
अमरीक सिंह-
पंजाब के दो प्रमुख जिले अमृतसर और जालंधर अदबी हलकों में इसलिए भी जाने जाते हैं कि यहां हिंदी का ऐसा एक लेखक पैदा हुआ और विचरा, आगे चलकर जो नाटक और कथा साहित्य जगत में किवदंती–सा बना। पंजाब में हिंदी साहित्य का एक गौरवशाली अध्याय उसके नाम से खुलता है और हिंदी में लिखकर उसने इस अहिंदी भाषायी प्रदेश को इतना समृद्ध किया कि फिर यह कार्य कोई दूसरा साहित्यकार, लेखक और नाटककार नहीं कर पाया। उसका नाम था मोहन राकेश! जन्म स्थान (8 जनवरी 1925) अमृतसर।



इत्तफाक है कि इसी महीने की 3 तारीख को वह दुनिया से जुदा हो गया। अब पंजाब के हिंदी लेखन में उल्लेखनीय कुछ नहीं बचा है लेकिन मोहन राकेश का नाम इसके इतिहास में सुनहरी अक्षरों से लिखा हुआ है। जब भी गुजरे दौर के पंजाब के हिंदी लेखन की बात होती है तो राकेशजी अपरिहार्य तौर पर याद किए जाते हैं। हालांकि अब वह अमृतसर रहा और न जालंधर। लेकिन कुछ गलियां–कूचे व राह–रास्ते वैसे के वैसे ही हैं, जैसे उनके वक्त में थे। उनके जन्म से पहले और उनके जिस्मानी अंत के बाद भी उनका चेहरा– मोहरा नहीं बदला।
बेशक अमृतसर और जालंधर अब महानगर में तब्दील हो गए हैं और दरियायों के पुलों के नीचे से बहुत सारा पानी बह चुका है। लेकिन इसी पानी के बीच लफ्ज़ों के वे चिराग अभी भी जल रहे हैं जो मोहन राकेश ने अपनी कलम से रोशन किए थे। वक्त के बदलाव के साथ वे शैक्षणिक संस्थान भी कायम हैं, जहां वह पढ़े और पढ़ाया। मोहन राकेश की शिनाख्त का एक हमेशा इन दो शहरों से गहरे वाबस्ता है लेकिन अब यहां के बाशिंदे नहीं जानते कि कभी यहां एक महान लेखक रहा करता था जिसने ऐसे शिखर छुए जो बेमिसाल बने। बहुत पुराने और अदब से वास्ता रखने वालों को जरूर यह पता है। रविंद्र कालिया सरीखे लेखक भी दुनिया से कूच कर गए जो डीएवी कॉलेज जालंधर में उनके होनहार छात्र थे। अलबत्ता इसी शहर में रहकर लेखन को अनवरत जारी रखे हुए सुरेश सेठ जरूर अभी सक्रिय हैं। वह और कालिया जी, राकेश जी के विद्यार्थी रहे हैं।
मोहन राकेश के बचपन का नाम मदन मोहन गुगलानी था। मदन और गुगलानी बाद में उन्होंने हटा दिए और अपना नया नाम रखा मोहन राकेश। उनके पुरखे सिंधी थे जो बाद में आकर अविभाजित पंजाब के अमृतसर में बस गए। उनके पिता करमचंद गुगलानी पेशेगत वकील थे। साहित्य और संगीत से उन्हें खास लगाव था। मोहन राकेश का बचपन साहित्यकारों और संगीतकारों की संगत में गुजरा।
पंडित राधारमण से प्रभावित होकर मोहन राकेश ने लेखन की शुरुआत कविता से की और बाद में गद्य की तरफ आए। 1941 में पिता का देहांत हो गया और उनकी छोटी–सी पूंजी से जैसे-तैसे घर चलने लगा। अभाव उनका स्थायी साथी हो गया। अपनी मां से उन्हें बेहद लगाव था। वह चाहती थीं कि राकेश उच्च शिक्षा हासिल करें और राकेश जी तो ऐसा चाहते ही थे। सो गुरबत–गर्दिश के दिनों में भी उनकी शिक्षा की चाहत परवान चढ़ने लगी। लाहौर इन दिनों अमृतसर से एकदम सटा हुआ और उच्च शैक्षणिक संस्थाओं वाला शहर था। उस शहर की जीवनशैल भी अमृतसर जैसी थी (आज भी ठीक वैसी ही है)। लाहौर के मशहूर ओरिएंटल कॉलेज से उन्होंने संस्कृत में एमए की और बाद में जालंधर में हिंदी में यही डिग्री हासिल की। जालंधर के डीएवी कॉलेज में वह पढ़े थे और वहीं लेक्चरर होकर अमृतसर से अपनी मां के साथ जालंधर आ गए।
डीएवी जालंधर उन दिनों प्रबंधतंत्र की सख्ती के लिए जाना जाता था लेकिन मोहन राकेश का आजादख्याली स्वभाव तथा रहन-सहन उनकी प्रतिभा के बूते वहां स्वीकार कर लिया गया। अपने एक संस्मरण में रवींद्र कालिया ने लिखा है कि राकेश हिंदी विभाग के प्रमुख बनाए गए तो (उस सत्र में) उनकी कक्षा में सिर्फ दो छात्र थे। एक वह और एक सुरेश सेठ। अक्सर मोहन राकेश दोनों को जालंधर के उस वक्त के मशहूर बीयर बार ‘प्लाजा’ में पढ़ाया करते थे! प्लाजा आज भी जालंधर के उसी स्थान पर है और बीयर बार भी। दकियानूसी किस्म के शिक्षकों ने इसकी शिकायत डीएवी प्रबंधन से की लेकिन राकेश जी ने अपना रूटीन नहीं बदला।
जालंधर में राकेश जी की कलम ने रफ्तार पकड़ी (कलम यहां मुहावरे के तौर पर, वैसे वह टाइपराइटर पर लिखते थे)। उनकी कुछ नायाब कहानियों जिनमें भारत-पाक विभाजन की भयावह त्रासदी पर आधारित कहानी ‘मलबे का मालिक’ भी शामिल है, उन्होंने जालंधर प्रवास के दौरान लिखीं और उनके परिपक्व नाटककार का जन्म भी यहीं हुआ। अपना पहला एकांगी ‘लहरों के राजहंस’ उन्होंने जालंधर में लिखा। अंग्रेजी और संस्कृत के कई नाटकों के अनुवाद मोहन राकेश ने इसी ठहरे–से शहर में किए। यही नाटक बाद में थिएटर की दुनिया और मोहन राकेश की पहचान का अहम हिस्सा बन गए। कई अन्य कालजयी कहानियां तथा नाटकों व उपन्यासों के ड्राफ्ट भी उन्होंने जालंधर में लिखे। एक तरह से जालंधर में उनकी सृजनात्मकता की जमीन पुख्ता होने लगी थी। मोहन राकेश की एक चर्चित कृति है, ‘मोहन राकेश की डायरी’। इसका अधिकांश जालंधर से वाबस्ता है।
बेहद व्यवस्थित होकर लिखने के आदी मोहन राकेश को भटकाव बहुत प्रिय था और अपने इस भटकाव के जन्मदाता भी वह खुद थे। अपनी डायरी में उन्होंने इसका विस्तृत जिक्र किया है। उन्हें जानने वाले कुछ लोगों का कहना है कि भटकाव दरअसल उनकी नीयति था। शायद इसी का नतीजा है कि उनके तीन विवाह हुए लेकिन तीनों अंततः नाकाम! दो विवाह पंजाब में हुए और एक दिल्ली में। पंजाब में हुए विवाह यहीं तलाक ने तब्दील हो गए। दिल्ली में अनीता जी से वह विवाह भी बाद में आधा–अधूरा ही साबित हुआ। इस पर श्रीमती अनीता राकेश ने अपनी पुस्तक श्रृंखला में काफी कुछ लिखा है।
बेचैनी और भटकन की प्रवृत्ति के चलते उन्होंने जालंधर को अलविदा कहकर दिल्ली का रुख किया। ‘आषाढ़ का एक दिन’ भारतीय नाटक की अनमोल कृति माना जाता है जिसे अंतरराष्ट्रीय स्तर की ख्याति हासिल हुई। इसका लेखन उन्होंने दिल्ली रहकर किया। इस नाटक की हजारों प्रस्तुतियां दुनिया भर में हो चुकी हैं और आज भी होती हैं।
दिल्ली से मोहन राकेश टाइम्स ऑफ इंडिया समूह की साहित्यिक पत्रिका ‘सारिका’ के संपादक होकर मुंबई (तब बंबई) चले गए। जाते ही उन्होंने ‘सारिका’ का पूरा अक्स बदल दिया। उसे नई पहचान दी। हिंदी साहित्य जगत की विशिष्ट पत्रिका बन चुकी ‘सारिका’ को भी उन्होंने आखिरकार 1963 में अलविदा कह दिया और फिर वापस दिल्ली लौट आए। जादूनगरी में कथा–साहित्य से संबंधित इतनी बड़ी और उल्लेखनीय पत्रिका के संपादक होने के बावजूद उन्होंने फिल्मी लेखन से खुद को दूर रखा। कई प्रस्ताव आए लेकिन उन्होंने अस्वीकृत कर दिए। नहीं तो जब तक ‘सारिका’ मुंबई से निकलती रही तब तक कमलेश्वर जी सहित जो भी इसका संपादक रहा, उसने सिनेमा के लिए लेखन कार्य जरूर किया। मोहन राकेश अपवाद थे।
1963 में उन्होंने स्वतंत्र लेखन शुरू किया जो स्वतंत्र कम कष्टमय ज्यादा था क्योंकि निश्चित आय का साधन इससे निर्धारित नहीं होता था। लेकिन वह ‘स्वतंत्र लेखन’ राकेश जी को और ज्यादा बुलंदियों पर ले गया। किसी वाद विशेष में उनका यकीन नहीं था लेकिन वह मानवीय सरोकारों के प्रबल पक्षधर थे।
लेखन में बतौर नाटककार उनकी अलहदा पहचान स्थापित है लेकिन उनके लिखे नाटकों की तादाद बहुत ज्यादा नहीं है। तीन नाटक उन्होंने लिखे। आषाढ़ का एक दिन, आधे- अधूरे और लहरों के राजहंस उनके वे नाटक हैं जिन्हें भारतीय नाट्य लेखन का बहुत बड़ा मुकाम माना जाता है। ‘आषाढ़ का एक दिन’ को जितनी प्रसिद्धि मिली उतनी आज तक किसी अन्य नाटककार के हिस्से नहीं आई। इस एक नाटक ने उन्हें विश्व प्रसिद्धी दिलाई और इसी पर उन्हें भारतीय साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाजा गया। जीवनभर के लेखन में उन्होंने कुल 54 कहानियां लिखीं जो मलबे का मालिक, क्वार्टर, पहचान और वारिस संग्रहों में संकलित हैं। अंडे के छिलके, अन्य एकांकी तथा बीज नाटक व दूध और दांत उनके एकांकी संकलन हैं।
संस्कृत के दो क्लासिक नाटकों का उन्होंने विशेष रूप से हिंदी में अनुवाद किया। एक, मृच्छकटिक और दूसरा शकुंतल। परिवेश और बलकम खुद उनके निबंध संग्रह हैं। आखिरी चट्टान तक, यात्रा–विवरण। मोहन राकेश की डायरी और समय सारथी ने भी उन्हें अलग पहचान दी। बेशक मोहन राकेश बतौर नाटककार विश्वस्तरीय ख्याति के शिखर पर हैं लेकिन उनके उपन्यास भी इस विधा में खासे चर्चित हैं। अंधेरे बंद कमरे, न आने वाला कल, अंतराल और नीली रोशनी की बाहें उपन्यास उनकी सशक्त कलम का परिचय बखूबी देते हैं। मोहन राकेश की तमाम रचनाएं बेशुमार भाषाओं में अनूदित हैं। उन्हें ऐतिहासिक साहित्य धारा ‘नई कहानी’ का प्रमुख हस्ताक्षर भी माना जाता है। (कतिपय साहित्य आलोचकों के मुताबिक यहां उनका मुकाम राजेंद्र यादव और कमलेश्वर से पहले हैं)।