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साहित्य

महाब्राह्मण!

अशोक कुमार पाण्डेय-

पिछली डेढ़ रातें त्रिलोक नाथ पांडेय जी का उपन्यास ‘महाब्राह्मण’ को दीं। किसी उपन्यास की पहली सफलता तो ख़ुद को पढ़वा ले जाना है और इस रूप में तो उपन्यास सफल है।

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असल में शुरुआत तो बेहद गझिन है और उम्मीद जगाती है। ब्राह्मणों के बीच अंत्येष्टिकर्म करने वाली उपजाति ‘महाब्राह्मण’ के नायक के संघर्ष और सामाजिक स्थितियों का विशद वर्णन बांधता है। लेकिन उपन्यास जैसे जैसे आगे बढ़ता है, ऐसा लगता है कि सुर साधे रखना लेखक के लिए मुश्किल हो रहा है। सहज गति से अंत तक जाने की जगह अचानक जैसे लेखक जल्दी-जल्दी पहले से तय अंजाम तक उपन्यास को पहुँचाने के लिए बेचैन हो जाता है। मद्धम सुर में चलता उपन्यास हिचकोले लेने लगता है और फिर रुकता है तो पाठक असंतुष्ट सा रह जाता है।

हाँ एक चीज़ ज़रूर इसमें साफ़ दिखती है- लेखक का गंभीर और विशद शोध तथा जीवनानुभव। इसीलिए कोई घटना नक़ली नहीं लगती। कोई हिस्सा थोपा हुआ नहीं लगता। पाठक ठगा हुआ महसूस नहीं करता। इसीलिए इसे पढ़ा जाना चाहिए, पढ़ा जा सकता है।

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