कल पीकू देखी…कान्स्टीपेशन, लूज़-मोशन…ऐसे, शब्द जिनका हिंदी शब्द इस्तेमाल करने में भी हमें हिचक महसूस होती है, शुजीत सरकार ने उसे ही केंद्र बनाकर फिल्म बना डाली…एक ऐसी फिल्म जो आपको किसी एक मोशन में नहीं रखती है, बल्कि आपके भीतर पल रहे सैकड़ों इमोशन्स से आपको जोड़ती है.
फिल्म में बाप-बेटी के प्यार के ढेरों आयाम दिखाए गए हैं. पर निर्देशक ने बड़ी ही खूबसूरती से नारी सशक्तिकरण की बात को भी रखा है.
मिस्टर भास्कर भटटाचार्य फिल्म में कम से कम दो-तीन बार कहते हैं, नहीं-नहीं उसको बोलने दो…इतना पढ़ी-लिखी औरत को बोलने से रोकना नहीं चाहिए. फ्रस्टेशन इस नॉट गुड फार मोशन…
एक ऐसी फिल्म जिसके इतने दिन बाद बनने का अफ़सोस कर रही हूं. सोच रही हूं की ये फिल्म पहले बन जाती और मैं देख पाती तो जि़न्दगी की उस भूल को सुधार लेती…
आज पछतावा हो रहा है…कुछ साल पहले तक, जब अम्मा यानी दादी जि़ंदा थीं तो उनसे इसी मोशन की बात पर कितनी बार लड़ाई हो जाती थी.
उस समय स्कूल में पढ़ा करती थी. मेरा कहना होता था की बाबा-अम्मा को तो घर पर ही रहना है वो बाद में भी वाशरूम जा सकते हैं…पर बाबा बागबान के अमिताभ बच्चन जैसे हैं. सर्दी हो या गर्मी बाबा सुबह 7 बजे तक नहा-धोकर तैयार हो जाते हैं. आज भी, 90 की उम्र पार करने के बाद भी.
स्कूल मेरा होता था पर मुझसे पहले बाबा ही तैयार हो जाते थे. लेकिन उनके वाशरूम से आने के बाद मैं कभी भी सीधे वाशरूम नहीं जाती थी. अम्मा को पकड़ कर ले आती और कहती, जाओ पहले वाशरूम देखो, साफ़ होगा तो ही मैं जाउंगी.
ये रोज़ का किस्सा होता था. अम्मा कुछ नहीं कहती थी और चुपचाप वाशरूम देखकर आ जाती और कहती, ‘जा साफ ह…’
इसके बाद मैं जाती…कल पीकू देखी तो कितनी ही पुरानी बातों पर पछतावा होने के साथ दुख हुआ. कितना परेशान किया मैंने. पर अम्मा ने कभी भी कुछ नहीं कहा…
घरवाले कहते हैं, जब मैं पैदा हुई थी तो मुझे दस्त लग गई थी. अम्मा ही उस वक्त मेरे पास थी और 24 घंटे मेरी सेवा में लगी रहती थी. बाबा के लिए मैं क्या हूं, ये सिर्फ वो और मैं जानती हूं. वो अक्सर कहते हैं, नेहा तुम पर बहुत भरोसा है. मेरे बाद सब देखना…इतना बहुत है, समझने के लिए की मैं उनका भरोसा हूं.
बाबा हर उस वक्त में मेरे साथ खड़े रहे, जब कोई नहीं था. एक बुजुर्ग कितना बड़ा सहारा होता है, ये अम्मा के जाने के बाद पता चल रहा है.
पीकू में जो कुछ दिखाया गया, वो कहीं न कहीं हम सभी के मन में अपने मां-पिता, दादी-बाबा के लिए होता है. पर अमिताभ का हर बात पर ओवर-रिएक्ट करना, अटेंशन चाहना और पीकू का सबकुछ इतने अच्छे से संभालना, ग्लानि से भर रहा है…बार-बार सोच रही हूं, मैंने उस वक्त ऐसा सब क्यों किया…
काश पीकू, तुम थोड़ा पहले आ जाती. जो चीज़े देखकर और जानकर भी मैं अनदेखा-अनसुना कर रही थी, तुमसे मिलकर शायद वो न करती…
भूमिका रॉय संपर्क : [email protected], Blog Link : ब्लॉग बतकुचनी