-अमरेंद्र किशोर-
शीर्षक 1: सेक्स के दौरान पोजीशन बदल रही थी महिला, तभी हुआ कुछ ऐसा कि मार गया लकवा।
शीर्षक 2: मुर्गियों के साथ सेक्स करता था ये शख्स, पत्नी बनाती थी VIDEO
शीर्षक 3: दुनिया की सबसे सेक्सी डॉक्टर, जिनसे इलाज कराने के लिए लाखों लोग जानबूझ कर पड़ते हैं बीमार
ये तीनों शीर्षक न्यूज़ 18 के सौजन्य से पाठकों के सामने हैं। ये आज के जमाने के शीर्षक हैं। गुदगुदाने वाले, जिन्हें पढ़कर मन मचल जाए। उधर भारत की सबसे अच्छी और सबसे लोकप्रिय हिंदी न्यूज़ प्रकाशक होने का दावा करते नवभारत टाइम्स पर नजर डालिये। इसके पोर्टल पर एक खबर आयी है जिसे लोग बहुत चाव से पढ़ रहे हैं और उसपर एक से एक प्रतिक्रियाएं आ रहीं हैं– “मिलिंद सोमन की न्यूड फोटो देख लोगों ने मीम्स बना दिए’। इसी पोर्टल की एक और खबर है, शीर्षक देखकर क्यों न इसे कोई बार-बार पढ़ना चाहे– ‘सेक्स के दौरान ऐसी आवाजें निकालने से बढ़ती है उत्तेजना’। इसी कड़ी में अश्लील पत्रकारिता का सनसनीखेज खुलासा न्यूज़ 18 में पढ़ने को मिलता है, ‘इस्तेमाल किए कॉन्डम दोबारा बेचने का भंडाफोड़’। खबर वियतनाम की है, हिंदी में लिखी जा रही है। खबर का उद्देश्य क्या है यह लिखनेवाला बेहतर बता सकता है।
इसी न्यूज़ पोर्टल पर पढ़ते हैं, ‘मर्दों को चाहिए ऐसा सेक्स’ और ऐसी राज खोलती ऐसी खबरों के अलावा जो बातें मायनेखेज है वह है ‘हॉटेस्ट सेक्स वेरिएशंस’ की।यानी जिस बात को आम जनता नहीं जानती उसे जागरूकता के नाम दिखाने और पढ़ाने से न्यूज़ पोर्टल पीछे नहीं दीखते। एक्सपेरिमेंटल सेक्स के नाम पर ‘किसी पब्लिक प्लेस में साथी के साथ सेक्स का आनंद लेने’ के लिए ‘सारी दीवारें लांघ जाइए’ जैसी नसीहत देते आलेख विस्मित ही नहीं अचंभित करते हैं। इस मामले में बीबीसी हिंदी भी पीछे नहीं है। ऐसी खबरों की जनोपयोगिता कोई बताये– शीर्षक पढ़िए ‘आख़िर कोई इंसान पशु से सेक्स क्यों करना चाहता है’। बीबीसी न्यूज़ हिंदी के यूट्यूब चैनल पर एक 4 मिनट से कुछ ज्यादा समयावधि की एक फिल्म बताती है कि ‘Sexual Pleasure के लिए महिलाओं के साथ यहां क्या-क्या होता है?’– यौनिक सुख से जुडी हुई कुछ प्रैक्टिस के बारे में विस्तार देती यह फिल्म औरतों की फंतासी का माध्यम जरूर है।
यह सच है कि न्यूज़ पोर्टल की इस भाषा के साथ अपने पाठक बटोरने की अदम्य लालसा और अन्य न्यूज़ पोर्टल से जोर आजमाईश के मंसूबे भी हैं तो झाग पैदा करने की तिकड़मों की तलाश में डूबे स्टोरी राइटर का पूरा कुनबा है जो ‘विराट कथाएं’ लिखे जाने के लिए विवश किये जाते हैं। इन खबरों की भाषा के रूपक और मुहावरे एक ख़ास वर्ग की आकांक्षाओं को व्यक्त करते आए हैं जिस वर्ग के पूर्वज मस्तराम छुप-छुपकर पढ़ते थे। सवाल है कि क्या महज व्यूज बटोरने के मकसद से खबरों की दुनिया का ऐसा तिलिस्म गढ़ा जाता है या दुनिया में खुली सोच के नाम पर अब ऐसे प्रोडक्ट्स की जरुरत सच में तेज़ी से महसूस की जा रही है ?
यदि गंभीरता की बात की जाए तो यह खबर अपने आप में महत्त्वपूर्ण जरूर है कि ‘Donald Trump की नीतियों के चलते इन African Women को Condoms नहीं मिल रहे’– इस वजह से अफ़्रीकी मुल्कों में 40 फीसदी गर्भपात की घटनाओं में इजाफा दर्ज किया गया है। लेकिन अमरीकी नीति से अलग चटपटी खबरों को तरजीह देता ‘वेबदुनिया’ नामक एक बेहद पुराने न्यूज़ पोर्टल ने अपने पाठकों को इस बात का महत्त्व समझाया कि कैसे ‘सेक्स कर रहे जोड़े की हेलिकॉप्टर से बनाई फ़िल्म’– कब, कहाँ और किसने। लेकिन ‘न्यूज़ हंट’ की दी गयी जानकारी कितनी महत्वपूर्ण है कि ‘कौनसा कंडोम बढ़ाएगा आपकी सेक्स लाइफ का मजा, जानें यह महत्वपूर्ण जानकारी’ और आजतक न्यूज़ पोर्टल की खबर देखिये ‘सेक्स करते वक्त मजा आए और सेफ भी रहें। इसके लिए एक नई किस्म का कंडोम तैयार किया गया है। वैज्ञानिकों ने इसे ‘इलेक्ट्रिक ईल’ का नाम दिया है।” ध्यान रहे, भारत एक मात्रा ऐसा देश है जहाँ सरकार की परिवार नियोजन की नीतियों के मुताबिक कंडोम के विज्ञापन के तर्ज और तासीर बदलते रहे हैं। लेकिन खबरों को लेकर किसी तरह की भाषा पर नियंत्रण की बात अभी तक भारत में सामने नहीं आयी है।
ऐसी खबरों का मकसद तलाशना और समझना जरूरी है। क्या इनका उद्देश्य महज मनोरंजन है ? या किसी तरह की शिक्षा है या किसी तरह की सूचना है जो जनमानस को जागरूक करे ? यदि हाँ तो न्यूज़18 न्यूज़ पोर्टल की इन खबरों से मनोरंजन-शिक्षा या सूचना का कौन सा आयाम झलक रहा है। शीर्षक है, ‘दुनिया की सबसे सेक्सी डॉक्टर, जिनसे इलाज कराने के लिए लाखों लोग जानबूझ कर पड़ते हैं बीमार’, ‘मशहूर प्लेबॉय ने 6000 महिलाओं के साथ किया सेक्स, यही बना मौत का कारण’, ‘थाईलैंड के राजा ने अपने कुत्ते को बनाया एयरफ़ोर्स चीफ, 20 सेक्स सोल्जर्स के साथ कर रहा ऐश’,’गाड़ी चुराकर भाग रहा था चोर, मालिक ने न्यूड हालत में ही लगा दी दौड़’ और ‘सेक्स के दौरान बेकाबू युवक ने किया कुछ ऐसा कि कोर्ट ने सुना दी सजा’।
सोशल मीडिया पर इन खबरों की लोकप्रियता देखिये। इन्हें हजारों नहीं बल्कि लाखों लोगों ने पढ़ा, इनका लुत्फ़ उठाया। और एक दिन में कई-कई बार ऐसे न्यूज़ पोर्टल पर जिज्ञासु पाठक जाकर ऐसी ही किसी नयी खबर की तलाश करता रहता है। एमेच्योर नवभारत टाइम्स रायपुर छत्तीसगढ़ जैसे पोर्टल पर उसकी ख़ास नज़र रहती है जहाँ खबर-फीचर के नाम पर पूरा का पूरा पोर्न साइट फल-फूल रहा है। लेकिन इसकी सुधि लेनेवाला, इसपर हंगामा मचानेवाला और अपने संज्ञान में लेकर कार्यवाई किये जाने की पहल कोई नहीं करता। तो क्या यह पीढ़ियों का अंतर का नतीजा है ? जिसे हम जेनरेशन गैप कहते हैं, जिसके नाम पर खुलापन आ रहा है और खुलेपन के नाम पर बेशर्मी की तमाम हदें पार करना जैसे जरूरी समझा जा रहा है? अन्यथा ऐसी खबरें भला कहाँ पढ़ने को मिलतीं थीं। 1980 का दशक वह दौर था जब पीली पन्नी साहित्य अपने जोरों पर था और रेलवे स्टेशनों और बस अड्डों पर जमकर बिका करता था। पटरी छाप साहित्य के संबोधन के साथ पीली पन्नियों में बिकता साहित्य चोर नज़रों से खरीदे जाने का लिहाज था। पीली पन्नी एक मुहावरा बन चुका था और ग्राहक को यही साहित्य अखबार में लपेट कर दिए जाने का रिवाज था। अब पटरी पर पीली पन्नियों का साहित्य बिकता नहीं दिखता। यही साहित्य न्यूज़ पोर्टल पर चमकने लगा है।
इस पीढ़ी को पता नहीं कि पीली पन्नियों के साहित्य का हीरो कौन था, जैसे आज पता नहीं कि न्यूज़ 18, बीबीसी हिंदी या वेब दुनिया से लेकर नवभारत टाइम्स के न्यूज़ पोर्टल के लिए खबरें लिखने वाले नर हैं या मादा हैं, लेकिन जो भी हैं वह महज एक मोहरा हैं। ठीक वैसे ही पीली पन्नियों के साहित्य का रचयिता कालजयी नहीं होकर भी खूब पढ़ा जाता था। अकसर सिनेमा तक सब की पहुंच में नहीं होने के चलते पीली पन्नी की किताबें ही मसाले का असली औजार हुआ करती थीं। इसी दुनिया में एक नाम था मस्तराम, जिसे खुलेआम कभी नहीं पढ़ा गया। लेकिन वह बंद कमरों, बाथरूम, बेडरूम और यारो-दोस्तों की टोलियों का हिट नाम था। मस्तराम के पात्र और उसकी कहानियों पर गौर कीजिये। अपनी पड़ोसन, दूध वाली और अपनी बीवी को अपनी बोल्ड कहानियों की पात्र बनाकर एक से एक कहानियां जिस अंदाज में परोसी गयीं,उन सबका बखान करने वाली पीढ़ी अब अधेड़ हो चुकी है और कुछ गुजर चुकी है। लेकिन अब इन खबरों के साथ मस्तराम की उन कहानियों की तुलना कीजिये।
उस दौर को याद किया जाना जरूरी है जब पंजाब केसरी जैसे अखबार मुखपृष्ठ पर फ़िल्मी दुनिया की तारिकाओं की तस्वीरें छापकर भले ही उसने अपना एक विशाल पाठक वर्ग तैयार किया था लेकिन यह वर्ग-विशेष था। उस वर्ग-विशेष के अलावा बाकी अखबारों की दुनिया थी। प्रिंट की उस दुनिया में पत्रकारिता में खबरों का जो तयशुदा दायरा था उसमें जिस तरह की सुकुमारता थी वहां सेक्स को लेकर कहीं कोई प्रत्यक्ष इच्छा की अभिव्यंजना नहीं थी। उस दायरे को तोड़ पाने का जोश-जज्बा किसी के पास नहीं था और तकनीक के सीमित होने के चलते तमाम इच्छाएं दमित हो जातीं थी। लेकिन मौजूदा दौर में तमाम न्यूज़ पोर्टल अश्लीलता को तरजीह इस वजह से देने को मजबूर हैं क्योंकि दर्शकों का एक बड़ा हिस्सा गर्म-मसालेदार खबरों को पागलपन की हद पारकर पढ़ना चाहता है। यानी अश्लीलता से भरे प्रसंगों को खबरों की शक्ल दे कर परोसे जाने की वजह से अब पत्रकारिता की एक नयी संस्कृति विकसित हुई है जो किसी न्यूज़ पोर्टल को ज़िंदा रखे जाने के लिए मकरध्वज है। याद होगा साल 2016 में बिना किसी जांच-पड़ताल के कतर की राजकुमारी के सेक्स वाली खबर बेहद प्रमुखता से भास्कर के अंग्रेजी अखबार डीबी पोस्ट के अलावा जनसत्ता, अमर उजाला, इंडिया संवाद, भोपाल समाचार ने प्रकाशित की थी। बाद में इन अखबारों को इस वजह से माफी मांगनी पड़ी क्योंकि खबर झूठी थी।
व्यक्तिगत मामलों का गलत होना संभव है लेकिन सनसनीखेज खबरें जिसमें कोई नाम या पात्र नहीं रहता तो खबर झूठी होकर भी क्षमा या खंडन के दायरे से दूर रहतीं हैं। सवाल है कि ऐसी सूचनाएं खबर कहलाने के लायक होतीं हैं ? या महज शीर्षकों का खेल रहता है। ‘लॉस्ट गर्ल’ नामक एक उत्तेजक-अश्लील उपन्यास में इसके रचयिता एलन मूर ने लिखा है, ‘किताबों को शीर्षक की जरुरत होती है उन्हें पढ़ने की नहीं’– मूर ने ऐसा व्यंग्य में लिखा था। उनका इशारा उसी सनसनी मचा देनेवाली इरादों को लेकर है जिसे न्यूज़ 18 से लेकर एक से एक नामधारी न्यूज़ पोर्टल उत्तेजक शब्दों के साथ सामने रख रहे हैं। मूर आगे लिखते हैं कि ‘शीर्षक ही सब कुछ होता है’। उनके मुताबिक़ असली मेहनत टाइटल में की जाए तो पाठक उसे पढ़ने के लिए बाध्य हो जाते हैं। पाब्लो पिकासो की बातों का उल्लेख करते हुए लेखक अमित अब्राहम सहमत दीखते हैं कि ‘आपको पता होता है कि कैसे और कहाँ अश्लील होना है। उसके मुताबिक़ आप इन चार अक्षरों वाले शब्द को अपना रंग दे डालते हैं।’ सच है आज की तारिख में ये न्यूज़ पोर्टल शब्दों को रंग देने का ही काम बखूबी कर रहे हैं।
मौजूदा दौर में भारत में भी न्यूज़ पोर्टल ने अपनी खबरों के शीर्षक के बहाने पत्रकारिता को मसालेदार बनाया है। पहले फिल्में मसालेदार होती थीं लेकिन मीडिया में ऐसा प्रचलन न के बराबर था। कुछ पत्रिकाओं की बातें दरकिनार कर दी जाएँ तो ड्राइंग रूम पत्रिकाएं प्रचलन में थीं, जो लोकप्रियता के तमाम मानकों, पारिवारिक आदर्शों और परिवार में अनेक रिश्तों के लिहाज की सीमाओं को ध्यान में रखकर छापी जातीं थीं। लेकिन वह दौर इतिहास बन चुका है और नयी पीढ़ी के सामने नए तरह की पत्रकारिता है। अन्यथा ये तमाम शीर्षक न सिर्फ चौंकाते हैं बल्कि सोचने को मजबूर करते हैं कि आखिरकार खबरों का भविष्य क्या है। किस लाचारी में, किस नीयत से अमर उजाला ने इस खबर को जगह देना मुनासिब समझा– मसलन ‘हवस मिटाने के लिए मुर्गी से सेक्स’– यह खबर कीनिया के किगवांडी गांव में रहने वाले 40 वर्षीय पॉल नदेरितु की है। जनसत्ता की चिंता देखिये ‘सेक्सी बाला सनी लियोन ने क्यों लिया मिल्क बाथ’ और करण जौहर का खुलासा ‘पैसे देकर सेक्स किया था’– क्या सच में ये सब की सब खबरें हैं ?
बीसवीं सदी के महान विज्ञापन पंडित डेविड ओगिल्वी ने कहीं कहा था कि ‘हम चार बार शीर्षक पढ़ते हैं और एक बार उस शीर्षक के नीचे विस्तार से लिखे खबर पढ़ते हैं।’ यही कारण है कि आज की खबरें विज्ञापन के लहजे में लिखी जा रहीं हैं। टीवी पत्रकारिता से लम्बे समय से जुड़े रहे कमर वहीद नक़वी कहते हैं कि ‘आज पत्रकारिता नहीं है बल्कि सब जन-संपर्क है’। बेशक, जब से सोशल मीडिया का प्रचलन बढ़ा है तब से सब कुछ खोलकर रख देने की चाहत भी जोर पकड़ती जा रही है। हद तो तब हो जाती है जब समाज की जुगुप्सा और लिजलिजी घटनाओं को भारत के न्यूज़ पोर्टल में छापने के पीछे समाचार सम्पादक पीछे नहीं हटते। यह चिंता की बात है कि हाल के वर्षों में सोशल मीडिया में एक से एक शीर्षकों ने सनसनी मचा दी है, जो गुदगुदाती हैं और बार बार पढ़े जाने को विवश करतीं हैं। आज किसी पोस्ट को तभी सार्थक-सफल और सिद्ध माना जाता है जहाँ टाइटल/हैडिंग या मुखड़ा में ऐसा जरूर कुछ हो जो द्विअर्थी भले हो लेकिन लोगों को अपनी ओर आकर्षित जरूर करता हो। सोशल मीडिया ने तमाम तरह की सीमाओं-मानकों और मान्यताओं को दरकिनार किया है। उसने समाज की सोच-उसकी परंपरा और किसी हद तक उन वर्जनाओं को ख़त्म किया है जिनसे कुंठाएं जन्म लेतीं थीं। लेकिन सवाल यह भी उठता है क्या वह दौर भला था या आज की गुदगुदाने वाली पत्रकारिता लोगों का भला कर रहीं हैं।
न्यूज़ 18 में छपी इस खबर ‘शादीशुदा शिक्षिका ने 15 वर्षीय छात्र से किया सेक्स, कहा- मैं गर्भवती हो गई’ की कुछ पंक्तियाँ पढ़िए, “…. एक बार उसने लड़के को लिख भेजा कि वह स्नान कर रही है और क्या वह उस समय उससे मिलना चाहता है. इसके बाद शिक्षिका कैंडिस बार्बर ने उसे अपनी गाड़ी से लिया और एक खेत में ले जाकर सेक्स किया. इससे पहले वह स्नैपचैट पर उसे अपनी एक नंगी तस्वीर भेज चुकी थी।” खबरों से इतर सेक्स से सवाल-जवाब देखिये, ‘क्या संभोग करने से किसी महिला का शरीर फूल जाता है?’ क्या ऐसे सवाल आम ज़िन्दगी से जुड़े सवाल हैं ? इसमें जिज्ञासा कितनी है और चटपटापन कितना है, यह खुद तय करने की बात है। बेशक न्यूज़ पोर्टल ने इस मामले में हर तरह की सनसनी-उत्तेजना-बेहूदगी को पीछे छोड़ दिया है। बीबीसी हिंदी के कुछ शीर्षक पर इस बेहूदगी का रंग देखिये, ‘बटन दबाने भर से चरम सुख’, ‘ पैच बढ़ा सकता है सेक्स की चाहत’ और ‘असली मर्द की पहचान क्या है?’
आज के इस दौर में जब बड़ी से बड़ी नामचीन साहित्यिक पत्रिकाएं धूल भरे इतिहास के संदूक में दबा दी गयीं हैं, ऐसे में अब न्यूज़ पोर्टल ही ज्ञान और मनोरंजन का सहारा साबित किये जाने की ज़िद्द है तो इस अंधे युग में चुपचाप सब कुछ सह लेने के सिवाय उपाय क्या है ? एक ही स्क्रीन पर बिना किसी से नजरें चुराए मस्तराम का साहित्य खबरों की आड़ में फ़ोन स्क्रीन पर उपलब्ध है तो उसे क्यों न पढ़ा जाए। यह निजी स्वतंत्रता का मसला है। जिस स्वतंत्रता को पाठक भी जानता है और तमाम न्यूज़ पोर्टल भी। अश्लीलता और उसके सार्वजनिक होने की स्थिति पर ‘विकेड लवली’ उपन्यास की लेखिका जेस. सी. स्कॉट ने ठीक लिखा है ‘मैं खुद को जानवर होने जैसा महसूस करती हूँ। जानवरों को पता नहीं कि पाप और अच्छाई का मतलब क्या है।’ इन न्यूज़ पोर्टल को भी पता नहीं कि समाज की सेहत के लिए कौन सा मुद्दा मुफीद है।