हिंदुस्तान का आज का अंक और ‘विदाई’ के तीन संदेश : हिंदुस्तान के दिल्ली संस्करण का आज का अंक कई मायनों में ऐतिहासिक है। पूरे अखबार को गंभीरता से देखने पर तीन पन्नों पर एक चीज कामन नजर आती है। वह है- विदाई। पहले पन्ने पर लीड खबर की हेडिंग है : ‘आडवाणी-राजनाथ की विदाई तय‘। पेज नंबर तीन देखकर पता चलता है कि एचटी मीडिया और बिड़ला ग्रुप के पुरोधा केके बिड़ला आज के ही दिन इस दुनिया से विदा हो गए थे। एचटी ग्रुप ने उन्हें स्मरण करते हुए भावभीनी श्रद्धांजलि दी है। एडिट पेज देख पता चलता है कि हिंदुस्तान की प्रमुख संपादक मृणाल पांडे इस अखबार से विदा ले रही हैं।
हालांकि यह बात सीधे-सीधे नहीं बल्कि इशारे से कही गई है। प्रत्येक रविवार को संपादकीय पेज पर जो कसौटी नामक स्तंभ मृणाल पांडे लिखती हैं, वह आज भी प्रकाशित हुआ है पर आज का मृणाल का स्तंभ जहां समाप्त हुआ है, वहां छोटी सी सूचना प्रकाशित की गई है-
‘मृणाल पाण्डे की ‘कसौटी’ श्रृंखला का यह अंतिम आलेख है। एक अर्से से इस विचार यात्रा में साझीदार रहे पाठकों को लेखिका का धन्यवाद। mrinal.pande@gmail.com’
जाहिर है, अभी कालम की विदाई हुई है, कल को प्रिंट लाइन से नाम की विदाई होगी और परसों को संस्थान से संपूर्ण विदाई हो जाएगी।
दरअसल विदा होना इस दुनिया का शाश्वत सत्य है। इतना बड़ा सच है कि यह हर वक्त हमारे इर्द-गिर्द इमरजेंसी एक्जिट विंडो की तरह कायम रहता है पर हम हैं कि इसे देख ही नहीं पाते। देखकर भी अनजान बने रहते हैं। देखकर भी एक खयाली-रुमानी दुनिया में जीते रहते हैं। लगता है, नहीं… यह शाश्वत सत्य मेरे लिए नहीं है, पड़ोसियों के लिए है, सहकर्मियों के लिए है। इस इमरजेंसी एक्जिट विंडो से मैं नहीं, दूसरे बाहर छलांग लगाएंगे या छलांग लगाने को मजबूर किए जाएंगे… मेरे लिए तो मुख्य द्वार है…. जिससे ससम्मान दुंदुभि-तुरही की समवेत स्वर वंदना-गर्जना के साथ पुष्पित-अभिनंदित होकर बाहर निकलना है…. । पर जो शाश्वत है, वह तो घटित होगा ही। कभी इसके साथ, कभी उसके साथ और कभी मेरे साथ। ये दुनिया और ये तामझाम माया है। छलावा है। इसी का एहसास कराता है ‘विदा’ शब्द।
कुर्सी से विदाई… संस्थान से विदाई… परिवार से विदाई… पार्टी से विदाई… सपनों से विदाई… देह से विदाई…. ये विदा ही तो है जो बड़े को छोटा होने का एहसास कराता है… छोटे को बड़ा बनने का मौका प्रदान करता है। ये विदाई ही तो है जो राक्षस को संत बना देता है…. और संत को राक्षस में तब्दील कर देता है। तामसिक प्रवृत्तियों को जिसने विदा पा लिया, वह संत बन गया। सात्विक प्रवृत्तियों को जिसने विदा बोल दिया, वह राक्षस बन गया। जो सात्विकता और तामसिकता दोनों को एक साथ और एक-एक कर जी-भोग कर, इन दोनों को विदा बोलना शुरू कर दिया वह निर्गुण ब्रह्म को पाने की ओर बढ़ लिया। देह को जिसने विदा कर दिया उसने माया-मोह से हमेशा के लिए मुक्ति पा ली। उसने इंद्रिय-देह जन्य भावनाओं-कामनाओं-लालसाओं से मुक्ति पा ली।
आडवाणी-राजनाथ की पार्टी से विदाई, केके बिड़ला की देह से विदाई, मृणाल पांडे की हिंदुस्तान से विदाई या फिर घुरहू-कतवारू की अपने गांव से विदाई…. ये सब हर क्षण किसी न किसी के साथ किसी न किसी रूप में घटित होता रहता है। फर्क होता है तो केवल नाम, चरित्र, परिस्थितियां, देश-काल और स्वभाव का। कोई रोते हुए इसे स्वीकारता है, कोई खुश होते हुए चिल्लाता है। कोई समभाव से जीता जाता है। दरअसल विदा शब्द एहसास कराता है कि मनुष्य लाख पांव पटक ले, दिमाग चला ले, जोर लगा ले, पर विदाई तो एक न एक दिन होनी ही है। आज नहीं तो कल। कल नहीं तो परसो। परसों नहीं तो तरसों। जिसने इस विदाई को बूझ लिया, जिसने इस विदा को सह लिया, वह थोड़ा और बड़ा या छोटा हो जाता है, थोड़ा और समझदार या मूर्ख हो जाता है, थोड़ा और ज्ञानी या बेइमान हो जाता है, थोड़ा और सहज या कुटिल हो जाता है। जाके रही भावना जैसी की तरह हम अपने स्वभाव अनुरूप अनुभवों से ग्रहण करते हैं। हम विरासत में चाहें जितना सीख लें, पढ़ लें, समझ लें पर जो भोगा हुआ ज्ञान है, जो जिया हुआ समय है, जो पाया हुआ मनोभाव है, वही हमें अंदर से बदलता है। कुछ को पाजिटिव तो कुछ को निगेटिव। यह बदलना हमें कल से आज कुछ भिन्न बना देता है।
किसी दूसरे की किसी भी तरह की विदाई पर अगर कोई हर्ष या हताशा का अनुभव करता है तो उसे फिर समझ लेना चाहिए कि यह एक शाश्वत और अनवरत प्रक्रिया है। यह एक चक्र है। विदा बेला सबके आगे है। किसी के बिलकुल पास है, किसी के लिए थोड़ी दूर और कुछ के लिए बहुत देर और दूर। पर है सबके इर्द-गिर्द। अदृश्य-सा घेरा बनाए। इमरजेंसी एक्जिट विंडो को ध्यान से देखिए। उसे अनुभूत करते रहिए।
जो आज खुद को ताकतवर समझते हैं वे भी विदा होंगे। जो दुनिया को अपने चरणों में रखने का दंभ पालते हैं, वे एक दिन विदा के चरणों में पड़े मिलते हैं। दुनिया है कि अपने ढर्रे पर हिचकोले लेते हुए चलती-बढ़ती-मुड़ती रहती है।
जो मिलन करने को आतुर हैं, वो भी विदाई के पात्र बनेंगे।
इसलिए, हे मनुष्य, विदा-मिलन, दोनों बेला पर धैर्य धारण कर, दुख-सुख-प्रसन्नता-विषाद से मुक्त रह। यही है जीवन सार।