चंद रोज पहले दिल्ली में एक सेमिनार में आरोप लगाया गया कि पिछले चुनावों में कई मीडिया हाउसों ने उम्मीदवारों से पैसे लेकर उनके माफिक खबरों का प्रकाशन किया। सेमिनार का उदघाटन करने वाले मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल ने कहा कि उन्हें मालूम है, खबरों का गोरखधंधा कैसे हुआ। कई पत्रकारों ने स्वीकारा कि पैसों का लेन-देन हुआ। सेमिनार का कोई नतीजा नहीं निकला पर एक वरिष्ठ नेता ने मुझे बताया कि अगर मीडिया के इस भ्रष्टाचार की जांच के लिए कोई कमीशन बना तो वे उसमें गवाही देने जाएंगे। मुझे बहुत ताज्जुब हुआ जब मैंने इस सेमिनार और कपिल सिब्बल के आरोपों के बारे में अखबारों या टीवी चैनलों में कोई चर्चा नहीं देखी। इस खबर को ब्लैक आउट कर दिया गया था। हम जैसे कुछ लोगों ने प्रेस कौंसिल से निवेदन किया है कि चुनाव प्रचार के दौरान इस्तेमाल हुई नंबर दो की रकम की जांच की जाय।
अनौपचारिक रूप से चुनाव आयोग से भी बात की गई है। एक सदस्य ने कहा कि अगर पैसे का लेन-देन साबित हो गया तो उसे उम्मीदवार के चुनाव खर्च में डाल दिया जाएगा। लोकसभा के पिछले चुनावों में भी इस तरह के आरोप लगे थे लेकिन उस बार रकम कम थी। लगता है इस बार तो पूरी तरह से खुला खेल था। बाजार में नामी टीवी चैनलों और अखबारों का नाम खुलेआम लिया जा रहा है। प्रेस का यह अपमान कोई नई बात नहीं है। वह अपने आप को इमरजेंसी के दौरान भी अपमानित कर-करा चुका है। कुछ अखबारों और पत्रकारों को छोड़कर बाकी लोग दब गए थे। कुछ को दाम दिया गया था तो बाकी दंड के सामने झुके थे। इमरजेंसी के बाद लालकृष्ण आडवाणी का बयान दिलचस्प था। उन्होंने कहा कि, आपसे झुकने को कहा गया था और आप तो रेंगने लगे। उसी वक्त से पत्रकारिता की हैसियत गिरने लगी थी और आज तो यह बहुत ही खराब हो गई है। मीडिया को अब सिनेमा या क्रिकेट के स्टारों के अलावा कुछ नहीं दिखता। सनसनी फैलाने के लिए अखबारों ने टीवी चैनलों की नकल करना शुरू कर दिया है जबकि टीवी चैनल शेखी बघारने में अखबारों की नकल कर रहे हैं।
पाकिस्तान, बांग्लादेश और श्रीलंका के पत्रकारों को मैंने ज्यादा हिम्मती पाया है। पाकिस्तान में मार्शल लॉ के खिलाफ खड़े पत्रकारों पर कोड़े बरसाए जाते थे जबकि भारत में इमरजेंसी के दौरान केवल जेल जाने की आशंका रहती थी। लेकिन फिर भी हम पत्रकार के रूप में खरे नहीं उतरे। बंगलादेश में अभी संपन्न हुए चुनावों के दौरान हालत बहुत खराब थे लेकिन वहां के पत्रकारों ने लोकतांत्रिक मूल्यों की गरिमा को बनाए रखा। श्रीलंका के कुछ पत्रकारों ने भी सरकारी दमन को चुनौती दी थी। एक तो मारा भी गया था। यह सच है कि नेता हमें इस्तेमाल करना चाहते हैं। उनका अपना मतलब होता है। लेकिन हम भी उनके खेल में शामिल हो जाते हैं। जब पिछले लोकसभा चुनाव में हमने खबर को इस तरह से पेश किया जिससे किसी का फायदा हुआ तो हम सच से विचलित हुए और लोकशाही में जो हमसे आशा की जाती है, उसे पूरा नहीं कर सके। प्रेस को चौथा खंभा इसलिए कहते हैं कि लोकतंत्र इसके बिना बेमानी हो जाएगा।
आजकल अखबार पढ़ने या टीवी देखने के बाद लगता है कि एक नई तरह की इमरजेंसी शुरू हो गई है जहां सत्य एक सापेक्षिक टर्म है और मूल्य नाम की कोई चीज होती ही नहीं। भारत कोई ऐसा नहीं है जिसे सत्ता और धन के लालची तिकड़मबाज चला रहे हों। हम एक महान विरासत के वारिस हैं। महात्मा गांधी ने अपनी बात हरिजन नाम के साप्ताहिक के जरिए कही थी। 1950 में ऑल इंडिया न्यूजपेपर एडिटर्स कॉनफ्रेंस में जवाहर लाल नेहरू ने कहा था- ‘इसमें शक नहीं कि सरकार प्रेस की आजादी को बहुत पसंद नहीं करती और उसे खतरनाक मानती हो, फिर भी प्रेस की आजादी में दखल देना गलत है। मैं एकदम स्वतंत्र प्रेस को सही मानता हूं। मैं हर वह खतरा बर्दाश्त करने को तैयार हूं जो प्रेस की आजादी की वजह से संभावित है लेकिन दबा हुआ या सरकारी कानून के दायरे में बंधा प्रेस मुझे मंजूर नहीं है।’ नेहरू को डर था कि व्यवस्था के लोग प्रेस को दबाकर तबाह कर सकते हैं। उन्हें क्या मालूम था कि प्रेस की आजादी को खतरा बाहर से नहीं अंदर से होगा। सुख सुविधा के लिए पत्रकार खुद ही अपने आत्मसम्मान का सिर काट कर महाप्रभुओं के सामने हाजिर कर देंगे। जो लोग इस तरह से अपने घुटने टेक रहे हैं, उन्हें यह ध्यान देना चाहिए कि वे अगली पीढ़ियों के लिए क्या छोड़कर जा रहे हैं। क्या वे अपने बेटे-बेटियों को अपनी जलालत की जिंदगी की छाया में पालना पोसना चाहते हैं? क्या वे उन कालाबाजारियों की तरह की जिंदगी जीना चाहते हैं जिनकी औलादें और कोई काम नहीं कर सकती हैं?
समझ में नहीं आता कि आदर्शवाद कहां चला गया? एक वक्त था जब सबसे अच्छे और कुशाग्रबुद्धि लोग पत्रकारिता में आते थे जो समाज के सामने मौजूद चुनौतियों से मुकाबला करना चाहते थे। वे हर उस चीज से पंगा लेने को तैयार रहते थे जिससे आम आदमी को खतरा हो सकता था। वह चाहे रूढ़िवादी सोच हो, सत्ता के दलालों की मनमानी हो या पुरातनपंथी राजनीतिक आचरण हो। आज के टीवी चैनल और अखबार महत्वपूर्ण मुद्दों पर बहस करने से भागते हैं। वे अपना या अपने स्वार्थी आकाओं का दृष्टिकोण बढ़ा चढ़ाकर पेश करते हैं। जो लोग उनके पूर्वाग्रह को सही नहीं ठहराते, उनको अपनी बात कहने का मौका ही नहीं देते। दरअसल लोकतंत्र के इस जमाने में वे सबसे ज्यादा अलोकतांत्रिक लोग हैं। वे कैसा मुल्क चाहते हैं? या उनकी नजर किस खास चीज पर पर टिकी हुई है? क्या यह केवल मनोरंजन है? अगर ऐसा है तो उनको अपने संस्थान को प्रेस कहना बंद कर देना चाहिए। बहुत दिन नहीं हुए जब वॉशिंगटन पोस्ट के दो रिपोर्टरों ने अमरीकी राष्ट्रपति (रिचर्ड निक्सन) को बेनकाब करके गद्दी छोड़ने को मजबूर कर दिया था, क्योंकि निक्सन ने राष्ट्र से झूठ बोला था। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि पश्चिमी देशों का प्रेस आदर्श है। हमने देखा है कि इराक युद्ध के दौरान किस तरह पश्चिमी मीडिया ने अपने आपको बेच दिया था। वहां इंबेडेड पत्रकार ले जाए गए थे, वे वही रिपोर्ट कर सकते थे जो उन्हें दिखाया जाता था। वे हमारे उन पत्रकारों से भी गए गुजरे थे जिन्होंने इमरजेंसी में सरकारी ढिंढोरची का काम किया था।
जब एक पत्रकार पत्रकारिता के मूल्यों से समझौता करता है तो वह अपने देश की गरिमा तो घटाता ही है, वह राष्ट्र के लोकशाही मिजाज पर भी वार करता है। मुझे अफसोस है कि दिल्ली के सेमिनार में व्यक्त किए गए विचारों पर समाज में बहस नहीं हुई। मुझे उन नेताओं और पत्रकारों से बहुत निराशा होती है जो जानते हैं कि विश्वसनीयता का संकट है लेकिन वे उसे दुरुस्त करने की कोशिश नहीं करते, उसे टालते रहते हैं।