श्याम मीरा सिंह-
दिल्ली हाई कोर्ट ने एक फ़ैसला दिया है कि शादी का वादा कर सेक्स करना रेप नहीं है, अगर महिला लंबे समय तक अपनी मर्ज़ी से शारीरिक संबंध के लिए सहमत है. हालाँकि अदालत ने ये भी कहा है कि अगर अचानक से और कुछ क्षण के लिए शादी का लालच देकर सेक्स किया गया है तो इसे रेप माना जाएगा। इस फ़ैसले पर आपकी सहमतियाँ-असहमतियाँ अलग-अलग हो सकती हैं।
मेरा मत है कि सेक्स किए जाने को इतना अधिक पवित्र बनाने का विचार ही अपने आप में विसंगत है। भले ही इस प्रकार के क़ानून महिला के लिए फ़ेवर करने वाले होते हैं लेकिन अंततः ये विचार स्त्री की यौनिक शुचिता पर ज़ोर देता है, जैसे कि किसी पुरुष से सेक्स करने के बाद स्त्री का कुछ बचा ही नहीं। इसलिए इस बात को इतना अधिक वजन दिया गया है कि एक वायदे से मुकरने की सजा “रेप की सजा” के बराबर दिए जाने का प्रावधान है।
इस क़ानून में सबसे अधिक विकृत बात तो यही है कि ये मनुष्य को अपने विचारों अपनी प्रतिज्ञाओं को संशोधित करने के अधिकार को ख़त्म कर देता है. दोबारा पुर्नार्विचार के अधिकार को खत्म कर देता है। ये क़ानून “बदलाव (चेंज) के बेसिक नियम का विरोध करता है। जबकि अपने विचारों, प्रतिज्ञाओं में Change करना, उन्हें संशोधित करना हर मनुष्य का प्राकृतिक अधिकार है। अगर किसी स्त्री को कोई पुरुष दो वर्ष पहले पसंद था और अब नहीं है या वह उसके साथ नहीं रहना चाहती है तो इसका अर्थ ये नहीं है कि वह अपराधी हो जाती है क्योंकि दो साल पहले उसने उस पुरुष से कुछ वायदे किए रहे होंगे। सबसे बड़ी बात अगर किसी को किसी के साथ रहना है तो वह स्वयं रहेगा/रहेगी। इसके लिए सरकारी क़ानूनों के हस्तक्षेप की अनावश्यक दख़ल सही नहीं है।
अगर कोई स्त्री या पुरुष किसी को शादी के चुनाव के रूप में सही पाता है तो वह स्वयं उसके लिए तमाम कोशिशें करेगा, पचास बार बतलाएगा, सौ बार अहसास कराएगा। लेकिन अगर किन्ही कारणों से जैसे कि आर्थिक महत्वकांक्षा का होना, किसी दूसरे को अधिक पसंद करना आदि के कारण वह कोई दूसरा निर्णय लेता है तो उसे अपने पुराने वायदे पर टिके रहने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता। वह चाहे स्त्री हो चाहे पुरुष।
किसी भी नियम, प्रतिज्ञा को तोड़ने की एक मिनिमम कोस्ट रखी जा सकती है लेकिन उसे अक्षम्य अपराध नहीं माना जा सकता। शादी के वायदे के बाद शादी न करने की बात को एक वायदे को तोड़े जाने के रूप में देखा जाना चाहिए, उसकी भरपाई भी एक वायदे को तोड़े जाने के रूप में होनी चाहिए न कि उस दौरान सहमति और ख़ुशी ख़ुशी बनाए गए शारीरिक सम्बन्धों को एक क्राइम बनाकर भरपाई करनी चाहिए।
किसी से किए वायदे को तोड़ना नैतिक रूप से घृणाजनक हो सकता है, किसी दूसरे पार्टनर के साथ सम्बंध बनाना नैतिक रूप से ग़लत हो सकता है लेकिन वह क़ानूनी रूप से क्राइम नहीं माना जा सकता। अगर एक संबंध के बाहर कोई किसी अन्य के साथ उसकी सहमति से सम्बंध बना रहा है तो वह सामाजिक और नैतिक दृष्टि से ग़लत हो सकता है पर ये बेहद निजी मसला है।
क़ानून किसी को नैतिक दृष्टि से पवित्र बने रहने के लिए बाध्य नहीं कर सकता और न ही ये अपराध माना जा सकता। अगर आप गौर से देखेंगे तो पाएँगे कि इस क़ानून में लैंगिक भेदभाव भी है। जैसे अगर कोई स्त्री किसी पुरुष से शादी का वायदा करने के बाद शादी से मुकर जाए या किसी दूसरे पार्टनर को चुन ले तो उसके पहले पार्टनर के पास कोई क़ानूनी उपाय नहीं है जबकि इसी वायदा खिलाफ़ी को स्त्री के मामले में “रेप” कहा गया है।
एक तरह से देखा जाए तो यहाँ भी स्त्री की यौनिक शुचिता पर ही ज़ोर दिया गया है। आपको को एक पल के लिए लग सकता है कि ये कानून स्त्री की रक्षा करता है, बल्कि ये कानून स्त्री को ही इस समाज में और अधिक संवेदनशील बना देता है. इसमें स्त्री का लाभ नहीं. उसकी लैंगिक स्वतंत्रता को अत्यधिक पवित्र घोषित करके इतना अधिक दबा दिया गया है कि इसकी क़ीमत उसे ज़िंदगी भर सीता की तरह अग्नी परीक्षा देने के रूप में चुकानी पड़ती है।
इसलिए सेक्स को नोर्मलाइज करने की ज़रूरत है। ताकि यौनिक शुचिता और हमेशा पवित्र रहने का बोझ स्त्रियों के कंधे से हट सके।