: पत्रकारिता नहीं, पत्रकार बिक रहे-3 : नई दुनिया के आलोक मेहता की आशावादिता और दैनिक भास्कर के श्रवण गर्ग का सवाल चिन्हित किया जाना आवश्यक है। आलोक मेहता का यह कथन कि ”पेड न्यूज कोई नई बात नहीं है, लेकिन इससे दुनिया नष्ट नहीं हो जाएगी”, युवा पत्रकारों के लिए शोध का विषय है। निराशाजनक है। उन्हें तो यह बताया गया है और वे देख भी रहे हैं कि ‘पेड न्यूज’ की शुरुआत नई है।
हाल के वर्षों में, विशेषत: चुनावों के दौरान, इसकी मौजूदगी देखी गई है। पहले ऐसा नहीं होता था। आश्चर्य है कि एक ओर जब मीडिया घरानों के इस पतन पर अंकुश के उपाय ढूंढऩे के गंभीर प्रयास हो रहे हैं, पत्रकारीय मूल्यों और विश्वसनीयता के रक्षार्थ संघर्षरत पत्रकार और इससे जुड़े लोग आंदोलन की तैयारी में हैं, आलोक मेहता कह रहे हैं कि इससे दुनिया नहीं नष्ट हो जाएगी। विस्मयकारी है उनका यह कथन।
दुनिया नष्ट होगी या नहीं इसकी भविष्यवाणी तो नहीं की जा सकती किन्तु अगर ‘पेड न्यूज’ का सिलसिला जारी रहा तो वह दिन दूर नहीं जब मीडिया की पवित्र दुनिया अवश्य नष्ट हो जाएगी। पत्रकारीय ईमानदारी, मूल्य, सिद्धांत व सामाजिक सरोकारों के प्रति समर्पण की आभा से युक्त चेहरे गुम हो जाएंगे, नजर आएंगे तो सीने पर कलंक का तमगा लगाए दागदार स्याह चेहरे। इनकी गिनती मीडिया की दुनिया के नुमाइंदों के रूप में नहीं होगी। ये पहचाने जाएंगे रिश्वतखोर के रूप में, दलाल के रूप में और समाज-देशद्रोही के रूप में। निश्चय ही तब पत्रकारीय दुनिया नष्ट हो जाएगी।
वैसे आलोक मेहता समाज पर भरोसा रखने की बात अवश्य कहते हैं लेकिन जब सामाजिक सरोकारों से दूर पत्रकार धन के बदले खबर बनाने लगें, अखबार ‘मास्ट हेड’ से लेकर ‘प्रिन्ट लाइन’ तक के स्थान बेचने लगें, बल्कि नीलाम करने लगें, संपादक पत्रकारीय दायित्व से इतर निज स्वार्थ पूर्ति करने लगें, मालिक ‘देश पहले’ की भावना को रौंद कर सिर्फ स्वहित की चिंता करने लगें तब समाज हम पर भरोसा क्यों और कैसे करेगा? सभी के साथ गुड़ी-गुड़ी और खबरों में बने रहने के लिए सार्वजनिक मंचों से अच्छे-अच्छे शब्दों का इस्तेमाल समाज के साथ छल है। पेशे के साथ छल है। कर्तव्य और अपेक्षित कर्म के विपरीत ऐसा आचरण पवित्र पत्रकारिता के साथ बलात्कार है। कम से कम पत्रकार, वरिष्ठ पत्रकार, कर्म और वचन में समान तो दिखें।
‘दैनिक भास्कर’ के श्रवण गर्ग ने आशंका व्यक्त की है कि ‘पेड न्यूज’ का मामला उठाकर कुछ दबाने की कोशिश की जा रही है। पूरे मीडिया जगत पर यह एक अत्यंत ही गंभीर आरोप है। इसका खुलासा जरूरी है। बेहतर हो गर्ग स्वयं खुलकर बताएं कि ‘पेड न्यूज’ की आड़ में मीडिया क्या दबा रहा है। श्रवण गर्ग ने एक विस्मयकारी सवाल यह उठाया है कि अगर आज देश में आपातकाल लग जाए तो हमारी भूमिका क्या रहेगी। विचित्र सवाल है यह। निश्चय ही गर्ग का आशय इंदिरा गांधी के आंतरिक आपातकाल से है।
आश्चर्य है कि उन्हें यह कैसे नहीं मालूम कि संविधान में संशोधन के बाद 1975 सरीखा कुख्यात आपातकाल लगाया जाना अब लगभग असंभव है। थोड़ी देर के लिए गर्ग के इस काल्पनिक सवाल को स्वीकार भी कर लिया जाए तो मैं जानना चाहूंगा कि वे पत्रकारों की भूमिका को लेकर शंका जाहिर कर रहे हैं तो क्यों? अगर गर्ग का इशारा उस कड़वे सच की ओर है जिसने तब के आपातकाल के दौरान अधिकांश पत्रकारों को रेंगते हुए देखा है, तब मैं चाहूंगा कि गर्ग उन पत्रकारों की याद कर लें जिन्होंने खुलकर आपातकाल का विरोध किया था, रेंगना तो दूर तब की शक्तिशाली प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सत्ता को सड़कों-चौराहों तक पर चुनौती दी थी और 19 महीने तक जेलों में बंद रहे। संख्या में कम होने के बावजूद उन पत्रकारों ने पत्रकारीय दायित्व और मूल्यों को मोटी रेखा से चिन्हित कर दिया था। उनमें से अनेक आज भी सक्रिय हैं। गर्ग उनसे मिल लें, उनके सवाल का जवाब मिल जाएगा।
उनकी एक अन्य जिज्ञासा तो और भी विस्मयकारी है। समझ में नहीं आता कि श्रवण ने यह कैसे पूछ लिया कि हम आज आपातकाल में नहीं जी रहे हैं क्या? पत्रकारिता के विद्यार्थी निश्चय ही अचंभित होंगे। किस आपातकाल की ओर इशारा कर रहे हैं गर्ग? सीधा-सपाट उत्तर तो यही होगा कि आपातकाल की स्थिति में न तो वाणी, न ही कलम गर्ग की तरह बोलने व लिखने के लिए आजाद होती। एक अवसर पर श्रवण गर्ग, अप्रत्यक्ष ही सही, ‘पेड न्यूज’ का समर्थन कर चुके हैं। कुछ दिनों पूर्व दिल्ली में युवा पत्रकारों के एक समूह को संबोधन के दौरान उन्होंने ‘पेड न्यूज’ के पक्ष में सफाई देते हुए कहा था कि आर्थिक मंदी के दौर में मीडिया घरानों ने इसका सहारा लिया था। अपने तर्क के पक्ष में उन्होंने शाकाहारी उस व्यक्ति का उदाहरण दिया था जो राह भटक जाने के बाद भूख की हालत में उपलब्ध मांस खाने को तैयार हो जाता है। इससे बड़ा कुतर्क और क्या हो सकता है।
सभी जानते हैं कि ‘पेड न्यूज’ की शुरुआत तब हुई थी जब देश में आर्थिक मंदी जैसा कुछ भी नहीं था। अखबारों ने निर्वाचन आयोग द्वारा उम्मीदवारों के लिए निर्धारित चुनावी खर्च की सीमा को चकमा देने के लिए उम्मीदवारों के साथ मिलकर ‘पेड न्यूज’ का रास्ता निकाला था। जाहिर है कि इसका सारा लेन-देन ‘नंबर दो’ अर्थात् कालेधन से हुआ। दो नंबर की कमाई से अपना घर भरने वाले राजनीतिकों की चर्चा व्यर्थ होगी, ऐसे काले धन के लेन-देन को प्रोत्साहित करने वाले पत्र और पत्रकारों को इस पवित्र पेशे में रहने का कोई हक नहीं। स्वयं नैतिकता बेच दूसरों को नैतिकता नहीं सिखाई जा सकती। यह तो ऐलानिया बेईमानों को संरक्षण-प्रश्रय देना हुआ। निश्चय ही यह पत्रकारिता नहीं है। ईमानदार, पवित्र पत्रकारिता तो कतई नहीं!
…जारी…
लेखक एसएन विनोद वरिष्ठ पत्रकार हैं.
Comments on “विस्मयकारी है आलोक मेहता का कथन”
sir. namaskar. aapka likha youth ke liye ek sandesh hai.
Adarniya Vinodji
Media ki pavitra duniya to kareeb-kareb nasht hi ho chuki hai.
Bazar ka bahana lekar har koi jyada se jyada paisa banane me laga hai.
Kisi aadmi ke paas bhi itana samay nahi hai ki vo dherya rakh kar abhaav jhel sake.
Imandari, naitikta, samajik sarokaar, mulya, sidhant jaisi chize to ab keval seminar ka vishaya hi rah gai hain.
In par Lambe-Lambe vyakhan dene wale log hi khud inse koson door rahate hain.
namaskar sir , aapka lekh yuvao me josh bhar dene wala hai, dainik 1857 me aapka kalum rooj face book me padne ko mil jaye, to buhot kuchh jankari mil jaye.
alok ji ke bare mai dharna saaf honi chahiye, nai dunia ko agriculture wa economy par kai lekh likhne wale hemant pande urf hem pande se apne sansthan ka sambandh hone se saaf inkar kar diya. hem maoist wa sarkar ke beech chal rahi swami agniwesh wa azad ke beech ki kadi the. unhe adilabad mai azad ke saaath mar diya gaya. sarokar mai we alok ji se kahi bade the. lekin sarparast mathadheeson ka kya kare.
alok g se mai sahmat hu, coj pade news system ka hissa ban chuki hai. jo ho raha hai usko chodo, jo or bura hone wala hai usk liye bichar karo… 9981139358
Bade log hon ya bade patrakar, is jamat ke sath majbooree yahee hoti hai ki ve satta sansthan ko har mamale men khush rakhane kee koshish men lage rahate hain. Alokjee ke sath bhee aisee hee majbooree rahee hogee. Har koi janta hai ki paid news ka masala newspaper manegment ne khara kiya hai. Manegment yadi kamai ka aisa nikrisht aur asasn rasta chunane ko taiyar ho aur use ismen koyee sharm bhee mahsoos nahee aatee ho to koi kya kar sakata hai. Alokjee jaise bade patakar yadi isaka samarthan karane men peechhe rah gaye to badi nuakari par aanch aene se koun bachayega. Bade pad aur oonche vetan dene wala malik to anane har prakar ke dhandhe men apane aise matahat se samarthan aur madad to chahega hee.
KKS.
शब्दों से क्या फर्क पड़ता है विनोद जी? आखिर पाठक को कथित तौर पर “बिकी हुई” खबरें ही मिलेंगी ना.. और शायद आपको मालूम नहीं है कि दुनिया भर में पत्रकारिता की शुरुआत ही “पेड टाइप न्यूज” से हुई है. सबसे पहले युरोप में पत्रकारिता को राजनीतिक दलों ने अपना संदेश आम लोगों तक पहुंचाने का जरिया बनाया था.. ये “निष्पक्ष पत्रकारिता” तो हाल के दिनों में भारत जैसे देश में नैतिकता के कुछ स्वयंभू ठेकेदारों का फितूर बन के उभरा है. आप बड़े से बड़े “निष्पक्ष पत्रकार” को अपने अखबार के धन्ना सेठ मालिक के काले कारनामों के खिलाफ लिखने को कहिए ना, उसकी “निष्पक्षता” सामने आ जाएगी.
Jaroorat ke tark ke aadhar par IPC ke sare apradhon ko justify karna hoga.Jaroorat ke liye balatkar,chori,samlengikta,hatya sab jayaj hai.Mahngai ke bahane rishwat jayaj hai-kya tark hai.Ek ek line,shabd se kamai karne wale sama char patra,midia Naya Arathashastra-Tark Shasstra likh rahe hain.
garg sahib jo bhi kah rahe hai wo bilkul theek hai.wo Bhaskar me kam karate hai jo paid news ko is desh mai dus saal sebhi pahale introduce kar chuke hai.bhaskar is mamle mai king hai paisa kaise khincha jata hai ye bhaskar se jyada desh mai kaun anta hai.example chahoto rajasthan ke kisi hare hua candidates se pata kar lo bhaskar ka nam lete hi rone lagega.alokji ko bhi naukari karni haidhanna sethon ki,ve jo bhi bolenge seth ki bhasha hi bolenge.itna responce dene ki jarurat nahi hai dono ko.time west mat karo bhai inke liye. mahesh