उन सभी टी.वी. चैनलों को अब चाहिए कि वे राष्ट्र से न सिर्फ माफी मांगें बल्कि शर्म से अपना सिर कुछ देर के लिए झुका भी लें। दरअसल, मुसलमानों को फर्जी मामलों में मार डालने के गुजरात सरकार के एक और कारनामे से पर्दा उठने के बाद अब मीडिया को चाहिए कि मोदी के राज में हुए सभी मुठभेड़ों की निष्पक्ष न्यायिक जांच कराने के लिए आवाज उठाए। इशरत जहां मामले में गैर-जिम्मेदारी दिखा चुकी मीडिया के लिए यही प्रायश्चित भी होगा।
जून 2004 में गुजरात पुलिस के बडे़ अधिकारियों ने बंबई से इशरत जहां और उसके तीन साथियों को उठाकर हत्या करने के बाद इसे मुठभेड़ बता दिया था। प्रचार यह किया गया कि मारे गए चारों लोग लश्कर-ए-तैयबा के सदस्य हैं और मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की हत्या करने जा रहे थे। इस हत्याकांड के भी सरगना वही पुलिस अधिकारी हैं जो सोहराबुद्दीन शेख की फर्जी मुठभेड़ में हुई हत्या में आजकल जेल में हैं। स्पष्ट हो गया है कि डी.जी. बंजारा नाम का पुलिसिया डीआईजी एक गैंग बनाकर हत्या, लूट और डकैती की घटनाओं को अंजाम देता था। उसके सभी साथी पुलिस वाले ही होते थे। सोहराबुद्दीन फर्जी मुठभेड़ कांड में जिन पुलिस वालों को सजा हुई है, वे सभी इशरत जहां और उसके साथियों के फर्जी मुठभेड़ में शामिल थे।
यह सारी जानकारी अहमदाबाद के मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट एसपी तमांग की जांच से मिली है। अपनी 243 पेज की हाथ से लिखी गई रिपोर्ट में मजिस्ट्रेट ने कहा है कि इन पुलिस वालों ने मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को खुश करके नौकरी में आउट ऑफ टर्न प्रमोशन के चक्कर में निरीह और निहत्थे नौजवानों को मार डाला। जांच से पता चला कि मुंबई से डी.जी. बंज़ारा के गिरोह ने इशरत जहां और अन्य तीन लड़कों का अपहरण 12 जून को किया था। इनका फर्जी मुठभेड़ 14 जून 2004 के दिन दिखाया गया। यानी इन बच्चों को दो दिन तक अगवा करके रखा। मुठभेड़ के बाद गुजरात सरकार ने दावा किया कि मारे गए लोगों में से दो पाकिस्तानी नागरिक हैं। वह भी गलत है। चारों बच्चे भारतीय थे और आतंक से उनका कोई लेना-देना नहीं था। पुलिस ने इन लोगों की गाड़ी में हथियार और गोला बारूद भी बरामद किया था। मजिस्ट्रेटी जांच से पता चला कि सारे हथियार पुलिस वालों ने ही गाड़ी में रखा था।
मजिस्ट्रेट एस.पी. तमांग की रिपोर्ट ने एक बार फिर सोचने पर मजबूर कर दिया है कि क्या हम जंगल से भी घटिया कानून के राज में निवास कर रहे हैं? अगर निर्दोष निहत्थे और मामूली इंसान को मार डालने से कोई मुख्यमंत्री इतना खुश हो जाएगा कि मारने वालों को आउट ऑफ टर्न प्रमोशन दे देगा, तो उस मुख्यमंत्री की सोच व विजन का स्तर क्या है, यह आसानी से समझा जा सकता है। मोदी एक ऐसी जमात से ताल्लुक रखते हैं जो मुसलमानों को तबाह करने की राजनीति पर काम करती है। 1925 में अपनी स्थापना के बाद आर.एस.एस. ने 1927 में नागपुर में योजनाबद्ध तरीके से पहला दंगा करवाया था। तबसे मुसलमानों के खिलाफ इनका ‘प्रोग्राम’ चल रहा है। गुजरात में सरकार बनी तो गोधरा कांड करके राज्य में मुसलमानों को तबाह करने की योजना पर अमल किया गया। जब अफसरों ने देखा कि मुख्यमंत्री मुसलमानों के खून से खुश होता है तो उन्होंने भी निरीह सीधे-साधे और गरीब लोगों को आतंकवादी बताकर मारने का सिलसिला शुरू कर दिया। सोहराबुद्दीन शेख और इशरत जहां की निर्मम हत्या की कलई तो खुल गई लेकिन जब से मोदी सरकार में आए हैं, बहुत सारे फर्जी मुठभेड़ हुए हैं। सभ्य समाज को आवाज उठाना चाहिए कि मोदी के मुख्यमंत्री बनने के बाद जितने भी मुठभेड़ हुए हैं, सबकी न्यायिक जांच करवाई जाय। मोदी के राज में इस तरह के 28 फर्जी मुठभेड़ हो चुके हैं।
मोदी की राजनीति ही नफरत की है। उन्होंने यह आर.एस.एस. से सीखा है। मुसलमानों के खिलाफ नफरत फैलाना और दंगे कराना इनकी रणनीति में शामिल है। पर सरकारी अफसरों का दंगे की राजनीति का औजार बनना देश के लिए दुर्भाग्य की बात है। ये अफसर जब नौकरी में आते हैं तो संविधान पालन की शपथ लेते हैं। फिर भी ऐसे काम करते हैं जो हमारे धर्मनिरपेक्ष संविधान को अपमानित करता है। यहां यह समझ लेना जरूरी है कि संघ की राजनीति का औजार बनने के लिए उतावले अफसर गुजरात के बाहर भी हैं। उनमें से कुछ अफसर भारत सरकार के गृह मंत्रालय में जिम्मेदारी की पोजीशन पर बैठे है। इशरत जहां के फर्जी इनकाउंटर की जांच का काम नरेंद्र मोदी के वफादार अफसरों ने करके लीपापोती कर दी थी। मामला अदालत में गया और सी.बी.आई. को भी पार्टी बनाया गया। सी.बी.आई. ने कहा कि अगर अदालत का हुक्म होगा तो वह जांच का जिम्मा ले लेगी। इस बात से गुजरात और केंद्र सरकार के कुछ अफसर कांप उठे। ये वही अफसर थे जो एनडीए की सरकार में उनकी अर्दली बजाते थे और अब जुगाड़ करके गृह मंत्रालय में बैठे हैं। लिहाजा गृह मंत्रालय की ओर से इस मुकदमे में एक हलफनामा दाखिल किया गया। इसमें कहा गया कि इशरत जहां और उसके बाकी तीनों लोग पाकिस्तानी आतंकवादी संगठन लश्कर-ए-तैय्यबा के सदस्य थे। केंद्र सरकार इस मामले को सी.बी.आई जांच के लायक नहीं मानती।
मानवाधिकार कार्यकर्ता और नेशनल इंटीग्रेशन कौंसिल की सदस्य, शबनम हाशमी ने प्रधानमंत्री को एक खुला पत्र लिखकर दावा किया है कि इन अफसरों ने अदालत में इस तरह का हलफनामा इसलिए जमा किया जिससे किसी मजबूत एस.आई.टी. का गठन न किया जा सके और यह संदेश दिया जा सके कि केंद्र सरकार भी इशरत जहां के फर्जी मुठभेड़ को फर्जी नहीं मानती। अगर एस.पी. तमांग की जांच का नतीजा न आया होता तो केंद्रीय गृह मंत्रालय ने तो इस जांच को रोकने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। इस पत्र में उन्होंने प्रधानमंत्री से अनुरोध किया है कि गृह मंत्रालय के उन अफसरों को कहें कि वे राष्ट्र से माफी मांगें जो इस जघन्य हत्याकांड पर परदा डालने की कोशिश कर रहे थे।
लेखक शेष नारायण सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं और कई न्यूज चैनलों व अखबारों में काम कर चुके हैं. उनसे संपर्क करने के लिए [email protected] का सहारा ले सकते हैं.
shiv prakash singh chandel
July 20, 2010 at 7:26 am
devid hedli ne toh ishrat janha ko lashkar ka aatanki bataya to phir gujrat police kanha galat hai.