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साहित्य

‘पहल’ मैगजीन के अंत का ऐलान

ईशमधु तलवार-

ज्ञानरंजन जी का अभी-अभी फोन आया। बताया कि “पहल” का आने वाला 125 वां अंक, आखिरी अंक होगा! सुनकर अच्छा नहीं लगा, लेकिन क्या करें! हिंदी साहित्य की इस प्रतिष्ठित पत्रिका का इस तरह अवसान होना मन को दुखी कर गया। ज्ञानजी ने बताया कि संसाधनों की भी दिक्कत नहीं थी, लेकिन स्वास्थ्य साथ नहीं दे रहा। ज्ञानजी हमेशा स्वस्थ बने रहें, यही शुभकामना।

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Subhash Rai-

‘पहल’ अब नहीं होगी। यह उसका आखिरी अंक है। ‘पहल’ का बंद हो जाना एक ऐसे वर्तमान का ठहर जाना है, जो निरंतर एक सुखद और अनवरुद्ध भविष्य की आश्वस्ति लेकर आता था। ज्ञानरंजन दद्दा के संकल्प में कोई कमी नहीं है, उनके साहस में कोई कमी नहीं है, उनका हाथ बंटाने के लिए भी अनेक विश्वस्त साथी हैं उनके पास लेकिन फिर भी उन्होंने इस प्रखर शब्द यात्रा को विराम देने का निश्चय किया है तो इसके वाजिब कारण हैं। इस अंक में उन्होंने अपनी बात रखने की कोशिश की है। हम उनसे इस बारे में कुछ भी पूछना नहीं चाहते, क्योंकि हमें पता है कि उन्होंने कई दशक पहले जिस रास्ते पर बढ़ने की पहल की थी, उससे हजार रास्ते फूटे हैं और उन पर उन्हीं के व्यक्तित्व की त्वरा और ऊर्जस्विता लेकर तमाम लोग चल पड़े हैं नयी पहल करते हुए, नये रास्ते बनाते हुए। वे सब कृतज्ञ होंगे अपने ज्योतिद्रष्टा के प्रति इस उदारता के लिए।

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कौन नहीं जानता कि ‘पहल’ ने साहित्य में कितने दीप जलाये। कितने कवि, कथाकार, उपन्यासकार, चिंतक और लेखक दिये। वे सब आज अपनी नयी राहों के अन्वेषी हैं। उनकी यात्राओं में ‘पहल’ की चिनगारी समायी हुई है। इस अर्थ में ‘पहल’ की यात्रा रुकी नहीं है, रुकेगी भी नहीं। ज्ञानरंजन दद्दा ने कभी जो दीप जलाया था, वह अनन्त काल तक जलता रहेगा, मनुष्य को मनुष्य बने रहने की प्रेरणा देता रहेगा। ज्ञान जी हमारे बीच शतवर्ष रहें, हम उसी गरमजोशी और प्रेम से उनका खयाल रखते रहें, उनकी खबर लेते रहें, मेरी यही कामना है। उनका हमारे बीच होना, एक परिवर्तनकारी युग का साथ होना, नवोन्मेष की जीवंत प्रेरणा का साथ होना है, समय का साथ होना है और समय में भविष्य का साथ होना है।

आज मेरी उनसे बात हुई। उन्होंने कहा कि पहल कभी खत्म नहीं होती। एक रास्ता बंद होता है तो दूसरा खुल जाता है। ‘मैं जो काम कर रहा था, वह कोई और करेगा।’ मुझे पूरा विश्वास है कि भविष्य के प्रति उनकी यह दृढ़ आश्वस्ति हमें आगे बढ़ने की प्रेरणा देती रहेगी। शुभमस्तु।

प्रतिक्रियाएं-

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विजय राही
अगर ऐसा हुआ तो पहल में छपना हमारा सपना ही रह जायेगा. कहीं अप्रैल फूल तो नहीं बना रहे आप. ज्ञान जी की सेहत के लिए दुआगो हूँ.

Lakshmendra Kumar Chopra
विगत 19 मार्च को आदरणीय ज्ञानरंजन जी ने फोन पर बातचीत मे मुझे यह बात बताई थी । वास्तव में ” पहल ‘” का अंक 126 नहीं आने की उनकी सूचना से गहरा दुख हुआ । उनकी आयु 85 के लगभग है उनके योगदान को हमेशा हम सब याद रखेंगे । वे हमेशा स्वस्थ रहें दीर्घायु हों ।

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Anil Karmele
ईश जी, ज्ञान जी से इस विषय में बात हुई थी, उनकी सेहत को देखते हुए यह फैसला उचित ही है, बावज़ूद इसके कि पहल की कमी बड़ी कमी होगी.

कुंदन सिद्धार्थ
दो हफ़्ते पहले ज्ञानरंजन दादा से मुलाकात के दौरान यह बात उन्होंने मुझसे कही थी, मन आहत हो गया। मैंने उनसे उनके कार्य में समुचित सहयोग की मंशा ज़ाहिर की। शनिवार और रविवार को मेरी छुट्टी रहती है। सप्ताह के पूरे दो दिन ‘पहल’ को देने के लिए मैं व्यक्तिगत रूप से तैयार हूँ। दादा के प्रत्युत्तर की प्रतीक्षा कर रहा हूँ।

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Ganesh Gani
उनकी अच्छी सेहत की कामना करता हूँ। कितना दुःखद है कि इतने सालों में कोई प्रतिनिधि संपादक तैयार नहीं कर पाए।

Sudha Arora
ज्ञान भाई स्वस्थ रहें ! इस विरासत को किन्हीं सही हाथों में वे सौंप सकते हैं पर पत्रिका बंद नहीं होनी चाहिए !

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Vivek Chaturvedi
एक गहरे दुःख की तरह यह रहस्य हम लोग लम्बे समय से अपने मन में छिपाए हुए थे…ये शायद जबलपुर के वर्तमान की अक्षमता है कि यहां ज्ञान जी की ध्वजा उठाने कोई तैयार न हो सका Ish Madhu Talwar

Akhilesh Srivastava
बहुत से लोग है जिन्हें पत्रिका की जिम्मेदारी दी जानी चाहिए.

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Amar Dalpura
वाकई बहुत दुःखद खबर है। ईश्वर से दुआ है ज्ञान जी स्वस्थ रहे और पहल को कोई अच्छा संपादक मिले। प्रतिष्ठित पत्रिका का बंद होना, बेहद दुखद है।

Virendra Yadav
‘पहल’ की भूमिका ऐतिहासिक महत्व की रही है. ज्ञान जी के स्वस्थ और सक्रिय रहने की शुभकामनायें.

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Vandana Dev Shukl
ओह , पहल ही तो बची थी जो डाक से आती थी।दिसम्बर मे ज्ञान जी ने वार्षिक शुल्क समाप्त होने की सूचना दी थी तब मैने आजीवन सदस्यता ली थी।

Swapnil Srivastava
पहल पत्रिका का बन्द होना एक दुर्घटना है । यह पत्रिका नही एक आंदोलन था । ज्ञान जी अपने स्वास्थ्य कारणों से विवश हैं । वे स्वस्थ और सक्रिय रहे ।

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Hariom Rajoria
इसे दुर्घटना की तरह नहीं देखा जाना चाहिये । कोई दूसरा करे और नाम भर की पहल बचे तो वो भी अच्छा नहीं होगा । एक पत्रिका कब तक रहेगी , पहल अपना काम कर चुकी । कोई भी प्रतिबद्ध पत्रिका हमेशा जिंदा नहीं रह सकती ।

Vijay Vishal
हिंदी पट्टी के लिए यह एक अपूरणीय क्षति होगी।

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गीता पंडित
शुभकामनाएँ स्वास्थ्य के लिए। पत्रिका बंद नहीं होनी चाहिए।

Rajesh Badal
ओह। वे फ़ैसला कर चुके हैं। यदि संसाधन है तो हम लोग संपादकीय दायित्व उठा सकते हैं।

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Ramesh Khatri
पत्रिका को ऐसे हाथों में सौप कर उन्हें मार्गदर्शन दे सकते हैं। महत्वपूर्ण पत्रिका बन्द नहीं होना चाहिए

Davinder Kaur Uppal
जिम्मेदारी का हस्तांतरण कर दें। किसी अन्य की प्रतिभा और जिम्मेदारी निभाने के संकल्प पर विश्वास तो करना ही पड़ता है। एकला चलो की जिद्द का आखरी पड़ाव आता ही है।

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Gajender Rawat
पत्रिका बन्द होना दुखद है।

Kamlesh Bhartiya
स्वस्थ रहें । यह बड़ी बात ।

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Anil Khamparia
शीघ्र स्वस्थ हों कामना। विश्वास है उनका निर्णय उचित होगा।

Poonam Singh
बहुत दुखदायी खबर सुनाई आपने. विचारहीन समय में पहल हमें हमेशा एक सम्बल देता रहा है. ज्ञान जी की अटूट निष्ठा और प्रतिबद्धता ने इसे अपरिमित विस्तार दिया . रचना और आलोचना की ऐसी पत्रिका का बऺद हो जाना साहित्य की विकासमान जीवन्तता के लिए एक अपूरणीय क्षति है. ज्ञान जी स्वस्थ और सक्रिय रहें पहल की यात्रा अविराम हो यही कामना है

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Sudarshan Vashishtha
पत्रिकाएं वैसे ही नहीं रहीं, जो हैं, वे भी बंद हो रहीं है l

Rajaram Bhadu
मुझे उन्होंने जनवरी में बता दिया था। साथ ही एक काम भी दिया था ताकि इस आखिरी अंक में मेरी उपस्थिति हो जाये। लेकिन लगता नहीं कि हो पायेगी।

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Mamta Kalia
होना तो यह चाहिए कि दो तीन युवा लेखक ,संपादक,पहल का काम संभाल कर ज्ञानजी के कंधों का भार हल्का करें।उन्होंने45 साल से यह गुरु भार अपने ऊपर उठा रखा है।साहित्यिक पत्रकारिता अखबारी पत्रकारिता से कहीं ज़्यादा समय, साधन और साधना की मांग करती है।समर्पित और सन्नद्ध ही इसका अंग बन सकते हैं

प्रेम जनमेजय
आपसे सहमत हूँ। ‘पहल’एक पाठशाला की तरह है। इसका बन्द होना एक सार्थक बौद्धिक लड़ाई का क्षतिग्रस्त होना होगा।

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Ish Madhu Talwar
दिक्कत यह कि पत्रिका तो निकाली जा सकती है, लेकिन ज्ञानजी का कोई विकल्प नहीं हो सकता।

Atma Ranjan
पहल की कमी निश्चय ही खलेगी। पहल ने दशकों से पाठकों के बीच एक दुर्लभ किस्म की व्यापक और विश्वसनीय जगह अर्जित की है। ज्ञान जी के अच्छे स्वास्थ्य के लिए शुभकामनाएं!

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किशन दाधीच
यह दुखद समाचार है । ईश जी यदि ज्ञान जी सहमत हो तो पहल को जयपुर लेलो । जहां तक ज्ञानरंजन जी के अनुभव एवम उनकी सम्बद्धता का सवाल है, उन्हें स सम्मान जोड़े रखा जा सकता है ।

Indrajeet Singh
पहल आज भी हिन्दुस्तान की श्रेष्ठ साहित्यिक पत्रिका है. इसका प्रकाशन बंद नहीं करना चाहिए. ज्ञानरंजन जी 3-4 लोगो को. मनोनीत कर दे और उनके संरक्षण और मार्गदर्शन में पहल पत्रिका निकलती रहे. बादल जी का सुझाव काबिले गौर है. लीलाधर मंडलोई जी राजेश जोशी जी सुभाष पंत जी यादवेंद्र जी राजेश बादल जी आदि इस गरिमापूर्ण भार को संभाल ले तो पत्रिका का भला होगा और सुधी पाठकों को इस पत्रिका से महरूम नहीं होना पड़ेगा.

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Mita Das
दुखद है पत्रिका का बंद होना पर सच उनका स्वास्थ्य भी 2 -3 सालों से ठीक नही है । पहले स्वास्थ्य फिर जहान

Shakeel Akhtar
अपने अकेले की दम पर जबलपुर जैसे दूर दराज के शहर से इतने सालों तक, 40 से ज्यादा तो हमें ही याद हैं, एक ऐसी पत्रिका निकालना जो देश भर में( बाहर भी) हमेशा बौद्धिक, वैचारिक हलचल मचाती रही हो का बंद होना सामान्य घटना नहीं है। कभी किसी लिखे पर इतनी चर्चा होती थी कि हिन्दी के सामान्य पाठक पूछते थे यह ‘पहल’ क्या है? प्रगतिशील लेखक संघ को ज्ञानरंजन जी से बात करना चाहिए और पहल को चलाते रहने की कोशिश करना चाहिए।

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Mita Das
100वें अंक पर भी बंद करने वाले थे । फिर 125 तक निकाल ही लिए । उनका स्वास्थ्य अब ठीक नही रहता ।

Rajesh Utsahi
यह खबर वाया गौरीनाथ जी हमारे पास भी पहुँची थी। पर हमने सोचा क्‍यों लोगों का दिल तोड़ें, अपना तो टूट ही चुका है। दरअसल हम ‘पहल’ के आजीवन ग्राहक हैं। अपना पता बदलवाने के लिए सीधे अंतिका प्रकाशन से ही सम्‍पर्क कर लिया। उन्‍होंने पता बदल दिया और कहा कि अब नए पते पर समापन अंक ही आएगा।

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Mukhar Kavita
125 वां अंक ! हिंदी की भारत में एक श्रेष्ठ पत्रिका आगे भी निकलती रहे , ईश्वर से यही प्रार्थना है ! साहित्य जगत के पुरोधाओं से भी 🙏

वीणा वत्सल सिंह
ज्ञानरंजन जी के बेहतर स्वास्थ्य के लिए प्रार्थना है।

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दुर्गाप्रसाद अग्रवाल
पहल के अवसान का यह समाचार वाकई बहुत कष्टप्रद है. लेकिन …..

Sandhya Navodita
पहल हिन्दी की उत्कृष्ट पत्रिका है। यह ज्ञानरंजन जी की साधना है। अच्छे सम्पादक बहुत हैं। पर ज्ञानरंजन जी और पहल का विकल्प कोई नज़र नहीं आता।

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Palash Biswas
यह सही है कि फल पहले की तरह दुबारा शुरू होने के बाद नहीं निकल पा रहीं है। ज्ञानजी को जानते हुए यह मानना मुश्किल है कि उनकी उम्र कोई वजह है। इतने लंबे अरसे से निकल रहिंपत्रिक को जारी रखने लायक उनका उत्तराधिकारी तैयार नहीं हो सका, यह मानना भी कठिन है। 60- 70 दशक की साहित्यिक पत्रकारिता हिंदी में खत्म होती जा रही है तो इसके वास्तविक कारणों की पहचान जरूरी है। पत्रिकाओं के चरित्र में आये परिवर्त मीडिया में परिवर्तन से ज्यादा गम्भीर है। अभी से नए सिरेवसे सम्वाद, चिंतन मंथन करके इन समस्याओं के समाधान की कोशिश नहीं हुई तो पत्रकारिता के साथ ही हिंदी साहित्य और भाषा का बेड़ा गर्क समझिए। भारत के बड़े अखबार और टीवी चैनल कोनाज भारतीय पत्रकारिता मांनेबकी गलती करते हैं लोग। भारतीय पत्रकारिता के गौरवशाली इतिहास की वड़ताल करें तो जनपदों से निकलने वाली छोटी पत्रिकाओं ने पत्रकारिता की असल भूमिका निभाई है। जनमत और जनांदोलन के पीछे हमेशा ये लघु पत्रिकाएं रही हैं, जिन्हें ज़िंदा रखना हिंदी के नाम कमाने खाने शिखर तक पहुंचने वाले लोगवाब जरूरी नही मानते। इतिहासबोध और दृष्टि वंचित ऐसी पढ़ी लिखी जमात के हाथों में देश, मनुष्य और प्रकृतिनकितनी सुरक्षित है,इस पर गम्भीरता से विचार होना चाहिए। लेकिन हमने अभिव्यक्ति के लिए खतरा उठाना छोड़ दिया है और रंग बिरंगी सत्ता में अपनी हैसियत बचाने के चक्कर में न्यनतम सम्वाद भी बंद कर दिया है। यह आत्मघाती मानसिकता निरंकुश सत्ता से भी खतरनाक है।

Manoj Mohan
पहल के बंद होने की ख़बर से यह प्रश्न का उठना लाज़िमी है कि हिंदी समाज विकल्पहीनता की शिकार हो बंद क्यों हो रहती है. ज्ञानरंजन जी ने पत्रिका को जिस ऊंचाई पर ले जाकर बंधकर रहै हैं, वहां तक किसी और पत्रिका का पहुंचना मुश्किल है…

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Katyayani Lko
ज्ञान जी स्वस्थ रहें लेकिन पत्रिका के बन्द होने की खबर ने उदास कर दिया।

Virendra Sengar
दुखद खबर! जबलपुर मैं ज्ञान जी से मिलने 1982 में गया था। कितने कम संसाधनों से वो पत्रिका निकाले थे? बहुत सहज थे ज्ञान दा। वे उन दिनों हररोज पचास से सौ पत्रों का जवाब हाथ से पोस्ट कार्ड में लिखते थे। वे महज व्यक्ति नहीं संस्था थे। पहल के पीछे कितनी तपस्या थी।

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Atul Sinha
सर। ज्ञान जी अभी उसी ऊर्जा के साथ हैं और रहेंगे। मौजूदा परिस्थितियों में फिलहाल ‘पहल’ का प्रकाशन बंद हुआ है। आज भी ज्ञानरंजन जी एक संस्था हैं।

Virendra Yadav
‘पहल’ एक पत्रिका नहीं आंदोलन थी. उपन्यास आलोचना पर मेरा पहला विस्तृत लेख ‘नवें दशक में औपन्यासिक परिदृश्य’ शीर्षक से मार्च 1998 में ‘पहल पुस्तिका’ के रूप में ज्ञानरंजन जी ने छापा था. लगभग चालीस पृष्ठों के इस लेख को लिखवाने का श्रेय ज्ञानरंजन जी को है,इसके लिए उन्होंने लगभग दो दर्जन उपन्यास भेजे और बीसों चिठ्ठियाँ लिखकर दबाव बनाया था. और छपने के पूर्व मंजूर एहतेशाम पर केन्द्रित ‘पहल पुरस्कार’ के भोपाल आयोजन में इसके संक्षिप्त रूप को आलेख के रूप में प्रस्तुत करने के लिए प्रेरित किया था. कहना चाहिए कि उपन्यास आलोचना की ओर मुझे प्रवृत्त करने में ज्ञानरंजन जी की प्रेरणा है.

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Ramendra Tripathi
पहल के पहले अंक में प्रकाशित होने का सौभाग्य मुझे भी प्राप्त है , पहल एक बार पहले भी बंद हुई , उत्तराखंड की यात्रा में मैंने व वीरेन ने पहल को पुनः प्रकाशित करने का भाई से बार बार अनुरोध किया , यह अनुरोध पूरी यात्रा में निरंतर ज़ारी ही रहा , दिल्ली से हम लोग साथ ही गये थे , हल्द्वानी में अशोक और त्रिनेत्र ने हमें जॉइन कर लिया , नैनीताल पहुँचते पहुँचते काफ़िला बहुत लम्बा हो गया , भाई ने हमारे समवेत अनुरोध का मान रखा , अद्भुत यात्रा थी और उस यात्रा की सबसे बड़ी उपलब्धि थी पहल का भाई द्वारा पुनर्प्रकाशन!

Marinder Mishra
पहल के साहित्यिक यात्रा की छाप सुधीजनों के मन मस्तिष्क में लम्बे समय तक अंकित रहेगी।

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Mamta Kalia
सुभाष राय जी आपने बहुत सुविचारित आलेख लिखा। ज्ञान जी के साथ समाप्त जैसा कोई शब्द कभी प्रयोग हो ही नहीं सकता। वे स्वयं ऊर्जावान रहते हैं और दूसरों को भी स्फूर्त रखते हैं

Swapnil Srivastava
पहल सिर्फ पत्रिका नही एक आंदोलन है। उसमें छपने का मतलब रातोरात स्टार हो जाना था। ज्ञान जी का मेरे प्रति अनुराग रहा है, वे मुझे 80 से ही प्रकाशित करते रहे। वह स्वस्थ रहें।

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Rajkeshwar Singh
जो भी एक बेहतर साहित्य, बेहतर जीवन, बेहतर देश के हिमायती हैं, उन्हें दुख होनी लाज़िमी है।

Virendra Sarang
यह खबर अच्छी नहीं , इसका रास्ता निकालना चाहिए, इतने बड़े कवि कथाकार है, पैसे वाले हैं, विद्वान भी, तो क्या कर रहे है । एक पहल को बन्द होने से बचा तो सकते हैं । सभी साहित्यकार अपनी कमाई का एक प्रतिशत दे और पहल को बचा लें ।

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Buddhi Nath Mishra
पंकज जी ने सही कहा है। 2007-8 के आसपास ज्ञान भाई ने स्वास्थ्य और अर्थ संकट के कारण ‘पहल’ को बंद करना चाहा था।तब मैंने ओएनजीसी का नियमित विज्ञापन देकर उसे चलाने का प्रस्ताव दिया था,जिसे स्नेहवश उन्होंने मान लिया और मिट्टी की गाड़ी चल पड़ी। हां, प्रकाशन की व्यवस्था संबंधी कुछ फेरबदल उन्होंने की थी। अंतिका प्रकाशन से भी ‘पहल’ मिलती रही थी।एक साल से कोरोना ने लगभग सभी पत्रिकाओं को हताहत किया। यह भी हुई।
अब मैं ओएनजीसी से रिटायर हो गया हूं लेकिन बाजू में ताकत है।सभी चाहेंगे तो जलती रहेगी आगे भी मशाल।

Dayal Nimodia
पहल एक सामाजिक , साहित्यक , सांस्कृतिक आंदोलन है जिसकी 45 वर्ष पूर्व पहल आदरणीय ज्ञानरंजन जी ने की थी , बीच मे एक पहले भी इसके बंद होने की सूचना आई थी किंतु यह चलती रही ,अब फिर सुनने में आ रहा है काश एक बार फिर यह सूचना स्थगित हो जाए , वैसे इतनी साहित्यक पत्रिकाओं में यह अपने आपमे एक अलग मुकाम रखती रही है ,धीरे धीरे पत्रिकाएं समय के साथ समझौता कर गैर व्यावसायिक से व्यावसायिक होती रही हैं .यदि इसी में ज्ञान दा को खुशी मिलती है तो हम उनके निर्णय के साथ हैं .

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Tarun Nishant
दुखद है। लेकिन हम किस किस का दुख मनाएं। आज तो पूरा साहित्यिक परिदृश्य ही कचोट रहा है; साहित्यकारों की संख्या बढ़ रही है, संवेदना का स्तर घट रहा है।

Nand Bhardwaj
समकालीन हिन्‍दी लेखन में ‘पहल’ की ऐतिहासिक भूमिका हमेशा याद रहेगी। यह ज्ञानरंजन जी का ही जज्‍बा था कि उसे इतने लंबे समय तक जारी रख सके। ज्ञान जी के स्‍वस्‍थ और दीर्घायु जीवन की शुभकामनाओं सहित।

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Anwarshamim
‘पहल’ के बंद होने की सूचना से मैं हतप्रभ हूँ।’पहल’ जैसी ज़रूरी पत्रिका की कमी बहुत खलेगी।आदरणीय ज्ञानरंजन जी दीर्घायु हों। मेरी शुभकामनाएं।

Atul Sinha
बेशक ‘पहल’ ने जो साहित्यिक पहल की वह ऐतिहासिक दस्तावेज़ की तरह है। जाहिर है आज के दौर में यह कर पाना आसान नहीं है। उस दौर में भी आसान नहीं था लेकिन अब तो पूरा परिदृश्य ही बदल गया है। ज्ञान जी की पहल हमेशा जीवंत रहेगी किसी न किसी रूप में।

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Pratap Dixit
दु:खद ख़बर। बहुत पहले इसमें छपी रचना और ज्ञान जी का रचना के विषय, कुछ बदलाव, कारण के सुझाव का लंबा पत्र मेरी धरोहर रहा था। पत्रिका बंद होना, केवल पत्रिका नहीं, एक परंपरा, युग का अवसान है।

Rajwanti Mann
यह खबर विस्मित करने वाली है । पहल हमेशा हमारे साथ रहेगी । आपने बहुत खूबसूरत लिखा …

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Mustafa Khan
इस ख़बर को ठीक नहीं कहा जा सकता,भले ही मैं इसे नियमित कभी नहीं पढ़ सका । पर देश की एक से बढ़कर एक साहित्यिक पत्रिकाओं की भीड़ में ,पहल,ए फेस इन द क्राउड रही । ज्ञानरंजन..जबलपुर नाम साथ रहा एक दूसरे के पर्याय की तरह ।कोई तो जारी रखे,पुनः पहल जरूर करे..

Krishna Kumar Sharma
अब ऐसी ” पहल ” शायद ही कोई कर सके । लोगों को इसे बंद होने से बचाना चाहिए । लघु पत्रिका आंदोलन की सबसे तेज धार थी ये ।

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Arvind Tiwari
ओह !दुखद।ज्ञानरंजन जी और पहल एक दूसरे के पर्याय कहे जाते हैं।पहल ने कितने रचनाकार दिए,यह इतिहास बन गया है।

Sharad Alok
पत्रिकाओं के बन्द होने का एक कारण शायद यह भी है कि सम्पादक ने सही समय पर उसे समर्थ नये सम्पादक को नहीं सौंपा और उससे चिपके रहे। पहल एक अच्छी पत्रिका है।

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अनन्त आलोक
पहल वाकई एक मानक था और बिना मानक कोई लक्ष्य नहीं होता . मानक को बने रहना ही चाहिए

Apramaya Mishra
अरे….किसी को इसके सतत प्रकाशन के लिए आगे आना चाहिए…

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गिरीश पंकज
पहले एक बार पहले भी बंद हो चुकी है। दोबारा शुरू होगी मुझे लगता है कोई न कोई ताकतवर हाथ इसे फिर संभाल लेगा।

Bishwajit Raha
यूँ हर पत्रिका वैचारिक होने का दावा करती है। पर पहल सही मायने में वैचारिक पत्रिका रही है। इसका बंद होना दुखद है।

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गीता पंडित
जाने क्यों मन स्वीकार नहीं कर पा रहा। दुखद होगा लेकिन सकारात्मक सोच के साथ यह निर्णय स्वीकार करना होगा। अशेष शुभकामनाएँ ज्ञानरंजन जी को 🙏

Jai Narain Budhwar
कालचक्र है।सब बदलता है।कमी बहुत खलेगी।

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Rakesh Shukla
दुःखद! मेरे पास ‘पहल’ के अनेक मूल्यवान अंक सुरक्षित हैं।

Jiwan Shukla
ज्ञानरंजन जी ने जो पहल की वो कोई क्रांतद्रस्टा ही कर सकता था. ये बात और है मैंने कभी उनसे जुड़ने की चेस्टा नहीं की किन्तु उनकी “पहल “की वैचारिकी का प्रशंशक अवश्य रहा. वो पहल कर अग्रगणी तो होहींचुके हैं बस उनके द्वारा की गईं पहल हर नये रास्ते का आमुख बने, यह अवश्य चाहता हूँ.

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Jeevesh Prabhakar
मुझे नही लगता बंद होगी, पिछली बार की तरह कुछ समय बाद नई पहल फिर नए तरह से नई सदस्यता के साथ शुरू होगी ऐसी उम्मीद है

Prriya Raj
“पहल” जैसी एक अच्छी पत्रिका को बंद नहीं होना चाहिए. यदि यह पत्रिका पाठक संख्या (subscription) के आधार पर चल सकती है तो एक नई संपादक-प्रकाशक की टीम इसे आगे बढ़ा सकती है. जो भी हो तुरंत करें ताकि प्रकाशन में ग़ैर न आए! पहल प्रिंट व डिजिटल दोनों पर चल सकती है. पहल के इवेंट भी हो सकते हैँ.

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Dhananjay Singh
‘पहल’ के बंद होने की सूचना उदास कर गयी।

Anand Gopal Chaturvedi
किसी भी पत्रिका और प्रकाशन का बंद होना बहुत दुखद होता है,पहल ने तो अपना एक मुकाम बना रखा था।

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Jai Prakash Pandey
पहल की ज्ञान गंगा से आज भले ही अनेक धाराएं प्रवाहित हो रही है ।किंतु पहल की संश्लिष्ट चेतना में एक मूलवर्ती धारा है जो खुद पहल ही है।इसका प्रकाशन बंद होना, उस मूलवर्ती धारा पर विराम लग जाना है ।यह बौद्धिक जगत के समक्ष यक्ष प्रश्न प्रस्तुत करती है

Umanath Lal Das
इसके पहले भी सूचना आई थी पहल के स्थगन की तो झटका सा लगा। अंक 91 से उसकी वापसी ने तो जैसे जीवन ही दिया था। अब नहीं लगता कि कोई और गौरीनाथ आकर उनके सफर को गति दे … भारी अफसोस अवसादकारी …. प्रतिभा की तलाश और उसका पोषण-संरक्षण जो कि एक लेखक संगठन का दायित्व बनता है, ज्ञान दा ने अपने तईं इसे धर्म की तरह निबाहा। बगैर किसी अपेक्षा के। दूसरी पारी में जब पहल में अशोक वाजपेयी का साक्षात्कार छपा तो लगा कि लोग वाजपेयी का एजेंट घोषित कर उन्हें कच्चा चबा जाएंगे। लेकिन रचनाधर्मिता का तकाजा और जवाबदेही निभाने के जोखिमों को वे भलीभांति जानते थे। ज्ञान दा को गरियाते ये लोग भूल गये थे कि पहल हमेशा जीवन विरोधी रचनावृत्तियों को लेकर सदैव मुखर आलोचक के भाव में रही। “एक पतंग अनंत में” की आलोचना में अशोक वाजपेयी के काव्य विवेक और जीवनदृष्टि की पहल में बहुत पहले जमकर धज्जी उड़ाई गयी थी। तो वाजपेयी का साक्षात्कार उनका पक्षपोषण नहीं, बल्कि पत्रकारिता के एथिक्स के मुताबिक उन्हें अपना पक्ष रखने का मौका दिया गया था। और इसी तरह और भी साक्षात्कार छापे गये। वह इसीलिए एक संस्थान हैं। और इसीलिए अहंमन्यताओं के पोषकों की नजर में उनका होन खटकता रहा। मुद्रा राक्षस, नामवर, राजेंद्र यादव ने बेहद आक्रामक और नाशकारी अभियान चलाया था। और वह अकेले जूझ रहे थे। जिन किसी को भी उन्होंने मौके दिए, रातोंरात हीरो बनाया सबके सब किनारे दर्शक बनकर खड़े रहे। मैंने कइयों से संपर्क भी किया, पर जबान सेलो टेप से सिली थी। आलोकधन्वा, अरुण कमल, राजेश जोशी, उदय प्रकाश, मदन कश्यप, आदि-इत्यादि की स्याही इस नाम पर सूख चुकी थी। ये सब ज्ञान दा के चहेते थे और आज भी हैं …. लेकिन आत्ममुग्ध हिंदी पट्टी की हिंसक निस्संगता बहुत घृणित दिखने लगी थी ..

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Kaushal Pandey
आदरणीय ज्ञान जी की कहानी ” फेंस के इधर और उधर ” 1976 – 77 में हमारे M. A. के पाठयक्रम में थी l बाद में ज्ञान जी को खूब पढ़ा l “पहल” का पाठक बना l पहल से प्रभावित होकर आकाशवाणी मुंबई में मेरे एक हिन्दी प्रेमी साथी कर्मी ने अपना उपनाम ही पहल रखा l उन्हें हम श्याम पहल के नाम से जानते थे l ज्ञान जी पर पाखी के विशेषांक ने उन्हें सम्पूर्णता में जानने- समझने का अवसर दिया l पाठकों की उदासीनता के चलते जब तमाम साधन- संपन्न पत्रिकाएँ हाथ खड़े कर रहीं है, ऐसे में पहल का बंद होना कोई आश्चर्य की बात नहिं है l हम इसके योगदान को याद रखें यही क्या कण है l एक लंबे समय तक इसे प्रकाशित करने के लिए ज्ञान जी के इस योगदान को प्रणाम l

संजीव कुमार आलोक
हर साहित्यकार प्रतिक्रिया में खेद प्रकट कर रहे हैं। लेकिन कोई भी प्रकाशन में अपना सहयोग प्रदान करने की बात नहीं करते हैं। हर साहित्यकार की इच्छा पत्रिका में अपनी रचना प्रकाशित कराने की होती है। लेकिन शायद ही कुछ साहित्यकार ऐसे होते हैं जो पत्रिका की सदस्यता ग्रहण करते हैं। बस, साहित्यकार सोशल मीडिया पर अपनी रचनाएं साझा करते रहिए और धीरे धीरे साहित्यिक पत्रिकाओं का प्रकाशन स्थगित होता रहेगा। बस, अपना खेद प्रकट कर दीजिएगा।

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Devesh Tripathi
‘पहल’ पर पहल हर कोई नहीं कर सकता है। संस्कारधानी के अपनत्व का एहसास है ‘पहल’

Sanjeev Jaiswal Sanjay
अत्यंत दुखद समाचार। पहले जैसी पत्रिका का बंद होना साहित्य जगत के लिए अपूरणीय क्षति होगी

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2 Comments

2 Comments

  1. Shashank Jain

    June 5, 2021 at 7:36 am

    It’s a matter of grave concern for hindi literature. Pahal smells of Gyanranjan ji’s sweat and blood. Probably the most difficult hindi magazine one can aspire to get published in. But unfortunately there is No-one who can immediately take it forward. When hindi literature was divided into Delhi and rest of india by govt undertakings, pahal stood out as a stepmother-body for all hindi writings and proved out to be better than hindi’s so called real mother bodies. A big loss for hindi.
    Gyanranjan ji should himself and this responsibility over to someone. Pahal cannot be re-started by just anybody. It takes the grit to deskin yourself everyday to publish a magazine like pahal.

  2. DHRUBA MUKHERJEE

    January 18, 2022 at 2:38 pm

    मैं जब १९७९ में जर्नलिज्म का कोर्स कर रहा था जबलपुर विश्वविद्यालय से,उस समय मुझे ज्ञान रंजन जी से बहुत कुछ सीखने को मिला था।
    मैं हितवाद से भी जुड़ा था जिसका श्री विजय मोहन तिवारी जी संपादक थे। ज्ञान रंजन जी जमीन से जुड़े इंसान हैं। बाद में मैं स्टेट बैंक में नौकरी में लग गया और अपना लेखन भी जारी रक्खा और समय समय पर ज्ञान रंजन जी से टिप्स लेता रहा। मैं उनका दीर्घायु होने का ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ
    कुमार ध्रुव
    9009990322

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