Connect with us

Hi, what are you looking for?

सुख-दुख

सुरेंद्र प्रताप सिंह की बरसी और आर. अनुराधा की याद

Dilip C Mandal : कैंसर के साथ जीते हुए अनुराधा ने यह मुश्किल काम भी किया. अनुराधा की रचना प्रक्रिया और कार्य शैली को जानें.  शिक्षक, पत्रकार और लेखक सुरेंद्र प्रताप सिंह की कल बरसी है. 1948 में जन्मे एसपी सिंह का, जीवन के 50 साल पूरे करने से पहले ही, आकस्मिक बीमारी की वजह से 27 जून 1997 को निधन हो गया. पत्रकारिता के नए छात्र उन्हें आज तक के संस्थापक के रूप में जानते हैं. रविवार पत्रिका की शुरुआत से लेकर धर्मयुग, नवभारत टाइम्स, इंडिया टुडे और बीबीसी से वे जुड़े रहे. मॉडर्निटी, धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र, सामाजिक न्याय और स्त्री अधिकारों के प्रति असंदिग्ध प्रतिबद्धता उन्हें भीड़ से अलग पहचान देती है.

Dilip C Mandal : कैंसर के साथ जीते हुए अनुराधा ने यह मुश्किल काम भी किया. अनुराधा की रचना प्रक्रिया और कार्य शैली को जानें.  शिक्षक, पत्रकार और लेखक सुरेंद्र प्रताप सिंह की कल बरसी है. 1948 में जन्मे एसपी सिंह का, जीवन के 50 साल पूरे करने से पहले ही, आकस्मिक बीमारी की वजह से 27 जून 1997 को निधन हो गया. पत्रकारिता के नए छात्र उन्हें आज तक के संस्थापक के रूप में जानते हैं. रविवार पत्रिका की शुरुआत से लेकर धर्मयुग, नवभारत टाइम्स, इंडिया टुडे और बीबीसी से वे जुड़े रहे. मॉडर्निटी, धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र, सामाजिक न्याय और स्त्री अधिकारों के प्रति असंदिग्ध प्रतिबद्धता उन्हें भीड़ से अलग पहचान देती है.

आर. अनुराधा ने एसपी सिंह की रचनाओं के संकलन और संपादन का कष्टसाध्य कार्य किया. इस काम को असंभव मान कर छोड़ दिया गया था. एसपी की मौत के बाद इस काम को करने निकले तमाम महाबलियों ने जब एक दशक बाद अपने हाथ खड़े कर दिए तो अनुराधा ने इस काम को अपने हाथों में लिया और असंभव का संभव होना 459 पेज की किताब “पत्रकारिता का महानायक: सुरेंद्र प्रताप सिंह संचयन” की शक्ल में सामने आया. इस काम में अनुराधा का लगभग ढाई साल का श्रम लगा.

Advertisement. Scroll to continue reading.

तब तक अनुराधा को दूसरी बार कैंसर हो चुका था. वे सर्जरी, कीमोथेरेपी और रेडियोथेरेपी की कठिन प्रक्रियाओं से दो बार गुजर चुकी थीं. उन्हें मालूम था कि 13 साल पहले मर चुके आदमी की बिखरी हुई रचनाओं को देश के विभिन्न लोगों से और धूल भरी लाइब्रेरीज से जुटाना कितना मुश्किल हो सकता है. इस किताब की रचना प्रक्रिया को जानने के लिए पढ़ें अनुराधा की वह टिप्पणी, जो इस किताब की शुरुआत में “अपनी बात” शीर्षक से दर्ज है. इससे आप एसपी सिंह और अनुराधा दोनों के बारे में जान पाएंगे. अनुराधा ने यह टिप्पणी 5 अप्रैल 2010 में लिखी. आप भी पढ़िए :-

…..एसपी यानी सुरेंद्र प्रताप सिंह को गए लंबा वक्त गुजर गया है। उनकी बरसी मुझे अपने करीबियों से जुड़ी तारीखों की तरह हमेशा याद रहती है। हमेशा लगता रहा कि उनके लेखन कार्य को समेट कर एक जगह संजोने और नए पत्रकारों के सामने लाने का महत्वपूर्ण कार्य अब तक नहीं हो पाया है। काफी समय तक तो यह उम्मीद रही कि इस मामले में ज्यादा समृद्ध और समर्थ लोग यह कार्य कर रहे हैं। लेकिन इतने समय बाद भी जब कुछ सामने नहीं आया तो जोश में आकर मैंने ऐलान कर दिया कि मैं कर सकती हूं यह काम, और करूंगी। यह थी शुरुआत एक औचक लेकिन दृढ़ फैसले के रूप में। तत्काल ही योजना बननी शुरू हो गई कि एसपी की प्रकाशित सामग्री कहां-कहां से और कैसे इकट्ठी की जाएगी।

Advertisement. Scroll to continue reading.

सबसे पहले, स्वाभाविक ही था कि नभाटा (नवभारत टाइम्स) का ख्याल आया। टाइम्स सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज़ में सामाजिक पत्रकारिता की पढ़ाई के दौरान कई बार नभाटा जाते थे, प्रशिक्षु के तौर पर वहां चुनाव डेस्क पर काम किया। हालांकि मैंने इंटर्नशिप ‘दिनमान टाइम्स’ में की थी, लेकिन नभाटा को रोज पढ़ना और उसकी मीमांसा करना हमारी रोज की पढ़ाई का हिस्सा था। और वहीं के वरिष्ठजन हमें पढ़ाने-सिखाने आते थे। इसीलिए आज भी वह ‘अपना घर’, सहज पहुंच वाला दफ्तर लगता है। वहां लाइब्रेरी में फोन किया तो पता चला कि नभाटा की सभी पुरानी फाइलों की माइक्रोफिल्मिंग हो गई है। उनमें से एसपी के लेख ढूंढना खासा मुश्किल होता, क्योंकि तारीख और पेज नंबर बताने पर ही वे लेखों के प्रिंट-आउट दे पाते, और उन तारीखों को जानने का मेरे पास कोई जरिया नहीं था।

उन्हींने सुझाया कि दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी की श्यामा प्रसाद मुखर्जी मार्ग (पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन के सामने) शाखा में नभाटा की फाइलें मिल जाएंगी। वहां अखबारों को पन्ना-दर-पन्ना अपनी नजरों से स्कैन करना संभव था। साथ ही पता चला कि साप्ताहिक छुट्टी के दिनों- शनिवार, रविवार को भी यह लाइब्रेरी खुली रहती है, पूरे समय के लिए यानी सुबह साढ़े आठ बजे से शाम साढ़े सात तक। और क्या चाहिए था! तब अपरान्ह के चार बज रहे थे। मैं तत्काल निकल पड़ी दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी के लिए। वहां नभाटा की फाइलें बड़ी सहजता से देखने को मिल गईं। दो-दो महीनों के अखबारों को एक साथ मोटे गत्तों में बाइंड किया गया था। उन धूल खाई बड़ी-बड़ी फाइलों को उठाना-रखना मेहनत का काम था।

Advertisement. Scroll to continue reading.

एक मुश्किल यह थी कि उन बड़ी-बड़ी फाइलों के चुने हुए पेजों के लेख वाले हिस्सों की फोटोकॉपी कैसे हो। फिर एक कर्मचारी ने सुझाया कि डिजिटल कैमरे से तसवीर लेकर उनका प्रिंटआउट लिया जा सकता है, कई लोग ऐसा करते हैं। फिर तो सब आसान हो गया। उस दिन जनवरी 1989 से दिसंबर 1991 तक की फाइलें देख डालीं और उनमें छपे एसपी के संपादकीय लेखों के शीर्षकों की तारीखवार फेहरिस्त बना ली। उन पुराने अखबारों से इतने साल बाद दोबारा गुजरना भी एक अनुभव था। उस समय के विषय, विज्ञापन, पेज लेआउट, अपने साथियों और परिचितों के, जाने-माने व्यक्तियों के लेख-खबरें देख-पढ़ कर मैं बार-बार चिहुंक रही थी और उन परिस्थितियों को याद करती जा रही थी।

पर रुक कर आनंद लेने का समय नहीं था। अगले दिन रविवार को अपने डिजिटल कैमरे के साथ मैं सुबह ही बड़े उत्साह से वहां पहुंची। जूतों में जैसे स्प्रिंग लग गए थे। पिछले दिन के सूचीबद्ध किए लेखों के लिए मोटी फाइलों को फिर निकालकर चित्र लेने में कतई देर नहीं लगी। आगे की फाइलें भी देख डालीं। अगले सप्ताहांत में ‘अमर उजाला’ के मेरठ दफ्तर की लाइब्रेरी में भी इस सरल डिजिटल तकनीक ने भरपूर मदद की। लेकिन इससे ज्यादा और पहले मदद की मित्र, मेरठ के वरिष्ठ पत्रकार, फोटोजर्नलिस्ट हरिशंकर जोशी ने। मेरठ पहुंचने के पहले ही उन्होंने वहां लाइब्रेरी के इस्तेमाल की सारी व्यवस्था कर दी थी।

Advertisement. Scroll to continue reading.

इस बीच कुछ मित्रों से भी इस मामले पर चर्चा की और एस पी के लेख दूसरे पत्र-पत्रिकाओं में मिलने की संभावनाएं तलाशीं। ‘राष्ट्रीय सहारा’ के ‘हस्तक्षेप’ परिशिष्ट में उनके कुछ लेखों और साक्षात्कारों के प्रकाशन का अंदाजा था। इसके लिए वहां सहायक संपादक और ‘हस्तक्षेप’ के प्रभारी दिलीप चौबे से फोन पर बात की तो उन्होंने फौरन मेरे लिए वह सामग्री फोटोकॉपी करके उपलब्ध करा दी। बस, मुझे इतना करना था कि परिशिष्ट के पन्नों से छानकर उपयुक्त सामग्री अलग करनी थी।

उधर लघु पत्रिका ‘समकालीन जनमत’ में रहे, जन संस्कृति मंच के साथी सुधीर सुमन ने पत्रिका के कुछ पुराने अंकों में प्रकाशित एसपी के लेखों और साक्षात्कारों की फोटोकॉपी तत्परता से दे दी। इसी बीच मैंने दो काम और कर डाले। एक तो, जो सहज ही था- इंटरनेट पर हिंदी-अंग्रेजी में कई संबंधित ‘की वर्ड’ डालकर एसपी से जुड़ी सामग्री ढूंढने की कोशिश की। हिंदी में ‘मीडिया खबर’ वेबसाइट पर 2009 में एस पी की बरसी पर किए गए आयोजन की सामग्री में से एस पी के लिखे दो आलेख संग्रह में शामिल कर लिए।

Advertisement. Scroll to continue reading.

दूसरा, घर पर ही वीएचएस टेप में जाने कब से रखे हुए ‘आजतक’ के कुछ कार्यक्रमों/एपीसोड, को डिजिटल फॉर्म में कन्वर्ट करा लिया। इस टेप में वही दोनों महत्वपूर्ण कार्यक्रम थे जो मैं अपनी पुस्तक में शामिल करना चाहती थी। एक था- गणेश जी के ‘दूध पीने’ की घटना पर और दूसरा एसपी का आखिरी कार्यक्रम जो उपहार सिनेमा हॉल अग्निकांड को समर्पित था। इन दोनों कार्यक्रमों का ट्रांसक्रिप्शन करने में मुझे दो दिन लगे। जरा-जरा सी कोशिशों से रास्ते खुलते गए और सामग्री जुटती गई। कई और जगहों से सामग्री मिलने की उम्मीद थी, जिसे धीरे-धीरे एकत्र करने की कोशिशें लगातार चलती रहीं। साथ ही साथ लेखों के इन फोटो-चित्रों को टाइप करने का काम अशोक मेहता हारी-बीमारी के बाद भी तेजी से करते चले जा रहे थे।

1991 के उत्तरार्ध में एस पी ने ‘नवभारत टाइम्स’ छोड़ने के बाद 1992 में ‘इंडिया टुडे’ में एक कॉलम ‘मतांतर’ नाम से शुरू किया, जो महत्वपूर्ण है। बाद में ‘आजतक’ की शुरुआत करने के बाद फिर से उन्होंने ‘इंडिया टुडे’ के लिए ‘विचारार्थ’ नाम से स्तंभ लिखा जिसका पहला आलेख 31 दिसंबर 1995 के अंक में ‘मेहमान का पन्ना’ नाम के स्तंभ में छपा था। ‘विचारार्थ’ 30 अप्रैल 1996 तक ही चल पाया। इन स्तंभों के लिए पत्रिका की फाइलों की खोज शुरू हुई।

Advertisement. Scroll to continue reading.

फेसबुक पर दीक्षा राजपूत ने सुझाया कि नेहरू मेमोरियल लाइब्रेरी, तीन मूर्ति भवन में ‘इंडिया टुडे’ (हिंदी) की फाइलें उपलब्ध हैं। वहां भी काम सहज ही हो गया। इसकी अस्थाई सदस्यता के लिए विभाग के वरिष्ठ राजेश झा का पत्र काम आया। इस काम में ‘इंडिया टुडे’ के लाइब्रेरियन हनुमंत सिंह का भी महत्वपूर्ण मार्गदर्शन मिला। डॉ. श्योराजसिंह ‘बेचैन’ की पुस्तक ‘दलित पत्रकारिता पर पत्रकार अंबेडकर का प्रभाव’ में प्रकाशित उनका एस पी के ‘आजतक’ में आने के बाद का साक्षात्कार और एस एस गौतम और ‘बेचैन’ के संपादन में छपी पुस्तक ‘मीडिया और दलित’ में एसपी का पुनर्प्रकाशित लेख ‘मीडिया हमेशा सवर्णों का पैरोकार रहा है’ भी घरेलू अभिलेखागार में मिल गए।

और इसी खजाने में अप्रत्याशित रूप से मिले एसपी का एक लेख और ‘बदलती सामाजिक परिस्थितियों में पत्रकारिता की भूमिका’ पर हुई विचार गोष्ठी के लिए लिखा गया उनका पर्चा। ये दोनों ही, पत्रिका ‘प्रथम प्रवक्ता’ के जुलाई 2008 के अंक में प्रकाशित हुए थे। एक और अनायास मिला आलेख था- भारतीय जन संचार संस्थान के पत्रकारिता में स्नातकोत्तर डिप्लोमा कार्यक्रम (1996-97) के लिए विजय शर्मा का ‘आज तकः एक विश्लेषण’ नाम से शोध कार्य के लिए किया गया एस पी का इंटरव्यू। इसका श्रेय वहां पढ़ा रहे दिलीप मंडल की खोजी नजर को जाता है।

Advertisement. Scroll to continue reading.

फिर याद आया कि एसपी ने 1984 में आई गौतम घोष की फिल्म ‘पार’ के संवाद भी लिखे थे। इस फिल्म का टाइटिल वाला हिस्सा तो यूट्यूब पर मिला लेकिन फिल्म किसी तरह नहीं मिल रही थी। यहां भारतीय सूचना सेवा के अधिकारी और फिलहाल पूना के फिल्म एंड टीवी ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट में रजिस्ट्रार प्रकाश मकदुम ने सहयोग किया और फिल्म के संवाद तो नहीं लेकिन इसकी डीवीडी उपलब्ध करा दी, जिसके कुछ संवाद-सघन हिस्सों का ट्रांसक्रिप्शन करके इस पुस्तक में शामिल कर लिया। पूरी फिल्म के संवाद लेना कठिन था और अव्यावहारिक भी।

इतने पर लगा कि एसपी का ज्यादातर लेखन मिल गया है। सारा नहीं, तो कम से कम इतना तो है कि उस समय के ज्यादातर महत्वपूर्ण विषयों पर उनके विचार पाठक को पता लग सकें। लगा कि उनके लेखन को इकट्ठा पुस्तक रूप में लाने के काम का एक बड़ा हिस्सा पूरा हो गया….

Advertisement. Scroll to continue reading.

– आर. अनुराधा

नई दिल्ली, 10 अप्रैल 2010

Advertisement. Scroll to continue reading.

(दिल्ली के इंडिया हैबिटैट सेंटर में पहली बार इस किताब को इंट्रोड्यूस किया गया था. पुस्तक फ्लिपकार्ट, अमेजन और राजकमल समेत कई अन्य साइट्स पर उपलब्ध है.)

वरिष्ठ पत्रकार दिलीप मंडल के फेसबुक वॉल से.

Advertisement. Scroll to continue reading.
Click to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Advertisement

भड़ास को मेल करें : [email protected]

भड़ास के वाट्सअप ग्रुप से जुड़ें- Bhadasi_Group

Advertisement

Latest 100 भड़ास

व्हाट्सअप पर भड़ास चैनल से जुड़ें : Bhadas_Channel

वाट्सअप के भड़ासी ग्रुप के सदस्य बनें- Bhadasi_Group

भड़ास की ताकत बनें, ऐसे करें भला- Donate

Advertisement