मैं जरनैल सिंह को जानता हूं। जो कुछ उन्होंने किया, बेशक गलत था पर जिस प्रबंधन ने उन्हें दूध की मक्खी की तरह निकाल फेंका, उसे कहीं से भी उचित नहीं ठहराया जा सकता। दैनिक जागरण प्रबंधन ने जहां तक संभव था, जरनैल का इस्तेमाल किया। जरनैल को याद होगा, जब वह जालंधर आए थे, विधानसभा चुनाव की कवरेज में। अकालियों के समर्थन में तैयार स्टोरी को किस दबाव में अकालियों के खिलाफ किया गया था, यह मैं भी जानता हूं। और जरनैल तो खैर भुक्तभोगी हैं ही। हम जिस पत्रकारिता में इन दिनों हैं, वहां फेस-वैल्यू सबसे अहम है। चिदंबरम की फेस-वैल्यू कांग्रेस आलाकमान ज्यादा मानता है। जब जरनैल ने चिदंबरम की ओर जूता उछाला था तो सन्न मैं भी रह गया था। पर, आप उसके बैकग्राउंड में जाकर देखें कि उसने ऐसा क्यों कर किया। बिना कारण जाने जरनैल को जो सजा मिली, वह उसके साथ ज्यादती है। सरकार ने तो कुछ नहीं किया, जागरण ने जरूर एकतरफा फैसला दे दिया। मैं नहीं मानता कि पत्रकारिता में अब शुचिता बची है। कहीं है भी, तो मैं नहीं देख पाता। संभवतः नेत्र रहते मैं अंधा हूं। पर, होती तो कहीं तो दिखती।
खबरों की मार्केटिंग पहले भी होती थी, अब भी हो रही है। बाजारवाद की लड़ाई में अब प्रबंधन नंगई पर उतर आया है। एक लाख का विज्ञापन देने वालों को डीसी, इससे ज्यादा का एड देने वालों को टीसी, चार कालम छापने का रिवाज हिंदी अखबारों में धड़ल्ले से है। मास्ट हेड तक बेचे जा रहे हैं। पर, जरनैल ने यह सब नहीं किया। वह शराबी नहीं हैं, कवाबी नहीं हैं। वह सिक्ख है, जो झुकना नहीं जानता, तलवे सहलाना नहीं जानता। उन्हें जूता फेंकने की क्या गरज थी, अगर वह सेटिंगबाज होते। जरनैल ने पत्रकारिता का जो विद्रूप रूप जागरण में देखा है, देश के अन्य अखबारों की हालत उससे भी भयावह है। पर, लोग हैं जो जरनैल को संभालेंगे। हां, बहस जरूर होनी चाहिए कि नंगेपन की यह कथा कब समाप्त होगी?
-आनंद सिंह
एक जूता तो तबीयत से उछालो यारो!
‘कौन कहता हैं कि राजनीति में उबाल नहीं आ सकता, एक जूता तो तबीयत से उछालो यारो!’ मुझे नहीं लगता की जरनैल सिंह ने जो भी किया, वह कुछ गलत था। पत्रकारिता का आज का स्तर पूरी तरह से गिर चूका है। चाहे वह प्रिंट मीडिया हो या फिर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया। एक जूते के जरिए भारतीय राजनीति और भारतीय मीडिया को सबक सिखा दिया है जरनैल सिंह ने। हर शख्स को गर्व होना चाहिए। जरा वे अपने गिरेबान में झाकें जो पत्रकारिता को बाजार में बेचकर दलाली की दहलीज तक पहुंच गए हैं। अब पत्रकारिता बाजार में बिकती नजर आ रही है। अगर आप कोई खबर अपने तरीके से करने की सोचें तो वह बिलकुल नहीं हो सकता क्योंकि जिसके खिलाफ आप खबर करना चाहते हैं, उसकी ऊपर तक पहुंच है! अब वे दिन भूल जायें जब हम ईमानदारी की पत्रकारिता करते थे। अब ईमानदारी की सजा के रूप में नौकरी तक दांव पर लग सकती है।
जरनैल सिंह ने जो किया, मुझे लगता है वह सही था क्योंकि हर आदमी को अहसास होना चाहिए। उनको सजा मिलने से में सहमत नहीं हूं क्योंकि आज कलम की ताकत कम होती नजर आ रही है और मीडिया विश्वसनीयता खोती जा रही है। हमारे ही बीच के लोग हमारे काम को बदनाम कर रहे हैं। आज जो कुछ भी अखबारों में लिखा जा रहा है, उसका प्रभाव कम होता जा रहा है। जो कुछ टीवी पर परोसा जा रहा है, उसको तोड़-मरोड़ कर पेश किया जाता है। आखिर क्यों नहीं हम खुलकर कोई खबर करने में अपना विश्वास और साहस रख पा रहे हैं। इसलिए दूसरों पर आवाज उठाने वालों को सोचना होगा कि पहले वह खुद को देखें और पत्रकारिता की आवाज बुलंद करने वाले उस शख्स को सलाम करें, ताकि पूरा देश पत्रकारिता की जलती मशाल से तप सके।
–दीपक गंभीर
फालतू में शर्मिंदा नहीं होना
जरनैल सिंह ने जो सवाल उठाए हैं, वाजिब हैं और बडे़ ही गम्भीर हैं लेकिन मुझे लगता है कि यहाँ भी कुछ खास नहीं होगा। होगा वही, जो अभी तक होता आया है। हम सब अपने-अपने विचार लिखेंगे और एक-दूसरे को पढेंगे। लेकिन क्या हम पत्रकार एक साथ होकर कुछ कर सकते हैं? अगर नहीं कर सकते तो सब कुछ बेकार है। जरनैल सिंह ने एक साथ बहुत से सवाल उछाल दिए हैं और ये सारे वही सवाल हैं जो हर सभा और सेमिनार में वक्ता माईक के सामने उठाते रहे हैं और अपना समय खत्म होने पर अपनी जगह पर वापस लौट जाते रहे हैं। उन्होंने अपने आलेख में कहा है कि जूता फेंक कर अपराध किया लेकिन मुझे ऐसा नहीं लगता कि कोई अपराध किया है। अगर जूता चलाकर अपराध किया है तो मुम्बई कांड का सीधा प्रसारण करके महान पत्रकारों ने मीडिया के किस धर्म का पालन किया है? सैकड़ों ऐसे और भी उदाहरण भरे पड़े हैं। इसलिए मुझे नहीं लगता कि उन्होंने पत्रकारिता का कुछ नुकसान किया है या अपने पत्रकार धर्म का पालन नहीं किया है। उन्हें फालतू में शर्मिंदा नहीं होना चाहिए। शर्मिन्दा तो उस संस्थान को होना चाहिए, जिसने साथ छोड दिया। अच्छा हो कि उन्होंने जो सवाल उठाएं हैं, उनका जबाव बड़े पत्रकार और सम्पादक भी अपनी समझ-बूझ से दें क्योंकि पत्रकारिता की दशा और दिशा उन्हीं ‘महान’ लोगों से तय हो रही है। हम जैसे नौसिखियों की क्या बिसात।-विकास कुमार
कुछ न होने से, कुछ होना बेहतर
जरनैल जी, आज वाकई पत्रकारिता बड़ी सस्ती हो गयी है। एक वक़्त था, जब न्यूज़पपेर्स की हेडलाइंस और ब्रेकिंग न्यूज़ की खबर लोगों को बुरी तरह झिंझोड़ देती थी पर अब जिस तरह पत्रकार की आज़ादी और उसकी समझ को मज़ाक समझा जाता है उसी तरह जनता भी पत्रकारिता को मज़ाक समझने लगी है। इसमें दोष जनता का नहीं, बल्कि कमज़ोर पत्रकारिता का है। आपने कहा है कि जो आपने किया, वह ज्यादा गलत है या जो पत्रकारों से करवाया जा रहा है, वह? वैसे तो सही और ग़लत की कोई परिभाषा नहीं होती पर जो दिल को सही लगे, जो अंतरात्मा को सही लगे और जिसमें लोगों की भलाई हो, वह सही होता है। अगर उस दिन भावनाओं में बह कर आपका जूता न चलता तो जगदीश टाइटलर लोकसभा इलेक्शन से बाहर का रास्ता न देखते। जो हुआ, वह हजारों सिखों के खून का हिसाब तो नहीं चुका सकता पर कुछ न होने से कुछ होना बेहतर है। लोग भड़के तो सरकार ने मामले की नजाकत को समझा तो। चलो, कुछ तो हुआ।
-फौजिया रियाज़