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सुख-दुख

स्मृति शेष : अलविदा ज़फ़र आग़ा साहब!

अमरीक-

मुख्यधारा के वरिष्ठ पत्रकार ज़फ़र आग़ा नहीं रहे। फासीवादी ताकतों की आहट बारीकी से सुनने वाली एक और सशक्त क़लम ख़ामोश हो गई। कोई पांच साल पहले वरिष्ठ पत्रकार दिवाकर जी के सौजन्य से नवजीवन/नेशनल हेराल्ड/क़ौमी आवाज़ से जुड़ा तो; पहले यदा-कदा और फ़िर अक़्सर आग़ा साहब से बात होती रहती थी। हर बार स्नेह की गहराई छांह मिली। लंबे अनुभव वाला मार्गदर्शन भी।

कोरोना ने उन्हें दो बार दबोचा। उनकी बेगम की जान भी कोरोना से गई। तमाम शारीरिक संकट के बावजूद इन दिनों वह अपनी किताब पर काम कर रहे थे। मैं लीवर की गंभीर बीमारी का शिकार हुआ तो उनका फ़ोन अक़्सर आता था। एक बार उन्होंने कहा कि मैं तुम्हारे लिए पितातुल्य हूं, तो देर तक मेरी आंखों में आंसू रहे।

वह देश और पंजाब की राजनीति की बाबत लंबी बातचीत किया करते थे। तक़रीबन हर बार कहते, थोड़ा ठीक होने पर पंजाब यात्रा करनी है। मेरी कई रपटें और आलेख उन्होंने नेशनल हेराल्ड के साथ-साथ अनुवाद करवाकर (उर्दू) क़ौमी आवाज़ में प्रकाशित किए।

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पंजाब के अतिरिक्त कश्मीर पर भी ख़ूब लिखवाया। उनका वामपक्षीय, प्रगतिशील और जनवादी झुकाव जगजाहिर था। वह निर्भीक, निष्पक्ष, बुद्धिजीवी-पत्रकार/संपादक की बतौर अलहदा पहचान रखते थे। उनका पत्रकारीय सफ़र अंग्रेजी साप्ताहिक ‘द लिंक’ से 1978 में शुरू हुआ था। उसके बाद वह ‘इंडिया टुडे’ और ‘पॉलीटिकल एंड इकोनामिक ऑब्जर्वर’ का हिस्सा भी रहे। शिक्षा इलाहाबाद से हासिल की।

उनकी चेतना और चिंतन में हिंदू राष्ट्रवाद के आसन्न ख़तरे शुमार थे तो मुस्लिम/अल्पसंख्यक कट्टरपंथ का गहन विश्लेषण भी। किसी क़िताब का जिक्र करता तो कहते कि क़िताब, लेखक और प्रकाशक का नाम व्हाट्सएप कर दो। उनसे आख़िरी बातचीत एक अंग्रेज़ी क़िताब के हिंदी अनुवाद के सिलसिले में हुई थी। उस किताब का मूल संस्करण उपलब्ध नहीं था। उसके बाद तीन-चार फ़ोन कॉल कीं लेकिन पिक नहीं हुईं। मन में आशंका आ गई कि उनकी तबीयत बेहतर नहीं है। सोचता था कि किसी से खैरियत की ख़बर लूं। लेकिन…! अलविदा आग़ा साहब!!

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