Connect with us

Hi, what are you looking for?

साहित्य

जितना पढ़ता हूँ उतना लगता है कि कितना कुछ पढ़ना बाकी रह गया है!

जे. सुशील-

जितना पढ़ता हूं उतना ही ये और समझ में आता है कि कितना कुछ बाकी रह गया है. मारकेज़ को पढ़ा और समझा तो समझ में आया कि काफ्का को पढ़ना रह गया है और फॉकनर भी रह गए हैं.

Advertisement. Scroll to continue reading.

क्लासो को पढ़ रहा हूं तो लग रहा है कि वेद पुराण तो रह ही गया पढ़ने को ठीक से साथ में Baudilaire भी नहीं पढ़ पाए हैं अभी तक. बाल्जाक का नाम सुनता हूं तो याद आता है कि लैटिन अमरीका से रॉबर्टो बोलानो का कुछ भी नहीं पढ़ पाया हूं. मारियो वर्गास लोसा अलग ही नाराज़ हैं कि तुमने आंट जूलिया एंड द स्क्रिप्टराइट के बाद अब जाकर मेरी द स्टोरीटेलर पढी है.

बीच में इटेलो काल्विनो के लेख पढ़ता हूं तो दिमाग में घंटी बजती है कि आपने उम्बर्तो इको की बस एक किताब पढ़ी है नाम भले दस के सुने हों. इतना सोचते सोचते समझ में आता है कि अमरीका आने के बावजूद आपने फिलिप रॉथ की रैबिट ट्रायलॉजी के अलावा कुछ नहीं पढ़ा है जबकि पढ़ने के लिए स्टेनबैक से लेकर जॉन अपडाइक भी बाकी है.

Advertisement. Scroll to continue reading.

सामने रखी पामुक की किताब कहती है कि तुमने नायेव एंड सेंटिमेंटल नॉवेलिस्ट के बाद उसका भी कुछ नहीं पढ़ा है. पामुक के लेखों में से एक लेख बताता है कि कैसे उन्होंने अपनी लाइब्रेरी की किताबें खाली की हैं. वो कहते हैं कि असल में दस या बीस ही किताबें होती हैं जो आप पढ़ते हैं….मतलब जीते हैं…बाकी पढ़ा दिमाग से निकल जाता है..वो दस किताबें ही लेकर आप भागते हैं जब आपके घर में आग लगती है. अमोस ओज़ को देख नहीं पाया हूं अभी तक ये अलग ही दुख है.

आग से अफ्रीका की याद आई और आज चिनुआ अचेबे कई घंटों तक याद आते रहे. दस किताबें लेकर चलने से ये भी याद आया कि मैं अमरीका आते वक्त हिंदी की सिर्फ दो किताबें लेकर आया था……अतिरिक्त नहीं और नौकर की कमीज़.

Advertisement. Scroll to continue reading.

इसके अलावा पेसोआ, क्लासो, काफ्का, रमन महर्षि और प्रूस्त. यहां की लाइब्रेरियों में भारतीय साहित्य की उपलब्धता कम है लेकिन और लाइब्रेरियां छान रहा हूं. देखता हूं क्या मिलता है. एक बार फिर से महाभारत, रामायण पढ़ने का मन है और साथ में होमर, गिलगमेश और डिवाइन कॉमेडी भी.

अब जीवन रहते क्या क्या पढ़ पाऊंगा पता नहीं. लेकिन जितना पढ़ रहा हूं उतना मन हो रहा है चुप हो जाने का.

Advertisement. Scroll to continue reading.

आखिरी पंक्ति लिखते हुए इस बात कि ग्लानि है कि पोएट्री ठीक से अभी तक नहीं पढ़ पाया हूं. और जब मैं कहता हूं कि पढना है मतलब यही है कि समझना है. कई चीज़ें कई बार पढ़ के भी नहीं समझ पाया हूं. मसलन मारकेज़ और विनोद कुमार शुक्ल दोनों मैजिकल रिएलिज़्म कैसे हैं और फकीर मोहन सेनापति ने मारकेज़ से सौ साल पहले कैसे मैजिकल रिएलिज्म लिख दिया था.

क्यों साहित्य को इस तरह के रिएलिज्म, फलानाइज्म में डिवाइड किया जाता है और आखिर क्यों. इसकी ज़रूरत ही क्या है.

Advertisement. Scroll to continue reading.
Click to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Advertisement

भड़ास को मेल करें : [email protected]

भड़ास के वाट्सअप ग्रुप से जुड़ें- Bhadasi_Group

Advertisement

Latest 100 भड़ास

व्हाट्सअप पर भड़ास चैनल से जुड़ें : Bhadas_Channel

वाट्सअप के भड़ासी ग्रुप के सदस्य बनें- Bhadasi_Group

भड़ास की ताकत बनें, ऐसे करें भला- Donate

Advertisement