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कसम से पत्रकारिता के नाम पर इससे भद्दा मजाक और कुछ नहीं हो सकता!

आभा शुक्ला-

ये दैनिक जागरण, अमर उजाला, राष्ट्रीय सहारा, हिंदुस्तान आदि हिंदी के अखबार ग्रामीण क्षेत्रों और कस्बों में जो सोकाल्ड पत्रकार बनाते हैं, कसम से पत्रकारिता के नाम पर उनसे भद्दा मज़ाक और कुछ नहीं होता.

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हमारे गांव के भी एक पत्रकार महोदय हैं एक हिंदी अखबार में. BA पास थे जैसे तैसे. बचपन से जवानी तक बस घर की 4 भैंसों का गोबर उठाना और दूध दुहन करना उनका कैरियर था. कुछ समय पहले पता चला कि अब दूध और गोबर छोड़कर वो एक प्रतिष्ठित हिंदी अख़बार में क्षेत्रीय पत्रकार हो गए हैं. मोटर साइकिल पर प्रेस भी लिखवा लिए हैं लाल रंग से. एक 50 रुपैया का रंगीन चश्मा भी खरीद लिए हैं और अब वो देश के चौथे खंभे हो गए हैं.

हिंदी अखबारों के छोटे कस्बों और ग्रामीण इलाकों के इन सोकोल्ड पत्रकार बाबुओं का काम सिर्फ लोकल थाने और चौकी की दलाली होता है. जहां झगड़ा होता है, पहुंच जाते हैं.

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दीवान जी से सेटिंग बढ़िया रखते हैं. दोनों पक्षों से कुछ लक्ष्मी जेब में करते हैं. और अपनी प्रेस लिखी फटफटिया पर सवार होकर देशी ठेके से होते हुए घर को निकल जाते हैं.

बड़ा खराब लगता है पत्रकार के नाम पर पत्रकारिता की ऐसी दुर्गति देखकर. क्या ही कहूं….

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