आज ही बिरहा भवन से लौटा हूं. शोक, कोहरा और धुंध में लिपटा बिरहा भवन छोड़ कर लौटा हूं. शीत में नहाता हुआ. बिरहा भवन मतलब बालेश्वर का घर. जो मऊ ज़िले के गांव चचाईपार में है. कल्पनाथ राय रोड पर. बालेश्वर की बड़ी तमन्ना थी हमें अपने बिरहा भवन ले जाने की. दिखाने की. मैं भी जाना चाहता था. पर अकसर कोई न कोई व्यवधान आ जाता. कार्यक्रम टल जाता.
गोरखपुर में मेरे गांव बैदौली बालेश्वर तीन बार गए थे. सो वह मुझे भी अपना गांव दिखाना-घुमाना चाहते थे. गया भी बिरहा भवन कल. पर इस तरह जाना होगा, यह नहीं जानता था. कल २३ जनवरी को बालेश्वर की तेरहवीं थी. भोजपुरी के इस अमर गायक, अपनी माटी के गायक के घर जैसे पूरा क्षेत्र उमड़ पड़ा था. कहूं कि टूट पड़ा था. सुबह से देर रात तक लोगों के आने-जाने का तांता लगा हुआ था. यह आत्मीय जन समुदाय देख कर लगा कि काश बालेश्वर ने यहीं आंखें मूंदी होतीं. या फिर कम से कम उन की अंत्येष्टि यहीं की गई होती तो शायद लखनऊ में उनको जो उपेक्षा मरने के बाद भोगनी पड़ी, न भोगनी पड़ी होती. लखनऊ में जो थोड़े बहुत लोग आए भी थे ज़्या्दातर औपचारिकता में भींगे हुए थे. पर बिरहा भवन में आत्मीयता में भींगे हुए. ऐसे जैसे कोई दूब ओस में नहाई हुई हो. वैसे भी बालेश्वर लखनऊ में रहते भले थे पर कहते थे, ‘जियरा त हमार वोहीं रहला!’ भोजपुरी बिरहा गायकी में ठेके के तौर पर साथी कलाकार जिय !! जिय !! की ललकार जैसे देते हैं वैसे ही.
हालांकि यहां लखनऊ में भी उनकी शवयात्रा में एक सांसद थे, भोजपुरी समाज के लोग थे, मालिनी अवस्थी थीं, विधानसभा अध्यक्ष सुखदेव राजभर खुद पहुंचे थे भैंसाकुंड उन्हें अंतिम विदाई देने. लखनऊ में रह रहे उनके संगी-साथी, कलाकार, हित-मित्र थे. लेकिन एक दिखावा लगातार पाबस्त था, जो चचाईपार के बिरहा भवन में दूर-दूर तक नहीं दिखा, न यह दिखावा करने वाले लोग. उनके साथी कलाकार भी ज़्यादातर नहीं दिखे जो यहां उनके साथ दिन रात नत्थी रहते थे, जिनको यहां उन्होंने बसाया था, उंगुली पकड़ कर गायकी में चलना सिखाया था. हां, उनके हरमुनिया मास्टर हरिचरन दो दिन पहले से बिरहा भवन पहुंचे पड़े थे, गोया कार्यक्रम के पहले रिहर्सल और रियाज़ ज़रूरी था. कि कहां कितना मीटर देना है, कहां तान देनी है, कहां मुरकी, कहां खटका और कहां आलाप या कोरस देना है. और हां जिय! जिय! की ललकार भी. मास्टर बरसों से बालेश्वर की संगत अपनी हारमोनियम के साथ करते रहे थे, उन के साथ दुनिया घूमें. अभी भी उसी भूमिका में थे. हां बिल्कुल नई पौध के कुछ कलाकार भी पहुंचे थे और पूरे मन-जतन के साथ. जैसे संजय यादव, दीपक और अंगद जैसे बच्चे. जिनकी मूंछ की रेख भी साफ़ नहीं आई है. और कि अभी पढाई भी खत्म नहीं हुई है. बालेश्वर जो जीते जी किंवदंती बन चले थे, सभी उन्हीं की बतकही में लगे हुए हैं. बालेश्वर के भतीजे हैं शिवशंकर. गांव ही पर रहते हैं. घर दुआर, खेती-बारी वही संभालते हैं. बता रहे हैं कि, एक बार आए तो लगे यहीं खेत में लोटने. लगे रोने. मैंने पूछा क्या हुआ? तो हमको छाती से लगा लिए. कहने लगे इस माटी का बड़ा कर्जा है, हम पर. हमको कहां से कहां पहुंचा दिया. वह कहीं विदेश से लौट कर आए थे.
याद आता है १० जनवरी को बालेश्वर की शव यात्रा में एक सांसद और भोजपुरी समाज के पदाधिकारी चलते जा रहे थे और बालेश्वर के बारे में जो भी आधी-अधूरी जानकारी थी परोसते जा रहे थे.और जब ज़्यादा हो गया तो बालेश्वर टीम के एक पुराने एनाऊंसर सुरेश शुक्ला अचानक भड़क गए. बिल्कुल चीख कर बोले, ‘आप लोग कुछ नहीं जानते! बंद करिए बकवास! सब गलत-सलत बोले जा रहे हैं. सांसद महोदय भकुआ गए. मेरी ओर देखा सशंकित नज़रों से. कि जैसे मैं उनकी बातों की पुष्टि कर दूं. वह लोग शायद शुक्ला जी को भी नहीं जानते थे. मैं चुप रहा. लेकिन जब उन्होंने दुबारा सवालिया नज़र से मेरी तरफ देखा तो मैंने धीरे से कहा, ‘शुक्ला जी ठीक कह रहे हैं.’ लोग बिखर गए थे. ऐसे ही १६ जनवरी को प्रेस क्लब में आयोजित श्रद्धांजलि सभा में भी बहुत सारे लोग आधी-अधूरी जानकारियों में झूठ-सच मिला कर ताश फेंटते रहे.
यहां तक कि पूर्व मुख्यमंत्री रामनरेश यादव जो कि बालेश्वर के क्षेत्र के ही रहने वाले हैं. बोलते-बोलते रौ में बह गए. कहने लगे कि, ‘जब मैं मुख्यमंत्री था तब होली में बालेश्वर अपनी टोली के साथ आते थे हमारे यहां. कदंब के पेड़ के नीचे बैठ कर गाते थे. एक बार हमसे कहने लगे कि मुझे रेडियो में गाने का मौका दिला दीजिए, और मैंने दिलाया.’ तो यह भी बहुत लोगों को हजम नहीं हुआ. संयोग से शुक्ला जी नहीं थे. न ही यहां माइक भी था. जाने शुक्लाजी उनकी क्या गति बनाते. तथ्य यह था कि राम नरेश यादव १९७७ में मुख्यमंत्री बने थे और बालेश्वर १९७५ से आकाशवाणी पर न सिर्फ़ गाने लगे थे बल्कि भोजपुरी गायकी में झंडा गाड़ रहे थे. खैर, यहां बिरहा भवन में भी खूब बतकही थी. किसिम-किसिम के किस्से थे बालेश्वर के बाबत. भाऊकता थी, और सहज थी. कोई घाल-मेल नहीं अच्छी-बुरी हर तरह की चाशनी में. पर बिना मिर्च-मसाले के.
उनके मूल गांव बदनपुरा के कृपाशंकर सिंह बचपन के संहतियां है. आठवीं तक साथ पढे है. उनके बारे में एक से एक ब्योरे परोस रहे हैं. उनकी खुराफातें भी बता रहे हैं. और उनका चालूपना भी. बिलकुल मित्र भाव में. बता रहे हैं कि, ‘तब बिरहा का दंगल होता था. तो हम लोग बटुर कर लाठी-वाठी ले कर जाते थे. आखिर दोस्त को जितवाना भी होता था. बाद में कुछ भी हो जाता था.’ अचानक वह रुकते हैं, कहते हैं, ‘एक बार तो गज़ब हो गया. ऐन बिरहा में अपोज़िट पार्टी को गा कर गरिया दिया और भाग चला. हम लोग घिरा गए.’ वह जैसे जोड़ते हैं, ‘अरे बड़ा चालू था. बाद में कल्पनथवा के चक्कर में आया तो और चालू हो गया.’ एक दूसरे साथी जोड़ते हैं,’ चालू था तब्बै न एतना आगे बढ गया. नाम कर गया ज़िला जवार का.’ यह सही है कि बालेश्वर को सबसे पहले स्वतंत्रता सेनानी और विधायक विष्नुदेव गुप्ता ने पहचाना और अपने चुनाव में सोसलिस्ट पार्टी का मंच दिया. पर जल्दी ही वह झारखंडे राय के साथ जुड़ कर कम्युनिस्ट हो गए. फिर बहुत दिनों तक वह झारखंडे राय के साथ ही जुड़े रहे.
बाद में उनके यही साथी रमाशंकर सिंह ने कल्पनाथ राय के बहुत दबाव पर बालेश्वर को उनसे मिलवाया. फिर तो वह कल्पनाथ राय के हो कर रह गए. आगे के दिनों में तो वह सबके लिए गाने लगे. सोनिया गांधी तक के लिए भी्ड़ को बटोरने और उसे बांधे रखने का काम उन्हें सौंपा गया. फिर तो उन्होंने मुलायम-लालू से लगायत लालजी टंडन तक क्या जाने किस-किस के लिए गाया. लोग कहते बालेश्वर का यह पतन है. बालेश्वर कहते पतन नहीं, मजूरी है. जो मजूरी देगा, उसके लिए गाऊंगा. हालांकि सच यह है कि वह अधिसंख्य बार बिना मजूरी लिए भी गाते रहे. संबंधों के निभाव में. कई बार लोगों ने उनकी मजूरी भी मार दी. पर वह उसकी गांती बांध कर नहीं घूमे. चचाईपार के मनोज यादव बता रहे हैं कि अभी हमारे एक दोस्त के घर में शादी थी. ४ जनवरी को. बालेश्वर चाचा ने हमारे एक बार के कहने पर ही लखनऊ से आकर गा दिया.
हम जब लखनऊ से पहुंचे बिरहा भवन तो मनोज यादव अपने घर ज़बरदस्ती हम लोगों को ले गए. नहाने धोने और खाने के लिए. और यही नहीं, चचाईपार का हर घर किवाड़ खोले सबके स्वागत के लिए तैयार था. कि बाहर से जो भी आए उसे कोई असुविधा न हो. हालांकि बालेश्वर खुद बिरहा भवन इतना बड़ा बनवा गए हैं कि एक पूरी बारात क्या दो-दो, तीन-तीन बारात टिक जाए वहां. फिर भी गांव वालों की अपनी भावना थी. बालेश्वर से उनका जुड़ाव था. यह जुड़ाव ही था कि कल्पनाथ राय के बेटे और पत्नी भले ही राजनीतिक रूप से अलग- अलग हों पर अलग- ही सही आए सिद्धार्थ राय भी और सुधा राय भी. और उन की बहू भी. कल्पनाथ राय का गांव सेमरी जमालपुर भी बालेश्वर के गांव से ४ किलोमीटर की दूरी पर है.
लखनऊ वाला दिखावा यहां नहीं था पर ऐसी कोई जमात नहीं थी जो कल बिरहा भवन बालेश्वर को श्रद्धा के फूल चढाने न आई हो. कोई ऐसी पार्टी नहीं थी कि जिसके कार्यकर्ता न आए हों. छोटे-बड़े सभी. इतने लोग, इतनी तरह से आ रहे थे कि क्या बताएं? सारे पूर्व विधायक, वर्तमान विधायक, ज़िला पंचायत सदस्य. अलाने-फलाने. अचानक एक साथ कई-कई गाड़ियां जब रुकतीं तो वहां उपस्थित बच्चों में कौतूहल उपजता. एक लड़का जो टीन एज था, अपने को ज़्यादा चतुर बरतते हुए सबका ब्योरा परोसता जाता. लेकिन जब ज़्यादा हो गया. तो कोई पूछ्ता, ‘यह कौन है?’ तो वह कहता, ‘ कोई श्रेष्ठजन हैं !’ और लोग हंसने लगते. हमें अचानक कैलाश गौतम की याद आ गई. अब तो वह भी नहीं हैं. पर एक बार इलाहाबाद में उनके बेटे की शादी थी. वह कार्ड देते हुए बोले, ‘राजा अइह ज़रूर.’ मैं गया भी. बारात में देखा कि कमिशनर से लगायत खोमचा रिक्शा वाला सभी मौजूद थे और सभी एक साथ भोजन करते हुए. यही हाल बालेश्वर के यहां भी था. कैलाश गौतम भी जनता से जुड़े कवि हैं और बालेश्वर भी जनता से जुडे गायक. तो यह साम्य स्वाभाविक ही था.
लखनऊ में १० जनवरी को जब बालेश्वर की अंत्येष्टि हो रही थी तो भैसाकुंड पर खड़े-खड़े कहानीकार शिवमूर्ति जी बोले, ‘कोई और लेखक नहीं दिख रहा?’ मैंने कहा,’ लेखक समाज में रहते कितने हैं?’ वह चुप रह गए थे. लेकिन यहां बिरहा भवन में कोई चुप नहीं था. वह चाहे पंडित जी हों चाहे डोम जी, चाहे ठाकुर सहब हों या यादव जी, अमीर हों, गरीब हों, सभी बालेश्वर की बतकही में धंसे पड़े हैं. आकंठ. घर में गांव की औरतें लाइन से बैठी पूड़ी बेल रही हैं. चलन के मुताबिक गा नहीं रही हैं. गांव में चलन है कि कोई भी काम करते हुए औरतें गाना गाती हैं. पर आज शोक में कैसे गाएं? सबकी आंखें नम हैं. बालेश्वर का एक गीत याद आ जाता है. हमरे बलिया बीचे बलमा भुलाइल सजनी! जिसमें आखिर में वह गाते हैं,’ लिखके कहें बलेसर, देख नयन भरि आइल सजनी!’ सचमुच मेरे भी नयन भर आते हैं . लौट पड़ता हूं बिरहा भवन से. शीत में नहाता हुआ.
दयानंद पांडेय
5/7 dalibagh lucknow
09335233424
09415130127
dayanand.pandey@yahoo.com
Comments on “बिरहा भवन से लौट कर : देख नयन भरि आइल सजनी”
अभी टिप्पणी नही दे सकता । एक मंजनू को जूलियट के साथ मुहब्बत का तराना गाते देखा है । कल दूंगा । बेबाक । धन्यवाद दयानंद जी । बालेशर के बारे में बताने के लिये । बलिया का हूं जरुर पर जाता हूं साल में एक – दो बार हीं ।
aapka yeh lekh padhkar aisa laga mano main bhi mahan kalakar Baleshwar ji ki terahi mein shamil ho aaya. Is mein qattai shak-o-shubah nahin hai ke aap ek achhe lekhak hain, parantu mera yeh bhi manna hai ke aapke is lekh mein uss mahan kalakar ki shakhsiyat ka bhi bada parbhao hai jisne aapko prerit kiya is lekh ko likhne ke liye…. Aapki lekhni ko salam aur mahan kalakar ki aatma ki shanti ke liye prarthna ke saath hi unhen Naman….
Khalil Khan
pandey jee hardik abhinanadan
swargiya baleshwar ji ke pratee bahut hee sargarbheet shradhanjlee byapak roop me atmabhebhore kar rahee hain .sunder lekhanee ke liye sathubaad.
main to ballia ka huin aur haar saptaah jata huin.
बालेश्वरजी को हमारी विनम्र श्रद्धांजलि! उनके बारे में ऐसी अदभुत जानकारी देने के लिए भाई दयानंद पाण्डेय को बधाई।
देवमणि पांडेय, मुम्बई
अच्छा होता आप यह लेख नही लिखते दयानंद जी एक पर्दा था औरा था बचा रहता । कल मैने कहा था की कल टिप्पणी करुंगा । किसी को अच्छा लगे या बुरा , गाली दो कोई परेशानी नही । बलेशर भी बाजारु थें । सिद्धांतविहिन बिकाउ । यशवंत को भी एक संदेश मेमेंटो न लेने वाले स्प्रीट को जिंदा रखना । ्वैसे आगे तुम्हारी मर्जी । नोबल पुरुस्कार को आलू का बोरा कहकर ठुकराने वाला भी कोई था।
श्री पांडेय जी आप कॊ किस शब्दॊं में धन्यवाद दूं इतनी रॊचक जानकारी शेयर करने के लिए समझ में नहीं आ रहा है और मदन तिवारी जी कॊ कैसे समझाउं । मदन जी अगर सारे गुण किसी के विद्यमान हॊ जाए तॊ उसकॊ क्या कहते हैं आपकॊ बताने की जरूरत नहीं है समझदार लगते है आप । रही बात बालेश्वर के बजारूपन की प्रवृत्ति की तॊ समाज के साथ साथ अपनी जिंदगी भी रहती है हॊ सकता है की आप से कभी मॊल भाव किए हॊगें लेकिन मुझे नहीं लगता की इसमें कॊई बुराई है। दुख है कि आप बलिया के हॊकर भी बालेश्वर कॊ नहीं समझ पाए ।।
बिरहा भवन से लौट कर….पढ़ा .आप के साथ हम भी चचाईपार घूम आये.आप ने इस संस्मरण में अपनी इस यात्रा का सजीव चित्रण किया है.रही बात बालेश्वर जी की अच्छाइयों और बुराइयों की तो यदि सारे गुण व्यक्ति में आ जाएँ तो वेह देवता हो जायेगा.अच्छे और बुरे गुण सभी में होती हैं .हममे और आप में भी है. उससे हट कर यह दखें कि वह इन्सान जिस स्तर तक पहुचा है की आज हम उसकी चर्चा कर रहे हैं ,क्या हम हैं?लोगों ने तो भारत-रत्न बिस्मिल्लाह खान साहब की समाधि सिर्फ एक मामूली विवाद में नहीं बनने दी है जबकि उनके स्तर को विवादी छू भी नहीं पाएंगें.
बिरहा भवन से लौट कर….पढ़ा .आप के साथ हम भी चचाईपार घूम आये.आप ने इस संस्मरण में अपनी इस यात्रा का सजीव चित्रण किया है.रही बात बालेश्वर जी की अच्छाइयों और बुराइयों की तो यदि सारे गुण व्यक्ति में आ जाएँ तो वेह देवता हो जायेगा.अच्छे और बुरे गुण सभी में होती हैं .हममे और आप में भी है. उससे हट कर यह दखें कि वह इन्सान जिस स्तर तक पहुचा है की आज हम उसकी चर्चा कर रहे हैं ,क्या हम हैं?लोगों ने तो भारत-रत्न बिस्मिल्लाह खान साहब की समाधि सिर्फ एक मामूली विवाद में नहीं बनने दी है जबकि उनके स्तर को विवादी छू भी नहीं पाएंगें.
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