अनिल भास्कर-
उफ्फ!! सुबह-सुबह एक मनहूस खबर ने हिलाकर रख दिया है। जमशेदपुर में हमारी रिपोर्टिंग टीम के साथी रहे शमीम नहीं रहे। दिल का दौरा ऐसा पड़ा कि बेजान करके छोड़ा। एक निहायत संवेदनशील कर्मोपासक का यूं असमय चले जाना स्तब्धकारी है। हृदयाघात निश्चित तौर पर एक आंतरिक विफलता है लेकिन इसके कारण कई बार बाह्य हो सकते हैं।
शमीम के मामले में जो जानकारी मिल रही है वह पेशेगत दवाब की तरफ इशारा करती है। बड़ा सवाल कि आखिर जनसरोकारों की पैरोकारी का यह पावन पेशा क्या जानलेवा बन गया है? क्या न्यूजरूम में तनाव का ग्राफ इतना बढ़ जा रहा है कि धमनियों का ग्राफ थम जाए? सवाल और भी बहुत हैं जो चीख रहे हैं।
हम यह सोचने को विवश हो चले हैं कि क्या सच और सिर्फ सच के उद्घाटन की प्राथमिक और अनिवार्य नीतियों वाला मीडिया अब जनकल्याणकारी वैचारिक विमर्श का केंद्र न रहकर सिर्फ मुनाफामूलक व्यावसायिक प्रतिद्वन्द्विता का अखाड़ा बन गया है? क्या इस अखाड़े में सत्यान्वेषण की बजाय सिर्फ प्रसार और टीआरपी की होड़ जीतने के दांवपेच आजमाए जाने लगे हैं? क्या पत्रकारों पर पत्रकारिता के नैसर्गिक उपादानों को छोड़कर तमाशाई कौशल में महारत हासिल करने का प्रत्यक्ष और परोक्ष दबाव डाला जा रहा है?
क्या मुनाफाखोरी की इन नवसृजित-विकसित फैक्ट्रियों में मानवीय मूल्यों को इस हद तक गला दिया गया है कि वहां सिर्फ दो नस्लें- शोषक और शोषित रह गई हैं? क्या इन फैक्ट्रियों में कर्मयोगियों के मौलिक अधिकार भी दामुल चढ़ चुके हैं? यदि मैं तीन दशकों में अर्जित अपने अनुभवों की पोटली खोलूं तो जवाब निकलता है- हां।
शमीम ने असमय आंखें क्यों मूंद लीं, पता नहीं। मग़र मीडिया संस्थानों ने अपने गुणधर्म से क्यों आंखें मूंद ली हैं, यह कोई पहेली नहीं। शीशे की तरह साफ है। बाजार बटोरने की होड़ में पहले ये संस्थान सत्ता और विपक्ष के एजेंडावाहक-पोषक बने और अब धीरे-धीरे न्यूज फैक्ट्री में तब्दील हो रहे, जहां काफी हद तक दर्शकों-पाठकों के ध्यानाकर्षण के लिए खबरें गढ़ी जा रहीं। जनपक्षधरता को हाशिये पर छोड़ तमाम घटनाक्रम अपने-अपने एजेंडे और व्यावसायिक हितों के खांचे में पेश किया जा रहा। कंटेंट की कंडीशनिंग हो रही है।
हैरानी यह कि वे खुद भी इस सच से वाकिफ हैं कि तात्कालिक लाभ का यह प्रयोग उनकी विश्वसनीयता का क्षरण कर रहा है, उन्हें सन्देह के कटघरे में खड़ा कर रहा है। दूसरी तरफ यह नई कार्यशैली अधिकतर मीडियाकर्मियों की मौलिक विचारधारा से भी मेल नहीं खाती। वे वह कर रहे जिसे करने को उनका दिल नहीं चाहता। मगर वे विवश हैं। आजीविका की असुरक्षा और अनुकूल विकल्पों की अनुपलब्धता के बीच अपने दिल की आवाज़ को अनसुना करने का अभिशाप झेल रहे हैं। यह अभिशाप उन्हें खिन्नता और तनाव के दलदल में धकेल रहा है। उनके लिए असाध्य व्याधियों, अकाल मृत्यु की परिस्थितियां बुन रहा है।
यह मीडिया उद्योग और मीडियाकर्मियों-दोनों के लिए गंभीर खतरे की घंटी है। इसे गंभीरता से सुना जाना मौजूदा तकाज़ा है। आज जब सोशल मीडिया ने सच का संकट खड़ा किया है तो अखबार और टीवी चैनलों की जिम्मेदारी बढ़ी है। इन्हें अन्यान्य स्रोतों से उपजी सूचनाओं के पुष्टिकर्ता के तौर पर खुद को मजबूत करना ही होगा। साथ ही उन स्तंभों को भी आर्थिक मजबूती के साथ संरक्षण की गारंटी देनी होगी जिस पर उसका कार्याधार अलम्बित है। तभी उनका वजूद बचेगा और उन्नयन की गुंजाइश भी।
शमीम को विनम्र श्रद्धांजलि। ईश्वर हुतात्मा को शांति और परिजनों को यह पीड़ा सहने की शक्ति दे।
विजय सिंह
March 3, 2022 at 11:11 pm
आज ही एक मित्र से शमीम के निधन का समाचार मिला। लगभग तीन दशक से हम एक दूसरे से परिचित थे। जब कभी भी मुलाकात हुई सौम्यता ,विनम्रता ,सहजता और लिहाज हमेशा उनके व्यवहार में सम्मिलित रहे। बहुत ही दुखद है,असमय शमीम का चला जाना।
ईश्वर उनकी आत्मा को शांति दें और उनके परिवार को इस कठिन दुःख को सहने की शक्ति प्रदान करें।