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उत्तर प्रदेश

यूपी के सैकड़ों महाभ्रष्ट अफसरों पर सीएम योगी की टेढ़ी नजर, डेडलाइन जनवरी 31 जनवरी 2018

अजय कुमार, लखनऊ

नेताओं के बाद अगर किसी का भ्रष्टाचार सबसे अधिक जनता की नजरों में खटकता है तो निसंदेह उसमें ब्यूरोक्रेट्स का नाम सबसे ऊपर आता है। नेता तो फिर भी आते-जाते रहते हैं, भ्रष्ट नेताओं को सत्ता से उखाड़ फेंकने का रास्ता भी जनता के पास मौजूद होता है, लेकिन भ्रष्ट नौकरशाहों के सामने किसी की नहीं चलती है।

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यह अपने पूरे सेवाकाल में दश को तक दीमक की तरह देश/प्रदेश  को खोखला करते रहते हैं। कुछ भ्रष्ट नौकरशाह भले ही जेल की सलाखों के पीछे पहुंच गये हों,लेकिन ऐसे ब्यूरोक्रेट्स की संख्या अधिक है जो भ्रष्टाचार करने के बाद भी कानून के शिकंजे में मजबूती के साथ नहीं कसे गये जाते।

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कई बार तो ऐसे भ्रष्ट अधिकारियों के सामने सरकारें भी बौनी नजर आने लगती है। अभी तक का अनुभव तो यही कहता है कि सरकार चाहें जितनी भी ताकतवर क्यों न हो ब्यूरोक्रेसी के सामने उसकी एक नहीं चलती हैं, लेकिन लगता है कि योगी राज में हालात कुछ बदल सकते हैं।

केन्द्र की मोदी सरकार भ्रष्टाचार पर  ‘जीरो टालरेंस’ की बात करती है तो इससे योगी सरकार को भी बूस्टर मिल रहा है।  योगी के सीएम बनते ही यह लगभग तय हो गया था कि  केंद्र सरकार की तरह योगी सरकार भी प्रदेश के भ्रष्ट अफसरों पर शिकंजा कसने जा रही है, लेकिन योगी सरकार के लिये यह भी काम पूर्ववर्ती सरकारों की तरह चुनौतीपूर्ण नजर आ रहा है।

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यह स्थिति तब है जबकि करीब 100 के करीब आईएएस, आईपीएस, पीसीएस और पीपीएस अफसरों के खिलाफ विजिलेंस जांच के घेरे में हैं। कई अफसर ऐसे हैं जिनके खिलाफ पूर्व में विजिलेंस से कार्रवाई और जांच की सिफारिश की गई थी लेकिन उन्हें शासन में दबा दिया गया। वहीं कई ऐसे अफसरों के नाम हैं जिनके खिलाफ कार्रवाई की सिफारिश शासन में लंबे समय से लंबित है।

इन सैकड़ा भर अफसरों की लिस्ट में अकेले 54 आईएएस और 22 आईपीएस अधिकारी शामिल हैं। इनके खिलाफ करोड़ों की हेराफेरी, आय से अधिक संपत्ति, ठेकेदार, माफियाओं के इशारे पर अवैध खनन कराने, विकास के नाम पर करोड़ों के घोटाले, धन लेकर सीमा से अधिक शस्त्र लाइसेंस बांटने, भू-माफियाओं के साथ मिलकर जमीन कब्जाने, कोयला माफिया और अफसरों से मिलीभगत कर कोयला चोरी कराने, मिड डे मील में घोटाले, पैसे लेकर भर्तियां कराने जैसे गंभीर आरोप हैं। इनमें से कई अफसर वर्तमान सरकार में अहम विभागों में तैनात हैं।

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आईएएस के अलावा 22 आईपीएस, 16 पीसीएस और 6 पीपीएस अधिकारी भी जांच के दायरे में बताये जाते हैं। ब्यूरोक्रेसी में भ्रष्टाचार रोकने के लिये सरकार ने अधिकारियों की सम्पति का ब्योरा जुटाने का निर्णय लिया था,ताकि अधिकारियों द्वारा भ्रष्ट तरीके से कमाई गई सम्पत्ति के बारे में पता चल सके, लेकिन तमाम अधिकारियों ने अपनी सम्पति का ब्योरा सरकार को नहीं सौंपा।

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योगी सरकार ने अब इस पर सख्त रवैया अख्तियार करते हुए आईएएस अधिकारियों से कहा है कि वे अगला महीना खत्म होने से पहले यानी 31 जनवरी 2018 तक अपनी संपत्ति का ब्योरा जमा करा दें। ऐसा न करने वाले अधिकारियों के प्रमोशन या उनकी विदेश में पोस्टिंग  पर विचार नहीं किया जाएगा। योगी  सरकार ने अधिकारियों के लिये सम्पति का ब्योरा देने के लिये समय सीमा निर्धारित करके का जो कदम उठाया है,वह सराहनीय है।

अब देखना यह होगा कि योगी सरकार की सख्ती का असर क्या होता है। ऐसा लगता है कि योगी सरकार ने सम्पति का ब्योरा जुटाने के लिये प्रमोशन और विदेशी पोस्टिंग रोकने का फैसला लेकर अधिकारियों की दुखती रग पर हाथ रख दिया है। प्रमोशन और फॉरेन पोस्टिंग में आईएएस अधिकारियों की हमेशा दिलचस्पी रहती है,लेकिन लाख टके का सवाल यही है कि अगर सम्पति का ब्योरा देकर किसी अधिकारी के फंसने की आशंका होगी तो वह ोगी की शर्तो को मानने को क्यों तैयार होंगेे ? दूसरी बात, जो अधिकारी ब्योरा देंगे भी, उनका ब्योरा कितना सही या गलत है, यह जांचना भी आसान नहीं होगा,क्योकि योगी सरकार के निर्देश इस बारे में कुछ नहीं कहते हैं।

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इस बात से तो कोई भी इंकार नहीं कर सकता कि अधिकारियों पर लगाम लगाना आसान नहीं है, लेकिन भ्रष्ट अधिकारियों से लड़ने के लिए अफसरशाही को प्रेरित करने का सबसे अच्छा तरीका यह था कि राजनीतिक नेतृत्व इस तरह की बंदिशें खुद पर लागू करके उसके सामने मिसाल पेश करता। जाहिर है, खुद को पारदर्शिता के दायरे में लाने को लेकर राजनीतिक नेतृत्व की कोई दिलचस्पी नहीं है। बावजूद इसके, संपत्ति के खुलासे से नौकरशाही के भ्रष्टाचार पर जितनी भी लगाम लग सके, उसका स्वागत किया जाना चाहिए।

भ्रष्ट अधिकारियों पर लगाम लगाने की जरूरत यूं ही नहीं पड़ी है। पिछले कई दशकों से ब्यूरोक्रेट्स का भ्रष्टाचार सुर्खिंया बटोर रहा था। यूपी की पूर्व मुख्य सचिव नीरा यादव और प्रमुख सचिव नियुक्ति राजीव कुमार को सुप्रीम कोर्ट ने भ्रष्टाचार का दोषी मानते हुए दो साल की सजा सुना चुकी है। इन दोनों को सजा मिलने के बाद भ्रष्ट आईएएस अफसरों की दिलों की धड़कन बढ़ना लाजमी भी है।

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मिली जानकारी के अनुसार उत्तर प्रदेश के तमाम भ्रष्ट अफसरों का ब्यौरा मुख्यमंत्री कार्यालय द्वारा स्वयं भी मंगवा लिया गया है। ये वो अफसर हैं, जिनके खिलाफ बड़े-बड़े मामले होने के बाद भी शासन की तरफ से अभियोजन की स्वीकृति नहीं दी जा रही थी। वैसे नीरा यादव और राजीव कुमार के भ्रष्ट होने का यह पहला मामला नहीं था। यूपी में ब्यूरोक्रेसी पर भ्रष्टाचार के दाग कई बार लग चुके हैं. इतना ही नहीं कई अफसर तो जेल और बेल का खेल भी खेल चुके हैं।

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नीरा यादव और राजीव कुमार की तरह ही 1967 बैच के आईएएस अधिकारी और यूपी के मुख्य सचिव रह चुके अखंड प्रताप सिंह यूपी के भ्रष्ट अधिकारियों की सूची में शामिल थे। बीज घोटाले में आय से अधिक सम्पत्ति मामले में वे जेल की हवा भी खा चुके हैं। 1981 बैच के आईएएस टॉपर प्रदीप शुक्ला एनआरएचएम घोटाले के मुख्य आरोपियों में से एक हैं. फिलहाल मामले की जांच सीबीआई के पास है। जेल जाने के बाद अभी वे जमानत पर बाहर हैं। 1984 बैच के टॉपर ललित वर्मा का नाम भी  भ्रष्ट अधिकारियों में शामिल रहा है. इन पर यूपीएससी की गोपनीय फाइल में उम्र में हेराफेरी का आरोप लगा था। सीबीआई ने मामले में चार्चशीट दाखिल की थी, जिसे हाईकोर्ट ने खारिज कर दिया।

2000 बैच की आईएएस के धनलक्ष्मी के निवास से सीबीआई ने करीब सवा तीन करोड़ रूपये की संपत्ति के दस्तावेज जब्त किए थे। इनके ऊपर आय से अधिक संपत्ति का मामला दर्ज है। आईएएस सदाकांत को लेह में सड़क निर्माण की गलत तरीके से मंजूरी देने के बाद केंद्र  रिलीव कर दिया था. देहरादून में सदाकांत के खिलाफ मुकदमा भी दर्ज हुआ था। 1971 बैच के आईएएस बलजीत सिंह लाली  पर प्रसार भारती का सीईओ रहते हुए भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगे. इस मामले में सीवीसी जांच भी हुई थी।

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आईएएस संजीव सरन पर भी भ्रष्टाचार के आरोप लगे। नोएडा में तैनाती के दौरान इन्होंने किसानों की जमीन औने-पौने दाम पर बिल्डरों को बेच दी थी। सरन के हाईकोर्ट के आदेश के बाद हटा दिया गया था। बहरहाल, बार-बार की चेतावनी के बाद भी जो नौकरशाह अपनी सम्पति का ब्योरा सरकार को नहीं सौंप रहे हैं, वह अनायास की संदेह के घेरे में फंसते जा रहे हैं। सवाल यही उठ रहा है कि अगर सम्पति ईमानदारी से कमाई गई तो उसकी घोषणा करने में हिचक किस बात की हो सकती है। अगर कोई अधिकारी अपनी सम्पति का ब्योरा नहीं देता है तो उसकी नियत पर तो सवाल उठेंगे ही, जिसे किसी भी सूरत में जायज नहीं ठहराया जा सकता है।

लेखक अजय कुमार लखनऊ के वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार हैं.

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