाव आ रहे हैं. कवायद हो रही है. कुछ अखबार तो बाकायदा हिंग्लिश का अभियान चलाए हुए हैं. ऐसे दौर में हिंदी की वर्तनी और स्वरूप क्या होगा?
–इसके लिए तो हर अखबार को काम करना होगा. मैं किसी भी तरह अंग्रेजी को बढ़ावा देने के पक्ष में नहीं हूं. यह तो न्याय नहीं है. हमें देसज शब्दों के इस्तेमाल पर जोर देना होगा. उनको खोजना होगा. उर्दू और ग्रामीण अंचलों के कई शब्द मर रहे हैं. उनको बचाने की जरूरत है. सहज-भाषा का इस्तेमाल करना चाहिए, लेकिन उर्दू न फारसी मियां जी बनारसी वाला मामला तो नहीं चलेगा. कुछ अखबारों ने इस दिशा में राह दिखाई थी, पर अब वे भी नेतृत्व नहीं कर पा रहे. कारण चाहें जो भी हों.
–इलेक्ट्रानिक मीडिया के बारे में काफी कुछ कहा जा रहा है. आपकी क्या सोच है, खासकर मुंबई हमलों की कवरेज के संदर्भ में?
–इलेक्ट्रानिक मीडिया बहुत ही ताकतवर माध्यम है. यह तो हथियार चलाने वाले पर निर्भर करता है, न कि हथियार पर कि उसका वार कहां हो रहा है. खबरिया चैनलों को अपनी मर्यादा का पता होना चाहिए. उनको संयम के साथ काम करना चाहिए, जिसका स्पष्ट अभाव इन दिनों दिख रहा है. मुझे लगता है कि खबरों को ब्रेक करने की हड़बड़ी की जगह उसकी तह में जाकर रिपोर्टिंग होनी चाहिए, वरना मामला वैसा ही होगा, जैसा हम आए दिनों देखते हैं. तात्कालिकता के फेर में हम वस्तुनिष्ठता की बलि न दें, तो ही बेहतर होगा.
–सूचना देने का काम करने वाले पत्रकार खुद आधी जानकारियों के सहारे काम करते हैं. जैसे, भारत-परमाणु करार की जय-जयकार में मुख्यधारा का लगभग पूरा मीडिया खड़ा दिखा, जबकि इस मसले के कई और भी पहलू थे. उनकी पूरी तरह से अनदेखी की गई. आपकी क्या राय है?
–मैं आपकी बात से पूरी तरह सहमत हूं. केवल यही एक मसला नहीं, बल्कि कई और मामले हैं जिन पर आधी-अधूरी या अधकचरा जानकारी परोसी और बांटी गई. इसका मुख्य कारण है, पत्रकारों में समझ, सोच और सबसे बढ़कर प्रशिक्षण और पढ़ाई का अभाव. आप देखिए न, आज के पत्रकार पढ़ते कब हैं? वह तो बस अपनी जोड़-तोड़ और राजनीतिक तिकड़म में लगे रहते हैं, मुद्दों से बस उनका सतही तौर पर लगाव होता है.
arvind
October 14, 2010 at 12:58 am
sir patrkarita ko naya ayam dene ke liye apko hr mah ek khula seminar ka ayojan karna chahiye taki apki soch or gyan ka labh nai pidhi ke patrakar le sake
rajkumar sahu. jajgir, chhattisgarh
November 8, 2010 at 7:47 am
badlate samay ke saath ab patrakarita, mision nahin rah gai hai. jab se udyog samajh kar patrakarita mein kuch dhan purushon ne kadam rakha hai, tab se patrakarita ke halaat aur jyada kharab huye hain.
rashbihari dubey
February 5, 2011 at 4:28 pm
harivansh ji gandhi ji ke baap hain.
sara achchai inhi me bhara hain.
krishna kumar kanhaiya
February 6, 2011 at 5:05 pm
बेबाक राय रखने के लिए धन्यवाद। वैसे भी चीजों को सही तरीके से रखने के लिए आप जाने जाते हैं। सर अब ग्रामीण रिपोर्ट की जरूरत है, इसपर काम करने के लिए आप जैसे सुलझे और सिनियर पत्रकारों को आगे आना चाहिए। धन्यवाद
shiwangi sinha
April 3, 2011 at 7:03 am
yah kitni hasyaspad baat hai ki pehle chadrashekhar, phir digvijay singh aur ab nitish kumar ki dalali karnewale shriman harivansh patrakarita ke aadarshon ki baat kar rahe hain.
pehle apni girebaan mein jhankiye harivanshji.
santosh choudhary
May 21, 2011 at 10:50 am
…………………achchi baat kahte hain harivans ji!!!!!!!!!!!!!!!!!!
sanjay kumar
July 21, 2011 at 2:55 pm
Hariwans ji,
patrkaro ko tikdami kisne banaya hai? meri jankari me aaj- kal ka patrkaro se khabar ke sath app paisa v lete hai. ye alag bat hai ki ye paisa aap vigyapan ke nam par lete hai. kya ye sach nahi hai? aab patrkar tikdami nahi banega to HARISCHANDRA banega? JO paisa dekar patrkarita karega vo to tikdami hoga hi.
mai v ek patrkar hun issiliye ye janta hun . aap dil par hath rakhkar bole ki gramin patrkaro ko aap kitna mehntana dete hai. ye NAREGA ke majduron ke majduri se v kam hai. kya itne bina tikadam dikhay jivan ki gadi kaise chhalegi?
sanjay
p.k.singh
November 14, 2011 at 9:54 pm
main bhi ek news channel me hu c.news jo ki apne patra karo se kewal mobile par news chalane ke sath sath apne patra karo kasho shad bhi kar rahi hi kabhi khi kisi ho hatatadiya unka maksad kewal pesa hai ya unke patrakar de ya kisi se waus kar ke de.din par din unki bhukh bhadti ja rahi hai wo kisi ke sath bhi imandari se pesh nhi ate hai editer pawan sharma cews wale.koi to in ko sam jahaaoo kay mobile par kitne advtesment ho ne chaiye 10.20 magar in ko to har manth adv chahiye or kisi bhi mobile sms media agence par adv kabhi chalte hi magar in ke lalach ne sabhi ko prashan kar rakha hai.
p.k.singh
November 14, 2011 at 9:57 pm
mobile agence par adv ke naam par lutte. cnews wale unke partrakar nhi balki unbke erditer pawan sharma pesa do kahi se other mobile com. ko nhi chahiye adv magar inko jaruur pesa do kahi se bhi
GOPAL PRASAD
December 8, 2011 at 9:36 pm
must read