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विनोद वार्ष्णेय[/caption]एक साल भी न हुआ कि नौकरी लेने वाले खुद नौकरी गंवा बैठे : बीस जनवरी को एक साल हो जायेगा. हिंदुस्तान के कुछ लोग इस दिन को “मुक्ति दिवस” के रूप में मनाने जा रहे हैं. ये वे लोग हैं जिन्हें दो साल के कांट्रेक्ट रिनूअल के दो महीने बाद अचानक आर्थिक मंदी के नाम पर कह दिया गया कि “जाओ, एचटी बिल्डिंग छोड़कर जाओ, मन लगाकर मेहनत करना और ईमानदारी क्या होती है, यह हम नहीं जानते; बस, घंटे भर में जाओ तीस-पच्चीस-छत्तीस साल की तुम्हारी मेहनत क्या होती है, हमें नहीं पता, बस निकल जाओ.” सब जानते थे कि यह मंदी से अधिक सम्पादक की कुटिल और स्वार्थी मानसिकता का नतीजा थी. यह भी सब जानते थे कि मंदी सिर्फ बहाना है, मृणाल पान्डे को कुछ लोगों से छुट्टी पाना है; मैनेजमेंट के सामने कमाल कर दिखाने का खिताब पाना है. और जो चाटुकार नहीं, केवल पत्रकार थे, उन्हें अपने स्वाभिमान की कीमत चुकाना है. यह नया नैतिक शास्त्र था जिसमें संपादक संपादक न रहे, वे मैनेजमेंट की जीभ से निकले शब्दों से हिलने वाली उसकी पूंछ हो गए.